क. पमपम डवार्फ़
ख. पमपम
ग. मिग्नान
एनिमोन सदृश्य फूल वाले डहेलिया
कौलरेट डहेलिया
क. पिओनी
ख. कोलरेट डेकोरिव
फार्मल डेकोरिया डहेलिया
इनफार्मल डेकोरेटिव
कैक्टस डहेलिया
सेमी कैक्टस
स्थान व मिट्टी – डहेलिया उगाने के लिए खुली धूपदार जगह अच्छी होती है। डहेलिया किसी भी प्रकार की मिट्टी में उगाया जा सकता है। परंतु उचित उर्वरा तथा अच्छे जल निकास वाली मृदा इसके लिए उत्तम होती है। समय पर मिट्टी की जुताई गुड़ाई करके भूमि को समतल बना लेना चाहिए। जहाँ अधिक वर्ष होती हो ऐसे जगह पर इसकी रोपाई मेड़ों पर करना चाहिए।
पौध रोपण की दूरी – डहेलिया की कंदों की रोपाई इनकी किस्मों पर निर्भर करता है। इसकी रोपाई 45 सेमी से 60 सेमी की दूरी पर करना चाहिए।
अच्ची तरह से तैयार मृदा के ऊपर अच्छी सड़ी हुई खाद पर्याप्त मात्रा में डाल कर अच्छी तरह से मिट्टी में मिला देना चाहिए। पुष्पन के पहले द्रव खाद दिया जाना लाभकारी पाया जाता है और यदि उर्वरक देना हो तो 4:10:6 नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं पोटाश युक्त मिश्रण बनाकर देना चाहिए। अच्छे फूलों के लिए पोटाश युक्त मिश्रण बनाकर देना चाहिए। अच्छे फूलों के लिए पोटाश का डालना बहुत जरूरी है। खाद एवं उर्वरक डालने के बाद तुरंत सिंचाई करना चाहिए। पुष्पन काल में पानी की कभी नहीं होना चाहिए।
डहेलिया को गमलों में उगाना – डहेलिया लगाने के लिए मिट्टी की मिश्रण इस प्रकार तैयार करें।
दोमट मिट्टी |
10 किग्रा |
सड़ी पत्ती की खाद |
5 किग्रा |
गोबर की खाद |
7 किग्रा |
हड्डी की खाद |
100 ग्राम |
सुपरफास्फेट |
30 ग्राम |
म्यूरेट ऑफ पोटाश |
20 ग्राम |
चूना |
5 – 10 ग्राम |
उपर्युक्त मिश्रण में चूना 10 दिन पहले मिला देना चाहिए। तब इसे गमलों में भरना चाहिए।
पौधे लगाने का समय
मैदानी भागों में – अक्टूबर – नवंबर
पहाड़ी भागों में मार्च – मार्च – अप्रैल
डहेलिया में तीन विधियों से प्रवर्धन होता है। अधिकतर इसे कंदों या बीजों द्वारा उगाया जाता है।
कलम द्वारा डहेलिया का प्रवर्धन मुख्यत: व्यावसायिक उद्यानों में किया जाता है। कलमें जिन पौधों से काटी जाती है वे घने उगाये जाते हैं। इन्हें नई शाखाओं से उस समय काटी जाती जब उनमें पक्तियां 3 – 4 समूह में आ जाते हैं। इन कलमों को सावधानी पूर्वक कांट-छाटकर पंक्ति में एक दुसरे से 2.5 सेमी की दूरी पर शुद्ध रेत में उगाया जाता है। पंक्ति की दूरी 7.5 सेमी रखी जाती है।
यह डहेलिया के प्रवर्धन की सबसे सुगम और प्रचलित विधि है। इस विधि में कंदीय जड़ों को अलग – अलग करके बोया जाता है। कंदों को अलग करते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि प्रत्येक कंद के साथ तने का कुछ भाग अवश्य रहे, ताकि उसकी आँख से नई शाखाएं विकसित हो सके। इस प्रकार कंदीय जड़ों को अलग अलग करके बोया जाता है। इस बाद का ध्यान रखना चाहिए कि हर टुकड़ें से कम से कम एक आंख अवश्य हो।
डहेलिया के पौधों पर रोग और कीटों का प्रकोप कम होता है।कभी – कभी एफिड, टिड्डे, कुतरे स्कज तथा बीटल पौधों पर आक्रमण करके उन्हें नुकसान पहुंचाते है। जैसिड, पत्तियों के निचले भाग में पत्ती का रस चूसते है। इसकी रोकथाम का लिए मेटासिस्टाक्स या रोगर या मोनोक्रोटोफ़ॉस आदि में किन्हीं एक किटाणुनाशक दवा का 1.5 से 2.0 मिलीलीटर/ लिटर पानी के अनुसार घोल बनाकर 10 – 15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करना चाहिए। डहेलिया पर असिता तथा मूलग्रंथी रोग का आक्रमण होता है। असिता रोग की रोकथाम के लिए कॉपर सल्फेट के घोल का सप्ताह में दो बार छिड़काव करके नियंत्रण पाया जाता सकता है। 3–4 बार छिड़काव करने से इसका नियंत्रण हो जाता है।
मूलग्रंथी में कंद अनियमित आकार के होते है तथा गांठे बन जाती है तथा गांठे बन जाती है। रोगी पौधों को उखाड़कर अलग कर देना चाहिए।
पुष्पन समाप्त होने के बाद सूख जाते है तो कंदों को निकालकर किसी सुरक्षित स्थान पर एकत्रित कर लेना चाहिए। कंद के साथ तने का 7-10 से. मी. हिस्सा अवश्य रहना चाहिए। सूशूप्तावस्था के दौरान कंदों को नमी की अधिकता से बचाना चाहिए। रोगों से बचाव के लिए उन पर गंधक का चूर्ण या कैप्टान को भूरककर उन्हें सूखी रेत में अलग – अलग दबाकर किसी छायादार स्थान पर रख देना चाहिए तथा बोआई का उचित समय आने पर निकालकर उचित विधि से बोआई करना चाहिए।
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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