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आय बढ़ाने में उपयोगी प्याज एवं लहसुन की नई प्रौद्योगिकियां

आय बढ़ाने में उपयोगी प्याज एवं लहसुन की नई प्रौद्योगिकियां

परिचय

प्याज का उत्पादन खरीफ, पछेती खरीफ और रबी मौसमों के किया जाता है। खरीफ प्याज की फसल बाजार में स्थिर आपूर्ति बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। नवंबर की बाद रबी फसल का संग्रहित भंडार समाप्त हो जाता है। खरीफ प्याज का उत्पादन कम होने के कारण दिसंबर और जनवरी में प्याज की आपूर्ति में कमी आती है। इससे इन दो महीनों में प्याज की कीमतों में वृद्धि हो जाती है। इसलिए खरीफ प्याज का उत्पादन बढ़ाकर किसान ज्यादा कीमत प्राप्त कर अपनी आय बढ़ा सकते हैं। खरीफ में प्याज का कम उत्पादन होने के मुख्य कारण पानी का जमाव, रोगों एवं कीड़ों का प्रकोप और अनियंत्रित खरपतवार हैं। भा.कृ.अ.नु.प. – प्याज एवं लहसुन अनुसंधान निदेशालय ने खरीफ प्याज की उत्पादन के एक विशिष्ट प्रौद्योगिकी विकसित की है। इसके प्रयोग से किसान प्याज की उत्पाकता बढ़ाकर उच्च कीमत प्राप्त कर सकते हैं।

खरीफ प्याज की उत्पादन प्रौद्योगिकी

प्याज एवं लहसुन का लगभग सभी सब्जियों में उपयोग किया जाता है। इनमें कई औषधीय गुण भी हैं। गत बीस वर्षों में भारत में प्याज का उत्पादन चार गुणा तह लहसुन का उत्पादन चार गुणा तथा लहसुन का उत्पादन दोगुणा बढ़ा है। भा.कृ.अ.नु.प. – प्याज एवं लहसुन अनुसंधान निदेशालय ने इस वृद्धि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

उष्ण हवा और गर्मियों में पानी की कमी के कारण खरीफ मौसम में स्वस्थ पौध तैयार करनी मुश्किल होती है। नतीजतन, पौध तैयार करनी मुश्किल होती है। नतीजतन, पौध मृत्युदर उच्च होती है। इस समस्या के समाधान के लिए चयनित किस्मों के बीजों को थिरम/कार्बेन्डाजिम (2 ग्राम/कि. ग्रा.) या ट्राईकोडर्मा (4 – 6 ग्रा/किग्रा.) के साथ उपचारित किया जाना चाहिए। मई – जून में उपचारित बीज को पौधशाला में बोना चाहिए। शेडनेट द्वारा प्रारंभिक आंशिक छाया का प्रावधान करना चाहिए, जिससे युवा पौधों को धुप से बचाया जा सके। इस फसल में टपक या फव्वारा सिंचाई का उपयोग सिंचाई का उपयोग फायदेमंद साबित होता है। इससे 40 – 50 प्रतिशत पानी की बचत होती है, तथा 90 से 100 प्रतिशत बीज अंकुरण सुनिश्चित होता है। पौधशाला के लिए 10 – 15 सें. मी. ऊंचाई, एक मीटर चौड़ाई और सुविधा के अनुसार लंबाई की उठी हुई क्यारियां तैयार की जानी चाहिए। क्यारियों के बीज की दूरी कम से कम 30 सें. मी होनी चाहिए, जिससे एक समान पानी का बहाव हो सके।

