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सब्जी की फसल और समेकित नाशीजीव प्रबंधन

सब्जी की फसल और समेकित नाशीजीव प्रबंधन

  1. टमाटर
    1. कीट नाशीजीव
    2. प्रमुख रोग
    3. सूत्रकृमी
    4. नर्सरी अवस्था
    5. मुख्य फसल के दौरान
  2. बंदगोभी/फूलगोभी की फसल में वैधिक समेकित नाशीजीव प्रबंधन युक्तियाँ
    1. बीज/ नर्सरी अवस्था
    2. मुख्य फसल
  3. बैंगन
    1. कीट नाशीजीव
    2. प्रमुख रोग
    3. सूत्रकृमि
    4. नर्सरी अवस्था
    5. मुख्य फसल
  4. मिर्च/शिमला मिर्च
    1. प्रमुख नाशीजीव
    2. रोग
    3. नर्सरी अवस्था
    4. मुख्य फसल
  5. भिण्डी
    1. कीट नाशीजीव
    2. रोग
    3. कुटिकियाँ/माईट
    4. सूत्रकृमि
    5. मित्र कीटों का संरक्षण
  6. प्याज
    1. कीट नाशीजीव
    2. रोग
    3. सूत्रकृमि
    4. नर्सरी अवस्था
    5. मुख्य फसल
    6. मित्र कीटों का संरक्षण
  7. कद्दूवर्गीय सब्जियां
    1. प्रमुख कीट
    2. प्रमुख रोग
    3. मित्र कीटों का संरक्षण
  8. अदरक
    1. कीट नाशीजीव
    2. रोग
    3. सूत्रकृमी
  9. शाकीय फसलों में प्रचलित प्राकृतिक शत्रु
    1. कोकी नेलेडिस (कोकनेला सैप्टयूमपनकटाटा, मेनोचिलस सेक्समाकूलाटास)
  10. निम्बौली सत (एनएसकेई) बनाने की विधि
  11. अन्य जैव रासायनिक दवाइयों का प्रयोग
  12. रासायनिक दवाइयों के प्रयोग में सुरक्षा संबंधी सावधानियां
    1. भण्डारण
    2. रखरखाव
    3. घोल बनाते समय
    4. उपकरण
    5. रासायनिक दवाईयों का प्रयोग करते समय
    6. निपटान

टमाटर

कीट नाशीजीव

  • फल बेधिक

फल बेधक के कारण टमाटर की पैदावार में अत्यधिक नुकसान होता है। इसकी पूरी तरह विकसित इल्लियाँ हल्की पीली हरे रंग की होती हैं जिनके दोनों किनारों पर पर गहरी मटमैली खंडित धारियां होती है। युवा सुंडीयां कोमल पत्तियों से भोजन ग्रहण करते हैं जबकि वयस्क सुंडीयां फल में वृताकार छेद कर घुस जाते हैं और फल का भीतरी भाग खाते रहते हैं। अकेली सुंडी 2 से 8 फलों को खाकर नष्ट कर सकती है।

  • सफेद मक्खी

इस कीट के वयस्क सफेद मोम फूल से ढकी सफेद छोटी परत की तरह दिखते हैं। अर्भक वयस्क मक्खियाँ पत्तियों की निचली सतह से रस चूसते हैं। संक्रमित भाग पीला पड़ जाता है तथा पत्तियां अंदर की ओर मुड़ कर अंतत: मुरझा जाती है। रस चूसने के साथ – साथ ये कीट मधुरस मल त्याग करते हैं जिससे फफूंदी के विकास को बढ़ावा मिलता है तथा प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में बाधा आने से पौधे की वृद्धि रूक जाती है।

  • चेपा

टमाटर के चेपा का प्रकोप मुख्यतया शुष्क एवं मेघाच्छन्न मौसम में होता है। इसके बहु – गुणन के लिए ठंडी एवं नमी परिस्थिति अनुकूल होती है जबकि भारी वर्षा से चेपा कालोनियां घुलकर बह जाती हैं। टमाटर की फसल में तेजी से उड़ कर आ जाते हैं। चेपा, कोमल, प्ररोह एवं पत्तियों की निचली सतह पर से रस चूसते है जिससे पौधे के विकास की प्रक्रिया रूक जाती है।

प्रमुख रोग

  • आद्र गलन

शुरूआत में इस रोग के लक्षण नर्सरी में कुछ जगहों पर दिखाई पड़ते हैं परंतु 2-3 दिनों में ही पूरी नर्सरी में फैलकर सभी पौधे संक्रमित हो जाते हैं। पौधे अचानक ही मुर्झा जाते हैं और जमीन पर गिरकर नष्ट हो जाते हैं। संक्रमित पौधे भूरे जल अवशोषित विक्षप्ति के साथ पीले हरे रंग के दिखाई देते हैं।

  • अगेती झुलसा

पौध स्थापना के तुरंत पश्चात नमी वाले मौसम में जब बसंत मौसम प्रारंभ होता है तब अगेती झुलसा रोग का प्रकोप होता है। इस रोग से ग्रसित पौधों की पत्तियों के किनारे के भाग पर छोटे काले गोलाकार धब्बे होते हैं जो धीरे – धीरे बढ़ते जाते हैं। इन काले धब्बे के बाहरी किनारे पीलापन लिए होते हैं जब धब्बे बढ़ते हैं तब संक्रमित पत्तियां मूर्झाकर फिर जाती हैं। इस रोग का प्रकोप पौधे के सभी भागों पर होता है। पत्ती झुलसा का प्रकोप सामान्यतया निचली व पुरानी पत्तियों से होकर पौधे में ऊपर तक बढ़ता है। इस रोक के कारण सीधे तौर पर फलों में संक्रमण और परोक्ष रूप से पौधे की ओजता में कमी के रूप में होता है। पत्तियों के ग्रसित होने पर फलों में सूर्य तपन संक्रमण भी होता है।

  • पछेती झुलसा

जब लंबे समय के लिए सुहावने मौसम के साथ नमी वाली परिस्थितियां बनी रहती हैं तब पछेती अंगमारी रोग का प्रकोप होता है। तेजी से फैलते रोग के कारण गंभीर आर्थिक नुकसान होता है। इसमें पौधे के किसी भी भाग पर भूरे – बैंगनी अथवा काले रंग के धब्बे दिखाई पड़ते हैं। पत्तियों पर दिखाई देने वाले रंग के धब्बे दिखाई पड़ते हैं। पत्तियों पर दिखाई देने वाले धब्बे अनियमित, थोड़े बड़े, हरे – काले रंग के तथा जल का अवशोषण करने वाले होते हैं। ये धब्बे तेजी से बढ़कर भूरे हो जाते हैं और पत्तियों की निचली सतह के संक्रमित क्षेत्र के किनारों के समीप अथवा तने पर एक सफेद फफूंदी का विकास कर लेते हैं। यहाँ तक कि फलों के डंठल भी संक्रमित होकर काले पड़ जाते हैं।

  • जीवाणुज धब्बा

पत्ती पर पानी से भीगे धब्बे हरित पीले रंग के आवरण के साथ दिखाई देते हैं। बाद में ये धब्बे भूरे रंग व विकृत रूप के दिखाई देते हैं। पके हुए फलों पर ये धब्बे गहरे पानी से भीगे हुए भूरे रंग से काले भूरे रंग के दिखाई देते हैं व बाद में इन धब्बों पर दरारें विकसित हो जाती हैं।

  • बक चक्षु सड़न

सबसे पहले संक्रमण अपरिपक्व, निचले फलों, जो कि मृदा से सटे होते हैं, उन पर पीले हरे रंग के वृत्त (वलय) स्पष्ट दिखाई देते हैं। बाद में ये धब्बे भूरे और विकृत हो जाते हैं। पके फलों पर ये धब्बे कालापन लिए गहरे भूरे रंग के हो जाते हैं व इनमें दरारें विकसित हो जाती है।

  • पर्ण कूंचन

यह टमाटर की एक प्रमुख बीमारी है जिसका फैलाव सफेद मक्खी द्वारा होता है। संक्रमित पौधों की पत्तियां मुड़ जाती हैं तथा पौधों की वृद्धि रूक जाती है। नई पत्तियों में हल्का पीला रंग दिखाई पड़ता है और बाद में उनमें व्याकूंचन लक्षण प्रकट होते हैं। पुरानी पत्तियों के किनारे मोटे एवं अंदर की ओर मुड़े हुए दिखाई पड़ते हैं तथा अंतर जोड़ का आकार उल्लेखनीय रूप से छोटा हो जाता है। संक्रमित पौधा पीला लगने लगता है और रोग का अधिक संक्रमण होने पर पौधा बौना और झाड़ीनुमा दिखाई देने लगता है व इसमें फल की उत्पादकता न के बराबर रह जाती है।

सूत्रकृमी

  • जड़ गांठ सूत्र कृमि

यह एक सूक्ष्म मृदाजनित कृमि है जो जड़ का रोग ग्रस्त कर देता है जिससे पौधों के उपरी हिस्सों में पानी व पोषक तत्वों के पहुँचने में रूकावट होती है। प्रभावित पौधे कमजोर हो जाते हैं व पीली हो जाती हैं और फल उत्पादकता में कमी आ जाती है। जड़ के पूर्ण विकसित न होने से पौधा सूख जाता है

नर्सरी अवस्था

  • आद्र गलन रोग की रोकथाम के लिए अच्छी जल निकासी की व्यवस्था करें, इसके लिए जमीन से 10 सें. मी. ऊंची क्यारी बनाकर ही नर्सरी तैयारी करें।
  • नर्सरी की बुवाई से पहले मिट्टी को 0.45 मिमी मोटी पौलिथिन शीट से 2-3 सप्ताह तक ढककर मिट्टी का सूर्य तापीकरण करें। ऐसा करने से मृदाजनित रोगों के नियंत्रण से सहायता मिलती है। इस दौरान मिट्टी में पर्याप्त नमी बनी रहे. ।
  • विश्वसनीय स्रोत से प्राप्त 50 ग्राम ट्राईकोडर्मा की सक्षम स्ट्रेन (कालोनी इकाइयों के गठन/CFU: 2x100/ग्राम) को 3 किलो ग्राम गोबर की खाद में मिलाएं और 7-14 दिनों के लिए संवर्धन के लिए छोड़ दें व उसके पश्चात 3 वर्ग मीटर क्यारी में ट्राईकोडर्मा संवर्धित खाद को मिट्टी में मिला दें।
  • सफेद मक्खी जैसे रोगवाहकों के नियंत्रण के लिए मलमल जाली (40 गेज) का इस्तेमाल करें।
  • आद्र – गलन के नियंत्रण हे. तु 10 ग्रा. प्रति बीज ट्राईकोडर्मा या कैप्टन 70 डब्ल्यूपी के साथ (0.25 प्रतिशत स.त.) की दर से बीजोपचार करें। आवश्यकता होने पर कैप्टन 70 डब्ल्यू पी 0.25 प्रतिशत की दर से मिट्टी में मिला दें।
  • टमाटर नर्सरी से 20 दिन पूर्व अलग से गेंदा की पौध तैयार करें।

