धान का तनाछेदक: वयस्क कीट प्रायः रात्रि में बिचरते है। नवजात पिल्लू कुछ समय तक पत्ती के उत्तकों को खाती है उसके बाद गाँठ के पास से तना में छेदकर उसमें प्रवेश का रजाती है और तना के मध्य में रहती है और अंदर की ओर खाती रहती हैं अधिक प्रकोप होने पर ऊपर की पत्तियां भूरी होकर सुख जाती है, किन्तु निचली पत्तियां हरी बनी रही है इस अवस्था को मृतकेंद्र (डेट हार्ट) कहते हैं इसमें बाली नहीं निकलती है। बाली निकल जाएं के बाद कीट के आक्रमण होने पर बाली सुखकर सफेद हो जाती हैं एवं उसमें दाने भी नहीं बनते हैं। यदि दाने बनते भी है तो वे सिकुड़ हुए होते हैं।
धान की रोपाई के पांच दिन पूर्व बिचड़ा में ही दानेदार कीटनाशी जैसे कारटाप हाइड्रोक्लोराइड 4 जी या कार्बोफुरान 3 जी का व्यवहार 1.0 कि.ग्रा. ए.आई की दर से करना चाहिए अर्थात कारपाट हाइड्रोक्लोराइड 10 कि.ग्रा. या कार्बोफूरोन 12 कि. ग्रा. प्रति एकड़ की दर से व्यवहार करना चाहिए। दानेदार कीटनाशी के व्यवहार समय बिचड़ा के खेत में 4-5 सेंटीमीटर पानी रहना जरुरी है।
आवश्यकता होने पर धान रोपने के 35 एवं 55 दिनों के बाद मिथाईल डिमेटोन का छिड़काव् करना चाहिए। 1 लाख ट्राईको ग्रामा जैपोनिक्म (5 ट्राईको कार्ड) हे./सप्ताह ३ बार के व्यवहार से इस कीट का रोकथाम हो जाता है।
पूर्ण विकसित मक्खी एक मच्छर एक समान होती है वयस्क कीट रात्रि में सक्रिय होते हैं। एक मादा अपने जीवनकाल में 100 से 285 तक अंडे देती है मादा मक्खी पत्ती के आधार या पर्ण पटल पर अंडे देती हैं तीन दिन में अंडे फुट जाते हैं। नवजात शिशु पर्ण के बीच नीचे पहूँचकर बढ़वार बिंदु को खुरच-खुरच का खाना प्रारंभ कर देता है शिशु के खाने के प्रतिक्रियास्वरूप ‘सिलभर शूट’ का निर्माण होता है जो प्याज की गोल पत्ती के समान दिखाई देता है ऐसे तनों पर बाली नहीं निकलती है। धान में कल्ले निकलने का समय इस कीट का प्रकोप बढ़ जाता है।
तनाछेदक के नियंत्रण के लिए व्यवहार की गई कीटनाशी से इस कीट का भी रोकथाम हो जाता है।
शिशु पत्तियों के दोनों सतहों के बीचों-बीच रहकर कोशिकाओं को खाता है जिसके कारण पत्तियों में उजली धारियां बन जाती हैं ये धारियाँ विशेष उर्प से मध्यशिरा के समानान्तर होती है। अधिक प्रकोप होने पर पत्तियां सफेद हो जाती है एवं अंततः गिर जाती है वयस्क कीट पत्तियों को खुरचकर हरियाली को खा जाती जिसके कारण पत्तियां सुखकर गिर जाती है।
नियंत्रण: कलोरपारीफास 20 ई. सी. या क्वीनालफास तरल (एकालक्स) का छिड़काव् (1.0 मि.ली. प्रति लीटर पानी ) करना लाभदायक होता है।
वयस्क कीट छोटा होता है जिसका रंग बर्फ जैसा सफेद होता है कीट का पंख सफेद या हल्के भूरे एवं पीले रंग कि धारियों से युक्त होता है इस कीट का आक्रमण छोटे पौधों खासकर जल्द रोपें गए पौधों पर अधिक होता है किन्तु कभी-कभी ये बड़े पौधों को भी हानि पहुंचाते हैं। इस कीट का शिशु अपने शरीर के चारों तरफ पत्तियां को लपेटकर खोल बना लेती है तथा उसी में रहकार पत्तियों को काट-काटकर खाती हैं पत्तियों द्वारा बनाया गया खोल (नाली) एवं पत्ती का कटा भाग पानी में तैरता हुआ दिखाई पड़ता है नवजात शिशु पत्तियों के निचला भाग को खुरचकर खा जाती है एवं ऊपरी भाग वैसा ही लगा रहता है जो कागज के समान दिखाई पड़ती है।
इसका शिशु (निम्फ) लंबा एवं पीलापन लिए हर हर होता हैं व्य्यस्क कीट के शरीर से तीखी दुर्गन्ध निकलती हैं प्रारंभ में इसका निम्फ एवं वयस्क दोनों ही पत्तियों का रस चूसते हैं जिसके कारण पत्तियों में पीले धब्बे भूरा लिए हुए दिखाई पड़ते हैं फलतः पत्तियां पीली होने लगती है, पौधों कि बढ़वार रुक जाती है बाली में दूध आने पर कीड़े, बाली का रस चूस लेते हैं जिसके कारण दानों में छोटे-छोटे भूरे धब्बे बन जाते हैं। एस चूसने के कारण दाने सिकुड़ जाते हैं। ऐसे दानों को खखरी कहते हैं।
गंधी कीट के नियंत्रण के लिए क्वीनालफास 1.5% धुल या मिथाएल पाराथियोन 2% धुल का भुरकाव 10 कि.ग्रा. प्रति एकड़ की दर से करना चाहिए।
नर कीट एक अगले पंख पर गहरे रंग का काला धब्बा पाया जाता है। मादा कीट में इस प्रकार के धब्बे नहीं होते हैं और अगला भाग भूरे रंग का होता है। निम्फ एवं वयस्क दोनों ही पत्तियों, कोमल तनों एवं अन्य कोमल भागों से रस चूसते हैं जिसके कारण पौधे छोटे एवं पीले हो जाते हैं।
मिथाएल डिमेटोन तरल का छिड़काव् (1.0 मि.ली./ली. पानी) करने से कीड़ों का नियंत्रण होता है। इमिडाल्कोपरीड का छिड़काव् 1.0 मि.ली./ली. पानी) प्रभावकारी होता है।
यह कीट गहरे भूरे रंग का होता है। यह कीट पौधे के तने से रस चूसते हैं फलतः तने के बीच के पिथ को खाने से पत्तियां सुखी हुई एवं भूरी हो जाती है फसलें प्रायः गोलाकार चकती में सुख जाती है जिसको हौपर वर्न कहते हैं।
इमिडाल्कोपरीड का छिड़काव् 1.0 मि.ली./ली. पानी करने से भूरा मधुआ को नियंत्रण किया जा सकता है।
कल्ले आने की अवस्था में सैनिक कीट का शिशु झुण्ड में आक्रमण करता है इसको आरोहक कटवी के नाम से भी पुकारते हैं। कल्ले की अवस्था में शिशु शाखा को काट देता है। इस कीट का आक्रमण अधिकतर टांड वाले फसलों पर या वैसे खेतों में होता है जिसमें पानी जमाव नहीं होता है। इसका आक्रमण प्रायः रात में होता है और दिन में पौधों के बीच या ढेलों में छिपा रहता है।
डायकलोरभेस 5 मि.ली.+टिपोल 5.0 मि.ली. एवं 10 लीटर पानी के मिश्रण तैयार कर छिड़काव् करने से लाभ होता है।
पलममौथ: इस कीट का आक्रमण अरहर, सेम, कुल्थी इत्यादि पर होता है। इसका शिशु प्रारंभ में पत्तियों को खाता है तथा बाद में पहली को छेदकर बीजों को खा जाता है।
मादा कीट फली में छेदकर अंडे देती है। 3-4 दिनों में अंडे फूटने पर शिशु (मैगट) निकलता है जो पाने को रेशमी धागों से चिपका लेता है और उसे ही खुरच-खुरच कर खाता है बाद में मैगट (शिशु) सुरंग बनाकर खाता है। मैगट सुरंग में मल भर देता है यह फली के अंदर प्रवेश कर बीज को खाता है। पूर्ण विकसित मैगट बीज से बाहर निकलकर फली में एकछेद बनाता है।
प्रौढ़ वग लगभग 20 मि.मी. लंबा होता है। नवजात निम्फ कुछ-कुछ लाल रंग का होता है अंतिम एवं पांचवें निर्मोचन के बाद वग का रंग भूरा हो जाता है। वयस्क एवं निम्फ दोनों ही पत्तियों, कोमल तने एवं पुष्प की कलिकाओं का रस चूसते हैं किन्तु इसका आक्रमण मुख्यरूप से फलियों पर होता है जिसके कारण फलियों पर हल्के रंग के धब्बे बन जाते हैं। अधिक प्रकोप होने पर फलियाँ सिकुड़ जाती है, दानें का विकास नहीं हो होता है।