उठी हुई क्यारियां एवं टपक सिंचाई

उठी हुई क्यारियों की पौधशाला में बीज बोने तथा खेत में पौधों की रोपाई के लिए सिफारिश की गई है। समतल क्यारियों में ज्यादा पानी की वजह से बीज बह जाने का खतरा रहता है। खरीफ मौसम के दौरान खेतों में जल जमाव के कारण विनाशकारी काला धब्बा (एन्थ्रोक्नोज) रोग का प्रकोप होता है। उठी हुई क्यारियों में टपक सिंचाई करना खरीफ प्याज उत्पादन के लिए सबसे अच्छी विधि का प्रयोग है। खरीफ फसल में 5 - 8 बार, पछेती खरीफ फसल में 10 – 12 बार और रबी फसल में 12 – 15 सें. मी. बार सिंचाई की जरूरत होती है। पौध को 15 सें. मी. ऊँची और 120 सें. मी. चौड़ी क्यारियों में 10 – 15  सें. मी. की दूरी पर लगाना चाहिए। हर चौड़ी उठी हुई क्यारी में 16 मि. मी. आकार की दो टपक लेटरल नालियां अंतर्निहित उत्सर्जकों के साथ होनी चाहिए। दो अंतर्निहित उत्सर्जकों के बीच की दूरी 30 – 50 सें. मी. और प्रवाह की दर 4 लीटर/घंटा होनी चाहिए। दो क्यारियों के बीच की दूरी 45 सें. मी. होनी चाहिए। शोध परिणामों से पता चला है की बाढ़ सिंचाई की तुलना में टपक सिंचाई से ‘ए’  श्रेणी के कंद की अधिकता, 35 – 40 प्रतिशत की वृद्धि होती है।

2.60 लाख रूपये की आय भीमा सुपर प्याज से

खरीफ उत्पादन प्रौद्योगिकी की अपनाकर महाराष्ट्र में विदर्भ क्षेत्र के किसानों ने सफलतापूर्वक खरीफ प्याज की खेती की है। निदेशालय के मार्गदर्शन में विदर्भ के देऊलगाँव के एक प्रगतिशील किसान श्री नामदेवराव अढ़ाऊ ने 4 एकड़ जमीन में प्याज उठी हुई चौड़ी क्यारियों में पौध तैयार की। लगभग 40  दिनों की पौध निकालकर जड़ों को कार्बेन्डाजिम एवं कार्बोसल्फान के घोल में डुबोकर बाद में इनकी रोपाई की गई। उन्होंने अगस्त के पहले सप्ताह में खेत में रोपाई करने के पश्चात निदेशालय के दिशानिर्देशों के अनुसार उर्वरक प्रबंधन एवं पौधों की सुरक्षा की सिफारिशों का पालन किया और 2. 60 लाख रूपये प्रति एकड़ का शुद्ध मुनाफा अर्जित किया। खरीफ में विदर्भ क्षेत्र में 30 – 60 प्रतिशत प्याज का नुकसान हुआ था और अन्य किसानों को 2 - 4  टन/एकड़ उपज की प्राप्त हुई थी। ऐसे में श्री अढ़ाऊ ने 10 टन/एकड़ प्याज की उच्च उपज भा. कृ. अ. नु. प. – प्याज एवं लहसुन अनुसंधान निदेशालय की सिफारिशों का पालन करके प्राप्त की।

