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फलों की खेती पर अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न

फलों की खेती पर अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न

  1. फलदार पोंधों में खाद के विषय में लीची के पौधों को कितनी खाद व उर्वरक दें?
  2. आम की बागवानी हिमाचल प्रदेश में आम कहाँ उगाए जाते है? आम के पौधों के लिए किस तरह की जलवायु की आवश्यकता होती है?
  3. आम की बागवानी हिमाचल प्रदेश में आम की कितनी किस्में उगाई जाती हैं?
  4. आम की बागवानी आम के पौधों का रोपण कब किया जाता हैं?
  5. आम की बागवानी आम के पौधों का प्रवर्धन किस तरह किया जाता हैं?
  6. आम की बागवानी नर्सरी से लाए गए पौधों का रोपण से पहले उपचार कैसे करते हैं?
  7. आम की बागवानी आम के फलों को गिरने से किस प्रकार बचाया जा सकता है?
  8. आम की बागवानी आम के मुख्य कीट एवं बीमारियां कौन सी हैं?  उनका उपचार किस प्रकार किया जा सकता हैं?
  9. स्ट्राबैरी की खेती हिमाचल प्रदेश में स्ट्राबैरी की खेती किन-किन क्षेत्रों में की जाती हैं?
  10. स्ट्राबैरी की खेती के लिए किस तरह की जलवायु और मिटटी का होना अनिवार्य हैं?
  11. स्ट्राबैरी की खेती हिमाचल प्रदेश में स्ट्राबेरी की कितनी किस्में तैयार की जाती हैं?
  12. स्ट्राबैरी की खेती स्ट्राबैरी के पौधें लगाने का उचित समय कौन सा हैं?
  13. स्ट्राबैरी के पौधें किस तरह तैयार किये जाते हैं?
  14. स्ट्राबैरी के लिए कौन सी खाद उपयुक्त हैं? खाद किस मिक्दार में कब डालनी चाहिए?
  15. स्ट्राबैरी की खेती में मल्चिंग का क्या महत्त्व हैं?
  16. स्ट्राबैरी के फलों की तुड़ाई कब करनी चाहिए?
  17. हिमाचल प्रदेश में सेब की बागवानी कहाँ संभव है?
  18. सेब की बागवानी के लिए कौन सी मिट्टी उपयुक्त है?
  19. हिमाचल प्रदेश में सेब की कौन सी किस्मे उगाई जाती है?
  20. सेब के पौधो के रोपण का उपयुक्त समय कौन सा है?
  21. सेब के पौधो को रोपित करने के लिए गडढे का आकार कितना होना चाहिए,तथा अन्य किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?
  22. सेब के बगीचों में पौधों से पौधो के बीच की दूरी कितनी होनी चाहिए?
  23. सामान्य परिस्थितियों में सेब के बगीचों में कौन सी खाद की आवश्यकता होती है?
  24. सेब के पौधों की कांट-छांट किस विधि से करनी चाहिए?
  25. सेब के फलों का तुड़ान कब और कैसे करना चाहिए?

फलदार पोंधों में खाद के विषय में लीची के पौधों को कितनी खाद व उर्वरक दें?

लीची के पौधों को खाद तथा उर्वरक पौधों की आयु के अनुसार दी जाती है । 1 से 3 वर्षों तक के पौधों को 10 से 20 कि. ग्रा. गोबर की खाद, 0.3 से 1.0 कि. ग्रा. किसान खाद, .02 से 0.6 कि. ग्रा. सिंगल सुपर फास्फेट तथा .05 से 0.15 कि. ग्रा. म्युरेट ऑफ पोटाश प्रति बीघा प्रति वर्ष डालें । 4 से 6 वर्षों तक के पौधों को 25 से 40 कि. ग्रा. गोबर की खाद, 1.0 से 2.0 कि. ग्रा. किसान खाद, 0.75 से 1.25 कि. ग्रा. सिंगल सुपर फास्फेट तथा 0.2 से 0.3 कि. ग्रा. म्युरेट ऑफ पोटाश प्रति बीघा प्रति वर्ष डालें । 8 से 10 वर्षों तक के पौधों को 40 से 50 कि. ग्रा. गोबर की खाद, 2.0 से 3.0 कि. ग्रा. किसान खाद, 1.5 से 2.0 कि. ग्रा. सिंगल सुपर फास्फेट तथा 0.3 से 0.5 कि. ग्रा. म्युरेट ऑफ पोटाश प्रति बीघा प्रति वर्ष डालें । 10 वर्ष से ऊपर तक के पौधों को 60 कि. ग्रा. गोबर की खाद, 3.5 कि. ग्रा. किसान खाद, 2.25 कि. ग्रा. सिंगल सुपर फास्फेट तथा 0.6 कि. ग्रा. म्युरेट ऑफ पोटाश प्रति बीघा प्रति वर्ष डालें ।

आम की बागवानी हिमाचल प्रदेश में आम कहाँ उगाए जाते है? आम के पौधों के लिए किस तरह की जलवायु की आवश्यकता होती है?

