भूमि एवं जल प्रकृति द्वारा मनुष्य को दी गई दो अनमोल सम्पदाएँ हैं जिनका कृषि हेतु उपयोग मनुष्य प्राचीनकाल से करता आ रहा है परन्तु वर्तमान में एक तरफ उनका उपयोग इतनी लापरवाही से हो रहा है कि इनका संतुलन ही बिगड़ गया है, तो दूसरी तरफ जलवायु परिवर्तन के सम्भावित प्रतिकूल प्रभाव के कारण कृषि के लिए इनका प्रबन्धन एक चुनौती के रूप में में देखा जा रहा है| लगातार बढ़ती जनसंख्या के औद्योगिकरण, भौतिक सुविधाओं की पूर्ति व यायायात संसाधनों के बढ़ने से वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा निरंतर बढ़ रही है और साथ ही वनों एवं कृषि का क्षेत्रफल भी लगातार घट रहा है जिसके फलस्वरूप प्राकृतिक संसाधनों का दोहन निःसंदेह दोगुना हो गया है| जलवायु के परिवर्तन एवं औसत तापमान में वृद्धि से क्षेत्रीय जलवायु में बदलाव, नदियों के बहाव, उनमें जल की उपलब्धता एवं भू-जल स्तर, वर्षा की अवधि एवं वितरण, बारहमासी चश्मों में पानी, सुखा, मृदा की उर्वरता इत्यादि पर असर पड़ेगा| पयार्वरण में इन सब बदलावों से कृषि के लिए जल की उपलब्धता और मृदा के स्वास्थ्य और उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा| अतः भूमि एवं जल प्रबन्धन अत्यधिक आवश्यक होने के साथ-साथ इन प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण एवं उचित उपयोग एक प्रमुख चुनौती बनता जा रहा है|
भूमि प्रबंधन का मतलब भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाना या बनाये रखना था भूमि कटाव को रोकना है| भूमि कटाव से खेत की ऊपरी सतह की उपजाऊ मिट्टी बह जाती है जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति कम हो जाती है| भूमि प्रबन्धन के लिए हमें निम्नलिखित उपाय करने चाहिए:
जलवायु परिवर्तन से भी मृदा की उर्वरता शक्ति के घंटने का अनुमान किया जा रहा है| वायुमंडलीय तापमान के बढ़ने से कार्बिनक पदार्थ का उपघटन तेज होने लगता है और मृदा में जैविक कार्बन का स्तर लगातार घटने lglgtlgtaलगता है जो मृदा के स्वास्थ्य और उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है| मृदा में पोषक तत्वों के संतुलन बनाये रखने से ही उसकी उपजाऊ शक्ति में निरंतर बढ़ोतरी होती है|
संतुलित उर्वरकों का उपयोग
उर्वरक प्रयोग का मूल उद्देश्य पौधों की समुचित बढ़वार और पैदावार के लिए मृदा में अनुकूल पोषण दशाएं बनाये रखना होता है| खेती की पैदावार बढ़ाने के लिए यह अति आवश्यक है कि उर्वरकों का संतुलित प्रयोग किया जाए| सामान्य तौर पर उर्वरक प्रयोग का उचित समय निर्धारण, पोषक तत्व, मृदा स्वाभाव, जलवायु एवं फसल स्वाभाव को ध्यान में रखकर करना अच्छा रहता है|
उर्वरकों का सफल प्रयोग कैसे करें
