अमरूद की सघन बागवानी (हाई डैनिसिटी आर्चडिंग/एच डी पी) उच्च उत्पादकता के साथ उच्च गुणवत्तायुक्त अमरूद उत्पादन की पद्धति है। जिसमें अमरूद की परम्परागत दूरी 6 से 8 मी के मुकाबले कम दूरी पर पौधे लगाये जाते हैं। आज हमारे देश के भिन्न-भिन्न भागों में बड़ी संख्या में अमरूद के बागवान इस पद्धति को अपनाकर लाभ कमा रहे हैं।
अमरूद आम के साथ दस साल के फसल चक्र में इन्टरक्रापिंग (अन्तः शस्यन) के लिए बहुत अच्छा फल है। अपनी बहुउपयोगिता एवं अपने उत्तम पौष्टिक गुणों के कारण अमरूद आज सेब से भी अधिक लोकप्रिय होता जा रहा है।
अमरूद को लगभग हर प्रकार की भूमियों में उगाया जा सकता है। ऊसर तथा रेतीली भूमियों के लिए बहुत अच्छा फल वृक्ष है परन्तु गुणवत्ता पूर्ण उत्पादन के लिए उपजाऊ बलुई दोमट भूमि अच्छी रहती है।
अमरूद को उष्ण तथा उपोष्ण दोनों प्रकार की जलवायु में सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है।
पंत प्रभात, सरदार (लखनऊ-49), स्वेता, ललित, संगम ।
जुलाई से सितम्बर। सिंचाई की उचित व्यवस्था की स्थिति में फरवरी-मार्च में भी पौधरोपण कर सकते हैं।
अमरूद में सामान्यतः पेड़ से पेड की दूरी 6 से 8 मी. तक रखी जाती है। पन्तनगर विश्वविद्यालय के अनुसंधान केन्द्र पत्थरचट्टा पर प्रयोगों द्वारा देखा गया है कि यदि अमरूद के पौधों को वर्गाकार विधि में 4 मी. ×4 मी. की दूरी पर लगाया जाये तथा कांट-छांट द्वारा पौधों को छोटा रखा जाये तो शुरु के 6-7 वर्षों तक अच्छा उत्पादन मिलता है। वर्गाकार विधि के अलावा अमरूद में देाहरी कतार पद्धति (डबल रो विधि) से शुरु के वर्षों से ही अच्छा उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है जिसमें 4 मी0×4 मी0 की दो कतारों के पश्चात 8 मीटर की दूरी छोड़ते हैं।
यदि अमरूद में समयानुसार कांट-छांट की प्रक्रिया अपना ली जाये तथा कांट-छांट द्वारा पेड़ों का आकार नियन्त्रित कर लिया जाये तो अमरूद की सघन बागवानी से परम्परागत पद्धति की अपेक्षा बहुत ज्यादा मात्रा में उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। केन्द्रीय उपोष्ण बागवानी संस्थान, रहमान खेड़ा, लखनऊ में 30×1.5 मी. (2222 पेड़/हे.), 3.0×3.0 (1111 पेड़/हे.), 3.0×60 मी0 (555 पेड़/हे.) तथा 6.0×60 (277 पेड़/हे.) की दूरी लेकर अमरूद के परीक्षण किये गये जिसमें 8 वर्ष बाद 60×3.0 मी. की दूरी पर 160 किलो प्रति पेड़ जबकि 6 .0×60 मीटर की दूरी पर 124 किलो प्रति पेड़ पैदावार प्राप्त की गयी। अमरूद की सघन बागवानी के साथ पेड़ों की कांट-छांट द्वारा पेड़ों के आकार को नियंत्रित करके 60×60 मी. की दूरी पर 240 कु/हे.की तुलना में 30×600मी. की दूरी पर 471 कु./हे. अमरूद की पैदावार प्राप्त की गयी। उत्तम पैदावार के कारण अमरूद उत्पादक द्वारा अमरूद उत्पादन की यह तकनीकी पूरे देश में अपनायी जा रही है।
केन्द्रीय उपोष्ण बागवानी, संस्थान, रहमानखेड़ा, लखनऊ में अमरूद में ही अति सघन बागवानी (मीड आर्चडिंग) पर भी परीक्षण किये गये। इस पद्धति के अन्तर्गत 10×20 मी की दूरी पर प्रति हेक्टर 5000 पौधे लगाये। इसकी केनॉपी (आकार/ढांचा) का प्रबन्धन नियमित कटाई-छटांई द्वारा किया जाता है, इसमें
गडढ़े खोदने से पहले खेत की दो गहरी जुताई (आर-पार) अवश्य करनी चाहिए। इसके बाद आवश्यकतानुसार हैरो करके खेत की लेवलिंग करनी चाहिए। मई-जून माह में मानसून से पहले खेत में 0.6× 0. 6x06 मीटर के गडढ़े बना लें। गडढ़े बनाने के 15-20 दिन बाद प्रत्येक गड़ढ़े की मिट्टी में 20-25 किलोग्राम खूब सड़ी गोबर की खाद, 50-100 ग्राम एन.पी.के. तथा 50 ग्राम लिंडेन मिलाकर भरना चाहिए। गड्ढ़ा इतना भरें कि वह भूमितल से 20-25 सेमी ऊंचा हो जाये। गडढ़ा भरने के बाद एक-दो बरसात होने के बाद गड़ढ़े के बीचो-बीच छेद बनाकर पौधे लगाये जायें। पौधे शाम के समय या बरसात के दिन लगाये जाये तो ज्यादा अच्छा रहता है।