मुख्य फसल के दौरान

  • चूसक कीटों तथा सफ़ेद मक्खी के नियंत्रण हेतु रोपाई से पूर्व इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस एल के 7 मिली प्रति ली. पानी के मिश्रित घोल में टमाटर पौध की जड़ों को 15 मिनट तक डूबोकर रखना चाहिए।
  • पुष्पन समकलिता के लिए टमाटर की प्रत्येक 16 पंक्तियों के बाद 45 दिन पुराने गेंदा के पौधों की एक पंक्ति फसल प्रपंच के रूप में लगानी चाहिए। पहली व अंतिम पंक्ति गेंदा फसल की होनी चाहिए और इन पर 250 एलई प्रति हे. एचएएनपीवी का छिड़काव करना चाहिय।
  • रोगों के फैलने की संभावना को कम करने के लिए टमाटर की किस्मों के लिए पंक्ति से पंक्ति व पौधे से पौधे की दूरी 60x45 सेंमी तथा संकर किस्मों के लिए 90x90 सेंमी की दूरी रखें।
  • पर्ण सुरंगक, चेपा तथा सफेद मक्खी के नियंत्रण हेतु पौध रोपण के 25 दिन पश्चात नीम अर्क 5 प्रतिशत का छिड़काव करें।
  • आवश्यकता पड़ने पर सफेद मक्खी के नियंत्रण हेतु पौध रोपण के 25 दिन पश्चात् इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस एल 150 मिली अथवा थिओमैथाक्स्म 25  डब्ल्यू जी का 200 ग्रा अथवा स्पायरोमेसिफिन 22.9 एससी का 625 मिली अथवा डायमिथोएट 30 ईसी 990 मिली प्रति हे. की दर से 500 लिटर पानी के साथ छिड़काव करें।
  • फल वेधक, पर्ण सुरंगक एवं सूत्रकृमियों के प्रकोप को कम करने के लिए पौध रोपण के 20 दिन पश्चात् 250 किग्रा प्रति हे. की दर से नीम की खली का प्रयोग करें।
  • कुटकी के नियंत्रण हेतु फेनाजैकविन 10 ईसी 12 50  मिली अथवा स्पाइरोमेसीफैन 22.9 ईसी का 625 मिली प्रति हे. की दर से 500 लिटर पानी के साथ छिड़काव करें।
  • फल बेधक सक्रियता की निगरानी के लिए 2 फेरामोन प्रपंच प्रति एकड़ की दर से लगाएं। प्रत्येक 20 – 25 दिन के अंतराल पर पुराने ल्योर के स्थान पर ताजा ल्योर लगायें।
  • पौधों के शीर्ष तीन पणों की निगरानी फल बेधक के अण्डों के लिए करें।
  • अंडे के परजीवी ट्राईकोग्रामा प्रैटियोसम को 1.0 लाख प्रति हे. की दर से एक सप्ताह के अन्तराल पर फूल आंरभ होने की अवस्था से 4 – 5 बार छोड़ें।
  • गेंदा के फूलों और कलियों में फल बेधक नष्ट करने के लिए एचएएनपीवी (250 एल ई) (2x100) का शाम का समय छिड़काव करें।
  • टमाटर की पौध रोपने के 28, 35 एवं 42 दिनों के के पश्चात एचइ एनपीवी (250 एलई प्रति हे.) (2x100 पीओबी)  का शाम के समय छिड़काव करें। सूर्य की अल्ट्रा – वायलेट किरणों से तीव्र अपघटन रोकने के लिए 2 प्रतिशत गुड़ मिलाकर छिड़काव करें।
  • फल बेधक क्षतिग्रस्त फलों को समय समय पर एकत्रित कर नष्ट कर दें। ऐसा करना सूंडी का एक फल से दुसरे फल में पहुँचने से रोकने के लिए अनिवार्य है।
  • फल बेधक का अधिक प्रकोप होने पर केवल आवश्यकता होने पर रासयनिक कीटनाशक जैसे क्लोराएन्ट्रानीलीप्रोल 18.5 एससी का 150 मिली या नोवाल्यूरोन 10 ईसी 750 मिली की दर से या इंडोक्साकार्व 14.5 एससी 400 मिली की दर से 500 लिटर पानी के साथ छिड़काव करें।
  • पर्ण कुंचन संक्रमित पौधों को नियमित रूप से एकत्रित कर नष्ट कर दें।
  • अगेती एवं पछेती झुलसा के नियंत्रण हे. तु केप्टान 50 डब्ल्यू 2.5 किग्रा प्रति हे. . 1000 लिटर पानी के साथ या मेंकोजेब 75 डब्ल्यूपी 1.5-2 किग्रा प्रति हे.  की दर से 750 – 1000 लिटर पानी के साथ सुरक्षात्मक छिड़काव करें और आवश्यकतानुसार एजोक्सीस्ट्रोबिन 23 प्रतिशत एससी का 500 मिली प्रति हे. कि दर से 500 लिटर पानी के साथ या मेटालेक्सिल 3.3 प्रतिशत + क्लोरोथेलोनील 33.1 प्रतिशत एससी 1000 मिली प्रति हे. की दर से 500 लिटर पानी के साथ मौसम और फसल अवस्थानुसार छिड़काव करें। सायमोक्सानिल 8 प्रतिशत + मेंकोजेब 64 प्रतिशत डब्ल्यूपी 1.5 किग्रा या ट्यूबीकोनाजोल 50 प्रतिशत + ट्राई फ्लोक्साईट्रोबिन 25 प्रतिशत डब्ल्यूजी 350 ग्रा प्रति हे. कि दर से 500 लिटर पानी के साथ छिड़काव करें।
  • बक अक्षु सड़न के प्रकोप को कम करने के लिए टमाटर के पौधों में डंडे लगाकर उनको सहारा दें और आवश्यकतानुसार मैंकोजेब 75 डब्ल्यूपी 1.5-2.0 किग्रा 750 लिटर पानी के साथ छिड़काव करें।
  • बैक्टीरियल सूखा रोग के नियंत्रण हेतु पौध पर स्ट्रैप टोसायक्लीन (40 – 100 पी पी एम) घोल का छिड़काव खेत में करें।

मित्र कीटों का संरक्षण

टमाटर फसलचक्र में मित्र कीटों का अवांक्षित और रासायनिक कीटनाशकों के अत्यधिक छिड़काव से संरक्षण किया जाना         चाहिए।

बंदगोभी/फूलगोभी की फसल में वैधिक समेकित नाशीजीव प्रबंधन युक्तियाँ

बीज/ नर्सरी अवस्था

  • अच्छी जल निकासी हेतु एवं डैंपिंग ऑफ आदि से बचने के लिए जमीन की सतह से लगभग 10 सेंटीमीटर ऊपर

उठी हुई क्यारी तैयार करें। नर्सरी की बुवाई से पहले मिट्टी को 0.45 मिमी मोटी पालीथिन शीट से 2-3 सप्ताह तक ढककर मिट्टी सूर्य तापिकरण करें। इसके लिए मिट्टी में पर्याप्त नमी होनी चाहिए।

  • क्यारी की मिट्टी को 50 या ग्राम प्रति वर्ग मीटर नीम की खली से उपचारित करें।
  • सड़न रोग से बचाव हेतु बीज को ट्राईकोडर्मा को प्रभावी स्ट्रेन से 4 ग्रा. प्रति किग्रा बीज से उपचार करें। ट्राईकोडर्मा 1 प्रतिशत डब्ल्यू पी में 10 ग्राम प्रति ली की दर से पानी मिलाकर इस घोल में पौध को 30 मिनट डूबायें ताकि सड़न रोग से बचाव किया जा सकें
  • नर्सरी के दौरान रोगों के नियंत्रण हेतु ट्राईकोडर्मा की 250 ग्राम मात्रा को 3 किग्रा गोबर की सड़ी बारीक़ खाद अच्छी प्रकार मिलाकर एक सप्ताह के लिए छोड़ दें। बाद में 3 वर्ग मीटर क्यारी में मिट्टी में अच्छी प्रकार मिला दें।
  • डैम्पिंग ऑफ़ के नियंत्रण के लिए कैप्टान 75 डब्ल्यूपी 0.25 प्रतिशत अथवा कैप्टान 75 डब्ल्यू एस 0.2 से 0.3 प्रतिशत की दर से प्रयोग करें।
  • बरसाती मौसम में पैंटीड बग एवं पछेती रबी मौसम में चेपा से बचाव हेतु इमिडाक्लोप्रिड 70 डब्ल्यूएस से 5 ग्रा प्रति किग्रा की दर से बीज उपचार करें।
  • यदि फसल में 1 लार्वा/पत्ती की दर से हरिक पृष्ठ शलभ उपस्थित हो तो 3 ग्रा प्रति ली की दर से बेसिलस थ्रूजायनसिस का छिड़काव करें।
  • मृदुरोमिल फफूंद के लिए 2.5 ग्राम प्रति ली. जल की दर से मेंकोजेब 75 डब्ल्यूपी या मेटालेक्सिल, मेंकाजेब 35 एससी का छिड़काव करें।
  • कभी – कभी बरसात के मौसम में नर्सरी में दिखाई देने वाले तना छेदक की की रोकथाम के लिए एनएस केई 5 प्रतिशत या कार्बेरिल 50 डब्ल्यू पी का 1600 ग्रा प्रति हे. की दर से छिड़काव करें।

मुख्य फसल

  • रोगों के फैलाव को कम करने के लिए पंक्ति से पंक्ति व पौधे से पौधे की दूरी 60x45  सेंमी रखें।
  • हीरक पृष्ठ शलभ तथा चेंपा के लिए बंदगोभी की प्रत्येक 25 कतारों के बाद फंदा फसल के रूप में सरसों की एक कतार उगायें (बंदगोभी की रोपाई के 15 दिन पूर्व सरसों की एक कतार बोई जाती है तथा बंदगोभी की रोपाई के 25 दिन बाद दूसरी कतार बोई जाती है)। खेत में पहली और आखिरी कतार सरसों की होनी चाहिए। सरसों की फसल जैसे ही अंकुरित हो उस पर 0.1 प्रतिशत की दर से डाईक्लोरोवोवास 76 ईसी या क्यूनालफास 25 ईसी का 1.5 मिली प्रति ली जल के साथ छिड़काव करें।
  • हीरक पृष्ठ शलभ के लिए रोपाई के 10 दिन बाए 3 ग्रा प्रति ली. की दर से बेसिलस थ्रूजायनसिस का छिड़काव करें तथा 3 प्रकाश पाश अर्थात बल्ब/एकड़ की दर से लगायें। कीट के वयस्क प्रकाश की ओर आकर्षित होते हैं और पानी से भरी बाल्टी में गिर जाते हैं। 3-4 दिनों में अधिकांश कीट मर जाते हैं।
  • हीरक पृष्ठ शलभ की निगरानी के लिए 2 फोरोमों प्रपंच प्रति एकड़ की दर से लगायें। प्रत्येक 20 – 25 दिन के अंतराल पर फोरमों ल्यूर को बदलें।
  • एक सप्ताह के अन्तराल पर 1.0 लाख प्रति हे. की दर से 3 – 4 बार अंडा परजीव्याभ ट्राईकोग्रमाटोडी बैक्ट्री फसल न छोड़ें।
  • आल्टोर्नेरिया पत्ती धब्बे के लिए मेंकोजेब 75 डब्ल्यू अथवा जिनेब 75 डब्ल्यू पी का 1.5 – 2.0  किग्रा प्रति हे. की दर से 750 – 1000 लीटर पानी के साथ छिड़काव करें। संक्रमित पत्तियों को पौधों से तोड़कर हटा देना प्रभावी होता है।
  • ताना बेधक के लिए एनएसकेई 5 प्रतिशत या कार्बेरिल 50 डब्ल्यू पी का 1000 ग्राम अथवा मलाथीयोन 50 ईसी का 1500 मिली प्रति हे. की दर से 1000 लिटर पानी के साथ छिड़काव करें।
  • हीरक पृष्ठ शलभ के नियंत्रण के लिए आरंभिक अवस्था (रोपाई के 18-25 दिन बाद) में एनएसकेई 5 प्रतिशत का छिड़काव करें। 10 – 15 दिन के अन्तराल पर प्रति पौधा कीट के एक से अधिक संख्या होने पर यह छिड़काव दोहराएँ। एक फसल मौसम में अधिक से अधिक 3-4 एनएसकेई छिड़कावों की आवश्यकता होती है। जब एनएसकेई का छिड़काव किया जाना होतो पूरे पौधे की सतह पर भली प्रकार छिड़काव किया जाना आवश्यक है। छिड़काव के साथ किसी स्टीकर का प्रयोग करें। इससे चेपा का भी नियंत्रण होगा। इसके लिए 40 किग्रा प्रति हे. एनएसकेई पाउडर की आवश्यकता होगी।
  • हीरक पृष्ठ शलभ के नियंत्रण के लिए आवश्यकता के अनुसार साइपरमेथ्रिन 10 ईसी का 650 मिली प्रति हे. या स्पिनासेड 2.5 एससी का 10 ग्रा प्रति हे. या एमेमेकटिनबेंजोएट 5 एसजी का 150 ग्रा प्रति हे. अथवा क्लोरएट्रानीलीप्रोल 18.5 एससी 50 मिली प्रति हे.  अथवा नोवे ल्यूरान 10 ईसी 750 मिली प्रति हे. अथवा इन्डोक्सकार्ब 15.8 एससी का 266 मिली प्रति हे. की दर से 500 लिटर पानी के साथ छिड़काव करें।
  • फूलगोभी की पछेती फसल में चेपा के नियंत्रण के लिए 75 ग्रा प्रति हे. की दर से एसिटामाईप्रीड 20 ईसी या डायमीथायोएट 30 ईसी का 650 मिली प्रति हे. की दर से 500 – 1000 लिटर पानी के साथ छिड़काव करें।
  • पंखदार चेपा को फसाने के लिए पीले चिपचिपे ट्रैप लगायें।
  • तम्बाकू की इल्ली के अंड समूहों तथा लार्वों को एकत्रित करें क्योंकि ये झूंड में रहने वाले प्रकृति के होते हैं।
  • वयस्क भृंगों की क्रिया की निगरानी तथा इनके झूंडों को फंदों में फंसाने के लिए 5 प्रति हे. की दर से फिरोमान फंदे लगायें।
  • जब सूंडियां युवा हो तो एसएल एनपीवी  (2x100 पीओबी) 250 एलई प्रति हे. की दर से प्रतिशत गुड के साथ 2-3 बार छिड़काव करें।
  • तम्बाकू की इल्ली के नियंत्रण के लिए साईंएन्ट्रानीलीप्रोल 10.26 ओडी 600 ग्रा प्रति हे.  या ट्राईक्लोरफोन 50 ईसी 750 ग्रा प्रति हे. की दर से आवश्यकतानुसार छिड़काव करें।
  • पेंटिड बग के नियंत्रण के लिए आवश्यकतानुसार डाईमिथोएट 30 ईसी का 660 मिली प्रति हे. दर से छिड़काव करें।

