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नारियल की खेती

नारियल की खेती

परिचय

देवी-देवताओं की पूजा अर्चना हो या कोई अन्य मांगलिक कार्य, नारियल के बिना अधूरा है। अत:nkनारियल भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है। वाल्मीकि रामायण में नारियल का वर्णन किया गया है। आराध्य फल होने के साथ-साथ दैनिक जीवन में भी नारियल का एक अहम स्थान है। इस तरह नारियल के संस्कृतिक महत्व के साथ-साथ इसका आर्थिक महत्व भी है। नारियल से भारत के छोटे किसानों का जीवन जुड़ा हुआ है। इस वृक्ष का कोई ऐसा अंग नहीं है जो उपयोगी न हो। नारियल का फल पेय, खाद्य एवं तेल के लिए उपयोगी है। फल का छिलका विभिन्न औद्योगिक कार्यो में उपयोगी है तथा पत्ते एवं लकड़ी भी सदुपयोगी हैं। इन्हीं उपयोगिताओं के कारण नारियल को कल्पवृक्ष कहा जाता है।

भारत वर्ष में नारियल की खेती एवं उद्योग के समेकित विकास के लिए भारत सरकार ने 1981 में नारियल विकास बोर्ड का गठन किया। इसका मुख्यालय केरल के कोच्ची शहर में है और इसके 3 क्षेत्रीय कार्यालय पटना (बिहार) स्थित क्षेत्रीय कार्यालय के नियंत्रणाधीन 5 राज्य स्तरीय केंद्र हैं जो उड़ीसा के भुवनेश्वर, पश्चिम बंगाल के कलकत्ता, मध्य प्रदेश के कोंडेगाँव, असम के गुवाहटी तथा त्रिपुरा के अग्रत्तला में स्थित है। राज्य स्तरीय केन्द्रों के अतिरिक्त 4 प्रदर्शन-सह-बीज उत्पादन प्रक्षेत्र, सिंहेश्वर (बिहार), कोंडेगाँव (मध्य प्रदेश), अभयपुरी (असम), बेलबारी (त्रिपुरा) भी पटना क्षेत्रीय कार्यालय के तकनीकी मार्गदर्शन में कार्यरत हैं। यहाँ से नारियल सम्बन्धी तकनीकी जानकारी किसानों को उपलब्ध कराई जाती है।

जलवायु एवं भूमि

नारियल के पौधों की अच्छी वृद्धि एवं फलन के लिए उष्ण एवं उपोष्ण जावायु आवश्यक है, लेकिन जिन क्षेत्रों में निम्नतम तापमान 100 सेंटीग्रेड से कम तथा अधिकतम तापमान 400 सेंटीग्रेट से अधिक लम्बी अवधि तक नहीं रहता हो उन क्षेत्रों में भी इसे सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। इसके लिए वर्ष भर समानुपातिक रूप से वितरित वर्षा लाभदायक है। समानुपातिक वर्षा के अभाव में सिंचाई की आवश्यकता होती है।

नारियल की सफल खेती के लिए अच्छी जलधारण एवं जलनिकास क्षमता वाली मिट्टी जिसका पी.एच.मान 5.2 से 8.8 तक हो उपयुक्त होती है। केवाल/काली एवं पथरीली मिट्टियों के अलावा ऐसी सभी प्रकार की मिट्टियाँ जिनमें निचली सतह में चट्टान न हो नारियल की खेती के लिए उपयुक्त हैं, लेकिन बलुई/दोमट मिट्टी सर्वोतम पायी गई है।

किस्में

नारियल की किस्मों को दो वर्गो में बांटा गया है जो लम्बी एवं बौनी किस्म के नाम से जानी जाती है। इन दोनों किस्मों के संस्करण से जो किस्में बनाई गई है वे संकर किस्म के नाम से जानी जाती है। गैर-परम्परागत क्षेत्रों के सिंचित क्षेत्रों हेतु ऊँची एवं संकर किस्में अनुशंसित हैं, जबकि पर्याप्त सिंचाई-सुविधाएँ न होने पर केवल ऊँची किस्मों का उपयोग लाभप्रद है। बौनी किस्में गैर-परम्परागत क्षेत्रों की जलवायु के लिए उपयुक्त नहीं पायी गई है। फिर भी विशेष देखरेख में बौनी किस्मों की खेती भी संभव है।