पन्तनगर विश्वविद्यालय में किये गये परीक्षणों के आधार पर निम्न तालिका के आधार पर पौधों को खाद एवं उर्वरक दिये जाने चाहिए।
तालिका - 2 : अमरूद के लिए प्रति पेड़ प्रति वर्ष खाद एवं उर्वरकों की मात्रा
पौधों की आयु (वर्ष में) |
गोबर की खाद (किग्रा) |
नाइट्रोजन (ग्राम) |
फास्फोरस (ग्राम) |
पोटाश (ग्राम) |
1 |
10 |
75 |
65 |
50 |
2 |
20 |
150 |
130 |
100 |
3 |
30 |
225 |
195 |
150 |
4 |
40 |
300 |
260 |
200 |
5 |
50 |
375 |
325 |
250 |
6 वर्ष और अधिक |
60 |
450 |
400 |
300 |
सघन बागवानी पद्धति में कुछ कार्य करने पड़ते हैं जैसे पौधों का आकार नियंत्रित किया जाता है। पेड़ों की काट-छांटकर करके इसकी ऊँचाई भी नियंत्रित की जाती है। अमरूद में कांट-छांट इसकी पैदावार तथा फलों की गुणवत्ता को बढ़ाती है। अमरूद प्रदान करने के साथ- साथ पेड़ों को आकार देने वाली इसके लिए आरम्भ में मुख्य तने पर जमीन से लगभग आधा मीटर की ऊंचाई तक कोई शाखा नहीं होनी चाहिए इसके ऊपर मुख्य तने से 3 या 4 शाखाओं को चारो ओर बढ़ने दिया जाता है। बाद में यहीं शाखायें मुख्य शाखें बनकर पेड़ को आकार प्रदान करती है। इसमें पेड़ को बीच से खुला रखते हैं। अमरूद में फरवरी-मार्च का महीन समान्य कांट-छांट के लिए ज्यादा उपयुक्त रहता है। वर्षा ऋतु में कांट-छांट का कार्य नहीं करना चाहिए।
अमरूद में साधारणतः वर्षा ऋतु की फसलें सबसे अधिक होती है जिसमें 50 प्रतिशत से अधिक फल रोगग्रस्त होकर, गलकर, फटकर, तथा कीटों के प्रकोप से खराब हो जाता है। वर्षा ऋतु की फसल को शरद ऋतु की फसल में परिवर्तित करके (बहार नियन्त्रित करके) फलों को ज्यादा गुणवत्तापूर्ण तथा स्वादिष्ट बनाया जा सकता है। इससे फल खराब नहीं होते तथा अधिक कीमत पर बिकते हैं। अमरूद में बहार नियन्त्रण की कई विधियां
1.फल-फूलों को हाथ से तोड़ना
अप्रैल-मई में जब 50 प्रतिशत फूल खिल चुके हो तो पेड़ के समस्त फूलों एवं फलों को हाथ से तोड़ दे। 15 दिन बाद यह कार्य दोबारा करते हैं इस विधि में श्रम अधिक लगता है
2.यूरिया के छिड़काव द्वारा
इसमें यूरिया के 10-15 प्रतिशत घोल के दो छिड़काव (15 दिन के अन्तर से अप्रैल-मई माह में करने से वर्षा ऋतु की फसल कम हो जाती है और जाड़े की बढ़ जाती है। तराई के क्षेत्रों में यह विधि सफल नहीं है।
3.नैफ्थलीन एसीटिक अम्ल (एन.ए.ए.) द्वारा
अप्रैल-मई माह में जबकि 50 प्रतिशत फूल खिल चुके हो, एन.ए.ए. (600-800 पीपीएम) के घोल के दो छिड़काव (15 दिन के अन्तर पर) करने से वर्षा ऋतु की फसल काफी कम हो जाती है।
4.पत्ती कृन्तन द्वारा
इसमें अप्रैल के अन्तिम सप्ताह से मई के दूसरे सप्ताह के बीच पेड़ की समस्त नयी शाखाओं के अग्रभाग को सिकेटियर से इस प्रकार काटते हैं कि उसमें एक जोड़ा पत्ती छूटी रहे जिससे वर्षा ऋतु की फसल रूक जात तथा जाड़ों की अच्छी फसल मिल जाती है। बहार नियन्त्रण की कोई एक उपयुक्त विधि अपनाकर अमरूद के बागवान अधिक लाभ कमा सकते हैं।
यद्यपि तीन वर्ष के अमरूद के पेड़ों से सामान्यतः 75-100 फल प्रति पेड़ मिलना शुरु हो जाता है तथा छ: C अमरूद के पूर्ण विकसित पेड़ से वर्ष भर में 100-125 किलोग्राम प्रति पेड़ तक उपज मिल जाती है। शरद ऋतु में अमरूद के फलों को अखबार के कागज में लपेटकर गत्ते या लकड़ी की पेटी में भरकर दूर के बाजारों में भेजकर अधिक लाभ कमाया जा सकता है।
स्त्रोत: कृषि विज्ञान केंद्र,नगीना,बिजनौर, उत्तरप्रदेश ।
अंतिम बार संशोधित : 3/4/2020
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