टिशु कल्चर तकनीक से तैयार किस्में – G – 9, भूसावाली, बहराई।
केला उष्ण जलवायु का पौधा है, तथा गर्म और आर्द्र वातावरण में भरपूर उत्पादन देता है। अधिकतम तापक्रम 350 – 460 C होना आवश्यक है। न्यूनतम तापक्रम 50 – 160 C कम नहीं होना चाहिए। मई और जून के महीने में तेज गर्म हवाओं तथा दिसम्बर जनवरी में शीत लहर से पौधा मर जाता है। सम तापक्रम वाले क्षेत्र जहाँ पर वायु में पयार्प्त आर्द्रता रहती है अधिक उपयुक्त माने जाते हैं। नदी, झील, तालाब आदि जलाश्यों के आस – पास केला अच्छी उपज देता है।
जल - धारण क्षमता वाली किंतु उचित जल –निकास वाली भूमि उपयुक्त है। भूमि में जीवांश की मात्रा भी अधिक रहनी चाहिए। भूमि में जल भरा रहने से प्रकंद सड़ जाता है। चिकनी तथा भारी मिट्टी उपयुक्त नहीं मानी जाती है। केला की जड़ें भूमि में अधिक गहराई तक नहीं जाती है, इसलिए भूमि का उपजाऊ होना आवश्यक है।
ऊंची जातियों के पौधे 3X2 मी. 2X1 मी. तथा बौनी जातियों के लिए 1 मी. की. दूरी पर लगाना चाहिए। पौध रोपण के लिए 50X50X50 से. मी. (लंबा, चौड़ा और गहरा) गड्ढा तैयार कर उसमें उपयुक्त मात्रा में खाद और उर्वरक देना चाहिए। दीमक से बचाव के लिए 25 ग्राम एल्ड्रेक्स चूर्ण 5 प्रतिशत या 2 किलो नीम की खली प्रति गड्ढा मिला दें। पौध रोपण का उचित समय वर्षा ऋतु के आरंभ में अथवा फरवरी – मार्च में होता है। सकर और प्रकंद रोपित करने से पहले 1 प्रतिशत बोर्डों मिश्रण के घोल में डुबो लेना चाहिए।
खाद 20 किलो, नाइट्रोजन 200 ग्राम, फास्फोरस की मात्रा पौधे लगाते समय गड्ढों में मिलानी चाहिए। नाइट्रोजन की शेष मात्रा अगस्त, सितम्बर, अक्टूबर और नवम्बर माह में देनी चाहिए।
केला के उत्पादन में सिंचाई एक प्रमुख आवश्यकता है। भूमि तथा वातावरण के अनुसार ग्रीष्म ऋतु में प्रति सप्ताह तथा शरद ऋतु में 15 – 20 दिन के अंतर में सिंचाई करें। उथली जड़ों वाला पौधा होने के कारण सूखा सहन नहीं कर पाता है।
पौधे के समीप कंद से लगी हुई छोटी – छोटी शाखाएं निकल जाती हैं, जिन्हें सकर कहते हैं। ये पौधे की उचित वृद्धि में बाधक होते हैं। अत: इनको निकाल देना चाहिए। सकर निकालते समय यह ध्यान रखें कि मुख्य प्रकंद में चोट न लगने पाए। सूखी पत्तियां भी समय – समय पर काटते रहना चाहिए। केला फल के घेर में से जो फूलों का गुच्छा लगा रहता है, उसे भी काट देना चाहिए।
पौधों में जब फल पूर्ण विकसित हो जाएँ और उनमें रंग परिवर्तन दिखाई देने लगे तो पूरे घेर को काट लेना चाहिए। घेर को इसी रूप में बंद कमरे में 18 – 24 घंटे तक धुंआ देकर पकाया जाता है। फल पकाने के पहले चोट खाए या फटे हुए फलों को छांटकर अलग कर देना चाहिए। ऐसे फल पकाते समय सड़ जाते हैं। कभी – कभी कार्बाइड एसिटिलन गैस पैदा कर केला जल्दी पक जाते हैं, किन्तु स्वाद उतना अच्छा नहीं होता है, जितना कि सामान्य विधि से पकाए गये फलों में होता है।
फले हुए पौधों का तेज हवाओं से बचाव करना अत्यंत आवश्यक होता है। आरंभिक अवस्था में वायु अवरोधक के रूप में उत्तर और पश्चिम दिशा की ओर सेस्बेनिया की दो कतारें लगाना आवश्यक है। फलों के उद्यान में स्थाई वायु अवरोधक वृक्ष लगाना अनिवार्य तो हैं ही, पौधों की लकड़ी या खुंटे का सहारा देना भी आवश्यक हो जाता है। कभी – कभी फल भार से पौधा गिर जाता है।
अंतिम बार संशोधित : 1/7/2020
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