उर्वरकों का संतुलित उपयोग

प्रयोगों से पता चला है कि 40 टन/हेक्टयर प्याज कंद का उत्पादन करने  के लिए 90 – 95 कि. ग्रा. नाइट्रोजन, 30 – 35 किग्रा. फास्फोरस और 50 – 55  किग्रा. पोटाश की जरूरत पड़ती है। संस्तुत नाइट्रोजन की एक तिहाई और फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा रोपाई के समय देनी चाहिए। नाइट्रोजन की शेष दो - तिहाई  मात्रा दो भागों में विभाजित कर रोपाई के 30 और 45 दिनों के बा देनी चाहिए। इसके साथ - साथ गंधक प्याज कंद के तीखापन में सुधार लाने के लिए और प्याज का उत्पादन बढ़ाने के लिए एक महत्वपूर्ण पोषक तत्व है। अगर गंधक स्तर 15 कि. ग्रा./हेक्टयर से ऊपर है, तब 30 कि. ग्रा./हे. से नीचे है तब 45 कि. ग्रा./हे. गंधक का इस्तेमाल करना चाहिए। गंधक, रोपाई के समय आधारीय मात्रा के रूप में डाला जाना चाहिए। रोपाई के 45 और 60 दिनों बाद 0.5  प्रतिशत की दर से जस्ते का पर्णीय छिड़काव करने से प्याज कंद के पोषक तत्वों की गुणवत्ता  में सुधार होता है। मृदा परिक्षण में जिस सूक्ष्म पोषक तत्व की कमी का पता चलता है, उस तत्व का इस्तेमाल करना चाहिए। जैविक उर्वरक एजोस्पाईरिलियम और फॉस्फोरस घोलने वाले जीवाणु की 5 कि. ग्रा./हे. की दर से प्याज की फसल में प्रयोग की सिफारिश की गई है एजोस्पाईरिलियम जीवाणु, नाइट्रोजन स्थिरीकरण द्वारा मिट्टी में नाइट्रोजन की उपलब्धता को बढ़ाते हैं। फॉस्फोरस घोलनेवाले जीवाणु  के इस्तेमाल में मृदा में मौजूद फॉस्फोरस पौधों को उपलब्ध होता है।

खरपतवार और रोग/ कीट प्रबंधन

खरपतवार के कारण उपज में 30 – 40 प्रतिशत की  कमी आ सकती है। खरपतवार नियंत्रण के लिए ऑक्सीफ्लोरेफेन (23.5 प्रतिशत ईसी) 1.5-2.0  मि. ली./लीटर या पेंडीमिथालीन (30 प्रतिशत ईसी) 3.5-4.0 मि. ली./लीटर का इस्तेमाल रोपाई से पहले या रोपाई के समय करना चाहिए। रोपाई के 40 – 60  दिनों बाद एक बार हाथ से निराई करनी चाहिए। खरीफ मौसम में काला धब्बा या बैंगनी धब्बा जैसे रोगों का अक्सर प्रकोप होता है। आमतौर पर रबी मौसम में स्टेमफिलियम का प्रकोप होता है। कीड़ों में, थ्रिप्स, प्याज की वृद्धि और पैदावार को प्रभावित करने वाली प्रमुख कीट है। समेकित कीट प्रबंधन जैसे की थिरम/कार्बेन्डाजिम (2 ग्राम/किग्रा) या ट्राईकोडर्मा (4 – 6 ग्राम/किग्रा.) से बीज उपचार, पौधों की जड़ों को रोपाई से पूर्व कार्बेन्डाजिम 1.5 ग्राम/लीटर एवं कार्बोसल्फान एक मिली./लीटर एवं कार्बोसल्फान एक मि. ली./लीटर के घोल में 2 घंटे डुबोकर रखना, रोपाई के 30 दिन बाद मैन्कोजेब (2 ग्राम/लीटर) + मेथोमिल (1 ग्राम/लीटर) का पर्णीय छिड़काव; रोपाई के 60 दिनों बाद आवश्यकता के अनुसार हैक्सेकोनाजोल (1 ग्राम/लीटर)+ प्रोफेनोफास (1 मि. ग्रा./ लीटर) के पर्णीय छिड़काव और मक्का और की फसल की दो पंक्तियों प्याज क्षेत्र की सीमा पर बाधा फसल के रूप में लगाने आदि से रोगों एवं कीड़ों को नियंत्रित किया जा सकता है। छिड़काव करते समय स्टीकर (0.5 – 1.0 प्रतिशत) डालना चाहिए।

