काजू (एनाकार्डियम ऑक्सी डेन्टेकल एल), एनाकार्डियेसिया कुटुंब का है। यह भारत में सबसे पहले पुर्तगालियों द्वारा 16वीं सदी में लाया गया था। काजू कर्नल का प्रयोग मिष्टान्न तैयार करने में किया जाता है। काजू के कवच से बहुत ही उपयोगी तेल उपलब्धा होता है जिसका औद्योगिक कार्यों के लिए प्रयोग किया जाता है। इस तेल को काजू कवच द्रव कहा जाता है। काजू आपिल को यूँ ही फल की तरह खाया जाता है या फल-सलाद में मिलाया जाता है या फिर इसके रस से पेय तैयार किया जाता है। काजू आपिल से एक मादक पेय भी तैयार किया जाता है जो फनी नाम से प्रसिद्ध है।
काजू एक उष्ण कटिबंधी फसल है। यह उष्णह, गीले तथा प्ररूपतया उष्णहकटिबंधी जलवायु में पलता है। सामान्यत: काजू की खेती 700 मी. से कम ऊॅचाई वाली जगहों में ही होती है जहाँ पर तापमान 20° सें. से कम नहीं होता। फिर भी, कभी-कभी ये 1200 मी. तक की ऊँचाई पर भी पलते हैं। वैसे, तटीय प्रदेश ही काजू के लिए सबसे अनुकूल है। काजू एक ढीठ फसल है जो अनावृष्टि की अवस्थार का भी सहन कर लेती है। परंतु सर्दी इसके लिए एकदम प्रतिकूल है।
सामान्यत: प्रतिवर्ष 600-4500 मि.मी. वृष्टि प्राप्तृ क्षेत्रों में ही काजू की खेती की जाती है। लेकिन पुष्पीन-काल में वृष्टि कम होने पर ही बेहतर फसल होता है। नटों का परिपक्वगन भी कम वृष्टि में ही बहतरीन होता है।
काजू की सही परवरिश के लिए धूप ज़रूरी है। यह फसल छाया बरदाश्तह नहीं करती। यह कम अवधि के लिए 36° सें. तक का तापमान बरदाश्त् कर सकती है। पर इसके लिए सबसे अनुकूल तापमान 24 - 28° सें. है।
काजू के उत्पादन में जलवायु के निम्न लिखित असर होते हैं :
काजू एक ढीठ फसल है जो सिवाय भारी चिकनी मिट्टी, दलदली मृदा व लवण मिट्टी के अन्या सभी प्रकार की मृदा में पलती है। फिर भी, जलोत्सा रित लाल, बलुई तथा लैटराइट मृदा ही इसके लिए सबसे अनुकूल है।
प्रत्येंक क्षेत्र के लिए अनुकूलतम किस्मि तथा पैकेज चुनना अनिवार्य है। भारत के विभिन्न अनुसंधान केंद्रों में तैयार तीस से अधिक ऐसी किस्में हैं जो निर्यात-कोटि का कर्नल उत्पािदित करती हैं।
रोपण सामग्री चुनते वक्त अत्यंत सावधानी बरतनी है। काजू का, बहुत बड़ी मात्रा में पर-परागणन होता है। अत: खरी रोपण सामग्री उत्पन्न करने के लिए व्यावसायिक पैमाने पर कायिक प्रवर्धन संस्तु्त है।
काजू के लिए सामान्य्त: संस्तुईत अंतराल 7.5 X 7.5 मी. से 8 X 8 मी. तक है जिसे प्रबंधन-क्षमता तथा मृदा के अनुसार 4 X 4 मी. तक कम किया जा सकता है। रोपण के 7-9 साल तक जगह की बचत केलिए उच्च सघन रोपण पद्धति अपनाई जा सकती है जिसमें अंतराल 4 X 4 मी., 5 X 5 मी. या 4 X 6 मी. होता है। 8-9 साल बाद अधिशेष पौधों को निकालकर अंतराल को 6 X 8 मी., 8 X 9 मी. या 10 X 10 मी. तक बढाया जा सकता है।
काजू में वर्ग रोपण प्रक्रिया उत्तम है। सबसे अनुकूल रोपण काल मानसून ऋतु (जून-अगस्त) ही है जब पूर्वी तट तथा पश्चिमी तट की वायु में आर्द्रता की मात्रा अधिक होती है। जहाँ पर सिंचाई की सुविधा उपलब्धप हो वहाँ शीत काल को छोड़कर अन्य किसी भी महीने में रोपण किया जा सकता है। सामान्यशत: काजू 60 X 60 X 60 मी. के गड्ढों में रोपा जाता है। गड्ढों को रोपण के 15-20 दिवस पहले ही खोदकर सूर्यप्रकाश में खुला छोड़ दिया जाता है ताकि कलमों की जड़ खराब करने वाले दीमक व चींटी दूर हो जाएं। गड्ढे का तीन-चौथाई भाग उपरिमृदा तथा जैव खाद के मिश्रण से भरा जाता है। कलमों को रोपने से पहले उसके बाहर के पॉलीथीन बैग निकाला जाता है। रोपते वक्तस खयाल रहना चाहिए कि कलम-जोड़ ज़मीन से कम से कम 5 सें.मी. ऊपर हो। कलम-जोड़ पर जो पॉलीथीन टेप लगाया होता है उसे भी अत्यंत सावधानी से निकालना चाहिए। कलमों को तीक्ष्ण हवा से बचाने के लिए रोपण के तुरंत बाद स्थूयणन अनिवार्य होता है। रोपण के पहले कुछ सालों में पौधों की द्रोणी जैवापशिष्ट् से पलवारा जाए।
