जल एक प्रमुख प्राकृतिक संसाधन है और जीवन के अस्तित्व का मूल आधार है| इसलिए इसकी उपलब्धता बहुत आवश्यक है| पिछले कुछ वर्षों से पानी की मांग कृषि, घरेलू और औद्योगिक. तीनों ही क्षेत्रों में लगातार बढ़ते शहरीकरण और औद्योगिकरण के कारण कृषि क्षेत्र के लिए जल आबंटन की मात्रा कम होती जा रही है| इसके अलावा, दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन का प्रभाव देखा जा रहा है| हिमाचल प्रदेश भी इसका अपवाद नहीं है| हिमाचल में तापमान में बढ़ोतरी, वर्षा में कमी, बाहरमासी चश्मों का सूखना एवं सूखा इत्यादि जैसी समस्याओं का अनुभव किया जा रहा है| वर्षा का वितरण अधिक अप्रत्याशित होने के कारण जल आपूर्ति में दीर्घकालिक कमी होने की सम्भावना बढ़ती जा रही है जो कृषि एवं दीर्घकालिक खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से घातक सिद्ध हो सकती है|
ज्ञातव्य है कि प्रमुख नदियों का उदगम स्थान पर्वतीय क्षेत्र ही होता है फिर भी इन क्षेत्रों में पानी की लगातार कमी बनी रहती है| पर्याप्त जल वर्षा के रूप में भी प्राप्त होता है, परन्तु इन क्षेत्रों की ढलानदार सतह होने के कारण वर्षा जल का अधिकतम भाग अतिशीघ्र बहाव के कारण फसलोत्पादन के लिए अनुपयोगी हो जाता है| प्रदेश की भौगोलिक दशा एवं कृषि के लिए बदलते मौसम की अनिश्चिता के कारण बड़ी मात्रा में कृषि योग्य भूमि के लिए सिंचाई जल की व्यवस्था करना मुशिकल ही नहीं बल्कि आर्थिक दृष्टिकोण से भी लाभदायक नहीं होता है| इन क्षेत्रों में सिंचाई सुविधाएँ नगण्य (कुल कृषि योग्य भूमि का लगभग 18%) होने के कर्ण लगभग 82% कृषि योग्य भूमि में बारानी ढंग से खेती की जाती है| सिंचाई सुविधाएँ प्रमुख रूप से घाटियों, नदियों एवं झरनों के आसपास तक ही सिमित है अतः पर्वतीय क्षेत्रों में कृषि ज्यादातर वर्षा पर ही आश्रित होती है जो कम गुणवत्ता वाली अनियमित पैदावार प्रदान करती है| पहाड़ी क्षेत्रों में कुशल जल प्रबंधन के लिए वर्षा जल संचयन, प्राकृतिक जल संसाधन बढ़ाने, यथास्थान नमी संरक्षण तथा उपलब्ध जल के कुशल उपयोग की अत्यंत आवश्यकता है| पानी की व्यर्थ बहने वाली प्रत्येक बूंद को संचय करके लाखों हैक्टेयर भूमि को सिंचित किया जा सकता है|
पर्वतीय क्षेत्रों में वर्षा जल का अनियमित आबंटन के कारण कुल वार्षिक वर्षा जल का लगभग 80% भाग वर्षा ऋतु में ही प्राप्त होता है| मार्च से जून एंव अक्तूबर से दिसम्बर महीने सामान्यतया कम जल अवधि के रूप में जाने जाते हैं| यद्यपि प्रथम अवधि खरीफ (मार्च-जून) फसलों जैसे मक्का, चावल, टमाटर, शिमला मिर्च, अदरक, हल्दी इत्यादि तथा द्वितीय अवधि रबी (अक्तूबर-दिसम्बर) फसलों जैसे गेंहू, मटर बंदगोभी, फूलगोभी इत्यादि के बुआई के समय से मेल खाते हैं इसलिए इस अवधि में यथास्थान नमी संरक्षण तकनीक द्वारा उचित जल प्रबंध करने से फसल की जल मांग को कुछ सीमा तक पूर्ति करके पैदावार पर होने सूखे के दुष्प्रभाव को कम किया जा सकता है| खेतों के पानी को खेत में ही संरक्षित करना आवश्यक है| इसके लिए वाष्पीकरण, गहरे व अप्रवाह द्वारा पानी के नुकसान को रोकने के लिए यथास्थान नमी संरक्षण की विभिन्न तकनीक को अपनाया जा सकता है|