रासायनिक उर्वरक एकीकृत पौध पोषण प्रणाली का महत्वपूर्ण घटक है| वर्तमान में उर्वरकों का घरेलू उत्पादन उतना नहीं है कि बढ़ती हुई आवश्यकता की पूर्ति हो सके अतः बदलती आर्थिक परिस्थितियों में उर्वरकों का आयात ही एक मात्र विकल्प है जो मांग और पूर्ति के अंतर को पूरा कर सकता है| इस अंतर की पूर्ति के लिए उर्वरक क्षमता में वृद्धि, कार्बनिक खादों का प्रयोग और जैव उर्वरकों के उपयोग को बढ़ावा देना आवश्यक हो गया है| प्रदान किये गए नाइट्रोजन धारी उर्वरकों की 30-60%, फास्फोरस धारी उर्वरकों की 15-20% तथा पोटाश धारी उर्वरकों की 40-80% मात्रा का ही फसल द्वारा उपयोग हो पाता है| शेष मात्रा विभिन्न रास्तों से जैसे बहाव (लीचिंग), वाष्पीकरण, डीनाइट्रीफिकेशन, मृदा कटाव, स्थिरीकरण आदि के द्वारा नष्ट हो जाती है|
कार्बनिक खादें परम्परागत रूप से उर्वरता में वृद्धि कर फसलों से अच्छी पैदावार लेने के लिए उपयोग की जाती रही है शोध कार्यों से यह सिद्ध हो गया है कि रासायनिक उर्वरकों के साथ-साथ जैविक खादों का संतुलित उपयोग, रासायनिक उर्वरकों या जैविक खादों के अकेले उपयोग की तुलना में अधिक प्रभावी रहा है|
जैव उर्वरक जीवाणु खाद है| प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध किया जा चूका है कि जैव उर्वरक के प्रयोग से आमतौर पर 30 से 40 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हैक्टेयर भूमि को प्राप्त होती है| यह भी देखा गया है कि जैव उर्वरकों के प्रयोग से उपज में 10 से 20% तक की वृद्धि हो जाती है| जैव उर्वरक, रासायनिक उर्वरकों के पूरक होने के साथ-साथ उर्वरकों उपयोग क्षमता में भी वृद्धि करते है| फास्फोबैक्टीरिया के प्रयोग से फास्फोरस की उपलब्धता में 30 से 50% की बढ़ोतरी हो जाती है|
पहाड़ी क्षेत्रों में कुशल जल प्रबन्धन के लिए वर्षा जल संचयन, प्राकृतिक जल संसाधन बढ़ाने, यथास्थान नमी संरक्षण तथा उपलब्ध जल के कुशल उपयोग की आवश्यकता है|
पर्वतीय क्षेत्रों में वर्षा जल ही एकमात्र प्राथमिक जल स्रोत है| पहाड़ी क्षेत्रों में वर्षा जल का एक विशाल हिस्सा ढलान की वजह से सतही प्रवाह के रूप में क्षेत्र विशेष से बाहर चला जाता है| वर्षा जल का प्रबन्धन फसल उत्पादन में सुधार के लिए एक प्रमुख मुद्दा है| इस पृष्ठभूमि में वर्षा जल संचयन का अत्यधिक महत्व है| इसलिए यह आवश्यक है कि हम सतही प्रवाह द्वारा होने वाले जल बहाव को रोकें और एक-एक बूंद पानी का संचयन करें साथ ही यह प्रयास करें कि खेत का पानी खेत में और गाँव का पानी गाँव में ही रहे| भवन की छत्त, समलत या असमतल क्षेत्रों से प्राप्त वर्षा जल जो व्यर्थ बह जाता ही, का संचयन कर इस्तेमाल किया जा सकता है| वर्षा जल संचयन और भू-जल पुनभरण के लिए विभिन्न तकनीक जैसे फैरो-सीमेंट टैंक, पुनभरण कुँए, गड्ढे एवं खाईयां, परकोलशन तालाब, चेक-डैम, गौबियन संरचना इत्यादि का प्रयोग सफलतापूर्वक किया जा सकता है|