बैंगन


कीट नाशीजीव

  • हद्दा भृंग – वयस्क भृंग गोल, पीलापन लिए हुए भूरे रंग के होते हैं जिन पर अनेक काले धब्बे पाए जाते हैं। इसके लिए गिडार हल्के पीले रंग के होते हैं तथा इनके पूरे शरीर पर कांटे होते हैं। इनके अंडे सिगार के आकार के, हल्के पीले रंग के होते हैं और सामान्यत: समूहों में देते हैं गिडार और वयस्क पत्तियों का पर्णहरिम (क्लोरोफिल) खुरच डालते हैं, हरे पदार्थ को खाते हैं तथा पत्तियों को बिल्कुल जालीदार बना देते हैं और उनके आकृति सीढ़ी के समान दिखाई देती है। बाद में प्रभावित पत्तियां सूख कर गिर जाती हैं।
  • चेपा – शिशु तथा वयस्क पत्तियों का रस चूस लेते हैं तथा प्रभावित पौधे पीले पड़ते हुए विरूपित होकर सूख जाते हैं। चेपा अत्यधिक मात्रा में शहद जैसा चिपचिपा पदार्थ स्रावित करते हैं जिसे पर फफूंद उग जाते हैं और इस प्रकार पौधे के प्रभावित भागों पर के मोटी काली पर्त जम जाती है जिससे प्रकाश संश्लेष्ण की क्रिया बाधित होती है।
  • पत्ती मोड़क – लार्वे पत्तियों को मोड़ देते हैं तथा उनके हरे भाग को खा जाते हैं और पत्तियों की भीतरी पत्तों में बने रहते हैं तथा इस प्रकार छुपकर जीवन व्यतीत करते हैं। अंतत: मुड़ी हुई पत्तियां मुरझा कर सूख जाती हैं।
  • पत्ती फुदका – शिशु वयस्क पीलापन लिए हुए रंग के होते हैं। इनकी विशेषता यह है की ये अपने शरीर के संदर्भ में तिरछे चलते हैं। ये पत्तियों की निचली सतह में पत्तियों का रस चूसते हैं। संक्रमित पत्तियां ऊपर की ओर एंठ जाती हैं और बाद में पीली पड़कर मुरझाने लगती हैं कीट के प्रकोप से पौधों की बढ़वार रूक जाती है फुदका छोटी पत्ती जैसे माइकोप्लाज्मा तथा विषाणु रोगों के वाहक भी हैं।
  • प्ररोह तथा फसल वेधक – यह बैंगन की फसल का सर्वाधिक विध्वंसकारी नाशीजीव है। इसके शलभ के शरीर पर विशेष प्रकार के काले भूरे धब्बे होते हैं, जबकि अग्र पंखों पर सफेद बिंदिया होती हैं। लार्वा प्ररोहों में प्रवेश कर जाते हैं जिसे प्ररोहों के बढ़वार स्थल नष्ट हो जाते हैं। प्ररोहों का मुर्झा कर झुक जाना इस नाशीजीव का प्रकोप का विशिष्ट लक्षण है। लार्वे फलों में उनकी अंखुड़ी के माध्यम से प्रवेश करते हैं। इस प्रकार फलों पर कीट के आक्रमण का कोई बाहरी लक्षण नहीं दिखाई देता है। बाद में ये लार्वे फलों में छेद कर देते हैं जो निकास छिद्र के रूप में दिखाई देते हैं। ऐसे फल खाने योग्य नहीं रह जाते तथा उनका बाजार में कोई मूल्य नहीं मिलता है।

प्रमुख रोग

  • डैम्पिंग ऑफ़ – यह रोग पौधे की अविकसित व विकसित दोनों अवस्थाओं में होता है। अविकसित अवस्था में बीज निकलने से पहले ही सड़ जाता है। जबकि विकसित अवस्था में पौध मिट्टी की सतह पर ही गिर जाता है।
  • फोमाप्सिस झुलसा तथा फल सड़न – यह बैंगन का गंभीर रोग है जो इसके पौधों की पत्तियों तथा फलों को संक्रमित करता है। पौध पर संक्रमण होने की अवस्था में यह डैम्पिंग ऑफ के लक्षण दर्शाता है। पत्तियों पर यह रोग छोटे गोल धूसर से भूरे रंग के धब्बे के रूप में दिखाई देता है संक्रमित फलों पर छोटे धसे हुए धब्बों के रूप में लक्षण प्रकट होते हैं।
  • छोटी पत्ती रोग – इसका प्रमुख लक्षण पौधों की पत्तियों का छोटा होते जाना है। पत्तियों का डंठल इतना छोटा होता है कि पत्तियां तने से चिपकी हुई दिखाई देती हैं। संक्रमित पौधों की पत्तियों संकरी, मुलायम, चिकनी तथा पीले रंग की हो जाती हैं। नव विकसित पत्तियां और भी छोटी होती हैं। तने की अंतरगांठे भी छोटी पद जाती हैं। अग्रस्थ कलिकाएँ बड़ी हो जाती हैं लेकिन पौधों के पर्णवृंत तथा पत्तियां छोटी ही बनी रहती हैं जिससे पौधा झाड़ी जैसा दिखाई देता है। ऐसे पौधों पर फलन बहुत कम होता है।
  • लाल मकड़ी कुटकी – शिशुओं तथा वयस्कों की कलेनियाँ पत्तियों की निचली सतह पर रहती हुई  उनका भरण करती हैं। जैसे – जैसे  की संख्या बढ़ती है, सफेद शूकियों की संख्या भी बढ़ जाती है। अंतत: पत्ती विरंजित होकर सूख जाती है। कुटकियाँ पत्तियों की निचली सतह पर बड़ी संख्या में बनी रहती हैं, संक्रमित पत्तियां धीरे – धीरे ऐंठन लगती हैं और अंतत: सिकुड़ती हुई भंगुर हो जाती हैं। भारी संक्रमण होने पर फल भी प्रभावित होते हैं। ये कुटकियाँ महीन जाल भी बनाती हैं।

सूत्रकृमि

  • जड़गांठ सूत्रकृमि – सर्वाधिक विशेष लक्षण पौधों की जड़ प्रणाली में गांठों या पुटियों का बनना है। ये पूटियाँ एकल या अनेक होती हैं सूत्रकृमि के प्रकोप से पौधों की बढ़वार रूक जाती है, पत्तियों का हरापन गायब हो जाता है। और मुरझान के लक्षण दिखाई देते हैं। फलन भी प्रतिकूल रूप से प्रभावित होता है। प्रभावित खेत पर पौधों के धब्बे जैसे दिखाई देते हैं।

नर्सरी अवस्था

  • जूलाई अगस्त के दौरान सण/ ढेंचा का हरी खाद के रूप में प्रयोग करें।
  • आद्र गलन आदि को रोकने, तथा अच्छी जल निकासी के लिए जमीन से 10 सेंमी ऊंची क्यारी बनाकर ही नर्सरी तैयार करें।
  • जून के महीने में मृदा सौर्यीकरण के लिए 3 सप्ताह तक 45 गेज (0.45 मिमी) मोती पोलीथिन की चादर बिछाएं जिससे मृदावाहित कीटों, जीवाणु मुरझान जैसे रोगों तथा सूत्रकृमियों को कम करने में सहायता मिलती है। तथापि यह ध्यान रखना चाहिए कि सौर्यीकरण के लिए मृदा में पर्याप्त नमी मौजूद हो।
  • 3 किग्रा घूरे की खाद में 250 ग्रा कवकीय विरोधी ट्राई कोडर्मा को मिलाएं तथा कल्चर को समृद्ध बनाने के लिए तीन सप्ताह तक ऐसे ही रखा रहने दें। 21 दिनों के पश्चात् इस सामग्री को 3 वर्ग मीटर की क्यारी में मिलाएं।
  • फल वेधक प्रतिरोधी किस्मों/संकर प्रजाति आदि का चुनाव करें।
  • डैपिंग ऑफ़ एवं जड़ गलन के नियंत्रण हेतु ट्राईकोडर्मा 1 प्रतिशत के साथ बीजोपचार (5 ग्रा प्रति किग्रा बीज की दर से), नर्सरी उपचार (400 वर्ग मी क्षेत्र का 250 ग्रा प्रति 50 लीटर पानी की दर से), पौध जड़ उपचार (1 प्रतिशत 15 मिनट तक) करें और आवश्यकतानुसार कैप्टान 75 डब्ल्यूपी से 0.25 प्रतिशत की दर से मृदा उपचार करें।

मुख्य फसल

  • सफेद मक्खी आदि के लिए पीले चिपचिपे फंदे या डेल्टा फंदे 2-3 प्रति एकड़ की दर से लगाये।
  • चुसक नाशीजीवों तथा पत्ती मोड़क कीट को नियंत्रित करने के लिए एक – एक सप्ताह के अन्तराल पर एनएसकोई 5 प्रतिशत के 2 -3 छिड़काव करें।
  • यदि सफेद मक्खी तथा अन्य चूसक कीट नाशीजीवों का प्रकोप अब भी आर्थिक हानि सीमा से अधिक हो तो 250 – 340 मिली प्रति हे. की दर से 1000 लिटर पानी में फेनाप्रोपेथ्रिन 30 ईसी या डाईफेनथाओयूरान 50 डब्ल्यू पी 600 मिली प्रति हवा क्युनाल्फोस 25 ईसी का 1.5 किग्रा प्रति हे. या फोस्फामिडान 40 एसएल का 650 ग्रा प्रति हे.  की दर से 500 – 750 लीटर पानी के साथ या फोस्फामिडोन 40 एसएल 750 मिली प्रति हे. की दर से 500 लीटर पानी के घोल या स्पाईरोमेसिफेन 22.9 एससी 400 मिली प्रति हे.  (कुटकी) को 500 लिटर पानी के घोल में छिड़काव करें।
  • छोटी पट्टी रोग से प्रभावित पौधों की छंटाई की जानी चाहिए।
  • वेधक शलभों के बड़े पैमाने पर पाश में फंसाने के लिए 100 प्रति हेक्टेयर की दर से गंधपाश लगाए जाने चाहिए। प्रत्येक 15 – 20 दिन के अन्तराल पर पुराने लासे के स्थान पर ताजा लासा लगाये।
  • आरंभिक अवस्थाओं में समय – समय पर क्षतिग्रस्त प्ररोहों को काट देना चाहिए।
  • 10 प्रति एकड़ की दर से पक्षियों को आकर्षित करने के लिए पक्षी ठिकाने बना देने चाहिए।
  • एनएसकेई के छिड़काव से भी बेधक कीटों का प्रकोप बहुत का हो जाता है। नीम के तेल (1 प्रतिशत) का प्रयोग करना भी वेधकों के संक्रमण को कम करने में सहायक सिद्ध होता है। यद्यपि यह बहुत कम प्रभावी पाया गया।
  • प्ररोह तथा फल बेधक के लिए एक – एक सप्ताह के अन्तराल पर 4 – 5 बार 1 – 1.5 लाख प्रति हे. की दर से टी. ब्रेसिलियोन्सिस के अंड परजीव्याभ को छोड़ें।
  • सूत्रकृमियों तथा वेधकों से होने वाली क्षति को कम करने के लिए रोपाई के 25 और 60 दिन बाद पौधों की कतारों के साथ – साथ मिट्टी में 250 किग्रा प्रति हे. की दर से नीम की खली का उपयोग (दो खुराकों में)। यदि पवन की गति तेज हो तथा तापमान 30 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो तो नीम की खली का उपोयग न करें।
  • प्ररोह तथा फल वेधक के प्रभावी नियंत्रण के लिए 15 दिन के अन्तराल पर आवश्यकतानुसार क्लोरएंट्रानीलीप्रोल 18.5 एससी का 200 मिली प्रति हे. अथवा ईमेमेकटिन बेंजोएट 5 एससी का 200 ग्रा अथवा ट्राईक्लोरोफोन 50 ईसी का 1.0 किग्रा अथवा फोसेलोन 35 ईसी का 1500 मिली अथवा लेम्बडा सायहेलोथ्रिन 5 ईसी का 300 मिली प्रति हे. की दर से 500 – 600 लीटर पानी में 15 दिन के नियमित अंतराल पर छिड़काव करें।
  • फोमाप्सिस एवं छोटी पत्ती रोग से संक्रमित पौधों को एकत्रित करके नष्ट करें और खेत को साफ – सुथरा रखें।
  • फोमाप्सिस प्रभावित फल और पर्ण धब्बा रोग के नियंत्रण के लिए खेत में 1.5 – 2.0 किग्रा प्रति हे. की दर से जिनेब 75 डब्ल्यूपी 750 - 1000 लीटर पानी के घोल में अथवा कार्बेन्डाजिम 50 डब्ल्यूओई 300 ग्रा प्रति हे. 600 लीटर पानी की घोल के साथ छिड़काव करें।
  • बैंगन की फसल लगातार उगाने से बेधकों तथा मुर्झान रोग का संक्रमण अधिक होता है। अत: गैर सोलेनेसी प्रजाति की फसलों को अपनाते हुए उचित फसल क्रम का पालन करना चाहिए।

मित्र कीटों का संरक्षण

बैंगन में फसल प्रणाली में सामान्य रूप से दिखाई देने वाले प्राकृतिक शत्रुओं की रक्षा की जानी चाहिए और इसके और रासायनिक दवाइयों का अवांक्षित और अतिरिक्त छिड़काव नहीं किया जाना चाहिए।