छायावरण वह प्रक्रिया है जिसमें मिट्टी की सतह को किसी भी प्रकार की प्राकृतिक एवं कृत्रिम सामग्री (जैसे घास, फसल अवशेष, पत्ते, प्लास्टिक चादर इत्यादि) से ढक कर शुष्क क्षेत्रों में यथास्थान मृदा नमी का संरक्षण किया जाता है| छायावरण के प्रयोग से वाष्पीकरण कम होने से नमी संरक्षण बढ़ जाता है और वर्षा जल की अधिकतम मात्रा की भूमि में समावेश होता है| यह कम वर्षा के दोनों में ज्यादा प्रभावशाली होते हैं| छायावरण द्वारा 25-50% सिंचाई योग्य जल की बचत होती है| खरीफ फसल कटने के बाद यदि किसान भूमि खाली रखता है तो अवरोपित नमी की हानि होती है| छायावरण डालने से खेत में नमी बनी रहती है जो रबी फसल के लिए उपयोगी होती है| जनवरी तथा फरवरी महीनों में कम तापक्रम के कारण अधिकांशतया फल पौध सुसुप्तावस्था में ही रहते हैं और वाष्पीकरण क्रिया भी कम होती है| छायावरण क्र प्रयोग से कम aया अधिक तापक्रम का प्रतिकूल प्रभाव भी बहुत कम होती है| बहुत सी फसलों को उनके विकास के आरंभिक चरण में शीतकालीन वर्षा के कारण कम सिंचाई की आवश्यकता होती है जबकि सब्जियों की फसल उगाने के लिए निरंतर उचित नमी की आवश्यकता होती है| अतः छायावरण तकनीक फलों तथा सब्जियों की पैदावार के लिए बहुत लाभकारी है|
ये खादें मिट्टी की जल धारण क्षमता को बढ़ाते हुई जड़ क्षेत्र से बाहर जाने वाले जल को कम करती है| हरी खाद की फसलें (ढैंचा, सनई, जुट आदि) जिन्हें अपरिपक्व अवस्था में परिवर्तित जुताई द्वारा मिट्टी में दबाया जाता है जो पुनः अपघटित होकर मिट्टी को हूम्स प्रदान करती है, उसे हरी खाद कहते हैं| ये फसलें प्रायः उस समय उगाई जाती हैं जब मुख्य फसलों को उगाने का समय नहीं होता है| हरी खाद मिट्टी को बड़ी मात्रा में पोषक तत्व प्रदान करती है जो मृदा की उर्वरता एवं मृदा संरचना को उन्नत करके अधिक नहीं संरक्षण करती है|
लम्बे समय तक मृदा नमी संरक्षण के लिए परिरेखा बाँध बहुत ही प्रभावकारी होते हैं| यह कम वर्षा वाले क्षेत्रों के लिए उपयुक्त होते हैं जहाँ मानसून का अप्रवाहित जल समान ऊंचाई वाले कन्टूर के चारों तरफ ढलान वाली भूमि पर बाँध बना आकर रोका जा सकता है| परिरेखा बाँध कम ढलान वाली जमीन के लिए उपयुक्त होते हैं और इनमें सीढ़ीयां बनाया जाना शामिल नहीं होता| बढ़ते हुए जल बहाव प्राप्त को करने से पहले बाँध के बीच में उचित दूरी रखकर प्रवाह गति को कम कर दिया जाता है| विभिन्न कृषि सम्बन्धी गतिविधियाँ कन्टूर रेखा पर यह फिर कन्टूर रेखा के आसपास पूर्ण की जाती है| फलदार पौधों को समोच्च खाइयों में लगाना उपयुक्त होता है|
भूमि के समतल न होने के कारण वर्षा जल का अत्यधिक भाग प्रवाहित हो जाता है जो मृदा एवं पोषक तत्वों का ह्रास करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है| इसलिए कृषि योग्य भूमि के प्रत्येक खेत को समतल करने में मेड़ बनाने की आवश्यकता होती है ताकि वर्षा जल को अधिक से अधिक रोका जा सके| इन अपक्षय को रोकने व जल संरक्षण को बढ़ावा देने के लिए उस क्षेत्र को कम से कम कटाव व भरण विधि द्वारा समलत किया जाना लाभप्रद रहता है| अतिरिक्त जल बहाव को नियंत्रित करने के लिए उचित निकासी की व्यवस्था मानसून आने से पूर्व ही क्षेत्र विशेष के चारों ओर बाँध बनाना आवश्यक होता है|
