मूंगफली मृदा/मिट्टी में नाईट्रोजन की वृद्धि करने वाली लेगुमिनोसी कुल फसल हैं। यह खरीफ एवं रबी के मौसम में उगाई जाने वाले महत्वपूर्ण तिलहनी फसल है। इसकी उत्पति ब्राजील में मानी जाती है। तिलहनी फसलों में इसका प्रमुख स्थान है। मूंगफली खाने में स्वादिष्ट, पौष्टिक एवं प्रोटीन का एक सस्ता स्रोत हैं इसमें विटामिन ए, बी, व, बी2 भी प्रचुर मात्रा में होता हैं। हमारे देश में मूंगफली का उपयोग में तेल (81 प्रतिशत), बीज में (12 प्रतिशत), घरेलू उपयोग में (6 प्रतिशत) एवं निर्यात में (1 प्रतिशत) के रूप में होता है। हमारे देश में इसे मुख्यतः गुजरात, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, राजस्थान, उड़ीसा एवं मध्य प्रदेश राज्यों में उगाया जाता है। भारत में मूंगफली के कूल उत्पदान का 80 प्रतिशत क्षेत्र असिंचित क्षेत्र में है। इसके पौधे में सूखा सहन करने की शक्ति होती है। मूंगफली के फसल में कीड़ों के रोगों द्वारा काफी नुकसान होता है, आईपीएम को अपनाकर किसान भाई मूंगफली की फसल होने वाले नुकसान को कम करके उपज बढ़ा सकते हैं। इससे अधिक आमदनी और शुद्ध लाभ में बढ़ोतरी होती है।
दीमक – यह बहुभक्षी कीट है, खेतों में जब पौधे छोटे होते हैं तो यह इनकी जड़ों को काट देती हैं जिससे पौधे सूख जाते हैं। दीमक इनकी जड़ों को काट देती हैं जिससे पौधे सूख जाते हैं। दीमक मूंगफली के पौधों के तने एवं फलियों को भी नुकसान पहुँचाती हैं जिन पौधों पर दीमक का आक्रमण होता है उन पर कवक व जीवाणु जन्य रोग भी फ़ैल जाते हैं। सफेद लट: इसका वयस्क कीट गहरे भूरे रंग का 2.5 – 5.0 मि. मि. चौड़ा तथा 10 – 15 मि. मि. लंबा होता है। मादा कीट आकार में नर की अपेक्षा बड़ी होती है। पूर्ण विकसित लट (ग्रब) अक्षर के आकार की मटमैली सफेद होती है। इसके लट (ग्रब) भूमि में जड़ अत्यधिक हानि पहुँचाते हैं जिसके फलस्वरूप पौधे सूख जाते हैं।
यह एक बहुभक्षी कीट है। इसका व्यस्क गहरे भूरे रंग का होता है। जिसके अगले पंख पर वृक्क के आकर का धब्बापाया जाता है एवं उस पर मटमैली कतारें देखी जा सकती हैं। इसके पिछले पंख तुलनात्मक रूप से सफेद रंग के होते हैं इसकी लार्वा/सुंडी लंबी एवं भूरे रंग की होती है जिसके शरीर पर गहरे रंग भूरे रंग एवं पीले रंग की धारियां पायी जाती हैं। इसकी सूंडियां पत्तियों को खाकर नुकसान पहुँचाती हैं।
पत्ती भक्षक कीट यह बहुभक्षी कीड़ा हैं इसके वयस्क पंतगों के अगले पंख सुनहरे, भूरे रंग के सफ़ेद धारीदार होते हैं। सूंडियाँ मटमैले हरे रंग की होती हैं जिनके शरीर पर पीले, हरे व नारंगी रंगों की लंबवत धारियां होती हैं। उदर पर प्रत्येक खंड के दोनों ओर काले धब्बे होती हैं। नवजात इल्लियाँ पत्तियों को खाती हैं जिससे पत्तियों की शिराएँ ही शेष रह जाती है।
इसका सुंडी पत्ती में सुरंग बना कर उसमें रहता है पूर्ण विकसित सुंडी हरे रंग का एवं इसका सिर व वक्ष गहरे हरे रंग का होता है। सुंडी पत्तियों में नुकसान करता हुआ पत्तियों में नुकसान करता हुआ पत्तियों में बनी सुरंगों व फफोलों में चलता है। सुरंगें सूड़ियों की अवस्था अनुसार विभिन्न आकार की होती है। अधिक संक्रमण होने पर पूरी पत्ती संकुचित व भूरे रंग की होकर सूख जाती है।