लम्बी किस्मों की उपजातियों में पश्चिम तटीय लम्बी प्रजाति, पूर्व तटीय लम्बी प्रजाति, तिप्तुर लम्बी प्रजाति, अंडमान लम्बी प्रजाति, अंडमान जायंट एवं लक्षद्वीप साधारण प्रमुख हैं। बौनी किस्मों की उपजातियों में चावक्काड ऑरेंज बौनी प्रजाति एवं चावक्काड हरी बौनी प्रजाति प्रचलित हैं। संकर किस्मों की उपजातियों में मुख्य हैं लक्षगंगा, केरागंगा एवं आनंद गंगा।

पौध रोपण

नारियल खेती की सफलता रोपण सामग्री, अपनाई गई विधि एवं इसकी वैज्ञानिक देखभाल पर निर्भर करती है। गुणवत्तामूलक पौधों का चुनाव करते समय इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि बिचड़े की उम्र 9-18 माह के बीच हो तथा उनमें कम से कम 5-7 हरे भरे पत्ते हों। बिचड़ों के गर्दनी भाग का घेरा 10-12 सें.मी. हो तथा पौधे रोगग्रस्त न हों। चयनित जगह पर अप्रैल-मई माह में 7.5 x 7.5 मीटर (25 x 25 फीट) की दूरी पर 1 x 1 x 1 मीटर आकार के गड्ढे बनाए जाते हैं। प्रथम वर्षा होने तक गड्ढा खुला रखा जाता है जिसे 30 किलो गोबर की खाद अथवा कम्पोस्ट एवं सतही मिट्टी को मिलाकर इस तरह भर दिया जाता है कि ऊपर से 20 सें.मी. गड्ढा खाली रहे। शेष बची हुई मिट्टी से पौधा लगाने के बाद गड्ढे के चारों ओर मेढ बना दिया जाता है ताकि गड्ढे में वर्षा का पानी इकट्ठा न हो।

नारियल लगाने का उपयुक्त समय जून से सितम्बर तक के महीने हैं, लेकिन जहाँ सिंचाई की व्यवस्था हो वहाँ जाड़े तथा भारी वर्षा का समय छोड़कर कभी भी पौधा लगाया जा सकता है। उपरोक्त विधि से तैयार किये गये गड्ढे के ठीक बीचों-बीच खुरपी या हाथ से नारियल फल के आकार का गड्ढा बनाकर पौधों को रखकर चारों ओर से मिट्टी से भर दिया जाता है तथा मिट्टी को पैर से अच्छी तरह से दबा दिया जाता है। यदि लगाने का समय वर्षाकाल न हो तो पौधा लगाने के उपरांत सिंचाई आवश्यक होती है। गड्ढों में नारियल बिचड़ों का रोपण करते समय यह ध्यान रखना आवश्यक है कि बिचड़ों के ग्रीवा स्थल से 2 इंच व्यास के बीजनट अंश को मिट्टी से नहीं ढका जाय, अन्यथा बिचड़ों में श्वसन क्रिया ठीक से नहीं होने के कारण उसकी वृद्धि पर कुप्रभाव पड़ सकता है। साथ ही पौधे के मरने की भी सम्भावना बढ़ जाती है। जिन क्षेत्रों में दीमक या ग्रब्स का प्रकोप हो वहाँ गड्ढा भरते समय 10 ग्राम फॉरेट/थिमेट मिट्टी के साथ मिला दें।

पौधों की देखभाल

नव रोपित बिचड़ों को अत्यधिक ठंडक एवं गर्म हवा (लू) से बचाव हेतु समुचित छाया एवं सिंचाई की व्यवस्था आवश्यक है। रोपण के बाद 2 वर्ष की अवधि तक तना व बीजनट का गर्दनी भाग खुला रखें क्योंकि समुचित वृद्धि के लिए गर्दनी भाग पर हवा का संचार जरूरी है।

नारियल के वयस्क वृक्षों की उत्पादकता बनाये रखने के लिए ग्रीष्म तथा अनावृष्टि काल में सिंचाई बहुत जरूरी है। आवश्यकतानुसार 3-4 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करें। जल की मात्रा पौधों की उम्र एवं उसके विकास पर निर्भर है।