मादा कीट पत्तीओं के निचले सतह में अंडे देती हैं एक सप्ताह में अंडे फूटने के बाद पिल्लू पत्तियों की वाह्यत्वचा को खुरचकर खाती हैं किन्तु बाद में पत्तियों को मोड़कर उसी में रहकर पत्तियों को खाती है।
इसका शिशु पुष्पगुच्छ, कली एवं पत्तियों को खाकर बर्बाद कर देती है प्रारंभिक अवस्था में पिल्लू कोमल पत्तियों को जला में बांधकर पत्तियों खुरचकर खाती हैं जब पौधे में पुष्पगुच्छ खिलते हैं तो उन्हें भी जाला बांधकर खाती हैं। जब कलियाँ निकलती हैं तो कलियों को भी जाला में लपेटकर कलियों के अंदर प्रवेश कर जाती हैं। फलियाँ बनने पर पिल्लू फली में प्रवेश कर दानों को खा जाती है। क्षतिग्रस्त फली सिकुड़ जाती हैं तथा सुखकर काली हो जाती है।
पहला छिड़काव् फसलों इमं 50% फूल निकलने पर एवं दूसरा छिड़काव् 15 दिनों के बाद करना चाहिए। आवश्यकता होने पर तीसरा छिड़काव् 15 दिनों एक बाद करना लाभदायक होता है। पहला छिड़काव् इंडोसल्फान तरल )1 लीटर पानी में 2 मि.ली.) या कलोरपारीफास 20 ई.सी.( एक ली. पानी में 2 मि.ली.) से करना चाहिए। दूसरा छिड़काव् मिथाएल डिमेटोन (एक ली. पानी में 1.0 मि.ली.कीटनाशी) से करना चाहिए। आवश्यकता होने पर तीसरा छिड़काव् ट्रायजोफास तरह (एक ली. पानी में 1.0 मि.ली.कीटनाशी) से करना लाभदायक होता है।
भुआ पिल्लू: मध्य आकर का पतंगा हल्के भूरे रंग का पीलापन लिए होता है जो रात्रि में प्रकाश की ओर उड़ता है। वयस्क कीट के पंखों पर काले-काले धब्बे होते हैं। इसके उदर का ऊपर हिस्सा लाल रंग का होता है जिसके ऊपर छोटे-छोटे काले धब्बे पाए जाते हैं। नवजात पिल्लू हरे या पीलापन लिए हुए समूह में पायी जाती है। इसमें बहुत छोटे-छोटे बाल होते हैं पूर्ण विकसित पिल्लू करीब 38 से 40 मि.ली. लंबी होती है इसका शरीर पीले नारंगी तथा भूरे रंग के बाल से ढंके होते हैं।
नवजात शिशु झुण्ड में पत्तियों कि निचली सतह पर रहकर हरियाली को चाट जाते हैं जिसके कारण पत्तियों की ऊपर सतह कागज के समान दिखलाई पड़ती है एवं केवल शिराओं का जाल ही रह जाता है बड़ा होने पर पिल्लू इधर-उधर बिखर जाते हैं और पौधें की पत्तियों को क्षति पहुंचाती है। इसका पिल्लू रबी में लगाए गये नवजात पौधों को कभी-कभी पूरी तरह से नष्ट का देती है।
यह कीट 1.0 से 1.5 मि. मी. लंबा होता है। इसका शरीर का रंग पीला होता है। इनके दो जोड़ी सफेद पंख होते हैं एवं पिल्लू पंख काफी लंबे होते हैं। मादा कीट पत्तियों की निचली सतह पर अंडे देती है 3-4 दिन में अण्डों से निम्फ निकलते ही पत्तियों का रस चुसना प्रारंभ कर देता है। निम्फ कोमल तनों का भी रस चूसता है जिसके कारण पौधे कमजोर होकर सूखने लगते हैं। पत्तियों का आकर बेढंगा हो जाता है। यह कीट फसलों पर मधुबिंदु का विसर्जन करता है जिस पर काला फफूंद का विकास हो जाता है फलतः प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में बाधा उत्पन्न हो जाती है। यह कीट मुंग एवं उरद में वायरस रोग (मोजेक) फैलाता है।