पौधों के ऊपरी भाग पर कीट – शिशु एवं व्यस्क एफिड्स की कालोनियां देखने को मिलती है कीट – शिशु आमतौर पर गहरे भूरे रंग के होते हैं, वयस्क पंखहीन हरे, हरे – भूरे रंग या हरे - काले रंग के होते हैं। ये प्ररोह, पत्तियों एवं फूलों का रस चूसते हैं, प्रभावित पौधों के पत्ते एवं उनमें हरे रंग की कमी हो जाती हैं एवं पौधों का विकास अवरूद्ध हो जाता है। इनके द्वारा चिपचिपा द्रव छोड़ने से काली फफूंद पौधों पर जमा हो जाती हैं।
जैसिड के शिशु व व्यस्क पीलापन लिए हरा रंग के होते हैं। जैसिड के द्वारा पत्तियों का रस चूसने के कारण उनकी शिराएँ सफेद रंग की हो जाती है एवं पत्ती के अंत में बीच की जगह ‘ट’ के आकार की आकृति बन जाती है। खेत में अधिक संक्रमण होने पर पौधों का रंग पीला झुलसा हुआ दिखाई देता है एवं इस अवस्था को होपर वर्न कहते हैं।
थ्रिप्स छोटे आकार के लगभग 2 मि. मी. लंबे कीड़े हैं जो मुड़ी हुई पत्तियों व फूलों में पाए जाते हैं, ये अपने अंडे तरूण ऊतकों में देते हैं व्यस्क थ्रिप्स का शरीर नर्म एवं पंख झालरदार होते हैं। इनके द्वारा पत्तियों से रस चूसने के कारण प्रभावित पत्तियों की निचली सतहपर सफेद चकत्ते बन जाते हैं। थ्रिप्स का अधिक आक्रमण होने पर पौधे की वृद्धि रूक जाती है।
इस रोग के धब्बे पौधे उगने के 10 से 18 दिनों के बाद पत्ती की उपरी सतह पर प्रकट होने शुरू हो जाते हैं। इस रोग के धब्बे 1 से 10 मि. मी. के गोलाकार या अनियमित आकार के हल्के पीले रंग के होते हैं बाद में यह धब्बे लाल – भूरे या काले रंग के होते हैं। इन धब्बों की निचली सतह नारंगी रंग की होती है।
यह रोग पौधे उगने के 28 सड़े 35 दिनों के बाद पत्ती की निचली सतह पर प्रकट होता है। इस रोग के वृत्तकार धब्बों का आकार 1.5 से 5 मि. मी. का होता है। इस रोग के धब्बों का रंग पहले पीले रंग का होता है बाद में यह धब्बे पत्तियों के दोनों सतहों पर काले रंग के हो जाते है। निचली सतह पर यह धब्बे कार्बन की तरह काले नजर आते हैं।
यह मूंगफली का बीज जनित रोग है जो प्रभावित पौधों को शतप्रतिशत हानि पहुँचाता हैं। रोग के लक्षण पौधों के उस भाग पर प्रकट होते हैं जो मिट्टी की सतह से लगा होता है। मिट्टी की सतह का तने का भाग (कालर भाग) रोग जनक फूंद से ग्रसित हो जाता हैं। यह रोग पौधों के आधार को कमजोर कर देती है। जिससे पौधे गिर जाते हैं एवं सूखकर मुरझा जाते हैं। इन प्रभावित पौधों के सूखी सड़न वाले स्थान पर रोगजनक फफूंद की उभरी हुई काली – काली रचनाएँ स्पष्ट दिखाई देती है।
रोग के शुरू के लक्षण तने के भूमि की सतह के एक दम ऊपरी हिस्से पर पानी से भींगी विक्षति जैसे धब्बों के रूप में प्रकट होते है। ये धब्बे धीरे – धीरे बढ़कर गहरे रंग के हो जाते है। ये विक्षति धीरे – धीरे गहरी होकर पूरे तने को लपेट लेती है। प्रभावित तने का ग्रसित भाग कालिख जैसा हो जाता है व उसमें स्कलेरोशिया बन जाते है व तने की ऊपरी पर्त छोटे – छोटे टुकड़ों में फट जाती हैं। अत्यल्प गोल धारी वाले अनियमित आकार के धब्बे पत्तियों पर भी बन जाते है जो बढ़कर बड़े लहरदार धब्बों में बदल जाते हैं।
इस रोग के हरिमाहीन एवं पनीले धब्बे पत्ती की ऊपरी की सतह पर हो जाते हैं। इस रोग के धब्बे घूसर रंग के अनियमित आकार के एवं पीलापन लिए सुराख वाले होते है। पत्ती के शिखाग्र के भाग पर हल्के से गहरे घूसर रंग की अंगमारी हो जाती है। अंगमारी से प्रभावित पत्ती कुरकूरी होकर अंदर की ओर मुड़ जाती है। धब्बों के पास की लघूशिरा व शिरा ