बेर भारत व चीन का प्राचीन लोकप्रिय फल है। यह रैमनैसी कुल से सम्बन्धित है तथा जिजीफस जीनस (वंश) के अंतर्गत आता है। इस फल का उत्पत्ति सम्भवत: दक्षिणी चीन, भारत व मलाया में हुआ। इस जीनस के अंतर्गत लगभग 50 जातियाँ (स्पीसीज) हैं जिनमें लगभग 18-20 भारत में पाई जाती हैं। व्यावसायिक दृष्टि से कुछ ही जातियाँ उपयोगी हैं। हमारे देश में व्यावसायिक दृष्टि से बागवानी के लिये जिजीफस मोरीशियाना तथा चीन में जिजीफस जुजुबा का उपयोग किया जाता है।
बेर के पके फल ताजे खाये जाते हैं। इसके अतिरिक्त पके फलों को सुखाकर छुआरा, कैन्डी व शीतल पेय के रूप में भी उपयोग में लाया जाता है। पके फल में विटामिन सी.ए.बी. तथा शर्करा के अतिरिक्त खनिज पदार्थ, कैल्शियम, मैग्नीशियम व जस्ता प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं।
बेर के पौधे में कुछ ऐसे गुण हैं जिसके कारण यह शुष्क क्षेत्रों में खेती के लिये बहुत ही सफल फलदार वृक्ष हैं। इन्हीं गुणों के कारण इसे बारानी का बादशाह कहा जाता है। इसकी जड़ मूसलादार होती है जो मिट्टी के कठोर सतह को तोड़कर काफी गहराई तक पहुंचकर निचली सतह से जल शोषित कर पौधे को स्वस्थ रखती है। अन्य फल वृक्षों की तुलना में इसके पौधों को बहुत कम पानी की आवश्यकता पड़ती है। गर्मी के मौसम में जब अन्य फल वृक्षों को सिंचाई की आवश्यकता होती है उस समय इसकी पत्तियाँ झड़ जाती हैं तथा पौधा एक प्रकार से प्रसुप्तावस्था में आ जाता है जिसके परिणाम स्वरूप सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है। इसमें फूल तथा फल वर्षा ऋतु के बाद अगस्त-सितम्बर में आते हैं। फल फरवरी से मार्च तक पकते हैं। इन्हीं गुणों के कारण बेर की बागवानी शुष्क तथा अर्धशुष्क क्षेत्रों के लिये लाभदायक प्रमाणित हो रही है।
बेर की खेती भारत के सभी प्रान्तों में कुछ न कुछ क्षेत्रों में होती है किन्तु मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र व आंध्र प्रदेश में अपेक्षाकृत अधिक होती है। इस समय हमारे देश में इसकी खेती अनुमानत: 22,000 हेक्टेयर क्षेत्र में हो रही है तथा प्रतिवर्ष विशेषकर बंजर भूमि में व्यावसायिक खेती बढ़ जाती है।
बेर जलवायु की प्रतिकूल दशाएँ सहन करने की अदभुत क्षमता रखता है। इसकी बागवानी देश के उष्ण कटिबन्धीय तथा उपोष्ण क्षेत्रों में, समुद्र की सतह से लगभग 1000 मी. की ऊँचाई तक सफलतापूर्वक की जा सकती है। इसकी बागवानी वैसे तो सभी प्रकार की जलवायु में की जा सकती है किन्तु अधिक उत्पादन तथा अच्छे आकार व गुणों वाले फल उत्पादन के लिये शुष्क एवं गर्म जलवायु उपयुक्त है। इसके अतिरिक्त उन क्षेत्रों में जहाँ भूमिगत जल काफी निचली सतह पर हो, वहां भी बेर की बागवानी की जा सकती है। आर्द्रता वाले क्षेत्र में खर्रा व्याधि के प्रकोप की सम्भावना अधिक होती है।
बेर की बागवानी विभिन्न प्रकार की मिट्टी जैसे: उथली, गहरी, कंकरीली, रेतीली, चिकनी आदि में की जा सकती है। इसके अतिरिक्त लवणीय, क्षारीय दशा में भी उगने की क्षमता रखता है। इसके पौधे 40-50 प्रतिशत विनिमयशील सोडियम (क्षारीय) तथा 12-15 मिलीम्होज प्रति सें.मी. विद्युत् चालकता वाली लवणीय भूमि में सफलता पूर्वक की जा रही है। व्यावसायिक बागवानी के लिये जीवांशयुक्त बलुई दोमट मिट्टी सर्वोत्तम मानी गई है। किन्तु वे क्षेत्र जहाँ की जमीन नीची, रेतीली, उसरीली, बंजर जहाँ अन्य फसलें व फल वृक्ष नही उगाये जा सकते, वहाँ भी सीमित साधनों के साथ बेर की बागवानी सफलता पूर्वक की जा सकती है।
देश में बेर की लगभग 125 से भी अधिक किस्में उगाई जाती है। इन किस्मों का विकास विभिन्न क्षेत्रों में फल के भौतिक तथा रासायनिक गुणों जैसे फल का रंग, आकार, वजन, मिठास व खटास की मात्रा के आधार पर चयन द्वारा किया गया है। किस्मों के नामकरण की पद्धति एक समान नहीं है। कभी-कभी एक ही किस्म विभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न नाम से जानी जाती है जैसे – बेर की उमरान किस्म जिसका विकास राजस्थान के अलवर क्षेत्र में हुआ किन्तु यही किस्म दूसरे स्थान पर काठा, कोठी, अजमेरी, चमेली, काठा बाम्बे, माधुरी आदि नामों से जानी जाती है। इसकी प्रकार गोला किस्म विभिन्न जगहों पर देलही गोला, नाजुक, सेब, लड्डू, अकरोटा आदि नामों से प्रचलित हैं।
व्यावसायिक किस्मों का वर्गीकरण फलों के पकने के समय के आधार पर किया गया है। बेर की कुछ किस्में अपने विशेष स्वाद, कुछ आकार व कुछ अधिक पैदावार के लिये प्रसिद्ध हैं।
नरेन्द्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, कुमारगंज, फैजाबाद में देश के विभिन्न क्षेत्रों से लगभग 40 किस्में एकत्रित की गयी है। जिनके अध्ययन के आधार पर यह पाया गया है कि उत्तर प्रदेश सहित पूर्वी भारत के लिए 7 किस्में (गोला, कालीगोरा, बनारसी कड़ाका, कैथिली, मुडिया मुरहरा, पोंडा व उमराना) व्यावसायिक बागवानी के लिये उपयुक्त हैं। इन किस्मों का विवरण निम्नलिखित है।
गोला- फल का आकार गोल, माप 3.0 x 2.8 सें.मी. प्रति फल औसत भार 16.5 ग्रा., पकने पर रंग हल्का पीला व चमकदार, गूदा 95.2 प्रतिशत मुलायम, रसीला, मीठा, सफेद, कुल घुलनशील ठोस पदार्थ 15.5 प्रतिशत खटास 0.12 प्रतिशत, विटामिन ‘सी’ 90 मिग्रा./100 ग्रा. गूदा, औसत पैदावार 80 कि.ग्रा. प्रति पेड़।
काला गोरा: फल का आकार लम्बा, माप 3.5 x 2.8 सें.मी. प्रति फल औसत भार 16.5 ग्रा., पकने पर रंग हल्का पीला व चमकदार, गूदा 95.2 प्रतिशत मुलायम, रसीला, मीठा सफेद कुल घुलनशील ठोस पदार्थ 15.5 प्रतिशत खटास 0.12 प्रतिशत, विटामिन ‘सी’ 90 मिग्रा./100 ग्रा. गुदा, औसत पैदावार 80 किग्रा. प्रति पड़े।
बनारसी कड़ाका: यह एक प्रसिद्ध किस्म है जिसकी बागवानी देश के अनेक भागों में काफी पहले से होती आ रही है। फल का आकार लम्बा, सिरा गुठल, माप 4.1 x 2.7 सें.मी., प्रति फल औसत भार 17.0 ग्राम, पकने पर रंग भूरापन लिये हुए पीला, छिलका पतला, गूदा 95.5 प्रतिशत, मुलायम, रसीला, मक्खन की तरह सफेद, मीठा, कुल घुलनशील ठोस पदार्थ 15.0 प्रतिशत, खटास 0.15 प्रतिशत, विटामिन ‘सी’ 128 मिग्रा./100 ग्राम गूदा, औसत पैदावार 125 किग्रा. प्रति पेड़।
कैथली: फल का आकार लम्बा, माप 3.5 x 2.5 सें.मी., प्रति फल औसत वजन 18.0 ग्रा. पकने पर रंग भूरापन लिये हुए पीला, छिलका पतला, गूदा 96.4 प्रतिशत, सफेद, मुलायम, मीठा, कुल घुलनशील ठोस पदार्थ 15.0 प्रतिशत, खटास 0.16 प्रतिशत, विटामिन ‘सी’ 85 मिग्रा./100 ग्रा. गूदा, औसत पैदावार लगभग 125 कि.ग्रा. प्रति पेड़। यह बारानी क्षेत्र के लिये अच्छी किस्म है।
मुड़िया मुरहरा: फल का आकार लगभग घंटी के आकार की तरह है। माप 4.8 x 3.0 सें.मी., प्रति फल औसत वजन 25.0 ग्रा. पकने पर रंग पीला, गूदा 95.1 प्रतिशत, मुलायम, मीठा, कुल घुलनशील ठोस पदार्थ 17.0 प्रतिशत, खटास 0.13 प्रतिशत, विटामिन ‘सी’ 90 मिग्रा./100 ग्रा. गूदा, पैदावार लगभग 125 कि.ग्रा. प्रति पेड़।
उमरान: यह अधिक पैदावार देने वाली किस्म है। फल आकार में काफी बड़े माप 4.3 3.2 सें.मी., प्रतिफल वजन 24.0 ग्रा., पकने पर रंग भूरापन लिये हुए पीला, छिलका मोटा, गूदा 91.2 प्रतिशत, कुछ सख्त, मक्खनी रंग का तथा खाने में मीठा, कुल घुलनशील ठोस पदार्थ 15.2 प्रतिशत, खटास 0.21 प्रतिशत, विटामिन ‘सी’ 115 मि.ग्रा. प्रति 100 ग्रा. गूदा, औसत पैदावार लगभग 150 कि.ग्रा. प्रति पेड़।
व्यावसायिक दृष्टि से बाग़ लगाने के लिये कायिक विधि से तैयार बेर के पौधे ही उपयोग में लाना चाहिए। बेर का प्रवर्धन चश्मा विधि द्वारा किया जाता है। चश्मा की कई विधियाँ जैसे पैबंद चश्मा, ढाल चश्मा व छल्ला चश्मा प्रचलित है। व्यवसायिक तौर पर पौधे बनाने के लिए पैबंद चश्मा (पैच बडिंग) सबसे सफल व प्रचलित विधि है इस विधि से पौध तैयार करने के लिये मूलवृंत (बीजू पौधा) व कलिकायुक्त टहनी (सांकुर) की आवश्यकता पड़ती है।