वयस्क कीट 3.0 मि.मी. लंबा होता है। इसके पंखों पर छोटे काले धब्बे होते हैं। सिर पर दो काले धब्बे होते हैं निम्फ एवं वयस्क दोनों ही पत्तियां का रस चूसते है जिसके कारण पत्तियां सिकुड़ जाती हैं पत्तियों का रंग पीला हो जाता है एवं बाद में भूरी होकर सुख जाती है पत्तियां कप की तरह नीचे की ओर मुड़कर सुख जाती है और जमीन पर गिर जाती है यह कीट पत्तियों के सूखते समय विषैला पदार्थ छोड़ती है जिसका असर पत्तियों पर होता है।
पूर्ण विकसित पिल्लू (लार्वा) 30-35 मि.मि.लंबी होती है, जिसका रंग हल्का पीलापन लिए हुए हरा होता है पिल्लू के छूने से यह लूप बनाता है और नीचे गिर जाता है। इसका पिल्लू पत्तियों को खाती है। अधिक आक्रमण होने पर सम्पूर्ण पत्तियां विकृत हो जाती है कभी-कभी तो पूरी पत्तियां को खा जाती हैं और केवल शिराएं ही बच जाती हैं कभी-कभी पिल्लू कोमल प्ररोह एवं कली को भी नुकसान करती है।
लाही प्रायः 2 मि.मि. लंबे एवं गोलाकार होते हैं। इनके मुखांग चुभाने एवं चूसने वाले होते हैं। इसका निम्फ एंव वयस्क दोनों ही कोमल पत्तियों, प्ररोहें, फूलों एवं फलियों को रस चूसते हैं जिसके कारण पौधे कमजोर हो जाते हैं, पौधे पीले हो जाते हैं एवं पौधों कि वृद्धि भी रुक जाती हैं।
तना बेधक: वयस्क कीट हल्का पीलापन लिए भूरे रंग का होता है। नवजात पिल्लू पत्तियों को खुरच-खुरचकर खाती है और बाद में पत्तियों में छोटे-छोटे छेद कर देती है इसके बाद पिल्लू तना में प्रवेश कर तना को खाना शुरू कर देती है। पूर्वं विकसित पिल्लू हल्के भूरे एवं मटमैले रंग का होता है जिसका सिर काला होता है। पिल्लू की पीठ पर लंबी-लंबी चार धारियां होती है पूर्ण विकसित पिल्लू 2.5 सेंटीमीटर लंबी होती है पूर्ण विकसित पिल्लू तना के अंदर ही प्यूपा में परिवर्तित हो जाती है यह कीड़ा मार्च से नवंबर तक सक्रिय रहता है। यदि कीट का आक्रमण के बाद ही होती है तो पौधों में ऊपर की पत्तियां यानि मध्य कलिका सुख जाती है तथा अंत में पौधा भी सुख जाता है। सुखी हुई फुनगी या मध्य क्लिक को मृतकेंद्र (डेड हाटी) कहते हैं। यदि कीट का आक्रमण पौधा के बड़े होने पर होता है तो पौधा कमजोर हो जाता है एवं तेज हवा के चलने से पौधे गाँठ से ही टूट जाते हैं।
पर्ण सुरंगक: शिशु पत्तियों में सुरंगें बना देती है फलतः पत्तियों पर सफेद धारियां बन जाती है अधिक प्रकोप होने पर पत्तियां बिलकुल झिल्लीदार हो जाती है सूखे स्थानों में इस कीट का प्रकोप बढ़ जाता है।
इस कीट को रत्नभृंग के नाम से भी पुकारा जाता है इसके शरीर पर धारीदार अंडे देती है इन अण्डों से प्रायः 3-5 दिन में शिशु (भृंगक) निकलते है। यह सफेद रंग का होता है इसका शरीर का अगला भाग चौड़ा एंव पिछला भाग नुकीला होता है। नवजात भृंगक तने में छेद करके अंदर घुस जाता है एवं उसे भीतर ही भीतर खाते रहता है। कभी-कभी भृंगक तना से नीचे की तरफ खाना शुरू करता है जिसके कारण तने में सुरंग बन जाती है फलतः पौधा सूख जाता है।
स्त्रोत एवं सामग्रीदाता: कृषि विभाग, झारखण्ड सरकार
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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