झारखंड की जलवायु तथा मिटटी जैट्रोफा की खेती के लिए उपयुक्त है। सभी 24 जिलों में वृहत जलवायु तथा समशीतोष्ण प्रक्षेत्रों में पथरीले, रेतीले, कम उपजाऊ तथा बंजर भूमि पर खेती की जा सकती है। दोमट भूमि में खेती अच्छी होती हैं, परन्तु जल जमाव वाली जमीन खेती के लिए उपयुक्त नहीं है। अन्य प्रदेशों में जैसे मध्य प्रदेश, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान आदि के किसान भी जैट्रोफा की खेती करते है।
जैट्रोफा को आम भाषा में रतनजोत कहा जाता है। इसे विभिन्न स्थानों पर लगभग 200 नामों से जाना जाता है जैसे सफेद अरण्ड, जंगली अरण्ड, बाघ्र अरण्ड, चद्र्जोत, जमालगोटा आदि। इसका वैज्ञानिक नाम “जैट्रोफा करकस” है। किसान जुलाई माह में जैट्रोफा के बीज सीधी बुआई द्वारा तैयार गड्ढों में कर जैट्रोफा के पौधे उगा सकते है। बोने के पहले बीज को 12 घंटों तक पानी में भिंगोते हैं।
उपज: दिसम्बर-जनवरी में काले रंग के फलों को तोड़ लेते है। तीसरे वर्ष किग्रा. बीज प्रति पौधा प्राप्त होता है। पौधे वर्ष में 1 किग्रा./पौधा तथा आगे प्रति वर्ष उपज बढ़ती है। स्वस्थ एवं मजबूत पौधे होने पर 3-4 किग्रा. प्रति पौधा की दर से उपज प्राप्त कर सकते है। प्राय: 6-10 रु./किग्रा. बीज की विक्रय दर से आय प्राप्त कर सकते है। पेराई कर तेल बेचने पर अधिक आय मिलती है।
व्यक्तिगत एवं सामुदायिक स्तर पर जैट्रोफा की खेती रोजगार के रूप में की जा सकती है। गाँवों की पथरीली एवं बंजर भूमि पर इसकी खेती कर के रोजगार एवं आय का सरल स्त्रोत माना जा सकता है। पौधों को जंगली पशु, पालतू पशु एवं फलों एवं बीजों को चिडियों से नुकसान नहीं होता है। अच्छी रख-रखाव होने से 30-40 वर्षो तक आर्थिक लाभ प्राप्त कर सकते है। इसका उपयोग जैव इंधन, औषधि, जैविक खाद, रंग बनाने, भूमि सुधार, भूमि कटाव रोकने, खेत की मेड पर बाड़ के रूप में तथा ग्रामीण स्तर पर रोजगार बढ़ाने के लिए करते है।
स्त्रोत: कृषि विभाग, झारखंड सरकार
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