मिर्च/शिमला मिर्च

प्रमुख नाशीजीव

  • थ्रिप्स छोटे और पतले कीट होते हैं और नर्सरी के साथ मुख्य खेत में भी दिखाई देते हैं और अपने पूरे जीवनभर वे फसल को प्रभावित करते हैं। वयस्क और निम्फ दोनों फसल को नुकसान पहुंचाते हैं तथा पत्ती के ऊतकों के चिथड़े कर देते हैं और रस को चूसते हैं। नर्म प्ररोहों, कलियों और फूलों पर आक्रमण किया जाता है जिसके परिणामस्वरूप वे मुड़ जाते हैं और विरूपित हो जाते हैं, पत्तियों का ऊपरी हिस्सा भी मुड़ जाता है। ग्रीष्म मौसम में नाशीजीवों का संक्रमण बढ़ जाता है।
  • चेपा – ये मुख्यतः शुष्क, बादलों वाले ठंडे और आर्द्र मौसम की स्थितियों में प्रकट होते हैं जबकि भारी वर्षा चेपा की कालोनियों को धो डालती हैं। ये फरवरी से अप्रैल के दौरान तेजी से बढ़ते हैं। ये नर्म प्ररोहों और पत्तियों की निचली सतह पर दिखाई देते हैं। रस को चूसते हैं तथा पौधों की वृद्धि को कम करते हैं। ये मीठा पदार्थ छोड़ते हैं जो कि चीटियों को आकर्षित करता है और काली फफूंद विकसित हो जाता है।
  • तम्बाकू की इल्ली – तम्बाकू की इल्ली का वयस्क भूरे रंग का होता है और और तीसरे इनस्टार के लार्वे कैलिक्स के पास छेद बनाकर मिर्च की फलियों में प्रवेश करते हैं और मिर्च के बीज से अपना भोजन प्राप्त करते हैं। प्रभावित फैयाँ गिर जाती हैं या सूखने पोर सफेद रंग की हो जाती हैं। ये आदत से रात्रिचर होते हैं लेकिन इन्हें दिन के समय भी देखा जा सकता है।
  • फल बेधक – यह कीट वर्षा काल के बाद वाले मौसम में (अक्टूबर से मार्च) बहुत सक्रिय होता है जो कि तीखी मिर्च की फसल की पुनरूत्पादक स्थिति भी है। लार्वा फलों का वेधन कर उन्हें क्षतिग्रस्त करता है और फलियों के भीतरी हिस्सों से अपना भोजन प्राप्त करता है। शिमला मिर्च में अप्रैल से जून के समय में फलों को नुकसान पहुंचाता है।

रोग

  • डैम्पिंग ऑफ – यह  रोग ख़राब निकासी वाली और आर्द्रता वाली भारी मिट्टी को सबसे अधिक क्षतिग्रस्त करता है। बीज सड़ सकता है और मिट्टी से निकलने से पहले ही पौधे मर सकते हैं। नए पौध/मृदुलण और कालर क्षेत्र में ऊतकों के नष्ट होने के कारण अलग – अलग खण्डों में मर जाते हैं।
  • पर्ण चित्ती – पत्तियों पर विक्षति भूरी और वृत्ताकार होती है जिसके बीच में छोटे से बड़े हल्के धूसर रंग के और गहरे भूरे किनारे होते हैं। गंभीर रूप से संक्रमित पत्तियां पकने से पहले ही गिर जाती हैं जिसके परिणास्वरूप उपज में कमी होती है।
  • डाई – बैक और एन्थ्राक्नोज – रोग के लक्षण अधिकांशत:  पके हुए फलों पर दिखाई देते हैं और इसलिए इस रोग को पके हुए, फलों का सड़न भी कहा जाता है। चित्तियाँ सामान्यत: वृत्ताकार, जलमग्न और काले किनारे के साथ डूबी हुई होती है। जैसे- जैसे रोग बढ़ता है ये चित्तियाँ फैलती हैं, और इनसे गहरे फलन के साथ निश्चित मार्किंग बनती है। अनेक चित्तियों वाले फल पकने से पहले ही गिर जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप उपज का भारी नुकसान होता है। कवक फसल के डंठलों पर भी आक्रमण कर सकते हैं और तने के साथ – साथ फ़ैल सकते हैं जिससे पश्चमारी के लक्षण बन आते जाते हैं।
  • फ्यूजेरियम मुर्झान – यह रोग अधिकांशत: ख़राब निकासी वाली मृदाओं में होता है पौधे के मुरझाने तथा पत्तियों के ऊपरी तरफ और अंदर की तरफ मुड़ने से फ्यूजेरियम मुरझान का पता चलता है। पत्तियां पीली होकर मर जाती हैं। सामान्यत: यह रोग खेत के नीचे वाले पानी रूकने वाले क्षेत्रों में दिखाई देता है और जल्दी ही सिंचाई के साथ पानी की नाली के साथ फ़ैल जाता है। उपरोक्त समय तब जब भूमि के ऊपर लक्षण दिखाई देने लगते हैं तब तक पौधे की संवहनी प्रणाली विशेष रूप से निचले तने और जड़ें भी विरूपित होने लगते हैं।
  • चूर्णिल फफूंद – यह रोग तीखी मिर्च में बहुत आम रोग है। रोग शुष्क और आर्द्र दोनों प्रकार के मौसम स्थितियों के तहत गर्म जलवायु में पैदा होता है। पत्तियों की ऊपरी सतह पर हरिमाहीन धब्बे दिखाई देने लगते हैं। पत्तियों की निचली सतह पर विक्षतियाँ सफेद से धूसर चूर्णिल बढ़वार से ढक जाती हैं। यह रोग पुरानी से नई पत्तियों की ओर बढ़ता है और पर्ण – समूह का झड़ना इसका सबसे प्रमुख लक्षण है।
  • विषाणु काम्प्लेक्स – इस विषाणु के कारण पत्तियों का आकार छोटा हो जाता है, जिससे पौधे बौने दिखाई देना लगते हैं। रोग बढ़ने की अवस्था में पौधों की बढ़वार रुकी हुई दिखाई देती है और पौधा झाड़ी जैसा दिखाई देने लगता है व फूलों का उत्पादन भी कम हो जाता है। विकृत बीजों के साथ फल छोटे आकार के पैदा होते हैं। गंभीर संक्रमण होने पर फसल का पूरी तरह से नष्ट होना सामान्य है।
कुटकी
  • चौड़ी कुटकी – यह नवम्बर के महीने में फैलती है। निम्फ और वयस्क पत्तियों से रस चूसते हैं। प्रभावित पत्तियां सिरों से नीचे की ओर मुड़ जाती हैं और उनकी आकृति मुड़ी हुई नौका के रूप में बन जाती है। पर्ण वृंत दीर्घीकृत हो जाते और छोटी पत्तियां दंदानेदार बन जाती हैं और वे झाड़ियों के रूप में दिखाई देती हैं। पत्तियों के घटे हुए मुतान के साथ वे गहरे धूसर रंग की हो जाती हैं, पौधों में पुष्पन रूक जाता है और उपज में बहुत अधिक कमी हो जाती है।
  • झुलसा

यह शिमला मिर्च का एक क्रियात्मक विकार है जिससे फल सूर्य की सीधी किरणें पड़ने के कारण प्रभावित होते हैं। उन पर सफेद रंग के परिगालित चकते हैं व जो हिस्सा सीधे सूर्य के संपर्क में आता है उसकी ऊपरी सतह पतली और सूखी और कागज जैसी हो जाती है।

नर्सरी अवस्था

  • डेम्पिंग ऑफ से बचने के लिए अच्छी निकासी के लिए भूमि स्तर सर लगभग 10 सेंमी ऊपर उठी हुई नर्सरी की क्यारियां तैयार करें।
  • मृदा से पैदा होने वाली नाशीजीओं के लिए मृदा सौर्यीकरण के लिए क्यारियों को 45 गेज (0.45 मिमी) मोटाई की पौलिथिन शीट से तीन सप्ताह के लिए ढकें। मृदा सौर्यीकरण के दौरान मिट्टी में पर्याप्त नमी होनी चाहिए।
  • 3 किग्रा की घूरे की खाद में कवकीय विरोधी टी. हारजेनियम (सी. एफ. यू. 2x100 प्रतिग्राम) मिलाएं और समृद्धिकरण के इए उसे लगभग 7 दिनों के लिए छोड़ दें। 7 दिनों के बाद 3 मी 2 की क्यारियों में मिट्टी में मिलाएं।
  • डेपिंग ऑफ और चुसकनाशी जीवों का प्रबंधन करने के लिए विश्वसनीय स्रोत से प्राप्त ट्राईकोडर्मा  से 10 ग्रा प्रति किग्रा बीज की दर से अथवा इमिडाक्लोप्रीड 70 डब्ल्यू एस का 10 ग्रा प्रति किग्रा बीज की दर से बीजोंपचार करें जिससे कि प्रारंभिक स्थितियों में ही नाशीजीवों का प्रबंधन किया जा सके।
  • स्यूडोमोनास फ़्लूओरिसेन्स  अथवा ट्राईकोडर्माविरिडी से बीजोपचार करें।
  • डेपिंग ऑफ/सड़न के प्रबंधन के लिए आवश्यकतानुसार कैप्टान 70 डब्ल्यूपी 0.25 प्रतिशत या 70 डब्ल्यूएस 0.2 – 0.3 प्रतिशत अथवा मेन्कोजेब 75 डब्ल्यूपी 0.3 प्रतिशत की दर से मृदा उपचार के लिए प्रयोग करें।
  • सर्दी के मौसम के दौरान (दिसम्बर – जनवरी) ठण्ड/पाले से बचाने के लिए नर्सरी की क्यारियों के एक सिरे पर खसखस का शेड लगायें। क्यारियों को पाले से होने वाले क्षति से बचाने के लिए रात के समय पालीथीन की शीटों से ढक दें। तथापि दिन के समय इन शीटों को हटा दें जिससे कि वे सूर्य की गर्मी प्राप्त कर सकें।

मुख्य फसल

  • रोपाई के समय दस मिनट के लिए पौधों को 5 मिली प्रति ली की दर से स्यूडोमोनास फ्लोरेसेंस के घोल में डूबोयें।
  • परभक्षी पक्षियों की सुविधा के लिए 10 प्रति एकड़ की दर से पक्षियों के ठिकाने स्थापित करें।
  • हापर, चेपा और सफेद मक्खी आदि के लिए 2 प्रति एकड़ की दर से डेल्टा जाल स्थापित करें।
  • चेपो, थ्रिप्स, हापर और सफेद मक्खी के विरूद्ध नीम उत्पाद/एनएसकेई 5 प्रतिशत का छिड़काव करें। प्रतिरोपण के 15-20 दिनों के बाद जबकि रेटिंग 1 – 2 की बीच होती है थ्रिप्स के विरूद्ध एनएसकेई 5 प्रतिशत का छिड़काव 2 – 3  बार करें। यदि थ्रिप्स और सफेद मक्खी की संख्या फिर भी अधिक रहे तब फेंप्रोपथिन 30 ईसी का 250 – 340 मिली प्रति हे. /750 – 1000 लीटर पानी अथवा पाईरिप्रोक्सिनफेन 10 ईसी का 500 मिली अथवा स्पिनोसेड 45 एससी का 160 ग्रा प्रति हे. /500 ली (थ्रिप्स के लिए० अथवा फिप्रोनिल 5 एस सी का 800 – 1000 मिली प्रति हे. की दर से 1000 लिटर पानी के साथ छिड़काव करें।
  • यदि थ्रिप्स और कूटकियां दोनों एक साथ दिखाई दें तो फेनफ्रोपैथ्रिन 30 ईसी का 250 मिली प्रति हे. अथवा इथियोन 50 ईसी का 1.5 ली प्रति हे. की दर से छिड़काव उपयोगी होता है।
  • पर्ण कुंचन/मोजेक काम्प्लेक्स से प्रभावित पौधों की आवधिक रूप से छटाई करते हूए उन्हें नष्ट करना चाहिए।
  • अंडे देने के दौरान वयस्कों की निगरानी के लिए एच.आर्मीजेंरा/ एस. ल्यूटेरा का लिए 5 प्रति हे. की दर से फैरामोन जाल लगायें।
  • फल वेधक के लिए 1.5 लाख प्रति हे. की दर से ट्राईकोडर्मा प्रजाति के परजीवी अण्डों को आवधिक रूप से छोड़ें।
  • प्रारंभिक स्थिति में या जब और जैसे आवश्यकता हो तो एचएएनपीवी/ एसएलएनपीवी (250 एलई प्रति हे. ) (2x100 पीओबी) के 2 – 3 छिड़काव करें।
  • फूल एवं फल की प्रांरभिक अवस्था के दौरान फल बेधक के लिए स्पिनोसेड 45 एससी का 60 मिली अथवा एमेमेक्टिन बेंजोएट 5 एसइ का 200 ग्रा अथवा इंडोकसकार्ब 14.5  एस सी का 400 मिली प्रति हे. की दर से 500 लीटर पानी के साथ केवल आवश्यकतानुसार छिड़काव करें। एच आर्मिजेरा केवल छोटे लार्वे के रूप में ही प्रभावी हैं। इन कीटनाशकों का शाम के समय करना ही उचित है।
  • बेधक के कारण क्षतिग्रस्त फलों को समय – समय पर हटाकर उनको नष्ट किया जाना चाहिए।
  • फल सड़न और डाई बैक के प्रबंधन हेतु मेंकोजेब 75 डब्ल्यूपी अथवा प्रीपिनेब 70 डब्ल्यूपी का 1.5- 2.0 किग्रा प्रति हे. की दर से 750 – 1000 लिटर पानी के साथ या जिनेब 70 डबल्यूपी का 0.5 प्रतिशत की दर से सुरक्षात्मक छिड़काव व आवश्यकता आधारित डायफेनकोनाजोल 25 ईसीका 0.05 प्रतिशत अथवा मायक्लोब्यूटानिल 10 डबल्यूपी का 0.04 प्रतिशत या केप्टान 70 प्रतिशत + हे. क्साकोनाजोल 5 डब्ल्यूपी का 500 – 1000 ग्रा प्रति हे.  की दर से 500 लिटर पानी के साथ छिड़काव करें।
  • चूर्णिल आसिता के प्रबंधन के लिए सल्फर 52 एससी का 2 ली प्रति हे. की दर से 400 लीटर पानी में या सल्फर 80 डब्ल्यूपी का 3.13 किग्रा प्रति हे. की दर से 1000 लीटर पानी के घोल के साथ छिड़काव करें।
  • चूर्णिल आसिता और फल सड़न के प्रबंधन के लिए आवश्यकता आधारित हेक्सकोनाजोल 2 एससी का 3 ली. प्रति हे. या टेब्यूक्यूनाजोल 25.9 प्रतिशत एम/एस ईसी 500 मिली या एजोक्सीट्रोबीन 11 प्रतिशत + टेब्यूक्यूनाजोल 18.3 प्रतिशत एससी द्ब्ल्यहू/डब्ल्यू का 600/700 मिली प्रति हे.  की दर से 500 – 700 लीटर पानी के साथ छिड़काव करें।
  • डाई-बैक के लिए पी फ्लोरोसेंस का सामान्य छिड़काव भी किया जा सकता है।
  • विभिन्न रोगों के लिए पी फ्लोरेसेंस या ट्राईकोडर्मा (जैव नाशकनाशीजीवी) का सामान्य रूप से छिड़काव किया जा सकता है।
  • फ्यूजेरियम मुर्झान प्रबंधन के लिए खेत तैयार करते समय मृदा में घूरे की खाद (250 किग्रा) में विश्वशनीय स्रोत से लिए गये ट्राईकोडर्मा (5 किग्रा प्रति हे.) को मिला कर प्रयोग करें।
  • यदि मुर्झान प्रतिवर्ष नियमित रूप से होता है तो फसल चक्रण किया जा सकता है।