हिमाचल प्रदेश की निचली पहाड़ियो, मैदानी क्षेत्रों जिनकी ऊंचाई 1200 मीटर तक हो में ही आम की खेती की जाती है। इसकी खेती के लिए गरम आर्द्र यानि उष्ण जलवायु अधिक उपयुक्त है। जिन क्षेत्रों में अधिक पाला पड़ता हो या वौर आने के समय अधिक आर्द्र वायु मंडल बना रहता हो, वो क्षेत्र आम की काश्त के लिए उपयुक्त नही माने जाते हैं, आम की खेती के लिए गहरी दोमट मिटटी जिसमे पानी निकास का अच्छा प्रबंध हो सबसे उत्तम मानी जाती हैं।

आम की बागवानी हिमाचल प्रदेश में आम की कितनी किस्में उगाई जाती हैं?

हिमाचल प्रदेश में आम की केवल चार ही प्रजातियां उगाई जाती हैं, ये चार प्रजातियां, मालदा, दशहरी, लंगड़ा और चौसा है। सफल बागवानी के लिए आवश्यक है की पौध सामग्री का चुनाव ठीक प्रकार से किया जाए, केवल अनुमोदित प्रजातियों के ही पौधे लगाने चाहिए। पौधे स्वस्थ एवं ओजस्वी होने चाहिए।

हिमाचल प्रदेश में आम की उगाई जाने वाली प्रजातियों के विशेष गुणों का व्योरा इस प्रकार है:

1. बाम्बे ग्रीन [मालदा] यह मालदा का एक प्रकार है और शीघ्र पकने वाली किस्म है। फल व गुठली मध्यम आकार के और छिलका हरा होता है। यह एक अच्छे गुणों वाली किस्म है।

2. दशहरी:- यह देर से पकने वाली किस्म है। इसके फल लंबे, पतले तथा छिलका पीला होता है। गुदा रेशा रहित रसदार व मीठा होता है। इसकी सुगंध बहुत अच्छी होती है। यह किस्म प्रतिवर्ष फल देती है। फल काफी समय तक भण्डारण किया जा सकता है।

3. लंगड़ा:- यह देर से पकने वाली किस्म है। इस किस्म के फल व गुठली पतले से मध्यम आकार के तथा छिलका पकने के बाद भी हरा रहता है। इसका गुदा भूरे रंग का, रसदार तथा रेशा रहित होता है। यह किस्म एक साल छोड कर फल देती हैं।

4. समर वहिशत चौसा [चौसा] यह देर से पकने वाली किस्म है। इसके फल तथा गुठली मध्यम आकार के तथा छिलका पीला और फल बहुत ही अच्छे गुणों वाले होते हैं।

5. मल्लिका: यह किस्म नीलम और दशहरी के संकरण से तैयार की गई है। इसके फल मध्यम आकार के अच्छे स्वाद और सुगंध युक्त होते है। फल का रंग हल्का पीला होता हैं।

6. आम्रपाली: यह प्रजाति नियमित व अधिक फल देने वाली है। इसके पौधे बौने होते है। फल मध्यम आकार के गुददा स्वादिष्ट रेशा रहित होता हैं।

आम की बागवानी आम के पौधों का रोपण कब किया जाता हैं?

वर्षा पर आधारित क्षेत्र-जुलाई-अगस्त; जहाँ सिंचाई सुविधा हो-फरवरी-मार्च; पौधों का फासला 8×10 मीटर; आम्रपाली में यह दूरी 3×3 मीटर।

आम की बागवानी आम के पौधों का प्रवर्धन किस तरह किया जाता हैं?