खाद एवं उर्वरक

लंबी अवधि तक अधिक उत्पादन के लिए अनुशंसित मात्रा में खाद एवं उर्वरकों का नियमित प्रयोग आवश्यक है। वयस्क नारियल पौधों को प्रतिवर्ष प्रथम वर्षा के समय जून में 30-40 किलो सड़ी हुई गोबर की खाद या कम्पोस्ट का प्रयोग करें। इसके अलावा निम्न सारणी के अनुसार उर्वरकों की अनुशंसित मात्रा का नियमित प्रयोग करें।

सिंचित क्षेत्रों के लिए उर्वरकों की अनुशंसित मात्रा प्रति पौधा प्रति वर्ष (ग्रा./पौधा)

पौधों की उम्र

उपयोग किये जाने वाले उर्वरकों की मात्रा

यूरिया

सिंगल सुपर फास्फेट

म्यूरेट ऑफ़ पोटाश

प्रथम वर्ष (पौधा लगाने के तीन माह बाद)

100

200

200

द्वितीय वर्ष

333

666

666

तृतीय वर्ष

666

1332

1332

चतुर्थ वर्ष एवं तदुपरान्त

1000

2000

2000

उपरोक्त उर्वरकों की मात्रा एक पेड़ हेतु एक वर्ष के लिए अनुशंसित है जिसे तीन किस्तों में विभाजित करके देने से उर्वरकों की अधिकतम उपयोग होता है। उर्वरकों की तीन किस्तों में से प्रथम क़िस्त के रूप में उपरोक्त मात्रा का आधा भाग (50%) वर्षा ऋतु के आरम्भ में तथा द्वितीय एवं तृतीय क़िस्त के रूप में एक चौथाई (25%) मात्रा क्रमश: सितम्बर माह में तथा शेष एक चौथाई (25%) मात्रा मार्च में दी जानी चाहिए। वयस्क पौधों को खाद एवं उर्वरक मुख्य तने से 1-1.5 मीटर की दूरी पर पेड़ के चारों तरफ देना चाहिए। पाँच वर्ष से कम उम्र के पौधों के लिए उम्र के अनुसार उपरोक्त दूरी कम करनी चाहिए।

उपरोक्त उर्वरकों के अलावा जिन क्षेत्रों में बोरॉन नामक सूक्ष्म पोषक तत्व की कमी हो उन क्षेत्रों में 50 ग्राम प्रति वयस्क पेड़ प्रति वर्ष बोरोक्स के प्रयोग करने से शिखर अवरुद्ध (क्राउन चोकिंग) रोग का डर नहीं रहता है। इसके अलावा मैग्नीशियम नामक सूक्ष्म पोषक तत्व की कमी वाले क्षेत्रों में मैग्नीशियम सल्फेट 500 ग्राम प्रति वयस्क पेड़ प्रति वर्ष देना लाभदायक पाया गया है।

निराई-गुड़ाई

नारियल बाग़ में अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए नियमित निराई-गुड़ाई एवं जुताई आवश्यक है। इन क्रियाओं से खरपतवार नियंत्रण तो होता ही है, साथ ही जड़ों में वायु का संचालन पर्याप्त रूप में होता है। आच्छादन कृषि के माध्यम से मिट्टी की आर्द्रता बनी रहती है, मृदाक्षय नहीं होता है तथा इससे भूमि में जैविक पदार्थो की उपलब्धता में वृद्धि होती है। इसके लिए मूंग, उड़द, बिना काँटोंवाली छुईमुई, लाजवंती, केलोपोगोनियम, स्टाइलोसेन्थस, सेसबेनिया इत्यादि की बुआई कर सकते हैं।

अन्तर्वर्ती एवं मिश्रित फसलन (बहुस्तरीय फसलन प्रणाली)