सीढ़ीनुमा खेत का निर्माण 15-33% ढलान वाले क्षेत्रों में ही कारगर होता है| ढलानदार सतह पर अप्रवाह गति बहुत अधिक होने के कारण सीढ़ीनुमा खेत बनाने की परम्परा है| इन प्रत्येक सीढ़ीनुमा खेतों के ढलान अंदर की ओर रखना चाहिये ताकि जल बहाव को कम करके सतह की उपजाऊ मिट्टी को बहाने से रोका जा सके| खेत के किनारों को मजबूत तथा उस पर पानी के दबाव को कम करने के लिए बाहरी किनारों पर घास एवं पौध रोपण काफी सहायक सिद्ध होता है|
इस विधि में प्रत्येक कुंड प्रवाह अवरोधक का कार्य करने के साथ-साथ वर्षा जल भंडारण का कार्य भी करते हैं| कन्टूर रेखा के साथ-साथ कुंड बनाने से यह प्रक्रिया और भी अधिक प्रभावशाली बन जाती है|
इस प्रक्रिया में वर्षा जल प्रवाह की अधिक मात्रा को मोड़कर खेत के किसी भी ओर से भू-सतह पर पहुँचाया जाता है जो मिट्टी में आंतरिक रिसाव को प्रोत्साहित करने के कारण काफी समय तक सफल को नमी प्रदान करता रहता है|
मशीन या हाथ द्वारा कन्टूर रेखा के साथ-साथ 4-6 मीटर के अन्तराल पर वी आकार की खाई बनाई जाती है और इस खाई की बिलकुल नीचे एक छोटा मिट्टी का बाँध बनाया जाता है जो पानी को रोके रखता है| इस प्रकार खाई में एकत्रित जल भूमि के अंदर समाहित होकर भूमिगत जल-स्रोत को उन्नत करने में सहायक होता है|
इस प्रक्रिया को “जिम टैरेस” यह “कंजर्वेशन बैंच टैरेस” भी कहा जाता है| इन्हें ढलानदार भूमि पर बनाया जाता है जो समतल या भंडारण क्षेत्र के रूप में कार्य करते है| पैदावार बढ़ाने के लिए ढलान द्वारा प्राप्त प्रवाहित जल भंडारण क्षेत्र में इक्कट्ठा किया जाता है| मृदा अपने आप में ही भंडारण जलाशय के रूप में कार्य करती है| यह प्रक्रिया इंटर-प्लांट विधि से मिलती-जुलती है जिसमें खेत के केवल आधे भाग में फसल बोते हैं तथा आधे खेत को खाली रखकर उनमें ऐसी ढलान बनाते हैं कि वर्षा का पानी खेत से बहकर फसल वाले स्थान में आ जाये| इस तरह खेत के आधे भाग में सफलतापूर्वक खेती की जा सकती है| इस विधि का प्रयोग कम वर्षा वाले क्षेत्र में ही लाभदायक होता है|
उपरोक्त तकनीकों के अलावा बीजों को कतारों में ढाल के विपरीत दिशा में बोने और पौध रोपण करने में वर्षा जल को खेत में ही काफी हद तक रोका जा सकता है| अन्तः फसलीकरण खेती भी की जा सकती है जिसमें हम फसलों का चुनाव इस तरह करते हैं कि एक फसल अधिक पानी चाहने वाली हो तो दूसरी को कम पानी की जरूरत हो, एक की जड़ें उथली हों तो दूसरी की गहरी होनी चाहिए| समय के अनुसार फसल चक्र में एक दलहनी फसल को जरुर शामिल करना चाहिए|
स्रोत: मृदा एवं जल प्रबंधन विभाग, औद्यानिकी एवं वानिकी विश्विद्यालय; नसोल
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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