व्यावसायिक स्तर पर आम के पौधें विनियर ग्राफ्टिंग द्वारा तैयार किये जाते हैं। ग्राफ्टिंग मार्च या जून के दुसरे पखवाड़े से बीच गमलों में या सीधे गड्ढों में तैयार किये गए मूल्वृन्तों पर की जाती है। बीजू पौधों के लिए जंगली फल की गुठली उपयुक्त समझी जाती हैं। पके हुए फल से गुठली लेने के एक सप्ताह के बीच ही इसे बो देना चाहिये। “इन सीटू” पौध रोपण की स्थिति में एक गड्ढे में तीन बीज बोने चाहिए।

आम की बागवानी नर्सरी से लाए गए पौधों का रोपण से पहले उपचार कैसे करते हैं?

आम के पौधों को मुरझाने से बचाने हेतु खेत के एक कोने में,किसी बड़े पेड़ के नीचे अस्थाई पौधशाला बनाये। इसमें गोबर की खाद मिलाकर भूमि की खुदाई करके क्यारियाँ बना लें। इन क्यारियों में आम के पौधें एक-एक फुट की दूरी पर लगा दें। फिर इन पौधों की सिंचाई कर दें। ऐसा करने से एक तो पौधों की टूटी हुई गाचियाँ ठीक हों जायेगी और यदि यातायात में पौधों को कोई नुक्सान हुआ हों तो उनका भी उपचार हों जायेगा। यदि गरम हवाओ या फिर पानी की कमी से पौधे सूखने लगे तो पौधों की पतियों का आधा भाग काट देना चाहिए।

आम की बागवानी आम के फलों को गिरने से किस प्रकार बचाया जा सकता है?

आम अधिकतर गर्मियों में गिरते हैं। फलों को गिरने से बचाने के लिए 20 पी० पी० एम० 2, 4-डी० का छिडकाव अप्रैल के अंतिम सप्ताह या मई के अंतिम सप्ताह में करना जरूरी हैं।

आम की बागवानी आम के फलों को तोड़ते समय किन-किन बातों को ध्यान में रखना चाहिए? आम की तुडाई हेतु निम्न परिपक्वता स्त्तर होने चाहिए:

1) आपेक्षित घनत्व 1.0 से अधिक होना चाहिए।

2) जब आम को डंठल से तोडा जाये और “डोहक” जेट की तरह निकले तो आम का फल तोड़ने योग्य हों जाता हैं।

3) दशहरी और लंगड़ा प्रजातियां फलों की सैटिंग से बारह सप्ताह बाद तुडाई योग्य हो जाती हैं, जब की चौसा एवं मल्लिका प्रजाति पंद्रह सप्ताह बाद तुड़ाई योग्य हों जाती हैं। फलों को तोड़ते समय आम का डंठल 8 से 10 मि० मी० साथ रहना चाहिए। फलों को पकाने के लिए इथरल का प्रयोग करना चाहिए। फलो को 5 मिनट डुबोकर निकाल लेना चाहिए।

आम की बागवानी आम के मुख्य कीट एवं बीमारियां कौन सी हैं?  उनका उपचार किस प्रकार किया जा सकता हैं?

आम के मुख्य कीट एवं बीमारियां निम्नलिखित हैं:-

1) आम का तेला [मेंगो हापर]:- यह कीट फरवरी से अप्रैल तक कोपलों तथा फूल सहित टहनियों का रस चूस कर हानी पहुचाते हैं, जिसके कारण फल कम व कमजोर लगते हैं, जो हवा से भी झड जाते हैं। इस रोग से पत्ते व टहनियाँ चिपचिपे व काले पड जाते हैं।

उपचार:- एन्डोसलफान 300 मि० ली०, 200 लीटर पानी में या मोनोक्रोटोफास 200 मि०ली० 200 लीटर पानी में फरवरी-मार्च में फूल लगने से पहले और यदि आवश्यक हो तो फल लगने के बाद भी छिडकाव करें।

2) आम का सिल्ला:- यह छोटे कीट आम की टहनियों में आक्सीलरीवड में कोनिकल आकार का “गाल” आकृति बनाते हैं, जिनके फलस्वरूप टहनी में फूल नही लगते हैं।

उपचार:- जिन टहनियों में “गाल” बना हो उनकी प्रुनिंग कर देनी चाहिए। एन्डोसलफान 300 मि० ली०, 200 लीटर पानी में या मोनोक्रोटोफास 200 मि०ली० 200 लीटर पानी में छिडकाव करें।

3) आम का मिलिवग:- यह कीट जनवरी से अप्रैल तक पौधों की कोपलों का रस चूसता हैं, जिसके कारण कोपलें मुरझा जाती हैं। जिससे फूलों से फल नही बन पातें। यह कीट पौधों के चारों तरफ ज़मीन में अंडे देता हैं, जिससे बच्चे निकलकर जनवरी में ज़मीन से पौधों पर चढ़ने लगते हैं।