नारियल के बाग़ में अनेक प्रकार की अन्तर्वर्ती तथा मिश्रित फसलें उगाने की अनुशंसा की जाती है। इन फसलों से नारियल उत्पादकों को अतिरिक्त आय प्राप्त होती है। अन्तर्वर्ती तथा मिश्रित फसलों का चयन करते समय उस क्षेत्र की कृषि-जलवायु की स्थिति, विपणन की सुविधा तथा परिवार की आवश्यकता को ध्यान में रखना आवश्यक है। अन्तर्वर्ती तथा मिश्रित फसलों के रूप में केला, अनन्नास, ओल, मिर्च, शकरकंद, पपीता, नींबू, हल्दी, अदरक, मौसम्बी, टेपीओका, तेजपात, पान तथा फूल एवं सजावटी पौधे बड़ी सफलतापूर्वक उगाये जा सकते हैं। बहुस्तरीय नारियल आधारित प्रणाली अपनाने से उपरोक्त लाभ के अलावा प्राकृतिक रूप में जमीन में उपलब्ध पोषक तत्वों का उपयोग तथा जमीन से ऊपर प्राकृतिक स्रोत जैसे सूर्य का प्रकाश, वायुमण्डलीय नेत्रजन इत्यादि का भरपूर उपयोग होता है। साथ ही नारियल पौधों को दिए गए खाद, उर्वरक, पानी इत्यादि जो नारियल पौधों के जरूरत से ज्यादा है, का सदुपयोग हो जाता है।

नारियल के मुख्य कीट एवं व्याधियाँ

नारियल की अच्छी पैदावार के लिए खाद एवं पानी के अलावा पौध-सुरक्षा उपाय अपनाने की भी अत्यधिक आवश्यकता है। नारियल में पाये जाने वाले कुछ प्रमुख कीट एवं व्याधियाँ इस प्रकार हैं।

कीट एवं उनका नियंत्रण

  1. गैंडा भृंग (रिनोसिरस बीटल)

इस कीट से आक्रमणग्रस्त कोंपल को पूर्णरूप से खुलने पर पत्ते ज्यामितीय ढंग से कटे हुए दिखाई देते हैं। इन कीटों को अंकुशों में फंसाकर बाहर निकाल देना चाहिए। प्रभावित वृक्ष की ऊपरी तीन पत्तियों के पर्णकक्ष में 25 ग्राम सेविडॉल 8 जी में 200 ग्राम महीन बालू रेत मिश्रित कर मई, सितम्बर व दिसम्बर के महीनों में भर दें। साथ ही साथ बगान साफ़-सुथरा रखें।

  1. लाल ताड धुन (रेड पाम वीविल)

यह कीट तने पर छिद्र कर देता है। इन छिद्रों से भूरे रंग का चिपचिपा स्राव निकलता दिखाई देता है। इन छिद्रों से कीट द्वारा चबाये हुए पेड़ के रेशे भी बाहर निकलते हैं। नियंत्रण हेतु तने को किसी भी प्रकार की क्षति या घाव होने से रोके तथा उपस्थित छिद्रों में 2-3 सेल्फास की गोलियाँ अथवा पेट्रोल से भींगी रुई रखकर छिद्रों को कोलतार से बंद कर दें। इसके अतिरिक्त आक्रमणग्रस्त पेड़ों में 1 प्रतिशत कार्बोरिल या 0.1 प्रतिशत एंडो सल्फान का एक कीप द्वारा तने में इंजेक्शन दें।

  1. कोरिड बग

इस कीट के प्रकोप से मादा फूलों की वृद्धि नहीं होती है तथा अविकसित फल गिरने लगते हैं। कभी-कभी फल विकसित होने पर भी उस में पानी या गरी नहीं होती है। इसके बचाव के लिए निषेचन की क्रिया समाप्त होने पर 0.1 प्रतिशत कार्बरिल या एंडोसल्फान का छिड़काव करें।

  1. कोकोनट माइट

इसका प्रभाव विकसित हो रहे फलों पर ज्यादा देखा गया है जिसके कारण फलों का रंग बदरंग हो जाता है और उसका आकार बिगड़ जाता है। माइट का प्रकोप फल विकास के साथ ही शुरू हो जाता है अत: इसके नियंत्रण के लिए फलों के छोटे अवस्था में ही नीमाजोल 3 मि.ली./ली. पानी में घोल कर 2 छिड़काव करें तथा पौधों के जड़ों के पास की नीमाजोल का प्रयोग करें।

रोग एवं उनका नियंत्रण

महाली, फल सड़न एवं नट फ़ॉल (फल गिराव)

इस बीमारी के कारण मादा फूल एवं अपरिपक्व फल गिरते है। इसके चलते नव विकसित फलों तथा बुतामों (बटन) के डंठलों के समीप घाव दिखाई देते हैं जो अंतत: आंतरिक उत्तकों के नाश के परिणामी होते हैं।