9.8 टन प्रति एकड़ प्याज की उपज

कई किसानों ने निदेशालय की प्रौद्योगिकियों को अपना कर दोगुनी आय प्राप्त की है। पुणे जिले के गोसमी गाँव के एक किसान श्री रविन्द्र गोरडे द्वारा निदेशालय की प्रौद्योगिकी अपनाने के बाद उनके प्याज की पैदावार में भारी वृद्धि हुई है। श्री गोरडे ने पौधशाला में भीमा शक्ति का बीज बोया था । उनहोंने पौधशाला तैयार करते समय तथा रोपाई के समय निदेशालय के दिशानिर्देशों का पालन किया। खरपतवार प्रबंधन तथा कीट एवं रोगों के नियंत्रण में भी उन्होंने निदेशालय की सिफारिशों को ध्यान में रखा।  इसके परिणामस्वरुप उन्हें अच्छी गुणवत्ता 9.8 टन/एकड़ उपज प्राप्त हुई। पहले उन्हें सिर्फ 1.5  टन/एकड़ उपज ही प्राप्त होती थी। चूंकि उनके प्याज कद अच्छी गुणवत्ता के थे. उन्हें 21  रूपये प्रति किग्रा. की विपणन दर मिली। इससे पहले वह 10 रूपये प्रति किग्रा. के बाजार भाव से प्याज बेचते थे। इस प्रकार, श्री गोरडे कहते हैं कि उन्हें मेरा गाँव मेरा गौरव योजना के तहत निदेशालय की प्रौद्योगिकी अपनाकर लाभ मिला है।

किस्मों का चयन

उत्पादन बढ़ाने में सही किस्म का चयन महत्वपूर्ण होता है। भा. कृ. अ. नु. प – प्याज एवं लहसुन  अनुसंधान निदेशालय ने मौसमों के अनुसार देश में विभिन्न क्षेत्रों में खेतों के लिए उपयुक्त प्याज की विकसित किया है। भीमा रेड, भीमा सुपर, भीमा राज, भीमा डार्क रेड, भीमा सुपर और भीमा सफेद किस्में खरीफ मौसम के लिए उपयुक्त है। ये किस्में जल्द परिपक्व होती है और इनमें बिक्री योग्य कंदों का प्रतिशत अधिक होता है। इन किस्मों से से भीमा डार्क रेड के अलावा, अन्य किस्मों की सिफारिश पछेती खरीफ के लिए की गई है। भीमा सुपर, भीमा डार्क रेड और भीमा श्वेता उन क्षेत्रों में सेट के माध्यम से प्याज की खेती करने में उपयोगी होती है। जहाँ भारी बारिश के कारण रोपाई करना मुश्किल होता है। अच्छी भंडारण क्षमता वाली किस्में भीमा शक्ति, भीमा किरण और भीमा लाइट रेड की सिफारिश रबी मौसम के लिए की गई है। भीमा शक्ति को पाछेती खरीफ मौसम में भी उगाया जा सकता है। भीमा राज और भीमा रेड किस्में सभी तीन मौसमों में उगाई जा सकती है।

प्याज की किस्म भीमा शुभ्र से किसान समूह मालामाल

महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में जहाँ सफेद रंग के प्याज को लाल रंग के प्याज की अपेक्षा अधिक पसंद किया जाता है। वहां के लिए निदेशालय द्वारा विकसित किस्म भीमा शुभ्रा को उपयुक्त  पाया गया। विदर्भ में सफेद प्याज की यह किस्म उच्च और बाजार की मांग के कारण बेहद लोकप्रिय है। इस किस्म के प्रदर्शन से प्रभावित होकर अकोला जिले के बारह गांवों के लगभग 300 किसानों ने एक समूह बनाया और इस समूह के अधिकांश किसान सदस्य भीमा शुभ्रा किस्म को लगाकर एक लाख रूपये/एकड़ से अधिक का शुद्ध लाभ कमा रहे रहे हैं।

