অসমীয়া   বাংলা   बोड़ो   डोगरी   ગુજરાતી   ಕನ್ನಡ   كأشُر   कोंकणी   संथाली   মনিপুরি   नेपाली   ଓରିୟା   ਪੰਜਾਬੀ   संस्कृत   தமிழ்  తెలుగు   ردو

काजू की खेती

परिचय

काजू विदेशी मुद्रा प्राप्त करने वाली भारत की एक प्रमुख फसल है। वैसे तो काजू की व्यवसायिक एवं बड़े पैमाने पर खेती केरल, महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, तामिलनाडु, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा एवं पं. बंगाल में की जाती है परन्तु झारखंड राज्य के कुछ जिले जो बंगाल और उड़ीसा से सटे हुए है वहाँ पर भी इसकी खेती की विपुल सम्भावनाएँ हैं। प्राय: देखा गया है कि राज्य के पूर्वी सिंहभूम, पं. सिंहभूम, सरायकेला खरसावाँ एवं अन्य कुछ जिलों में काजू के देशी प्रजातियों के पौधे पाये जाते है। इन पौधों से बहुत गुणवत्ता के काजू नट तो नहीं पैदा होते हैं परन्तु इससे एक संकेत जरुर मिलता है कि यदि इन क्षेत्रों में काजू की उन्नत किस्मों के बागीचे लगाये जाएं एवं उनका सही तरीके से देख-रेख एवं रख-रखाव किया जाय तो झारखंड से भी काजू का निर्यात सम्भव है। प्रस्तुत अध्याय में काजू की व्यवसायिक खेती के कुछ पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है।

भूमि एवं जलवायु

काजू एक उष्ण कटिबन्धीय फसल है जो गर्म एवं उष्ण जलवायु में अच्छी पैदावार देता है। जिन क्षेत्रों में पाला पड़ने की सम्भावना होती है या लम्बे समय तक सर्दी पड़ती है वहाँ पर इसकी खेती प्रभावित होती है। 700 मी. ऊँचाई वाले क्षेत्र जहाँ पर तापमान 200 सें.ग्रे. से ऊपर रहता है काजू की अच्छी उपज होती है। 600-4500 मि.मी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्र के लिए उपयुक्त माने गये है। काजू को अनेक प्रकार की मिट्टी में उगाया जा सकता है परन्तु समुद्र तटीय प्रभाव वाले लाल एवं लेटराइट मिट्टी वाले भू-भाग इसकी खेती के लिए ज्यादा उपयुक्त होते है। झारखंड राज्य के पूर्वी एवं पश्चिमी सिंहभूम, सरायकेला खरसावाँ जिले काजू की खेती के लिए अत्यंत उपयुक्त पाये गये हैं। इन जिलों की मिट्टी एवं जलवायु काजू की खेती के लिए उपयुक्त हैं।

उन्नत किस्में

विभिन्न राज्यों के लिए काजू की उन्नत किस्मों की संस्तुति राष्ट्रीय काजू अनुसंधान केंद्र (पुत्तूर) द्वारा की गई है। इसके अनुसार वैसे तो झारखंड राज्य के लिए किस्मों की संस्तुति नहीं है परन्तु जो किस्में उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, बंगाल एवं कर्नाटक के लिए उपयुक्त है उनकी खेती झारखंड राज्य में भी की जा सकती है। क्षेत्र के लिए काजू की प्रमुख किस्में वेगुरला-4, उल्लाल-2, उल्लाल-4, बी.पी.पी.-1, बी.पी.पी.-2, टी.-40 आदि है।

खेती की तैयारी

काजू की खेती के लिए सर्वप्रथम खेत की झाड़ियों तथा घासों को साफ़ करके खेत की 2-3 बार जुताई कर दें। झाड़ियों की जड़ों को निकाल कर खेत को बराबर कर दें। जिससे नये पौधों को प्रारम्भिक अवस्था में पनपने में कोई कठिनाई न हो।

काजू के पौधों को 7-8 मी. की दूरी पर वर्गाकार विधि में लगाते हैं। अत: खेत की तैयारी के बाद अप्रैल-मई के महीने में निश्चित दूरी पर 60x 60 x 60 सें.मी. आकार के गड्ढे तैयार कर लेते हैं। अगर जमीन में कड़ी परत है तो गड्ढे के आकार को आवश्यकताअनुसार बढ़ाया जा सकता है। गड्ढों की 15-20 दिन तक खुला छोड़ने के बाद 5 कि.ग्रा. गोबर की खाद या कम्पोस्ट, 2 कि.ग्रा. रॉक फ़ॉस्फेट या डीएपी के मिश्रण को गड्ढे की ऊपरी मिट्टी में मिलाकर भर देते हैं। गड्ढों के आसपास ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि वहाँ पानी न रुके। अधिक सघनता से बाग़ लगाने के पौधों की दूरी 5x 5 या 4 x 4 मी. रखते हैं। शेष प्रक्रियाएं सामान्य ही रहती है।