मित्र कीटों का संरक्षण

शिमला मिर्च में नाशीजीवों के प्रचलित रूप से दिखाई देने वाले प्राकृतिक शत्रुओं को रासायनिक दवाइयां के आवंछित और अत्यधिक छिड़कावों से बचाना चाहिए।

भिण्डी

कीट नाशीजीव

  • पत्ती फुदका - यह नाशीजीव फसल की आरंभिक अवस्था में आक्रमण करता है। पत्ती हापर के शिशु तथा वयस्क पीलापन लिए हुए हरे रंग के होते हैं जिनके प्रतिपृष्ठ भाग पर एक जोड़ी काले धब्बे तथा प्रत्येक अग्र पंख के भाग पर एक काला धब्बा होता है। ये कीट एक विशेष तरीके से तिरछे चलते हैं। मादाएं पत्तियों की नाड़ियों में अपने अंडे डालती हैं। शिशु तथा प्रौढ़ दोनों पत्तीयों की निचली सतह से कोशिका रस चूसते हैं तथा उनमें विषाक्त पदार्थ छोड़ देते हैं। संक्रमित पत्तियां पीली पड़ जाती हैं तथा कोरों पर ऊपर की और मुड़ जाती हैं। भारी संक्रमण होने पर पत्तियां ईंट जैसे गहरे लाल रंग की हो जाती हैं।
  • प्ररोह तथा फल बेधक – प्ररोह तथा फल बेधक का प्रकोप सामान्यत: बरसात के बाद नम स्थितियों में होता है। लार्वा नव पौधों की चोटी अंतिम प्ररोहों में छेद करता है जिससे प्ररोह मर जाते हैं कलियों, फूलों तथा फलों का निर्माण होने पर इल्ली इनके अंदर प्रवेश कर जाती हैं तथा इनके आंतरिक ऊतकों को खाती हैं। संक्रमित कलियाँ और फूल पौधे से गिर जाते हैं। प्रवेश छिद्र कीट के मल से बंद हो जाता है। फलों की आकृति बिगड़ जाती है और उनका उनका कोई बाजार मूल्य नहीं रह जाता है।
  • सफेद मक्खी – मादाएं वृंतयुक्त पीले व तकुए की आकृति वाले एकल अंडे पत्तियों की निचली सतह पर देती हैं। शिशुओं अंडे के समान व उनका आकार व शल्क जैसा होता है तथा ये पत्तियों की सतह से चिपके रहते हैं। वयस्क छोटे आकार के हल्के पीले रंग की काया वाले होते हैं जिनके पंख दूधिया सफेद मोमिया पाउडर की पर्त से ढके होते हैं। शिशु तथा वयस्क सामान्यत: पत्तियों की निचली सतह से रस चूसते हैं और शहद जैसा पदार्थ छोड़ते हैं। इनके प्रकोप से पत्तियां चिपचिपी दिखाई देती हैं तथा उन पर कवकों की पर्त चढ़ जाती हैं। पौधों की बढ़वार रूक जाती है। यह कीट शिरा चित्ती विषाणु भी हस्तांतरित करता है।
  • चेपा – शिशु हल्का पीलापन लिए हुए हरे अथवा हरापन लिए हुए काले या हल्के भूरे रंग के होते हैं। वयस्क अधिकांशत: पंखहीन होते हैं लेकिन कुछ में पंख देखे जा सकते हैं। दोनों स्वरुप अंडे की जगह सीधे बच्चे ही जानते हैं, अत: इनकी जनसंख्या बहुत तेजी से बढ़ती है। इनी प्रगुणन के लिए ठंडी व नाम स्थितियां अनुकूल हैं, जबकि अच्छी वर्षा होए पर ये गायब हो जाते हैं। ये ऊतकों से उनका महत्वपूर्ण रस चूस लेते हैं जिससे पत्तियां ऐंठ जाती हैं। चेंपा द्वारा छोड़े गये शहद जैसे पदार्थ के कारण पौधों की पत्तियां चमकीली व चिपचिपा दिखाई देती हैं। बाद में इस शहद जैसे पदार्थ पर फंफूद उग आते हैं और उन की एक काली पर्त बन जाती है।

रोग

  • पीला शिरा चित्ती रोग – पीली नाड़ियों पर विशिष्ट प्रकार के परस्पर जाल में बुने हुए आकार वाले लक्षण दिखाई देते हैं जिससे पत्तियों पर हर ऊतकों के अलग – अलग क्षेत्र बन जाते हैं। बाद में पूरी पत्ती पीली पड़ जाती है। पौधों की बढ़वार रूप जाती है तथा उनका रंग पीलापन लिए हुए हरा हो जाता है। किसी खेत में अधिकांश पौधेरोगग्रस्त हो सकते हैं तथा रोग का संक्रमण पौधों की बढ़वार की किसी भी अवस्था में आरंभ हो सकता है। संक्रमण से फूलों व फलों का विकसित होना रूक जाता है तथा वे आकार में छोटे, पीले व कठोर हो जाते हैं। यह रोग सफेद मक्खी द्वारा फैलता है तथा आर्थिक दृष्टि से भिण्डी का सबसे महत्वपूर्ण रोग है। कभी – कभी इससे फसल को 80 प्रतिशत से अधिक हानि होती है।
  • चूर्णिल फफूंद – संक्रमित पौधे की पत्तियों की निचली सतह पर आटे के समान सफेद धब्बे दिखाई देते हैं जो आगे चलकर पत्ती दोनों सतहों पर फ़ैल जाते हैं। आरंभ में पत्तियों पर सफेद ऊपरी धब्बे दिखाई देते हैं लेकिन बाद में पूरे सतह सफेद पदार्थ से ढक जाती है। गंभीर रूप से संक्रमित पत्तियां पीली पड़कर मुरझा जाती हैं। गहन संक्रमण के परिणामस्वरूप पत्तियां ऊपर की और मुड़कर क्षतिग्रस्त हो जाती हैं। इस रोग के कारण अधिकांश पत्तियां पौधों से टूटकर गिर सकती हैं।

कुटिकियाँ/माईट

  • लाल मकड़ी कुटकी- इन कुटिकियाँ का संक्रमण अधिकांशत: गर्म व शुष्क मौसम के दौरान होता है। लार्वा तथा शिशु गुलाबी व हरापन लिए हुए लाल रंग के होते हैं जबकि वयस्क अंडाकार लालिमा लिए हुए रंग के होते हैं। कुटिकियाँ पत्तियों की निचली सतह पर रहती हुई उन्हें खाती हैं जिसके परिणामस्वरूप पत्तियों पर सफेद लिए हुए धूसर धब्बे दिखाई पड़ने लगते हैं। प्रभावित पत्तियां धीरे – धीरे ऐंठन लगती हैं और अंतत: मुरझाती हुई सिकुड़कर भूरी होने के बाद पौधे से अलग होकर गिर जाती हैं।

सूत्रकृमि

  • जड़गांठ सूत्रकृमि – द्वितीय अवस्था वाले लार्वे जड़ों में प्रवेश करके पौधे को संक्रमित करते हैं। यहाँ ये भरण करते हुए विमोचित होने के पश्चात् वयस्क अवस्था में पहुंचते हैं। ये जड़ों को बहुत तेजी से खाते हैं और उन पर विशेष प्रकार की गांठें या पूटियाँ बना देते हैं। ये पूटियाँ एकल अथवा समूहों में हो सकती हैं और पूरी जड़ों पर व्यापक रूप से फ़ैल जाती हैं। प्रभावित पौधे निर्बल होते हैं, उनकी बढ़वार रूक जाती है तथा पत्तियां पीली पड़ जाती हैं। फसल की उपज बहुत कम हो जाता है।
  • पीली शिरा चित्ती रोग प्रतिरोधी किस्मों की बुवाई करें।
  • 4 ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से  ट्राईकोडर्मा से बीजोपचार करें।
  • सफेद मक्खी तथा फल वेधक के वयस्क शलभों के लिए अवरोधक फसल के रूप में भिण्डी के खेत के चारों ओर ज्वार या मक्का की फसल की बुवाई करें।
  • चुसक कीट नाशीजीवों के लिए एक सप्ताह के अन्तराल पर 2 – 3 बार 5 प्रतिशत की दर से एनएसकेई का छिड़काव करें।
  • 2 प्रति एकड़ की दर से पीले चिपचिपे फंदे/डेल्टा फंदे लगायें।
  • लाल मकड़ी कुटकी के नियंत्रण के लिए 2 मिली प्रति ली की दर से प्रोपरजाइट 57 ईसी या डाइकोफोल 18.5 का छिड़काव करें।
  • पक्षी परभक्षियों की सुविधा के लिए खेत में 10 एकड़ की दर से डंडे खड़े करें।
  • फुदकों, चेपा व अन्य चुसक कीटों के लिए 100 मिली प्रति हे. की दर से इमिडाक्लोप्रिड 70 द्ब्ल्यूजी या 100 ग्रा प्रति हे. कर दर से थियोमैथाक्सेम 25 डब्ल्यूजी का 500 लीटर पानी के साथ छिड़काव करें। दूसरा छिड़काव दो सप्ताह के पश्चात् करें।
  • समय – समय पर पीली शिरा चित्ती विषाणु से प्रभावित पौधों को खेत से हटाकर नष्ट करते रहें।
  • भृंगों को एकत्रित करके नष्ट रहें।
  • सफेद मक्खी के प्रबंधन के लिए फेंप्रोपैथ्रिन 30 ईसी का 350 मिली या ओक्सीडेमेटोन मिथाइल 25 ईसी का 1 ली प्रति हे.  की दर से छिड़काव करें।
  • चूर्णिल आसिता के नियंत्रण के लिए अजादीरेक्टिन आधारित नीम तेल 0.03 प्रतिशत का 2 – 2.25 लीटर प्रति हे. 500 लीटर पानी के साथ या सल्फर 80 डब्ल्यूपी 3.13 किग्रा प्रति हे. की से से 1000 लीटर पानी के साथ छिड़काव करें।
  • बेधक की सक्रियता की निगरानी के लिए 2 प्रति एकड़ की दर से गंधपाश लगायें। प्रत्येक 15 – 20 दिनों बाद फंदे के लासे को बदलें।
  • अंड परजीव्याभ, ट्राईकोग्रामा, किलोनिस को प्रति सप्ताह के अन्तराल पर 4 – 5 बार 1.0 लाख प्रति हे. की दर से खेत में छोड़ें।
  • प्रभावित प्ररोहों को खेत से हटा कर  करें।
  • प्ररोह और फल बेधक की संख्या यदि ईटीएल (5.3 प्रतिशत संक्रमण) से अधिक हो जाए तो इमेमेक्टिन बेंजोएट 5 प्रतिशत (डब्ल्यूडीजी) 150 ग्रा प्रति हे. या क्लोराएन्ट्रानिलिप्रोल 18.5 एससी 125 मिली प्रति हे. या क्युनालफोस 25 ईसी का 800 मिली पीटीआई हे. की दर से 500 लीटर पानी के साथ छिड़काव करें।
  • समय- समय पर पीली शिरा चित्ती विषाणु रोग से प्रभावित पौधों को खेत से हटायें व फसल की कटाई के पश्चात् खेत की गहरी जुताई करें।
  • फसल अपशिष्टों, भिण्डी के पौधों के ठूंठों को खेत से हटाकर नष्ट करना।
  • सफेद मक्खी को प्रारंभिक अवस्था में रोकने के लिए 7 माइक्रो मोटाई के स्लेटी काले रंग पारदर्शी मल्चिस का प्रयोग करें।