खुदाई पश्चात् नुकसान कम करना

लगभग 40 – 50 प्रतिशत नुकसान भंडारण में होता है। उचित तकनीक का इस्तेमाल कर इस नुकसान को कम किया जा सकता है। प्याज की फसल 50 प्रतिशत ग्रीवा गिरने के बाद निकाली जानी चाहिए। हालाँकि, खरीफ के मौसम में 90 -110 दिनों में कंद परिपक्व हो जाते हैं, लेकिन पौधे सक्रीय विकास के चरण में ही रहते हैं और इनमें ग्रीवा गिरने के लक्षण नहीं दिखाई देते। ऐसे में कंद के संपूर्ण विकास के बाद, खुदाई से दो – तीन पहले ग्रीवा गिरावट को प्रेरित करने के लिए खाली ड्रम घुमाना चाहिए। कंदों को खुदाई के बाद तीन दिनों के लिए खेत में सूखने के लिए छोड़ देना चाहिए, जिससे कंद शुष्क हो जाते हैं और उनकी जीवनावधि बढ़ जाती है। तीन दिनों के बाद 2.0 – 2.5 सें. मी. ग्रीवा को छोड़कर सबसे ऊपर का भाग हटा देना चाहिए तथा उसके बाद 10 – 12 दिन के लिए कंदों को छाया में रखना चाहिए ताकि बेहतर भंडारण हो सके। प्याज के कंदों को भंडारण से पहले वर्गीकृत किया जाना चाहिए। खरीफ और पछेती खरीफ प्याज की अपेक्षा रबी प्याज में बेहतर भंडारण क्षमता होती है। सतह एवं बाजू से हवादार दो पंक्तिवाला भंडारगृह या कम लागत वाला सतह और बाजू से हवादार एकल पंक्ति भंडारगृह में प्याज का भंडारण करने की सिफारिश की गई है। अच्छे भंडारण के लिए भंडारगृहों का तापमान 30- 350 सेल्सियस तथा सापेक्ष आर्द्रता 65 – 70 प्रतिशत होनी चाहिए।

लहसून उत्पादन प्रौद्योगिकी

निम्नलिखित उत्पादन तकनीक को अपनाने से किसान लहसुन की खेती से अधिक लाभ कमा सकते हैं –

लहसून भीमा पर्पल से एक लाख रूपये/एकड़ की कमाई

भा.कृ.अ.नुप – प्याज एव लहसुन अनुसंधान निदेशालय द्वारा विकसित उच्च उपज देने वाली लहसुन की किस्म भीमा पर्पल महाराष्ट्र और आस – पास के राज्यों के लिए सफलता की कहानी बन गई है। बहिरवाड़ी, जिला अहमदनगर (महाराष्ट्र) के एक किसान श्री विष्णु रामचंद्र जरे ने निदेशालय से लहसुन किस्म भीमा पर्पल के एक किग्रा. मातृकंद वर्स 2007 में ख़रीदे। निदेशालय की सिफारिश की गई प्रौद्योगिकी के अनुसार उन्होंने लहसुन की विभिन्न किस्मों का परिक्षण किया, जिसमें भीमा पर्पल सबसे अधिक उत्पादन देने वाली किस्म थी। गुणन के बाद उनहोंने पिछले कुछ वर्षों में ऐसी व्यावसायिक फसल को लगाकर एक समान आकार और रंग के लहसुन कंदों का उच्चतम उत्पादन 40 क्विंटल/एकड़ प्राप्त किया। उनहोंने इन लहसुन कंदों को 80 – 100 रूपये प्रति किग्रा. के भाव से अन्य किसानों को बीज के रूप में बेचकर 2 लाख रूपये/एकड़ का शुद्ध लाभ अर्जित किया। वह जेऊर, जिला अहमदनगर की एक अन्य महिला किसान श्रीमती लता अर्जुन कोठीवरे के साथ मिलकर भीमा पर्पल का निरंतर गुणन कर रहे हैं वर्ष 2014 – 15 में इन दोनों ने भीमा पर्पल को लगभग 40 एकड़ क्षेत्र में लगाया और उससे प्राप्त उपज को महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात और मध्य प्रदेश के विभिन्न किसानों को बीज के रूप में बेच दिया। उनके यहाँ से यह किस्म अब विभिन्न राज्यों के 600 एकड़ से अधिक क्षेत्रों में लगाई जा रही है। अधिकांश किसान भीमा पर्पल   की खेती करके एक लाख रूपये/एकड़ से अधिक का शुद्ध लाभ कमा रहे हैं।