पौध प्रसारण

काजू के पौधों को साफ्ट वुड ग्राफ्टिंग विधि से तैयार किया जा सकता है। भेंट कलम द्वारा भी पौधों को तैयार कर सकते हैं। पौधा तैयार करने का उपयुक्त समय मई-जुलाई का महीना होता है।

पौध रोपण

काजू के पौधों को वर्षा काल में ही लगाने से अच्छी सफलता मिलती है। तैयार गड्ढों में पौधा रोपने के बाद थाला बना देते हैं तथा थालों में खरपतवार की समय-समय पर निकाई-गुड़ाई करते रहते हैं। जल संरक्षण के किए थालों में सूखी घास का पलवार भी बिछाते हैं।

खाद एवं उर्वरक

प्रत्येक वर्ष पौधों को 10-15 कि.ग्रा. गोबर की सही खाद, के साथ-साथ रासायनिक उर्वरकों की भी उपयुक्त मात्रा देनी चाहिए। प्रथम वर्ष में 300 ग्राम यूरिया, 200 ग्राम रॉक फास्फेट, 70 ग्राम म्यूरेट ऑफ़ पोटाश प्रति पौधा की दर से दें दूसरे वर्ष इसकी मात्रा दुगुनी कर दें और तीन वर्ष के बाद पौधोको 1 कि.ग्रा. यूरिया, 600 ग्रा. रॉक फास्फेट एवं 200 ग्राम म्यूरेट ऑफ़ पोटाश प्रति वर्ष मई-जून और सितम्बर-अक्टूबर के महीनों में आधा-आधा बांटकर देते रहे।

काट-छांट

काजू के पौधों को प्रारंभिक अवस्था में अच्छा ढांचा देने की जरूरत होती है अत: उपयुक्त काट-छांट के द्वारा पौधों को अच्छा ढांचा के तत्पश्चात फसल तोड़ाई के बाद सूखी, रोग एवं कीट ग्रसित तथा कैंची शाखाओं को काटते रहें।

पौध संरक्षण

काजू में ‘टी मास्कीटो बग’ की प्रमुख समस्या होती है। इसके वयस्क तथा नवजात नई कोपलों, मंजरों, फलों से रस चूसकर नुकसान पहुँचाते हैं। कभी-कभी इसकी समस्या इतनी गम्भीर हो जाती है कि इसके नियंत्रण के लिए पूरे क्षेत्र में एक साथ स्पेशल छिड़काव का प्रबंध करना पड़ता है। इसके नियंत्रण के लिए एक स्प्रे सिड्यूल बनाया गया है जो इस प्रकार है।

पहला स्प्रे – कल्ले आते समय – मोनोक्रोटोफास (0.05 प्रतिशत) का

दूसरा स्प्रे – फूल आते समय – कर्वेरिल (0.1 प्रतिशत) का तथा

तीसरा स्प्रे – फल लगते समय – कार्वेरिल (0.1 प्रतिशत) का

फसल तोड़ाई एवं उपज

काजू में पूरे फल की तोड़ाई नहीं की जाती है केवल गिरे हुए नट को इक्ट्ठा किया जाता है और इसे धूप में, सुखाकर तथा जूट के बोरों में भरकर ऊँचे स्थान पर रख दिया जाता है। प्रत्येक पौधे से लगभग 8 किलोग्राम नट प्रतिवर्ष प्राप्त होता है। इस प्रकार एक हेक्टेयर में लगभग 10-15 क्विंटल काजू ने नट प्राप्त होते है। जिनको प्रसंस्करण के बाद खाने योग्य काजू प्राप्त होता है।

 

स्त्रोत: समेति, कृषि विभाग , झारखण्ड सरकार

अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020



© C–DAC.All content appearing on the vikaspedia portal is through collaborative effort of vikaspedia and its partners.We encourage you to use and share the content in a respectful and fair manner. Please leave all source links intact and adhere to applicable copyright and intellectual property guidelines and laws.
English to Hindi Transliterate