उपचार:- शिशुओं को पेड़ों पर चढ़ने से रोकने के लिए भूमि से दो फुट ऊपर तने पर ग्रीस व कोलतार के मिश्रण की चौडी पट्टी बांधी जा सकती हैं।

4) आम का तना छेदक:- यह कीट तने में छेद बना देता हैं, जिसके कारण पौधों की बढोतरी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हैं। अत्यधिक आक्रमण के फलस्वरूप पौधे सूख कर मर जाते हैं।

उपचार:-

I) मेटासिड 4 मी०लि० एक लीटर पानी में डालें,तथा इस घोल में रुई भीगोकर, कीट द्वारा तने पर किए हुए छेद को साफ़ करके इस रुई को छेद में डाल दें और छेद को गीली मिटटी से बंद कर दें।

II) कीट द्वारा किये हुए छेद को किसी तार द्वारा साफ़ करके पी० डी० सी० बी० के कुछ दाने छेद में डाल दें और गीली मिटटी से बंद कर दें।

5) मैंगो एनथ्रोकनोज:- पत्तों फूलों व टहनियों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। कोपलें मुरझा कर मर जाती हैं, फूल भी मुरझा जाते हैं और फल गिर जाते हैं।

उपचार:-

I) प्रभावित टहनियों को काट कर जला दें।

II) बोर्डो मिक्चर [कॉपर सल्फेट 600 ग्राम+चूना 600 ग्राम +पानी 100 लीटर] का छिडकाव करें। III) डाईथेन एम०-45, 200 ग्राम 100 लीटर पानी में मिलकर छिडकाव करें।

IV) ब्लइटास्क 300 ग्राम 100 लीटर पानी में डालकर छिडकाव करें।

6) आम का चूर्ण फफूंदी:- मार्च-अप्रैल में नई पत्तियों पर सफ़ेद चूर्ण जैसी तह पाई जाती हैं जिसके कारण पत्ते भूरे होकर सुख जाते हैं, पुष्प क्रम भी प्रभावित हो जाता हैं।

उपचार:- फूल खिलने से पहले तथा फल बनने पर निम्नलिखित छिडकाव करें:- कैराथेन 50 मि० ली० 100 लीटर पानी में डालकर छिडकाव करें अथवा व्बिस्टीन 50 ग्राम 100 लीटर पानी में डालकर छिडकाव करें।

स्ट्राबैरी की खेती हिमाचल प्रदेश में स्ट्राबैरी की खेती किन-किन क्षेत्रों में की जाती हैं?

स्ट्राबैरी एक शीघ्र खराब होने वाला फल हैं तथा प्रदेश में उचित परिवहन, शीत भण्डारण व विपणन की व्यवस्था न होने के कारण इसकी खेती अभी बहुत कम बागवानों द्वारा की जा रही हैं। हिमाचल प्रदेश के मध्य पर्वतीय क्षेत्र जैसे सोलन, सिरमौर, शिमला, चम्बा, मंडी, काँगड़ा, व कुल्लू के कुछ भागों में इसकी खेतीबाड़ी सफलता पूर्वक की जा सकती हैं।

स्ट्राबैरी की खेती के लिए किस तरह की जलवायु और मिटटी का होना अनिवार्य हैं?

स्ट्राबैरी की खेती 1500 मीटर तक की ऊंचाई में सफलतापूर्वक की जा सकती हैं। हिमाचल प्रदेश के मध्य पर्वतीय क्षेत्र जैसे- सोलन, सिरमौर, चम्बा, मंडी, काँगड़ा व कुल्लू के कुछ भाग जहाँ सिंचाई की पर्याप्त सुविधा हो, उपयुक्त पाए गए हैं। स्ट्राबैरी की खेती के लिए उपजाऊ व दोमट मिटटी का होना अति आवश्यक हैं। मिटटी की पी० एच० 5.5-6.5 के बीच होनी चाहिए।

स्ट्राबैरी की खेती हिमाचल प्रदेश में स्ट्राबेरी की कितनी किस्में तैयार की जाती हैं?

हिमाचल प्रदेश की बागवानी में स्ट्राबैरी नया फल होने से अब तक यहाँ सिर्फ तीन किस्मों को लगाने हेतु सिफारिश की गई है। ये किस्में हैं : टीयोगा, टोरे तथा चैंडलर। जो काफी अच्छी पैदावार देती हैं।

स्ट्राबैरी की खेती स्ट्राबैरी के पौधें लगाने का उचित समय कौन सा हैं?