ठीक मात्राओं में उर्वरक व खाद लगाना, पेड की वृद्धि तथा पुष्पदन में सहायक होता है। प्रति पेड़ 10-15 किलो गोबर या कंपोस्ट लगाना उपयोगी होता है। काजू के लिए संस्तुयत उवर्रक है, 500 ग्राम नाइट्रोजन (1.1 किलो यूरिया),125 ग्राम P2O5 (265 ग्राम रॉक फॉस्फेूट) तथा 125 ग्राम K2O (208 ग्राम पॉटैश म्यूरियट) प्रति पेड़ प्रति वर्ष। उर्वरक डालने का अनुकूलतम समय भारी वृष्टि के तुरंत बाद की अवधि है जब मृदा में काफी नमी हो। रोपण के पहले तथा दूसरे सालों में उर्वरक की उपर्युक्तै मात्राओं की क्रमश: एक तिहाई तथा दो तिहाई उर्वरक डालना चाहिए। तीसरे साल से पूरी मात्रा में उर्वरक डालना चाहिए।
तने के आसपास 2 मीटर के व्या6सार्घ तक की सफाई हाथ से की जाए। निराई रासायनिकों से भी संभव है। इसके लिए एक लीटर पानी में 6-7 मिलीलीटर ग्लाइफॉसेट मिलाकर जून-जुलाई महीने में लगाया जाता है।
मृदा की आद्रता बनाए रखने एवं मृदा-अपर्दन रोकने के लिए समय-समय पर पेड़ों की द्रोणी पलवारना अनिवार्य होता है। पलवारन यदि जैवमात्रा से हो तो और भी बहत्त र होगा क्योंणकि इससे अपतृण का नियंत्रण होता है साथ ही, गरमी के मौसम में उपरि-मृदा से जल-वाष्पोन होने की जो प्रवृत्ति है उसमें भी रोकथाम होगा और मृदा का तापमान भी ठीक रहेगा। ढालू जगहों में खाइयॉं खोदकर पलवारा जाता है। ऐसा करने से, मृदा संरक्षण एवं आर्द्रता संरक्षण होता है और उत्पादन भी बढता है।
काजू-बागानों में कांटछांट बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। रोपण के पहले साल में काजू-कलमों के प्रकंदों से फूटने वाले अंकुरों को बारंबार तोड़ना अनिवार्य है। इसी प्रकार आगे चलकर भी पेड़ के निचले प्ररोहों, आड़े-तिरछे प्ररोहों तथा सूखे प्ररोहों को समय-समय पर निकालने से पुष्पन व फलन में वृद्धि होती है।
वैसे तो भारत में वृष्टिमय स्थितियों में ही काजू की खेती की जाती है। लेकिन गरमी के महीनों में प्रति पेड़ 200 लीटर की दर पर हर चौदह दिन सिंचाई करने से उत्पारदन बढ़ जाता है।
काजू बागानों में प्रत्येपक क्षेत्र की मृदा, जलवायु व अन्यं स्थाकनीय परिस्थितियों के आधार पर अदरक, हल्दी्, दाल, टैपियोका आदि का अंतर्रोपण किया जा सकता है। पेड़ों के बड़े हो जाने पर काली मिर्च का भी अंतर्रोपण किया जा सकता है।
काजू बागानों में दिखाई देने वाले कुछ प्रमुख पीड़क हैं चाय मच्छर, तना वेधक, पर्ण सुरंगक, पर्ण मंजरी जालक आदि। इनमें चाय मच्छर व तना वेधक सबसे खतरनाक हैं।
चाय मच्छर : चाय मच्छर बाध से उपज में 30-40% कमी होती है। यह मृदु प्ररोहों, पुष्पोंच तथा अपरिपक्वछ नटों को क्षति पहुँचाता है। वैसे तो इसका आक्रमण हर साल और हर ऋतु में होता है लेकिन सबसे तीक्ष्ण आक्रमण अक्टूबर से मार्च तक के काल में होता है। इस पीड़क का नियंत्रण तीन फुहारों की फुहार-योजना से किया जा सकता है।
स्त्रोत: काजू और कोको विकास निदेशालय, भारत सरकार
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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