अ-मूलवृन्त तैयार करना: मूलवृंत के लिये देशी किस्म के बेर के बीज उपयोग में लाया जाता है। जंगली बेर की कई जातियाँ जैसे – जिजीफस रोटंडीफोलिया, जिजीफास रूगोसा, जिजीफस आइनोप्लिया, जिजीफस नुमूलिरया, जिजीफस जाइलोकार्पा हैं। इन सभी में जिजीफस रोटंडीफ़ोलिया सबसे उपयुक्त है तथा यही उपयोग में लाया जा रहा है। हाल के वर्षो में चल रहे अनुसंधान के आधार पर जिजीफस रोटंडीफ़ोलिया के अतिरिक्त, जिजीफस मोरीशियान किस्म सुखावनी मूलवृंत के रूप में अच्छा परिणाम दे रही है बीज मार्च के महीने में इक्ट्ठा किया जाता है। बीज के लिये पूर्ण पके फल रोग व कीट से मुक्त पेड़ से तोड़कर इक्ट्ठा करते हैं। पके फलों को 2-3 दिन तक पानी में रखा जाता है। ऐसा करने से बेर की गुठली गूदे से आसानी से अलग हो जाती है। बुआई के पहले इन गुठलियों को 17-18 प्रतिशत नमक के घोल में डुबोना चाहिए। जो गुठली पानी में डूब जाये उन्हीं को बुवाई के उपयोग में लाना चाहिए। बुवाई के पहले गुठलियों को 5-6 मिनट के लिये शुद्ध सल्फ्यूरिक अम्ल में डुबो कर तत्पश्चात अच्छी तरह पानी से धोने अथवा 48 घंटे के लिये पानी में भिगोकर बोने से शीघ्र अंकुरण होता है। बेर की एक गुठली में एक से अधिक (दो) बीज होते हैं। अत: गुठली को सावधानी पूर्वक तोड़कर प्रत्येक बीज को अलग भी किया जा सकता है। इस प्रकार गुठली से अलग किये गये बीज एक सप्ताह के अंदर ही अंकुरित हो जाते हैं। मूलवृंत तीन तरह से तैयार किया जा सकता है।
इस विधि से मूलवृंत के लिये बीज की बुवाई क्यारियों में अप्रैल के प्रथम पखवारे तक कर दिया जाता है। बीज 30 सें.मी. की दूरी पर कतारों में 5 सें.मी. बीज से बीज की दूरी रखकर करते है। बीज की गहराई 2-3 सें.मी. रखी जाती है। बुवाई के समय क्यारी में पर्याप्त नमी का होना आवश्यक होता है। बुवाई के बाद क्यारी को घास-फूस की परत से ढककर फौहारे से आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहते हैं। बुवाई से लगभग 40 दिन पश्चात कमजोर व सघन पौधों की छटाई करके कतार में पौधों के आपस की दूरी लगभग 20 सें.मी. रखी जाती है। समय-समय पर निराई-गुड़ाई, व सिंचाई करते रहते है। इस तरह क्यारियों में तैयार किये गये पौधे 80-90 दिनों पश्चात लगभग पेंसिल के बराबर मोटाई (0.5 सें.मी.) के हो जाते है जो चश्मा चढ़ाने के लिये उपयुक्त होते हैं।
यह एक आसान विधि है। इस विधि से तैयार पौधे को एक स्थान से दूसरे स्थान पर लाने-ले जाने में आसानी होती है तथा स्थानांतरण के बाद पौधों की स्थापना अच्छी व अधिक होती है। इस विधि से पौध तैयार करने के लिये 300 गेज मोटाई वाली पालीथीन की 10 x 25 सें.मी. आकार के ट्यूब (दोनों तरह से खुले) उपयोग में लाये जाते हैं। इन ट्यूबों में उपजाऊ मिट्टी + गोबर की खाद + बालू (1:1:1) का मिश्रण तैयार करके भरते हैं तथा इन्हें मिट्टी की हल्की खुदाई करके उथली क्यारी में एक साथ सटाकर 4-5 कतार में खड़ी दशा में लगा देते हैं। प्रत्येक ट्यूब में 2-3 स्वस्थ बीज को बुवाई अप्रैल के प्रथम सप्ताह में कर दी जाती है। बुवाई के बाद उथली क्यारी जिसमें ट्यूब रखे गये हैं कि हल्की सिंचाई करते है। यदि आवश्यक हो तो हजारे से इन ट्यूबों में छिड़काव भी किया जा सकता है। अंकुरण पश्चात एक स्वस्थ पौध रखकर शेष निकाल दिया जाता है। आवश्यकतानुसार पौधों में नमी बनाये रखना चाहिए। यदि पूरी देख-रेख की जाय तो इस प्रकार तैयार पौधे 90 से 100 दिन के अंदर चश्मा चढ़ाने लायक हो जाते हैं। चश्मा चढ़ाने के 40-50 दिन बाद पौधे रोपण लायक हो जाते हैं। इस विधि से तैयार पौधों के परिवहन में सुविधा होती है तथा इनका स्थापन भी अच्छा होता है।