मित्र कीटों का संरक्षण

भिण्डी फसल प्रणाली में सामान्य रूप दिखाई देने वाले मित्र कीटों की रक्षा की जानी चाहिए और इसके लिए रासायनिक नाशीजीवनाशियों का अवांक्षित और अतिरिक्त छिड़काव नहीं किया जाना चाहिए।

प्याज

कीट नाशीजीव

  • थ्रिप्स – थ्रिप्स प्याज का सबसे गंभीर कीट हैं। पूरे देश में जहाँ प्याज की फसल उगाई जाती है, वहां पर यह कीट आम है। कभी – कभी बल्ब फसल में थ्रिप्स आक्रमण से 50 – 60 प्रतिशत तक नुकसान होता है। यह हरे पत्ते जहाँ यह जल्दी उभरती हुई पत्तियों के बीच पाया जाता है वहां पर रस चूसता हैं, लघु, सफेद चंडी जैसे धब्बे सभी पत्तियों पर देखें जा सकते हैं। प्रभावित पौधों में मुड़ी पत्तियों के साथ वृद्धि रूक जाती है और पौधे धीरे – धीरे मर जाते हैं।

रोग

  • स्टैमफीलीयम झुलसा – यह रोग उत्तरी और पूर्वी भारत में प्याज के पत्तों पर बहुत ही सामान्य हैं। रोग तीव्रता रबी फसल में 5 से 50 प्रतिशत तक होती हैं। संक्रमण देर मार्च और जल्दी – अप्रैल के दौरान होता है, लघु, पीली से नारंगी रंग के धब्बे या धारियां के पत्तियां या डंठल के बीच एक तरफ विकसित होते हैं। धब्बे अक्सर मिल कर बड़े धब्बों में बदल कर पत्तों पर झुलसा पैदा करते हैं।
  • बैंगनी ब्लाच – रोग पत्तियों पर छोटे, सफेद, धसे घावों के रूप में प्रकट होता है। ये धब्बे बाद में बड़े होकर ओर अंतत: पूरी पत्ती को घेर लेते हैं। बाद में अंडाकार आकार के काले क्षेत्र पत्तियों की सतह पर दिखाई देते हैं, विशेषता बैंगनी रंग को बनाये रखते हैं। पत्तियां और तने धीरे – धीरे गिर जाते हैं। गाढ़े क्षेत्र  घावों के भीतर विकसित हो सकते हैं।

सूत्रकृमि

  • चावल जड़ गाँठ सूत्रकृमि – आमतौर पर युवा पौधों में संक्रमित होता है। जिसके परिणाम स्वरुप पूरी फसल का विनाश हो सकता है सूत्रकृमि द्वारा संक्रमण से जड़ों में असामान्य सूजन होती है जिसे जड़गाँठ या घाव के रूप में जाना जाता हैं, जिससे पीलापन, सूखना एवं पौधों की वृद्धि रूकना होती है।

नर्सरी अवस्था

  • पानी की अच्छी निकासी के साथ व धान की भूसी की राख के साथ जमीनी सतह एस 10 सेमी ऊपर तक नर्सरी की क्यारी बनायें।
  • जनवरी – फरवरी के दौरान असंभावित वर्षा के कारण होने वाले पीलेपन को कम करने के लिए यूरिया का 0.2 प्रतिशत से आवश्यकता आधारित छिड़काव करें।
  • पौध की क्यारी में गोबर की खाद/वर्मीकम्पोस्ट से संवर्धित ट्राईकोडर्मा 50 ग्रा प्रति 3 सैमी की दर से मिलाएं।

मुख्य फसल

  • प्याज की थ्रिप्स, के खिलाफ बाधा फसल की रूप में बाहरी पंक्ति में मक्का की बुवाई करें
  • रोपाई से पहले स्युडोमोनास इन्फ़्लूओरिसेन्सके 5 मिली लीटर घोल में पौध को डूबोयें।
  • भली प्रकार सड़ी हुई गोबर की खाद को 2.5 ग्राम टीहरजीयाम प्रति 10 वर्ग मीटर के हिसाब से मिलाएं।
  • थ्रिप्स के प्रबंधन के लिए नील रंग के ट्रैप्स 20 प्रति एकड़ की दर से स्थापित करें।
  • सल्फर की कमी दूर करने के लिए आवश्यकता आधारित सल्फर 80 डब्ल्यूपी का 0.2 प्रतिशत की दर से प्रयोग करें।
  • फसल मौसम के दौरान पर्याप्त सिंचाई करें क्योंकि निरंतर नमी के कारण मृदा में विद्यमान थ्रिप्स सड़ जाते हैं।
  • थ्रिप्स के प्रबंधन के लिए स्प्रिंकलर के द्वारा खेतों की सिंचाई करें।
  • थ्रिप्स के नियंत्रण के लिए डायमिथिएओट 30 ईसी का 660 मिली या फिप्रोनिल 80 डब्ल्यू जी का 75  ग्रा या ऑक्सीडेमेटोन मिथाईल 25 ईसी का 1.2 ली प्रति हे. की दर 500 लीटर पानी के साथ छिड़काव करें। बल्ब बनने की प्रारंभिक अवस्था यानि रोपाई के 7 सप्ताह बाद या 50 दिन के पश्चात् थ्रिप्स को नियंत्रण करना अत्यंत आवश्यक है।
  • डाऊनी मिल्ड्यू व ब्लाईट से बचाव के लिए जिनेब 75 डब्ल्यूपी का 1.5 – 2.0 किग्रा प्रति हे. की दर से 750 – 1000 लीटर पानी के साथ आवश्यकता आधारित छिड़काव करें।
  • बैंगन ब्लाच के नियंत्रण के लिए डाईफेन्कोनजोल का 0.1 प्रतिशत टेब्यूक्युनाजोल 25.9 प्रतिशत एम/एम् ईसी का 625 – 750 मिली प्रति हे. की दर से 500 लीटर पानी के घोल में आवश्यकता आधारित छिड़काव करें।

मित्र कीटों का संरक्षण

प्याज फसल प्रणाली में सामान्य रूप से दिखाई देने वाले मित्र कीटों की रक्षा की जानी चाहिए और इसके लिए रासायनिक नाशीजीवनाशियों को अवांछित और अतिरिक्त छिड़काव नहीं किया जाना चाहिए।

कद्दूवर्गीय सब्जियां

प्रमुख कीट

  • फल मक्खी – यह एक गंभीर कीट है जिसके कारण फसल में 80 प्रतिशत तक का नुकसान देखा गया है। अधिकतम नुकसान जुलाई – अगस्त के दौरान होता है। सगर्भा मादा सफेद, सिगार के आकार के अंडे फूल या नरम फलों में देती है। नवजात कीड़े फलों के गूदे में छेद कर प्रवेश करते हैं व टेढ़ी मेढ़ी गैलरी बना आकार फल को अंदर से खा जाते हैं और उन्हें अपनी कीटमल से दूषित करते हैं और सप्रोफायटिक कवक और बैक्टीरिया के अंदर जाने के लिए रास्ता बना देते हैं। जिसे कारण फल सड़ जाते हैं व खोखले होकर परिपक्व होने से पहले ही गिर जाते हैं।
  • ककड़ी कीट – लार्वा के शरीर के दोनों तरफ सफेद धारी होती वे ये पीले से गहरे हरे रंग के होते हैं। सूंडी इकट्ठी होकर पत्तियों के क्लोरोफिल भाग को कुतर कर उन्हें जालबद्ध कर देती हैं। जैसे ही फल विकसित होना शुरू होता है, लार्वा सतह में उथले छेद को चबा लेते हैं।
  • लाल पम्पकिन बीटल – यह लौकी की गंभीर कीट है। वयस्क भृंग जमीन के ऊपर पौधों की क्षति के लिए मुख्य रूप से पत्ते, फूल और फल पर आक्रमण करने के लिए जिम्मेदार हैं। ये पौधों व फलों में छेद करते है जिससे पूर्ण विकास न होने के कारण पौधा मर जाता है। भारी प्रकोप होने की स्थिति होने पर दुबारा से बुवाई किया जाना आवश्यक है। लार्वा मिट्टी में रहते हैं और जड़ों और पौधे के तने को खाते हैं।
  • सफेद मक्खी- निम्फ और वयस्क मुख्य रूप से पौधों के रस को पत्तियों के नीचे से चूसते हैं और मधुरस स्रावित करते हैं जिससे पत्ती के ऊपर काली फफूंद विकसित हो जाती है जिसके कारण पौधों द्वारा प्रकाश संश्लेषण कम हो जाता है। उनके भक्षण द्वारा हुए प्रत्येक्ष नुकसान के अलावा ये वायरल रोगों के जनक के रूप में भी काम करते हैं
  • पर्ण सुरंगक – लार्वा पत्तियों में सांप के आकार की सुरंगे बनाते हैं। गंभीर प्रकोप के कारण पत्तियों सूख कर गिर जाती हैं। वयस्क पीले रंग के होते हैं जो सुरंगों में ही प्यूपा बनाते हैं।

प्रमुख रोग

यह एक रोग गंभीर रोग है जो उच्च आर्द्रता और औसत तापमान प्रारंभिक अवस्था में पानी से भीगे कोणीय धब्बो की तरह के रूप में प्रकट होता है। धीरे – धीरे क्लोरेटिक होते हुए, विकसित अवस्था के दौरान निचली सतह पर बैंगनी रंग का हो जाता है।

  • सर्कोस्पोरा पत्ती धब्बा – यह रोग सभी कद्दू वर्गीय सब्जियों में होता है परंतु यह अधिकतर खीरा, करेला और लौकी में पत्ते पर पाया जाता है। छोटे गोलाकार धब्बे जो बीच में से स्लेटी रंग के होते हैं पत्तियों पर प्रकट होते हैं। गंभीर रूप से संक्रमित पत्ते गिर जाते हैं। फल का आकार कम हो जाता है। बरसात के मौसम के दौरान इसका संक्रमण अधिक होता है।
  • फ्यूजेरियम म्लानि – इस रोग के लक्षण लौकी और खरबूजे के फूल और फल अवस्था में प्रकट होते हैं। टैप जड़ें झुकी हुई जड़ों में बदल जाती हैं। पूरा पौधा पिला हो कर झुक जाता है व मुरझा जाता है। यह बीज और मिट्टी जनित म्लानि है।
  • चूर्णिल आसिता – सफेद पाऊडर जैसी विकसित फफूंद पत्तियों, तनों और लताओं पर आसानी से पहचानी जा सकती है। यह रोग लगभग सभी कद्दू वर्गीय सब्जियों में पाया जाता है और जिसके कारण काफी हानि होती है। प्रभावित पत्तियां मुरझा कर सूख जाती हैं। चूर्णिल आसिता फलों की गुणवत्ता को प्रभावित करता है और फल का आकार और संख्या कम होने से उपज में कमी आ जाती है।
  • एन्थ्राक्नोज – पीले रंग के पानी से भीगे धब्बे फसल पर प्रकट होते है जो की बाद में बीच में से सूखे काले भूरे रंग होकर चौड़े छेद जैसे दिखाई देते हैं। फल पर धब्बे गोलाकार संकुचित और गहरे रंग के किनारों वाले होते हैं जिसमें में बहुत संख्या में नुकीले आकार के फल निकाय होते हैं।
  • जीवाणुज कॉम्प्लेक्स – यह जीवाणु कद्दू वर्गीय सब्जियों के लिए एक अवरोध है जिसके कारण पत्ती, मोड़क, पीला मोजेक और स्टनटिंग जैसे रोग विकसित होते हैं। ककड़ी, मोजेक, पीला मोजेक के लक्षण कोमल पत्तियों पर गहरे हरे रंग के धब्बे के रूप में प्रकट होते हैं।
  • ट्राईकोडर्मा के सक्षम स्ट्रेन से 10 ग्राम प्रति किग्रा की दर से बीजोपचार करें।
  • नीम 300 पीपीएम् का 10 मिली प्रति लिटर की दर से करेले पर हड्डा बीटल, लौकी के लाल पम्किन बीटल के लिए फसल की प्रारंभिक अवस्था में 2 छिड़काव करें।
  • करेले के ककड़ी मोथ से सुरक्षा के लिए बेसिलस थ्रूजान्सेस के 2 ग्रा प्रति ली की दर से 2 छिड़काव करें।
  • फल मक्खी के बृहत् क्षेत्र में प्रबंधन के लिए क्यूल्योर 10 प्रति एकड़ की दर से स्थापित करें। लकड़ी के छोटे टूकड़े को इथनोल: क्यूलोर: कीटनाशी 8:2:1: के अनुपात के घोल में 48 घंटे तक डूबोयें।
  • फल मक्खी के प्युपे व परजीवियों को धूप में लाने के लिए मिट्टी को समतल करें।
  • फल मक्खी के प्रबंधन के लिए पीले रंग के चिप चिपे ट्रैप को 10 प्रति एकड़ की दर से स्थापित करें।
  • मृदुल आसिता व नमी में कमी लाने व हवा के आसान आवागमन के लिए ककड़ी को बांस के सहारे या ग्रीन हॉउस में लगाएं।
  • लौकी और ककड़ी की प्रारंभिक अवस्था में लाल पम्किन बीटल के प्रबंधन के लिए डीडीविपि 76 ईसी का 500 ग्राम  प्रति हे. अथवा ट्राईक्लोरफोन 50 ईसी का 1.0 किग्रा प्रति हे. की दर से आवश्यकता अनुसार छिड़काव करें।
  • करेले और खीरे की लाल मकड़ी कुटकी के प्रबंधन के लिए डाईकोफोल 18.5 एस सी का 1.5 ली प्रति हे. की दर से छिड़काव करें। पत्तियों में छिड़काव की नमी बनाये रखने के लिए स्टीकर (0.1 प्रतिशत) का प्रयोग आवश्यक है। सफेद मक्खी, पर्ण सुरंगक, थ्रिप्स, लाल पम्पकिन बीटल के लिए साईंएन्ट्रानीली प्रोल 10.8 ओडी का 900 मिली प्रति हे. की दर से 500 लीटर पानी के साथ छिड़काव करें।
  • सूत्रकृमि प्रबंधन के लिए नीम खली का 250 किग्रा प्रति हे. की दर से आवश्यकता अनुसार प्रयोग करें।
  • चूर्णिल असिता और एंथ्रक्नोज के प्रबंधन के लिए कार्बेन्डाजीम 50 डब्ल्यूपी 300 ग्रा प्रति हे. की दर से आवश्यकता अनुसार छिड़काव करें। लौकी में एन्थ्राक्नोज के प्रबंधन के लिए थायोफिनेट 70 डब्ल्यूपी का 1430 ग्रा प्रति हे. की दर से 750 लीटर पानी के साथ प्रयोग किया जा सकता है।
  • ककड़ी में मृदुल आसिता के प्रबंधन हेतु अजोक्सीट्रोबीन 23 प्रतिशत का 500 मिली दर से ये साइमोक्सनिल 8 प्रतिशत + मेनकोजेब 64 प्रतिशत का 1.5 किग्रा प्रति हे. की दर से 500 लीटर पानी के साथ आवश्यकता अनुसार छिड़काव करें। कद्दूवर्गीय सब्जियों में एन्थ्राक्नोज और मृदुला असिता के प्रबंधन हेतु जिनाब 75 डब्ल्यूपी का 1.5 – 2.0 किग्रा प्रति हे. की दर से प्रयोग किया जा सकता है और कद्दूवर्गीय सब्जियों में मृदुल आसिता के प्रबंधन हेतु अमेक्तोडसी + डाईमेथोमार्फ़ 20.27 प्रतिशत डब्ल्यू/डब्ल्यू एससी का 420 – 525 मिली प्रति हे.  की दर से 500 लीटर पानी के साथ आवश्यकता अनुसार छिड़काव करें।
  • मिट्टी में बोरोन की कमी दूर करने के लिए 10 किग्रा प्रति हे. की दर से बोरेक्स का प्रयोग करें। बोरेक्स का 100 ग्रा प्रति 100 ली की दर से पर्ण छिड़काव भी किया जा सकता है।