स्ट्राबैरी के पौधें लगाने का उचित समय अगस्त-सितम्बर माह हैं। पौधें से पौधें तथा पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 × 60 सै.मी. होनी चहिये।

स्ट्राबैरी के पौधें किस तरह तैयार किये जाते हैं?

स्ट्राबैरी के पौधें रनर द्वारा तैयार किये जाते हैं। एक पौधें से औसतन पांच रनर तैयार कर सकते हैं। स्ट्राबैरी पौधें से तीन साल तक फल ले सकते हैं। उसके बाद इनकी पैदावार में कमी आती हैं, इसलिए तीन साल बाद पुराने पौधें बदल कर नए पौधें लगाने चाहिए। अगर पौधों से ज्यादा रनर लेने हो तो अप्रैल-मई में पौधों से फूल तोड़ देने चाहिए। जिससे फल नही बनेगें और ज्यादा से ज्यादा रनर तैयार होंगे। हिमाचल प्रदेश में स्ट्राबैरी के रनर भारत-इटली फल विकास परियोजना बजौरा जिला कुल्लू में तैयार किये जाते हैं।

स्ट्राबैरी के लिए कौन सी खाद उपयुक्त हैं? खाद किस मिक्दार में कब डालनी चाहिए?

स्ट्राबैरी के लिए 50 टन गली-सड़ी गोबर की खाद के साथ 40 किलो पी2 ओ5 तथा 40 के2 ओ प्रति हेक्टेयर के हिसाब से आवश्यकता होती हैं। नाइट्रोजन 80 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर दो हिस्सों में देते हैं, आधा हिस्सा पौधा लगाने के बाद तथा आधा हिस्सा फूल आने पर।

स्ट्राबैरी की खेती में मल्चिंग का क्या महत्त्व हैं?

स्ट्राबैरी में पर्याप्त सिंचाई की आवश्यकता होती हैं। इसका फल मिटटी के संपर्क में आने से जल्दी सड़ जाता है इसलिए स्ट्राबैरी में मल्चिंग का बहुत महत्त्व है। स्ट्राबैरी की क्यारियों को चीड/काईल की पत्तियों, हरी घास, लकड़ी के बुरादे व भूसा इत्यादि से ढककर मल्चिंग की जाती हैं। आजकल प्लास्टिक मल्च का प्रचलन तेजी से बढ़ रहा है, जोकि स्ट्राबैरी की खेती के लिए वरदान सिद्ध हुए हैं। मल्चिंग करने से जमीन में नमी बनी रहती है तथा पौधों को और अधिक पानी की आवश्यकता नही होती, मल्चिंग से मिटटी का तापमान अनुकूल रहता है तथा खरपतवार की रोकथाम भी होती हैं और इस तरह फलों की पैदावार में बढोतरी होती हैं।

स्ट्राबैरी के फलों की तुड़ाई कब करनी चाहिए?

स्ट्राबैरी मे अप्रैल माह में फल आने शुरू हो जाते है, जब फल का आधा हिस्सा लाल हो जाये तो फलों को डंडी सहित तोडना चाहिए। गरम मौसम में फल हर रोज तथा ठंडे मौसम में दो-तीन दिन बाद तोड़ने चाहिए।

हिमाचल प्रदेश में सेब की बागवानी कहाँ संभव है?

सेब के पौधों में फल लगने के लिए सर्दियों में 1000 से 2600 घंटे 7 डिग्री सेंटीग्रेड या इससे निम्न तापमान चाहिए। हिमाचल प्रदेश में ऐसे क्षेत्र जिनकी ऊंचाई समुद्र तल से 5000 से 9000 फुट है, सेब की खेती के लिए उपयुक्त है।

सेब की बागवानी के लिए कौन सी मिट्टी उपयुक्त है?

सेब की बागवानी के लिए सब से अधिक उपयुक्त दोमट तथा चिकनी दोमट मिट्टी पाई गई है।

हिमाचल प्रदेश में सेब की कौन सी किस्मे उगाई जाती है?

हिमाचल प्रदेश में उगाई जाने वाली मुख्य किस्मे रायल डीलिशिअस, रेड डीलिशिअस, रिच–ए-रेड, टाइड मैन, अरलीवर्सेस्टर, गोल्डन डीलिशिअस, रेडगोल्ड, स्पर प्रजाति की किस्मे जैसे रेड चीफ, ओरीगन स्पर-II, वेल स्पर, सिल्वर स्पर है।

सेब के पौधो के रोपण का उपयुक्त समय कौन सा है?