शुष्क, अर्ध शुष्क, बीहड़ क्षेत्र में बेर के बाग़ विकसित करने की सर्वोत्तम विधि है। इस विधि से बाग़ विकसित करने से स्थानांतरण के समय जड़ों को होने वाली क्षति नहीं होती है। इस तरह विकसित बाग़ भूमि तथा जलवायु के प्रतिकूल दशाओं के प्रति अधिक सहिष्णु होते है। पौध तैयार करने के लिये मार्च में ही निश्चित दूरी पर रेखांकन कर गड्ढे खुदाई व भराई का कार्य कर लेते हैं। प्रत्येक गड्ढे में 2-3 स्वस्थ बीज की बुवाई अप्रैल में करते हैं। पौधशाला में तैयार बीजू पौधों को भी जून जुलाई में लगाया जा सकता है। उचित देख-रेख से ये पौधे जुलाई-अगस्त में चश्मा चढ़ाने योग्य हो जाते हैं। ऊसर भूमि में भी स्वस्थाने बाग़ स्थापन की विधि अच्छी प्रमाणित हुई है। गड्ढों में अधिक लवण या क्षार के कारण बीज का अंकुरण अच्छा नहीं होता है। ऐसी अवस्था में 40-50 दिनों तक पालीथीन की थैली, ट्यूब अथवा क्यारी में तैयार मूलवृंत को सावधानी पूर्वक खोदकर भरे गये गड्ढों में स्थानांतरण कर दिया जाता है। रोपण के 35-42 दिन बाद इन्हीं बीजू पौधों पर किस्म अनुसार पैबंदी अथवा विरूपित पैबंदी विधि द्वारा प्रत्यारोपण किया जाना चाहिए।
(ई) सांकुर का चयन
पौध तैयार करने के लिए कली का चयन महत्वपूर्ण है। सांकुर टहनी का चयन किस्म के अनुरूप लगातार कई वर्षो से अच्छी फलत वाले वृक्ष से किया जाना चाहिए। टहनी 2-3 माह पुरानी तथा स्वस्थ व मोटी वानस्पतिक कलियों से युक्त होनी चाहिए। कली के लिये इस प्रकार की टहनी को मातृ वृक्ष से 15-20 सें.मी. की लम्बाई तक काटकर अलग कर लिया जाता है। एक टहनी पर 5-6 स्वस्थ कलियाँ मिल जाती हैं। जून माह में आवश्यकतानुसार सांकुर शाख हेतु अप्रैल में मातृ वृक्षों की गहरी छंटाई कर सिंचाई कर देनी चाहिए व कटाई-छंटाई विलम्ब से करने पर परिपक्व सांकुर शाखाएं आवश्यक मात्रा में नही उपलब्ध हो पाती। बेर में मध्य अगस्त से फूल की शुरुआत हो जाती है। फूल आने के बाद चश्मा हेतु कलिका सुगमता पूर्वक नहीं निकल पाती। अत: मध्य अप्रैल से 15 दिन के अतंराल पर कटाई-छंटाई करते रहने से आवश्यकतानुसार सांकुर शाखें प्राप्त होती रहेंगी। यदि कलिकायन के लिये सांकुर टहनी को दूर भेजना हो तो इन टहनियों को नम स्फेगनम माँस घास में लपेटकर पोलीथीन की थैलियों में बंद कर के आसानी से भेजा जा सकता है। इस प्रकार की टहनी 2-3 दिन तक स्वस्थ दशा में बनी रहती है।
(उ) चश्मा चढ़ाना
चश्मा चढ़ाने के लिए पैबंदी या विरूपित पैबंदी विधि अपनाना चाहिए। चश्मा चढ़ाने का कार्य 15 जून से 15 सितम्बर तक अच्छी सफलता के साथ किया जा सकता है। तैयार मूलवृंत पर चश्मा की क्रिया भूमि सतह से 15 सें.मी. की ऊँचाई पर किया जाता है। अधिक ऊँचाई पर कलिकायन से कलियों के फुटाव में कमी तथा अच्छा विकास नहीं होता है। पैबंदी चश्मा विधि के लिये मूलवृंत पर उचित ऊँचाई पर आयताकार निशान (2.5-3 सें.मी. लम्बा व तने की आधी मोटाई तक) तेज चाकू से लगाकर छिलके को आयत के आकार में निकाल दिया जाता है।
प्रत्यारोपित किस्म की समान आकार वाले कली सांकुर टहनी से सावधानी पूर्वक निकाल कर मूलवृंत पर बनाये गये स्थान पर अच्छी तरह बैठा दिया जाता है। टहनी पर यदि पत्तियाँ हो तो पत्तियों को इस तरह निकालें कि पत्ती की डंठल न टूटें। कलिका को बैठाने के बाद पोलीथीन की पट्टी से कसकर बाँधा जाता है। बाँधते समय ध्यान रहे कि कली की आँख खुली रहे। चश्मा चढ़ाने के बाद मूलवृंत का ऊपरी कुछ हिस्सा काटकर निकाल दिया जाता है इससे कली के विकसित होने में सहायता मिलती है। जैसे ही कली का विकास शुरू हो जाय, जुड़ाव बिंदु के ऊपर से मूलवृंत का शेष भाग पूरी तरह सिकेटियर से काटकर निकाल दिया जाता है। प्रत्यारोपित कलिका जब 8-10 पत्तियों वाली टहनी बन जाय तो पौधे स्थानांतरण योग्य हो जाते है। कलिकायन की इस विधि से लगभग 90 प्रतिशत तक सफलता मिलती है। चश्मा चढ़ाने के बाद मूलवृंत पर जुड़ाव बिंदु से नीचे जितनी भी कलियाँ निकल रहीं हो, उन्हें समय-समय पर निकालते रहते हैं।
(ऊ) कलमी पौधों की देख-रेख