मित्र कीटों का संरक्षण

कद्दूवर्गीय सब्जियों फसल प्रणाली में सामान्य रूप से दिखाई देने वाले मित्र कीटों की रक्षा की जानी चाहिए और इसके लिए रासायनिक नाशीजीवनाशियों का अवांक्षित और अतिरिक्त नहीं किया जाना चाहिए।

अदरक

कीट नाशीजीव

सफेद लट – सफेद लट खरीफ मौसम (जून से अक्टूबर) के दौरान गंभीर होता है\ मादा वयस्क मिट्टी में प्रवेश के बाद अंडे देती हैं। अंडे देने के बाद गिडार जड़ों को खाना शुरू कर देते हैं। गंभीर रूप से प्रभावित खेतों में मृत पौधों के बड़े – बड़े स्थान दिखाई देते हैं, जीवित पौधे अक्सर बोने और मुरझाये हुए दिखाई देते हैं। इस तरह के पौधों की जड़ प्रणाली के विनाश के कारण आसानी से खिंचा जा सकता है।

रोग

  • प्रकंद सड़न – इस फफूंदी का हमला मिट्टी की सतह के ठीक ऊपर पौधों की कंठा धरातल पर होता है तथा रोग ऊपर तथा नीचे की ओर तेजी से वृद्धि करता है जिससे प्रकंद मुलायम हो जाते हैं, नई पत्तियां पीली पड़ जाती हैं और वह पानी में भीगे हुए दाग की तरह प्रतीत होने लगती हैं।
  • जीवाणु विल्ट – यह मिट्टी में पैदा होने वाला रोग है जोकि जीवाणु के कारण उत्पन्न होता हैं। संक्रमण से पहले लक्षण की शुरूआत कोमल शिथिल/मुड़ें हुए पत्तों पर होती है जोकि उपर तरफ बढ़ती रहती है। जैसे – जैसे रोग बढ़ता है पत्ते नीचे की ओर लटकाकर सूखते जाते हैं, और पौधे गंभीर पीलेपन के साथ मुरझा जाते हैं।

सूत्रकृमी

  • जड़ गांठ सूत्रकृमि – कभी – कभी संक्रमित पौधे पत्तों के सिरों की तरफ से बोने बदवार के साथ जले/सूखे दिखाई देते हैं। पौधों में यह सम्भव है कि जड़ गांठ के साथ जड़ रोआं भी दिखाई दें। पीड़ित बीज प्रकंद के बाहरी सतह पर झुर्रीदार तथा घँसे हुए सूचे हुए चकते भी दिखाई देते हैं।
  • ट्राईकोडर्मा हरजियानाम को गोबर की खाद के साथ मिलाकर 250 ग्रा प्रति क्विंटल के हिसाब से मिलाएं।
  • बीजाई से 15 – 20 पहले 0.45  मिमी मोटाई की पारदर्शी पोलीथिन शीट से मृदा तापिकरण करें।
  • बीजों के प्रकंदों को 2 घंटे के लिए प्लास्टिक की पोलीथिन थैलियों में डालकर भी तापिकरण किया जा सकता है।
  • बुवाई से पहले 10 मिनट तक बीज प्रकंदों को 51 डिग्री सेंटीग्रेड पर गर्म पानी में उपचारित करें।
  • बुवाई से पहले बीजों के प्रकंदों को फफूंदीनाशक जैसे की कार्बनडाईजिम 50 डबल्यू 100 ग्राम+मैन्कोजेब 75 डब्ल्यूपी (250 ग्राम) या ट्राईकोडर्मा हर्जियेनम के साथ 6 – 8 ग्राम/ लीटर पानी में 30 मिनट तक डुबो के रखे।
  • सफेद लट के नियंत्रण के लिए कार्बेरायल 50 डब्ल्यूपी का 2 ग्रा प्रति ली. पानी की दर से छिड़काव करें जूलाई के मध्य तक 3-4 बार तक इस छिड़काव को दोहराया जा सकता है।
  • खड़ी फसलों में कार्बेरायल 50 डब्ल्यूपी का 0.2 प्रतिशत या मेन्कोजेब 64 प्रतिशत + मेटालेक्सिल 8 प्रतिशत का 0.3 प्रतिशत की दर एक महीने की पुरानी खड़ी फसल में या एक वर्ष के बाद इनका घोल बनाके खेतों को गीला करे इस दौरान, प्रकंद पर से मिट्टी हटा लेनी चाहिए ताकि फफूंदी नाशक का प्रकंदों से बेहतर संपर्क हो सके।
  • प्रकंदों से बीज (7-80 किग्रा) बनाने के उद्देश्य से प्रकंदों को कार्बेन्डाजिम डब्ल्यूपी (100ग्रा)+ मेन्कोजेब 75 डब्ल्यूपी (250 ग्राम) + क्लोरपायरीफोस 20 ईसी (250 मिली) प्रति 100 लीटर पानी के घोल में 1 घंटे तक डुबो कर छाया में सूखायें व भण्डारण करें।

शाकीय फसलों में प्रचलित प्राकृतिक शत्रु

कोकी नेलेडिस (कोकनेला सैप्टयूमपनकटाटा, मेनोचिलस सेक्समाकूलाटास)

शाकीय फसल के खेतों में सोनपंखी भृंग प्रचलित रूप में से पाए जाते हैं। सोनपंखी भृंग, चेपों, सफेद मक्खी, स्केल कीटों, वॉल वर्म, अन्य कीटों और कुटकियों के परभक्षी होते हैं। वे अंडे, निम्फों और वयस्कों से अपना भोजन प्राप्त करते हैं विशेष रूप से ये बड़ी मात्रा में चेपा से भोजन प्राप्त करते हैं। लार्वा वयस्कों की अपेक्षा अधिक दक्ष परभक्षी होते हैं विशेष रूप से चौथा इनस्टार लार्वा अन्य इनस्टारों की अपेक्षा अधिक खाऊ भक्षक होते हैं। वे दिखने में बहुत उग्र होते हैं जिससे अक्सर लोगों को यह भ्रम हो रहा है कि वे बहुत नुकसान पहुंचा सकते हैं जो कि सत्य नहीं है। सोनपंखी भृंग में नर भक्षण भी पाया जाता है। सी. सैप्टयूमपनकटाटा: वयस्क आधे मटर के आकार का होता है। पीले से लाल भूरा होता है और इसके इलाइट्रा पर 7 काले धब्बे होते हैं। सिर और अधर सिरा दोनों काले रंग के होते हैं। प्यूपा हल्के भूरे रंग का होता है जिस पर काले बिन्दु लगे होते हैं और ये पिछले सिरे की पत्तियों पर लगे हुए होते हैं। अंडा 1.2 मि.मी. लम्बा और पीले रंग का होता है। मेनोचिलस सेक्समाकूलाटस: यह काले धब्बों वाला सोनपंखी भृंग है। अवतानित आधार पर लम्बा और संकरा काला बैंड छोटे और संकरे अनूदैर्घ्य संकीर्णन या लाइन द्वारा अनुप्रस्थ अंडाकार काले बिम्बीय स्थल से जुड़ा होता है।