प्रबंधन

इसके नियंत्रण के लिए नारियल के मुकुट पर एक प्रतिशत बोर्डो मिश्रण या 0.5 प्रतिशत फाइटोलॉन नामक दवा का छिड़काव एक बार वर्षा प्रारंभ होने के पूर्व और पुन: दो माह के अंतराल पर करना चाहिए।

बडरॉट अथवा कली सड़न

इस बीमारी में कोंपल (केंद्रस्थ पत्ती) जो कृपाण सदृश होती है झुकी तथा मुर्झाई हुई दृष्टिगोचर होती है। जब बीमारी अपने उत्कर्ष पर पहुंचती है तो केन्द्रस्थ पत्ती मुर्झा कर नीचे झुक जाती है और अंतत: नारियल का सम्पूर्ण मुकुट नीचे गिर जाता है और नारियल का वृक्ष अपनी जीवन लीला ही समाप्त कर देता है। मुकुट के कोमल पर्णाधार के सड़ने से सड़े अण्डों की सी दुर्गंध निकलती है।

प्रबंधन

मुकुट के सभी आक्रान्त ऊतकों को निकाल कर 10 प्रतिशत बोर्डोपेस्ट का लेप करें और जब तक नये प्ररोह नहीं प्रस्फुटित हो तब तक यह रक्षात्मक कवच बने रहने दें। आक्रांत नारियल के पड़ोसी नारियल वृक्षों के मुकुट पर एक प्रतिशत बोर्डो मिश्रण का छिड़काव कर उन्हें रक्षात्मक कवच पहनावें। तथा बीमारी के संभावित समय में प्राय: एक प्रतिशत बोर्डो मिश्रण का छिड़काव बार-बार करते रहे।

क्राउन चोकिंग

यह रोग साधारणतया देश के उत्तर-पूर्वी राज्यों में ही देखा गया है। इस रोग से कम उम्र के पौधे ज्यादा प्रभावित होते है। इसका मुख्य लक्षण यह है कि इससे कोमलतम पत्ते का समुचित विकास रुक जाता है एवं प्राकृतिक आकार विकृत होने लगता है। कुछ दिनों के बाद रोग अधिक प्रभावकारी हो जाता है और कोमलतम पत्ते खुलते नहीं, फलस्वरूप ये छड़ी का आकार धारण कर लेते हैं।

प्रबंधन

यह रोग जमीन में बोरॉन नामक पोषक तत्व की कमी से होता है। इस रोग से बचाव के लिए उर्वरक एवं खाद की अनुशंसित मात्रा के साथ 50 ग्राम बोरॉक्स प्रतिवर्ष प्रति पौधा मिला दें। यदि रोग पुराना हो तो उपर्युक्त मात्रा साल में दो बार दी जा सकती है।

नारियल आधारित उत्पाद एवं हस्तशिल्प

खोपड़ा (सूखीगरी), नारियल तेल, सुखाया नारियल चूर्ण (डेसिक्केटिड नारियल), नारियल क्रीम एवं दूध, नेटा –डी-कोको, नारियल ताड़ी एवं गुड़, नारियल रेशा (कोयर), सक्रियित कार्बन, नारियल खोपड़ी चूर्ण एवं कोयला, नारियल पेड़ के विविध भागों से निर्मित हस्तशिल्प आदि मुख्य एवं सह-उत्पाद हैं जिन पर आधारित उद्योग एवं कुटीर धंधों को अपनाकर कृषक परिवार के सदस्य, बेरोजगार युवक एवं कारीगर आर्थिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं। उपरोक्त उत्पादों के अलावा नारियल का कच्चा फल ‘डाब’ दक्षिणी राज्यों के अतिरिक्त उड़ीसा, पश्चिम बंगाल एवं असम में भी नारियल कृषकों को अधिकाधिक आमदनी उपलब्ध करने का अच्छा स्रोत है। डाब पानी जो कि प्रोटीन एवं विटामिनों से परिपूर्ण है मानव की प्यास बुझाने के अलावा अनेक बीमारियों को भी दूर करता है।

 

स्त्रोत एवं सामग्रीदाता : समेति, कृषि विभाग , झारखण्ड सरकार

अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020



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