पौधशाला में जब कलमी पौधों पर 10 से अधिक पत्तियाँ हो जाती हैं तो इस अवस्था के पौधों को अधिक दिन रखना उचित नहीं है तथा ऐसे पौधों में स्थानांतरण पश्चात मृत्युदर अधिक होती है। इस अवस्था के पौधों की सांकुर टहनी की वृद्धि तेजी से होती है। परिणामस्वरूप जड़ व शाखा का अनुपात बिगड़ जाता है। यदि इन पौधों को पौधशाला में रखना आवश्यक है तो इनकी उचित काट-छांट तथा पौधशाला में स्थान परिवर्तन आवश्यक है। इसके लिये अक्टूबर के महीने में कलमी पौधों की जुड़ाव बिंदु से 30 सें.मी. की ऊँचाई के बाद की शाखा को काटकर निकाल देते हैं जिससे पौधों की वृद्धि में कमी हो जाती है तथा जड़ व शाखा का अनुपात भी उचित बना रहता है। इस तरह रखरखाव से इन पौधों को आने वाली पौध रोपाई के मौसम (फरवरी-मार्च) में किया जा सकता है। इसके लिये जुड़ाव बिंदु से 10 सें.मी. की ऊँचाई से पौधों को काट देते हैं। ऐसा करने से कई नई शाखा निकलते हैं। इनमें से एक स्वस्थ व सीधी शाखा को रखकर उचित संधाई करते हैं तथा शेष को निकाल देते हैं।
(ऋ) शीर्ष रोपण
गाँव के आस-पास, बंजर जमीन, सड़कों के किनारे आदि स्थानों पर बहुत बड़ी संख्या में देशी बेर (जंगली बेर) के पौधे प्राय: दिखाई देते है। इस तरह के पेड़ पर आकार में छोटे व घटिया गुणों वाले फल लगते है। इस प्रकार अनुपयोगी देशी बेर के वृक्षों को शीर्ष रोपण विधि अपनाकर उपयोगी बनाया जा सकता है। शीर्ष रोपण के लिये इन देशी वृक्षों की मुख्य शाखायें एक मीटर लम्बी रखकर पूरी तरह काट दी जाती है। शाखाओं की कटाई का कार्य अप्रैल-मई के महीने में करते हैं। कटाई के 15-20 दिन पश्चात मुख्य शाखाओं पर कई नई शाखाएँ निकलती हैं। प्रत्येक मुख्य शाखा पर एक स्वस्थ टहनी को रखकर शेष निकाल देते हैं। ये टहनियाँ जुलाई-अगस्त तक कलिकायन के लिए तैयार हो जाती है। इन टहनियों पर अपनी पसंद की किस्म की सांकुर कली चयन कर कलिकायन किया जाता है। कलिकायन के लिए पैबंद चश्मा या विरूपित पैबंद विधि उपयोग में लाई जाती है इस तरह अनुपयोगी वृक्ष 2 वर्षो में उपयोगी बन जाता है तथा इससे जो फल प्राप्त होते हैं, वे उच्च कोटि के होते है।
बेर के पेड़ की आयु लगभग 100 वर्ष आंकी गई है। इसलिए बाग लगाने के लिए योजना सोच समझकर बनानी चाहिए अन्यथा एक बार की गई गलती बाग़ के पूरे जीवन काल तक नहीं सुधारी जा सकती। कई बातें जैसे बेर की किस्म, स्थान का चयन, खेत की तैयारी (विशेषकर क्षारीय व लवणीय मृदा में), पौध रोपाई का समय आदि। बाग़ लगाने के पहले इन पर उचित विचार करना आवश्यक है।
जहाँ तक संभव हो, खेत में मेडबंदी करके खेत को समतल कर लें। यदि भूमि उसरीली है तो ढैंचा की हरी खाद द्वारा भी जीवांश की मात्रा बढ़ाकर भूमि को उपजाऊ बनाया जा सकता है। बारानी क्षेत्र में मेडबंदी आवश्यक है ताकि वर्षा के जल का समुचित उपयोग हो सके।
फलदार वृक्ष प्राय: वर्गाकार विधि द्वारा लगाये जाते हैं। जहाँ लाइन से लाइन तथा पौध से पौध की दूरी समान होती है। पौधों के आपस की दूरी भूमि की दशा पर भी निर्भर करती है। उपजाऊ मिट्टी में दूरी अधिक तथा अनुपजाऊ या उसरीली मृदा में दूरी कम रखी जाती है क्योंकि पौधों का विकास कम होता है। बेर का बाग़ 8 x 8 मीटर की दूरी पर लगाया जाना चाहिए। बेर के साथ आँवला या अमरुद पूरक फसल के रूप में लगाया जा सकता है। विभिन्न प्रकार की बंजर भूमि में आँवले के साथ बेर को पूरक पौधे के रूप में रोपण करने की प्रथा प्रचलित हो रही है। बेर के पौधे से दूसरे अथवा तीसरे वर्ष फलत की शुरुआत हो जाने के कारण बागवानों को आय मिलनी शुरू जो जाती है।
क्षारीय व लवणीय तथा मुरमयुक्त पथरीली मृदा में इसका विशेष महत्व है। इस तरह की भूमि में 1 x 1 x 1 मी. आकार के गड्ढों की खुदाई करके कठोर परत व कंकड़ की परत को तोड़कर निकालना आवश्यक है। जरूरत के अनुसार गड्ढे की गहराई बढ़ाई जा सकती है।
यदि मिट्टी उपजाऊ है तो गड्ढे की दो तिहाई ऊपर की मिट्टी + 50 कि.ग्रा. गोबर की खाद + 100 ग्रा. बी.एच.सी. का मिश्रण का उपयोग किया जाता है। ऊसर प्रभावित क्षेत्रों में गड्ढे की मिट्टी के साथ 2-3 टोकरी रेत+50 किग्रा. गोबर की खाद + 5 किग्रा. बी.एच.सी.के मिश्रण द्वारा गड्ढे भरे जाते हैं। पथरीली जमीन में तालाब या अच्छे खेत की मिट्टी का प्रयोग करें। गड्ढे जमीन से 10 सें.मी. ऊपर तक भरकर खेत में पानी लगा देते हैं, जिससे गड्ढे की मिट्टी अच्छी तरह बैठ जाय।