किस्मों का चयन

देश के विभिन्न क्षेत्रों एवं मौसमों के लिए भा.कृ.अ.नु प. – प्याज एवं लहसुन अनुसंधान निदेशालय द्वारा लहसुन की दो किस्मों, भीमा ओमकार और भीमा पर्पल विकसित की गई है। लहसुन की ये दोनों किस्में किसानों में लोकप्रिय हैं। सफेद रंग की किस्म भीमा ओमकार 120 – 135 दिनों में परिपक्व होती है। और इसकी औसत उपज 10 – 12 टन/हे. है। आकर्षक बैंगनी रंग के छिलके वाली लहसुन की किस्म भीमा पर्पल 135 – 140  दिन में परिपक्व होती है और इसकी औसत उपज 6 – 8 टन/हे. है।

रोपण तकनीक

लहसुन के रोपण के लिए कलियों का चयन महत्वपूर्ण होता है। बीज लहसुन कंदों से प्रत्येक  कली को अलग किया जाता है। कली के बाह्य छिलके को हटा देना चाहिए और कली के आधारीय भाग को नुकसान पहुंचाये बिना कली का इस्तेमाल रोपण के लिए करना चाहिए, क्योंकि नुकसानग्रस्त कली रोपण के लिए अनुपयोगी होती है। रोपण के लिए बड़ी कलियों (1.5 ग्राम) का चयन किया जाना चाहिए। पौध स्थापना के समय कवकीय रोगों एवं कीड़ों के प्रकोप के कम करने के लिए रोपण से पूर्व कलियों को कार्बेन्डाजिम 1.5 ग्राम/लीटर एवं कार्बोसल्फान एक मि. ली./लीटर के घोल में डूबोकर निकलें। चयनित कलियों का रोपना मिट्टी की ऊपरी सतह से 2 सें. मी नीचे उर्ध्वाकार विधि से करना चाहिए तथा ऐसा करते समय  पौध से पौध के बीच 10 सें. मी. एवं पंक्ति से पंक्ति के बीच 15 सें. का फासला बनाये रखनी चाहिए।

उठी क्यारियां एवं टपक सिंचाई

अति उथली जड़ प्रणाली वाली कंद फसल होने के कारण लहसुन में बार – बार सिंचाई करने के जरूरत पड़ती है। लहसुन की फसल में मृदा की नमी को ध्यान में रखते हुए रोपाई के तुरंत बाद तथा फिर 7 -10 दिन के अंतराल पर सिंचाई की जानी चाहिए। टपक सिंचाई तकनीक के उपयोग से जल की बचत करने में मदद मिलती है एवं इससे विपणन योग्य कंद उपज में उल्लेखनीय रूप से सुधार आता है। टपक सिंचाई में, 15 सें. मी. ऊँची और 120 सें. मी. चौड़ी क्यारियों में कलियों को 15 x 10 सें. मी. के अंतर पर रोपा जाना चाहिए।। प्रत्येक क्यारी में 16 मि. मी. आकार की दो टपक लेटरल नालियां अंतर्निहित उत्सर्जकों के बीच की दूरी 30 – 50 सें. मी. होनी चाहिए। टपक सिंचाई प्रणाली से जहाँ एक ओर जल, श्रम एवं उर्वरकों की बचत करने में मदद मिलती है वहीँ दूसरी ओर इससे बाढ़ सिंचाई प्रणाली की तुलना में 15 – 25 प्रतिशत तक लहसुन कंदों की पैदावार में वृद्धि होती है।