सेब के पौधे सर्दियों में, पतझड़ के बाद दिसम्बर से फरवरी माह तक रोपित किए जाते है।

सेब के पौधो को रोपित करने के लिए गडढे का आकार कितना होना चाहिए,तथा अन्य किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?

आमतौर पर सेब का पौधा लगाने के लिए गडढे का आकार 1×1×1 मीटर का होना चाहिए। गड्ढे खोदते समय भूमि की उपरी सतह की 9 इंच तक की मिट्टी का एक तरफ ढेर लगा कर रखे तथा इसके बाद की मिट्टी का अलग ढेर लगाये, गड्ढे भरते समय उपरी सतह की 9 इंच तक की मिट्टी लगभग 30 किलोग्राम गले सड़े गोबर के साथ मिला कर सब से पहले गड्ढे में भरे। इसके पश्चात शेष मिट्टी में 15 से 20 किलो ग्राम गोबर मिला कर भूमि की सतह से 6 इंच ऊपर एक गड्ढा भरे। गड्ढे की भराई पौधे लगाने से एक माह पहले यानि नवम्बर माह में कर लेनी चाहिए ताकि मिट्टी ठीक तरह से बैठ सके।

सेब के बगीचों में पौधों से पौधो के बीच की दूरी कितनी होनी चाहिए?

उत्तम सेब के पौधे जो सेब के बीजू मूल बृन्त पर तैयार किये गए है, उनके बीच की दूरी 6 मीटर, जो एम.एम.111 मूल बृन्त पर तैयार किये गए है, उनके बीच की दूरी 6 मीटर तथा जो एम.एम-106 एम.-7 मूल बृन्त पर तैयार किये गए है उनके बीच की दूरी 4.5 मीटर होनी चाहिए। एम.9, एम-26 के मूल बृन्त पर स्थापित बगीचों की दूरी 3×3 मीटर निर्धारित की गई है।

सामान्य परिस्थितियों में सेब के बगीचों में कौन सी खाद की आवश्यकता होती है?

सामान्य परिस्थितियों में सेब के पौधों की उम्र के अनुसार तथा पत्ती विशलेष्ण तथा मिट्टी परीक्षण के नतीजों के अनुसार गोबर की खाद, किसान खाद, कैन, सुपरफास्फेट तथा म्यूरेट ऑफ पोटाश खाद देनी चाहिए।

सेब के पौधों की कांट-छांट किस विधि से करनी चाहिए?

सेब के पौधों की कांट –छांट ऊपर से नीचे की ओर तथा ऊपर बढती तथा झुण्ड बनाती शाखाओं को निकाल देना चाहिए। जो शाखा सेन्ट्रल लीडर के बराबर ऊपर की ओर बढ़ रही हो उसे निकल देना चाहिए, तथा इसके साथ वाटर स्प्राउट को भी नही रखना चाहिए। टूटी फूटी एवं रोग ग्रस्त शाखाएं निकाल देनी चाहिए, जल्दी की गई कांट छांट से अधिक बढोतरी तथा देर से की गई कांट छांट से कम बढौतरी होती है। स्पर किस्म की कांट छांट करते समय पुराने बीमों की शाखाओं को 1/2 से 1/3 भाग तक काट देना चाहिए ताकि अगले वर्ष नए बीमें आ सकें। पुराने पौधों में अगर कांट-छांट अधिक भाग में की जाये तो पुनः बढौतरी होने लगती है, पुराने पौधों में बढौतरी कम से कम 6 से 10 इंच प्रति वर्ष तथा नए पौधों में 10 से 12 इंच होनी चाहिए।

सेब के फलों का तुड़ान कब और कैसे करना चाहिए?

सेब को दिन में किसी भी समय तोड़ा जा सकता है, परन्तु तोड़े गए सेबों को धूप में नही रखना चाहिए, सेब को वर्षा के समय या कोहरा अथवा वर्षा के तुरंत बाद नही तोड़ना चाहिए, तुड़ाई के समय काम आने वाली टोकरी या किल्टे में कोई मुलायम वस्त्र या कोई कपडा बिछाएं, ताकि फलों को चोट आदि न लगने पाए।

स्त्रोत : कृषि विभाग, झारखण्ड सरकार

अंतिम बार संशोधित : 2/6/2023



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