बेर की बागवानी प्राय: शुष्क अर्ध शुष्क क्षेत्रों में की जाती है जो पूरी तरह वर्षा पर आधारित है इसलिए पौध स्थानांतरण वर्षा ऋतु (जुलाई-सितम्बर) में किया जाता है। नर्सरी से पौध निकालते समय ध्यान रखे कि जड़ों को कम से कम क्षति पहुंचे। यदि पौध पालीथीन की थैली उगाये गये है तो थैली को फाड़कर निकाल दें। सिंचाई की सुविधा होने की दशा में बेर के पौधे जनवरी-फरवरी में भी लगाये जा सकते हैं। इस समय रोपाई के लिए पौधों के साथ मिट्टी की पिंडी के साथ पौध निकालने की आवश्यकता नहीं होती। इस तरीके से लगाने में स्थानांतरण सफलता भी अच्छी है तथा पौधे दूर स्थान भेजने में खर्च भी बहुत कम हो जाता है। पौध सदैव शाम के समय लगाना चाहिए तथा रोपाई पश्चात हल्की सिंचाई अवश्य करें।
प्रारम्भिक अवस्था में स्वस्थ ढाँचा बनाने हेतु पौधों की कटाई-छंटाई आवश्यक है। ढाँचा प्रदान करने का काम 2-3 वर्ष में पूरा कर लिया जाता है तथा चौथे वर्ष पहली फलत ली जाती है। उचित संधाई के लिए पौध लगाने के पश्चात बांस की डंडियों की सहायता से पौधे को सीधा रखना चाहिए। भूमि से 75 सें.मी. तक की शाखायें निकाल देते हैं तथा इसके ऊपर 4-5 शाखायें, जो चारों दिशाओं में विकसित हों, ढाँचा बनाने के लिए चुनी जाती है। इन्हीं शाखों को पूरे पेड़ के रूप में विकसित किया जाता है।
बेर में फूल नई बढ़वार के साथ पत्तियों के कक्ष से निकलती है। अत: स्वस्थ व उचित बढ़वार के लिए प्रति वर्ष नियमित कटाई-छंटाई आवश्यक है। नियमित कटाई न करने से पौधे की फलन शक्ति प्रति वर्ष घटती जाती है तथा फल भी अच्छे गुणों वाले नही मिलते। नियमित छंटाई न करने के कारण अंदर का भाग खाली हो जाता है तथा कुछ ही वर्षो में शीर्ष फलन होने लगती है। कटाई-छंटाई का कार्य फलों की तुड़ाई के पश्चात की जाती है। बेर में कटाई-छंटाई का सबसे अच्छा समय मई महीना है। इस दौरान पौधे पत्ती विहीन होते हैं। यदि बाग कमजोर व कम उपजाऊ भूमि में लगाया गया है तो कटाई के समय एक वर्ष पुरानी शाखाओं का 50 प्रतिशत भाग काटकर निकाल देते हैं। यदि भूमि उपजाऊ हो तो केवल 25-30 प्रतिशत भाग काटा जाता है। कटाई-छंटाई के समय एक दूसरे से रगड़ने वाली, सूखी व रोगी शाखाओं को भी समूल निकाल देना चाहिए। कटाई पश्चात ब्लाइटाक्स कवकनाशी का गाढ़ा घोल बनाकर कटे स्थान पर लगा देते हैं।
जड़ें मूसलाधारी एवं मरुदभिद प्रकृति का होने के कारण यदि एक बार स्थापित हो जाती है तो इसे बहुत कम देख-रेख की आवश्यकता पड़ती है। यहाँ तक कि यह असिंचित क्षेत्रों में भी अच्छी पैदावार देने की क्षमता रखता है। बेर के बाग के चारों तरफ मजबूत मेडबंदी कर देनी चाहिए जिससे वर्षा के पानी का उपयोग पेड़ अच्छी तरह कर सकें। बेर के फलों की तुड़ाई अप्रैल के मध्य तक समाप्त हो जाती है। फल तुड़ाई के बाद धीरे-धीरे प्रसुप्त-अवस्था में प्रवेश करने लगता है तथा मई-जून के महीने में पत्ती विहीन होता है। इस प्रकार अप्रैल से जून तक इन्हें पानी की आवश्यकता नहीं होती। यदि सिंचाई के साधन उपलब्ध हो तो मध्य जून में पहली सिंचाई की जाती है तथा इसी के साथ खाद एवं उर्वरक की पहली मात्रा भी दे देते हैं। वर्षा ऋतु के प्रारम्भ के साथ पौधे में नई फुटाव शुरू हो जाती है जिसके लिए वर्षा का पानी ही पर्याप्त है। सितम्बर-अक्टूबर फूल निकलने का समय है। इस समय बाग़ की सिंचाई नहीं की जाती है। मध्य नवम्बर तक फलन पूरा हो जाता है। फलों की वृद्धि के लिए बाग़ में नमी की आवश्यकता पड़ती है अन्यथा काफी संख्या में फल गिर जाते हैं। यदि संभव हो तो अच्छी पैदावार के लिए इस समय एक सिंचाई आवश्यक है। इसके बाद 1-2 सिंचाई जनवरी-फरवरी में किया जाता है। जो पैदावार में वृद्धि तथा अच्छे गुण वाले फल प्राप्त करने के लिए आवश्यक है।
नये लगाये गये बाग़ की सिंचाई 15-20 दिनों के अंतराल पर थाला विधि से करते है जिससे पौधे अच्छी तरह स्थापित हो जाय। प्रत्येक सिंचाई के बाद बाग़ से खरपतवार निकालते रहते हैं जिससे बाग़ की नमी व पोषक तत्व सुरक्षित रहते हैं।