छोटे किसानों के लिए कम लागत के प्लास्टिक चादर से मंडित तालाब बनाना आसान होता है और इसके लिए कोई खास प्रबंध व संसाधनों की आवश्यकता नहीं होती| पर्वतीय क्षेत्रों में जहाँ कृषक संसाधनों की कमी होने के साथ-साथ भू-भाग छोटे एवं विखंडित होते हैं वहां छोटे-छोटे एवं कम लागत से निर्मित तालाब वर्षा जल संग्रहण के लिए बहुत ही प्रायोगिक और व्यवहार्य है|
पहाड़ी क्षेत्रों में पानी के चश्में और बावड़ियाँ महत्वपूर्ण प्राकृतिक स्त्रोत है| लेकिन मनुष्य की विकासात्मक गतिविधियों जैसे, खनन, सड़क निर्माण, वनों की कटाई इत्यादि की वजह से ये स्त्रोत या तो सूख रहे हैं या मौसमी होते जा रहा है| इसलिए अधिक से अधिक वृक्षारोपण को प्रोत्साहित किया जाना और वनों की कटाई और अंधाधुंध खनन को रोकना आवश्यक हो गया है| पारम्परिक जल संसाधनों (तालाब, कुएँ, चश्में) को प्रदूषण से बचाने तथा समय-समय पर उनकी सफाई, निर्माण एवं मरम्मत करवाने पर भी ध्यान केन्द्रित करना आवश्यक है|
खेतों के पानी को खेत में ही संरक्षित करना अवश्य है| इसके लिए वाष्पीकरण, गहरे रिसाव व अपवाह द्वारा पानी के नुकसान को रोकने/कम करने के लिए विभिन्न तकनीक को अपनाया जा सकता है| महत्वपूर्ण तकनीक का विवरण निम्नलिखित है:
उपलब्ध जल का कुशल प्रयोग
जल एक बहुमूल्य एवं दुर्लभ प्राकृतिक संसाधन है जिसे कुशलता से इस्तेमाल किया जाना चाहिए| हमें कम पानी से अधिक उत्पादन लेने के लिए उप उपयोग क्षमता और जल उत्पादकता को बढ़ाना होगा| जल स्रोत से लेकर खेत तक होने वाली जल हानि को रोकना आवश्यक है| विभिन्न क्षमताओं जैसे वाहन, भंडारण, वितरण और प्रभावी वर्षा इत्यादि में सुधार होने से उत्पादकता उपयोग में भी वृद्धि होती है| अतः जल संरक्षण के साथ-साथ हमें सिंचाई की उन्नत प्रणाली का प्रयोग करना चाहिये| बूंद-बूंद सिंचाई प्रणाली तथा फव्वारा सिंचाई विधि द्वारा पानी की 60-80% बचत के साथ-साथ 15-20% तक फसलोत्पादन में भी बढ़ोत्तरी की जा सकती है| इन विधियों द्वारा फसल को आवश्यकतानुसार बराबर पानी दिया जाता है जिससे पानी का दुरुपयोग कम होता है| इन विधियों को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार भी अनुदान के रूप में सहायता प्रदान करती है| किसी भी विधि द्वारा सिंचाई दक्षता में सुधार के लिए रिसाव द्वारा होने वाले नुकसान को घटाने, मध्यान्ह सिंचाई से परहेज करने, अधिक सिंचाई न करने, हल्की और बार-बार सिंचाई करें, उपयुक्त फसल चक्र और उचित समय पर फसल उगानें, समय पर खरपतवार नियंत्रण करें, गोबर/कम्पोस्ट/हरी खाद का प्रयोग करने अंतर्विती फसलें/सह-फसली खेती अपनानें तथा उचित उर्वरक प्रबन्धन करने से लाभदायक परिणाम प्राप्त होते हैं|
स्रोत: मृदा एवं जल प्रबंधन विभाग, औद्यानिकी एवं वानिकी विश्विद्यालय; सोलन
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
इस पृष्ठ में फसलों के अधिक उत्पादन हेतु उन्नतशील फ...
इस पृष्ठ में अच्छी ऊपज के लिए मिट्टी जाँच की आवश्य...
इस पृष्ठ में 20वीं पशुधन गणना जिसमें देश के सभी रा...
इस भाग में अधिक फसलोत्पादन के लिए लवणग्रस्त मृदा स...