उर्वरक का संतुलित उपयोग

अखिल भारतीय प्याज एवं लहसुन अनुसंधान नेटवर्क परियोजना के तहत विभिन्न स्थानों पर आयोजित खेत परीक्षणों के आधार पर 75 किग्रा. नाइट्रोजन/हे. के समतुल्य दो अथवा तीन जैविक खाद (पोल्ट्री खाद 7.5 टन/हे. अथवा वर्मी कम्पोस्ट 7.5 टन/हे. या गोबर की खाद 15 टन/हे.) सिफारिश बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान एवं तमिलनाडु के लिए की गई है। हरियाणा, उत्तराखंड एवं उत्तर प्रेदश में 100 : 50 : 50 :50  किग्रा. के अनुपात में क्रमशः: नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटाश एवं गंधक की पूरी मात्रा रोपाई के समय आधारीय मात्रा के रूप में डालनी चाहिए। नाइट्रोजन की शेष दो – तिहाई मात्रा के दो समान भागों में रोपण के 30 एवं 45 दिन पश्चात् देना चाहिए।

खरपतवार और रोग/कीट प्रबंधन

प्रभावी खरपतवार नियंत्रण के लिए रोपण से पहले अथवा रोपण के समय औक्सिफ्लोरोफें (23.5 प्रतिशत ईसी) 1.5 – 2.0 मिली./लीटर या पेंडीमिथालीन (30 प्रतिशत ईसी)  3.5 -4.0 मिली./ लीटर का अनुप्रयोग करना चाहिए। रोपण के 40 – 60  दिन के पश्चात् एक बार हाथ से निराई करने की सिफारिश की गई है। रोग एवं कीट प्रबंधन प्याज की फसल जैसे ही किया जाना चाहिए।

खुदाई पश्चात् नुकसान को कम करना

पत्तियों के 50 प्रतिशत सूखने पर लहसुन की खुदाई की जानी चाहिए। खुदाई, लहसुन कंदों के साथ पौधे को खींचकर करनी चाहिए। शीर्ष के साथ लहसुन के कंदों को खुदाई के बाद दो से तीन दिनों तक खेत में सुखाना चाहिए ताकी सूक्ष्मजीव तथा कवक संक्रमण को और भंडारण के समय को न्यूनतम करके लहसुन के कंदों को खुदाई के बाद दो से तीन दिनों तक खेत में सुखाना चाहिए ताकि सूक्ष्म जीव तथा कवक संक्रमण को और भंडारण के समय को न्यूनतम करके लहसुन कंदों का भंडारण काल बढ़ाया जा सके। अच्छी तरह से साफ किया गये लहसुन कंदों को 5 - 6 महीने के लिए हवादार भंडारगृहों में भंडारित किया जा सकता है। भंडारण से पूर्व कंदों का श्रेणीकरण कर उन्हें 20 – 25  पौधों के एक बंडल से सिरों के साथ बाँध देना चाहिए और आपस में मजबूती से बांध देना चाहिए। ऐसे बंडलों को हवादार भंडारगृहों में सीधी स्थिति में लटकाकर रखना चाहिए। यदि बड़ी मात्रा में भंडारण करना हो तब इन्हें 4 फीट व्यास वाले वृत्त में 3 फीट की ऊंचाई तक व्यवस्थित किया जाना चाहिए। कंदों की व्यवस्था करते समय ढेर का व्यास नीचे 4 फीट एवं ऊपर की ओरधीरे – धीरे कम करते हुए शीर्ष पर 3 फीट होना चाहिए। कंदों के दो ढेरों के बीच बेहतर वायु संचरण के लिए उचित अंतर होना चाहिए।

लेखन : शैलेन्द्र गाडगे और मेजर सिंह

स्त्रोत: कृषि, सहकारिता एवं किसान कल्याण विभाग, भारत सरकार

अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020



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