बहुत कम किसान बेर के बाग़ में खाद एवं उर्वरक का प्रयोग करते है। परिणामस्वरूप धीरे-धीरे पौधों की उत्पादन क्षमता घटती जाती है। समुचित वृद्धि व लगातार अच्छे उत्पादन के लिए प्रतिवर्ष खाद एवं उर्वरक को निम्न मात्रा डालने की सिफारिश की जाती है।
एक वर्ष विकसित पेड़ (5 वर्ष या अधिक) के लिए 40-50 किग्रा. गोबर की खाद तथा 1.50 से 2.50 किग्रा. यूरिया प्रतिवर्ष की मात्रा पर्याप्त है। आयु के अनुसार इसे कम करके डाला जाना चाहिए। कम्पोस्ट या गोबर की खाद की पूरी मात्रा तथा आधी यूरिया की मात्रा जून-जुलाई तथा शेष यूरिया की मात्रा फलन के बाद नवम्बर-दिसम्बर में दी जानी चाहिए। खाद एवं उर्वरक की यह मात्रा पेड़ के तने से कुछ दूरी से जहाँ तक पेड़ का फ्लाव हो, उसके बीच छिटककर मिट्टी में मिला दिया जाता है। उर्वरक देने के बाद हल्की सिंचाई करनी चाहिए। यदि वर्षा की सम्भावना है या वर्षा कुछ पहले हुई हो तो सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है। बारानी क्षेत्रों में 2 प्रतिशत यूरिया के घोल का दो पर्णीय छिड़काव पहला फूल लगने के पहले तथा दूसरा फलन के बाद लाभदायक है। आवश्यकतानुसार फास्फोरस तथा पोटाश का प्रयोग भी किया जाना चाहिए।
बेर नियमित फल देने वाला फल वृक्ष है। कलिकायन द्वारा तैयार पौधे से चौथे वर्ष फल लिया जाता है। फलों की तुड़ाई उत्तरी भारत में किस्म के अनुसार फरवरी से अप्रैल तक चलता है। दक्षिण भारत में तुड़ाई का मौसम नवम्बर से जनवरी का महीना है।
पौधे पर सभी फल एक समय पककर नहीं तैयार होते। अत: तुड़ाई 4-5 बार में की जाती है। तुड़ाई परिपक्वता अवस्था पर ही करनी चाहिए। इसकी पहचान के लिए फल जब अपनी किस्म के अनुरूप रंग का हो जाय तब तोड़े जाने चाहिए। अधपके फलों का बाजार भाव ठीक नहीं मिलता। इस अवस्था में फलों की भंडारण क्षमता भी कम होती है। अत: फलों की तुड़ाई सही समय पर करना आवश्यक है। तुड़ाई हाथ द्वारा की जाती है। डंडे आदि का उपयोग करने पर फलों को चोट पहुंचती है। साथ ही फल को अच्छी दशा में लम्बे समय तक बनाये रखने के लिए फलों की तुड़ाई सुबह या शाम के समय करनी चाहिए।
तुड़ाई उपरांत अच्छे बाजार भाव व लम्बे समय तक भंडारण के लिये फलों का वर्गीकरण आवश्यक है। अत: तुड़ाई के समय किस्म के अनुसार ल अलग-अलग रखा जाता है। इसके बाद फलों को उसके रंग व आकार के अनुसार छंटाई की जाती है। छंटाई उपरांत फलों को बांस की टोकरियों या लकड़ी या गत्ते के डिब्बों में बाजार भेजा जाता है।
यह एक तेजी से बढ़ने वाला फल वृक्ष है तथा पहली फसल बाग लगाने के दो से तीन वर्ष बाद देता है। बाग लगाते समय प्रति इकाई खर्च अन्य कई फसलों की तुलना में बहुत कम है किन्तु आय अधिक होती है। इसके पौधे प्रति वर्ष अच्छी पैदावार देते है। वानस्पतिक विधि से तैयार 8-10 वर्ष के एक पेड़ से किस्म के अनुसार 100-200 किग्रा. तक फल प्रति वर्ष आसानी से मिल जाता है। इस प्रकार प्रति हेक्टेयर बेर के बाग़ से प्रतिवर्ष 25-30 हजार रूपये आसानी से कमाया जा सकता है।
बेर में लगने वाले प्रमुख कीट एवं रोग का वर्णन निम्न है जिसका निदान आवश्यक है।
कीट एवं उनका नियंत्रण
यह बेर की सबसे हानिकारक कीट है। इस कीट का प्रकोप फल बनने के बाद (सितम्बर-अक्टूबर) में होता है जो फलों की तुड़ाई तक बना रहता है। सुंडी की अवस्था में फल के अंदर रहता है तथा गूदे को खाता है। प्रभावित फल समानरूप से नहीं बढ़ते तथा देखने में बेडौल दिखाई देते हैं। इसकी रोकथाम के लिए नवम्बर से आरम्भ में जब फल लग जाए (मटर के आकार के हों) तब पौधों पर 1500 मिली.मेटासिस्ट्रोक्स 30 ई.सी. या 12.50 मिली. रोगार को 1250 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव किया जाता है। यह मात्रा एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिए पर्याप्त है। गर्मियों में बाग़ की जुताई भी इसके प्रकोप को कम करने में सहायक है।