  • ग्रीन लेस विंग्स (क्राइसोपेरिया कार्निया) – क्राइसोपा चेपों. कुटकी, जैसिड, सफेद मक्खी, थ्रिप्स, वॉल वार्म और अन्य अनेक छोटे कीटों से अपना भोजन प्राप्त करते हैं। वयस्क मध्यम आकार के, 1-2 सेन, मी, लंबे हरे, पीले हरे या कभी – कभी भूरे होते हैं। इनकी  सुनहरी ऑंखें होती हैं और नाजुक नेटदार पंख होते हैं। लार्वा, जोकि बहुत अधिक सक्रिय होते हैं, धूसर या भूरे रंग के होते हैं तथा एलीगेटर प्रकार के होते हैं। इनकी पूरी तरह विकसित टांगे होती हैं और लंबी चिमटियां होती हैं और वे 1 मि.मी. तक बढ़ते हैं। अंडाकार अंडे लंबे, रेशमी डंठलों के अंतिम सिरे पर एक – एक करके दिए जाते हैं जीको कुछ दिन ही दिनों में धूसर रंग के हो जाते हैं। युवा लार्वे निर्जलीकरण के प्रति संवेदनशील  होते हैं उन्हें नमी के स्रोत की आवश्यकता होती है।
  • मकड़ी (नियोसियाना प्रजाति, थोमायसिस प्रजाति) – मकड़ियों व्यापक रूप से होती हैं और वे अनेक कीटों से अपना भोजन प्राप्त करते हुए उत्कृष्ट परपक्षी होती हैं मकड़ी की कुछ प्रजातियाँ अपने शिकार को पकड़ने के लिए जालों का प्रयोग करती हैं जबकि अन्य प्रजातियाँ अपने शिकार का पकड़ने के लिए जालों का प्रयोग करती हैं जबकि अन्य प्रजातियाँ अपना शिकार लुक – छीपकर करती हैं। कुछ मकड़ियाँ चीटियाँ को भी खाती हैं  वृत्ताकार जालों को बुनने वाली ये मकड़ियों आने शिकार को पकड़ने के लिए अपने जालों का जल्दी – जल्दी फिर से निर्माण करती हैं, उनका पुन: चक्रण करते हुए अर्थात।
  • सिर्फिड  मक्खी (इश्चियोडान स्कूटेलारिस फैब्रिक्स) – सिर्फिड मक्खी की अनेक प्रजातियाँ चेपों और साथ ही मिली बैग, सफेद मक्खियों, लैपिडॉपटरिय लार्वा और लाभप्रद कीटों के परभक्षी होती हैं। वयस्क सामान्यतया चमकदार रंग के, मधुमक्खियों और बर्रों से मिलते ह- जुलते होते हैं। सिर्फिड लार्वा दिखने में और आदतों में भिन्न – भिन्न होते हैं। वे या तो अविकल्पी या विकल्पी परभक्षी होते हैं। लार्वे कुछ – कुछ लोष्ट प्रकार के होते हैं और सर की तरफ से शुन्ड़ाकार होते हैं। प्यूपों की आकृति विशेष प्रकार से रेजिन बिन्दु प्रकार की होती हैं।
  • प्रेइंग मेंटिस (मेंटिस रेलिग्योसा) – प्रेइंग मेंटिस परभक्षी होते हैं और वे जीवित कीटों का शिकार करते हैं। बड़े मेंटिस छिपकलियों, रोडेंट, मेंढक पक्षियों और यहाँ तक कि सांपों को भी खाते हैं। वे अपने शिकार का पास आने के लिए इंतजार करते हैं और फिर तेजी से उन्हें पकड़ लेते हैं। मेंटिस अपने शिकार पर आक्रमण करने के लिए आगे की दो टांगों का इस्तेमाल करते हैं। वे रात के समय सक्रिय होते हैं वयस्क प्रेइंग मेंटिस लंबाई में 1 सें.मी. से लेकर अनेक इंचों तक अलग – अलग आकार के होते हैं। वे अपने आस – पास के वातावरण में घुल जाते हैं और उनकी नजर बहुत तेज होती है। इनमें प्राय: लैंगिक नरभक्षण भी देखा गया है।
  • ड्रैगन फ्लाई (लिबैलूला सेचुरेट) – वे परभक्षी के रूप में काम करते हैं क्योंकि वे मच्छरों और अन्य नुकसानदायक छोटे कीटों जैसे मधुमक्खियों, तितलियों और मक्खियों को खाते  हैं। वे उने लार्वा जल – चर होते हैं। वे अपने शिकार को स्पाईकों से भरी हुई टांगों से कसकर पकड़े रखती हैं। वे अपने शिकार को अपने फैलाये जा सकने वाले जबड़ों का प्रयोग करते हुए पकड़ती हैं। वयस्क ड्रैगन फ्लाई की जीवन अवधि केवल कुछ महीने है। इसके अधिकांश जीवन जल सतह के नीचे लार्व की स्थिति में ही बीत जाता है। मादा ड्रैगन फ्लाई प्राय: पानी में तैरने वाले या जलमग्न पौधों पर या उसके आस – पास अंडे देती हैं। बड़ी ड्रैगन फ्लाई की लार्वा स्थिति पांच वर्षों तक चल सकती है। डैमसल फ्लाई के लंबे पतले शरीर होते हैं और वे प्राय: हरे, लाल, पीले, काले या भूरी चमकदार रंगों के होते हैं।
  • ट्राई कोग्रामा प्रजाति (ट्राईकोग्रामा चिलोनिस, टी. जैपोनिकम्म टी. ब्रेसिलेनिसिस और अन्य ट्राईकोग्रामा प्रजातियाँ – ट्राईकोग्रामा बहुत ही छोटे बर्र होते हैं। वे वेधकों के परजीवी होते हैं। परजीवी अंड कार्डों को पौधे की पत्तियों के निचले किनारे की तरफ स्टैपल किया जा सकता है जिससे कि परजीवी उभर सकें और परपोषी अण्डों पर आक्रमण कर सकें। प्रत्येक मादा लगभग 100 अण्डों का परजीवन करती है। छोटा जीवन चक्र होने के कारण बर्रों की जनसंख्या तेजी से बढ़ती है ट्राईकोग्रामा 75 प्रतिशत आर्द्रता के साथ 23 – 25 डिग्री सेंटीग्रेड के इष्टतम तापमान पर सक्रिय होता हैं। प्राकृतिक शत्रुओं की रक्षा करने वाली उन्हें प्रोत्साहित करने वाली तथा नाशीजीवों पर उनके प्रभाव को बढ़ाने वाली फसल पद्धतियों का प्रयोग करते हुए परजीवियों का संरक्षण महत्वपूर्ण है। ट्राईकोग्रामा वाणिज्यक सप्लायरों के पास आसानी से उपलब्ध हैं।
  • न्यूकिल्यर पालीहिड्रोसिस वायरस – एनपीवी एक विशिष्ट प्रकार का रोग है। पौधों पर रात के समय किसी भी स्प्रैडर/स्टीकर या डिटर्जेंट पाउडर के 0.5 प्रतिशत और 0.1 प्रतिशत जैगरी घोल जैसे सहौषाधों संयोजकों के साथ 250 एल ई/ हैक्टर की दर से विषाणु घोल का छिड़काव किया जाता है। यह तंबाकू की इल्ली और सभी शाकीय फसलों पर फल वेधकों के विरूद्ध बहूत अधिक प्रभावकारी है। लार्वा जब एक बार विषाणु संदूषित पत्तीयों को खा लेते हैं हैं तो वे एन पी वी से संक्रमित हो जाते हैं संक्रमित लार्वा काला हो जाता है। यह पर्ण समूह पर टंगा हुआ देखा जाता है। न्यूक्लियर पौलीहिड्रोसिस वायरस में अनेक पौलिहेड्रिल समावेशी कायाएं होती हैं जिनमें की छड़ की प्रकार के विषाणु कण होते हैं। यह शहद की मक्खियों, मछली, स्तनधारियों और कीटों के प्राकृतिक शत्रुओं के लिए सुरक्षित हैं और इन्हें ठंडे स्थान पर संग्रहित किया जा सकता है।
  • परभक्षी (वेस्पा ओरियेन्टलिस) – पीले बर्र अनेक कीटों को अपना शिकार बनाते हैं जिन्हें कि नाशीजीव माना जाता है। वे मधुमक्खियों का भी शिकार करते हैं लेकिन मधुमक्खियों से अलग, इन बर्रों की कॉलोनियों प्रत्येक सर्दी के मौसम के प्रारंभ होने पर ही मर जाती हैं। प्रत्येक सामाजिक बर्र कालोनी में एक रानी और अनेक मादा कमेरी शामिल होती हैं और अनेक प्रकार की बाँझ रानियाँ भी होती हैं कॉलोनी का आकार और संरचना भिन्न – भिन्न  होती हैं और यह कुछ दर्जन से लेकर अनेक हजारों तक हो सकती हैं। मनुष्य के बर्रे द्वारा काटे जाने का पता उसको होने वाली एलर्जी से चलता है।
  • कोटेसिया (कोटेसिया प्रजाति) – कोटेसिया इल्लियों जैसे तंबाकू की इल्ली और चने की इल्ली का परजीवी है। कोटेसिया प्रजाति के वयस्क छोटे, गहरे रंग के बर्रे होते हैं और छोटे मक्खियों से मिलते – जुलते होते हैं। उनके दो जोड़ी पंख होते हैं, पीछे के पंख आगे के पंखों से छोटे होते हैं। एंटेनिया 1.5 मि. मी. लंबे और ऊपर की तरफ गोलाई लिए हुए होते हैं। मादा का पेट संकरा होता हुआ बाहर की ओर मड़ा होता है जिसे कि ऑवीपॉस्टियर कहते हैं जिसमें वह अंडे देती हैं। प्यूपा परपोषी लार्वा या पौधे कि पत्तियों से जुड़े पीले, रेशमी कोकून में अनियमित द्रव्य के रूप में होते हैं।
  • इलिस सिन्टा – ये चूर्णिल फफूंद प्ररोहों से अपना भोजन प्राप्त करते हैं।

निम्बौली सत (एनएसकेई) बनाने की विधि

निम्बौली को घर में इस्तेमाल होने वाले बिजली से चलने वाले मिक्सर/ग्राइंडर से या चूने के लेप और मूसली का प्रयोग करते हुए बारीक़ कूट लें। निम्बौली से छिलके को अलग करने के लिए ओसाई करें। कूटी गई निम्बौली को 18 जालियों वाली छलनी से छान लें। छानने के बाद इस पाउडर को 100 ग्रा. 30 मि. ली. के अनुपात में पानी के साथ मिला लें। फिर सह्योजक (साबुन/डिटर्जेंट पाउडर) को इस मिश्रण में प्रत्येक 100 ग्रा. के निम्बौली के पाउडर में 5 मि.ली./ग्रा. सह्योजक के अनुपात में मिला दें। इस मिश्रण को रातभर रखें। सुबह इसे हिलाते हुए मलमल के कपड़े से छान लें। मलमल के कपड़े पर बचे अवशेष के माध्यम से इतना पानी गुजारा जाना चाहिए कि छान में निम्बौली के पाउडर और जल का अनुपात 2 लिटर पानी में 100 ग्रा पाउडर रह जाये। इस छान कर फिर से हिलाएं जिससे कि एनएसकेई का क्रीमी विक्षेपण प्राप्त हो सके जिससे कि छिड़काव किया जा सकता है। छिड़काव शाम के समय किया जाना चाहिए। जबकि यूवी किरणों की तीव्रता कम होती है और पूरी पत्तियों पर छिड़काव किया जाना अनिवार्य है।

  • निम्बौली
  • बारीक कूट लें
  • कपड़े में बांधकर रातभर पानी में भिगो दें
  • सुबह इस घोल को बारीक़ कपड़े से छान लें
  • एक  हैक्टेयर के लिए : 25 किग्रा. निम्बौली

अन्य जैव रासायनिक दवाइयों का प्रयोग

  • न्यूक्लियर पाली हैड्रोसिस वायरस – जैसे ही नए अण्डों से निकले लार्वे दिखाई दें वैसे ही पहला छिड़काव करें। 7-10 दिनों के बाद फिर से छिड़काव करें। छिड़काव शाम के समय करें जबकि यूवी किरणों की तीव्रता कम होती हैं और सभी पत्तियों पर छिड़काव किया जाना अनिवार्य है। छिड़काव करते समय टीपॉल जैसे स्टीकर मिलाएं। खेत से एनपीवी संक्रमित लार्वे एकत्रित करें, उन्हें कूटें और खेत में उनका छिड़काव करें।
  • बेसिलस थ्रूजेन्सिस – पहले समजातीय पेस्ट तैयार करें फिर उसे 500 ली. पानी में 1 किग्रा. बी.टी.के. से पतला करें। शाम के समय इसका प्रयोग करें।
  • ट्राईकोडर्मा मिलाना -  3 किग्रा. घूरे की खाद में 250 ग्रा. कवक विरोधी ट्राईकोडर्मा विरिडी मिलाएं और कल्चर के संवर्धन के लिए उसे लगभग 7 दिनों तक छोड़ दें। घूरे की खाद में पार्यप्त नमी होनी चाहिए। 7 दिनों के बाद 3 वर्ग मीटर (3मी.x 1मी.) की नर्सरी की क्यारी में मिट्टी में मिलाएं। पौध को डूबोने के लिए टी. हारजेनियम का 4 प्रतिशत का घोल बनाया जा सकता है।

रासायनिक दवाइयों के प्रयोग में सुरक्षा संबंधी सावधानियां

खरीद
  1. हमेशा आवश्यक मात्रा में ही रासायनिक दवाइयों को खरीदें। कभी भी बड़ी मात्रा में इनकी खरीद न करें।
  2. कभी खुले या बिना सील वाले डिब्बे न खरीदें। अंतिम तारीख की समाप्ति से पहले रासायनिक दवाईयों को खरीदें।
  3. बिना  उचित लेबल के रासायनिक दवाइयां न खरीदें।

भण्डारण

  1. रासायनिक दवाईयों के भण्डारण घरों में या अन्न के भंडारों के आसपास न करें।
  2. कभी भी रासायनिक दवाईयों को भोजन के पास न रखें।
  3. सभी रासायनिक दवाईयों को भोजन के पास न रखें।
  4. उन्हें लंबे समय तक सूर्य की रोशनी में न रखें।
  5. सभी रासायनिक दवाईयों को मूल डिब्बे में उसकी सील के साथ ही रखें।

रखरखाव

  1. कोई भी रासायनिक दवाईयों का परिवहन भोजन की सामग्री के साथ न करें।

घोल बनाते समय

  1. हे. मशा साफ जल का प्रयोग करें।
  2. हमेशा अपनी नाक, आँखें, मुंह, कान और हाथों को कपड़ों से सुरक्षित रखें।
  3. हाथ के दस्तानों का प्रयोग करें।
  4. छिड़काव टैंक को भरते समय न तो कभी खाएं, पीयें, धूम्रपान करें या चबाएं। रासायनिक दवाईयों को कभी नहीं सूंघे।
  5. गीले किये जा सकने वाले ग्रेनुअल को छोड़कर अन्य किसी भी प्रकार के ग्रेनुअल को जल में न मिलाएं।
  6. छिड़काव टैंक को भरते समय रासायनिक दवाईयों के घोल को छितराने से बचें।

उपकरण

  1. सही प्रकार के उपकरण और नोजल का चुनाव करें।
  2. नोजल को मुंह से कभी न फूलायें।
  3. कवकनाशी के लिए कभी भी बिना धुले स्प्रेयर का प्रयोग न करें।

रासायनिक दवाईयों का प्रयोग करते समय

  1. केवल सुझाई गई खुराक और छिड़काव के घोल का ही प्रयोग करें।
  2. शाम के समय ही कीटनाशियों का प्रयोग करें। बरसात या गर्म धूप वाले या हवा वाले दिनों में इनके प्रयोग से बचें।
  3. वायु की दिशा की उल्टी दिशा में रासायनिक दवाईयों का प्रयोग न करें।
  4. छिड़काव के बाद स्प्रेयरों और बाल्टियों को साबुन और पानी के साथ अच्छी तरह से धोएं।
  5. छिड़काव के लिए इस्तेमाल की गई बाल्टियों का कभी भी घरों में प्रयोग न करें।
  6. छिड़काव के तुरंत बाद खेत में पशुओं या कामगारों के प्रवेश को रोकें।

निपटान

क. छिड़काव के बचे हुए घोल को कभी भी तालाबों में नहीं डालना चाहिए।

ख. इस्तेमाल किये गए खाली डिब्बे तोड़कर मिट्टी में गहरे दवा दिए जाने चाहिए।

ग. कभी भी रासायनिक दवाईयों के खाली डिब्बों का अन्य किसी भी उद्देश्य के लिए फिर से प्रयोग न करें।

स्त्रोत: राष्ट्रीय समेकित नाशीजीव प्रबंधन अनुसंधान केंद्र, नई दिल्ली

अंतिम बार संशोधित : 2/1/2023



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