कीड़े की सुंडी दिन के समय तने के भीतर सुरंग बनाकर छुपी रहती है तथा रात्रि के समय निकल कर छाल को खाती है। वृक्ष पर पाये जाने वाले जालों को देखकर इसके आक्रमण का पता लगाया जा सकता है। इस कीड़े की रोकथाम के लिए पहले वृक्ष पर पाये जाने वाले सुरंगों का पता लगाया जाता है। सुरंग के आसपास मल द्वारा तैयार जाला को साफ़ करके सितम्बर-अक्टूबर के महीने में 10 मिली. मोनाक्रोटाफास 30 ई.सी. या मेटासिड 50 ई.सी. को 10 लीटर पानी में घोलकर सुरंग में डाले तथा सुरंग को मिट्टी से बंद कर दें। यही उपचार दुबारा फरवरी-मार्च में दुहरायें। इस उपचार के स्थान पर 10 प्रतिशत मिट्टी का तेल (1 लीटर मिट्टी का तेल + 9 लीटर पानी + 100 ग्राम साबुन का घोल) भी प्रभावकारी पाया गया है।
इसके प्रौढ़ कीड़े की लम्बाई 12-15 मि.मी. तक, रंग हल्का भूरा होता है। यह पत्तियों को खाती है तथा भयंकर प्रकोप की दशा में पेड़ पर पत्तियाँ नाममात्र की बचती है। परिणामस्वरूप उत्पादन बहुत घट जाता है। नियंत्रण के लिए 1250 मि.ली. इंडोसल्फान (थायोडान/इंडोसेल) 35 ई.सी. या कार्बेरित (4.250 कि.ग्रा. सेबिन 50 प्रतिशत घु.पा.) या मैलाथियान (750 मि.ली. मैलाथियान 50 ई.सी. को 1250 लीटर) पानी में घोलकर पेड़ों पर छिड़काव करते हैं। यह मात्रा एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिए पर्याप्त है।
इसके कीट शाखाओं का रस चूसते हैं। जिससे धीरे-धीरे शाखायें सूख जाती है। प्रभावित शाखाओं को काटकर जला देते हैं। पूर्ण नियंत्रण के लिए 0.1 प्रतिशत रोगार का छिड़काव उपयोगी है।
रोग एवं उनका नियंत्रण
चूर्णी फफूंद
यह बहुत ही घातक रोग है। इस रोग का प्रकोप अक्टूबर-नवम्बर में शुरू होता है। इस रोग से फसल को काफी हानि पहुंचाती है। इस रोग के प्रकोप से पत्तियों व फलों की सतह पर सफेद पाउडर की परत दिखाई देती है, जिससे फलों का विकास रुक जाता है तथा फल देखने में गंदा दिखाई पड़ता है। भयंकर प्रकोप की दशा में फल झड़ने भी लगते हैं। इस बीमारी के शुरुआत होते ही केराथेन 0.1 प्रतिशत या 0.2 प्रतिशत सल्फेक्स के घोल का छिड़काव पौधों पर करें। पन्द्रह दिन के अंतर पर यही छिड़काव दुहरायें।
पत्तियों के काले धब्बों वाला रोग
यह रोग आइसरियाप्सिस नामक फफूंद से होता है। इसकी शुरुआत सितम्बर-अक्टूबर में होती है। इस रोग से पत्तियों के निचली सतह पर गहरे रंग के धब्बे दिखाई पड़ते हैं कभी-कभी पत्ती की निचली सतह काली दिखाई पड़ती है। इस रोग के निदान के लिए पौधों पर 0.3 प्रतिशत कॉपर आक्सीक्लोराइड नामक कवकनाशी का छिड़काव उपयोगी है।
फल सडन रोग
यह रोग कई प्रकार के फफूंदी जैसे अल्टरनेलिया स्पीशीज, फोमास्पीशीज, पेस्टालोशिया स्पीशीज आदि से फैलती है। इस रोग के प्रकोप से फल के निचले हिस्से पर हल्के भूरे रंग के धब्बे दिखाई पड़ते है जो धीरे-धीरे पूरे फल पर दिखाई देने लगता है। धब्बों के ऊपर छोटे-छोटे काले धब्बे भी दिखाई देते है। कभी-कभी इन धब्बों पर गहरे भूरे रंग के छल्ले भी दिखाई देते हैं। इस रोग के नियंत्रण के लिए 0.2 प्रतिशत ब्लाइटौक्स कवकनाशी का छिड़काव रोग के लक्षण दिखाई देते ही करना लाभदायक है।
भंडारण
भंडारण बेर की किस्म तथा भंडारण दशा पर निर्भर करती है। पके फल कमरे के तापमान पर लगभग एक सप्ताह तक तथा शीत भंडारण में (400 सें.) पर एक माह तक अच्छी दशा में रखे जा सकते हैं।
बेर के खाद्य पदार्थ
बेर के फल से निम्नलिखित पदार्थ बनाये जा सकते है –
विधि
सूखा बेर
विधि
स्कवैश
सामग्री
गूदा 1.0 किग्रा. चीनी 1.75 किग्रा.
पानी 1.5 लीटर साइट्रिक अम्ल: 40 ग्राम
पोटेशियम मेटावाईसल्पफाइट: 2.4 ग्राम
विधि
स्त्रोत: समेति, कृषि विभाग , झारखण्ड सरकार
अंतिम बार संशोधित : 3/4/2020
अंगूर की खेती की प्रारंभिक जानकारी देते हुए भारतीय...
इस भाग में अनार उत्पादन की तकनीक की जानकारी दी गई ...
इस भाग में आवंला की खेती के बारे में जानकारी दी जा...
इस पृष्ठ में चीकू या सपोटा की खेती के बारे में जान...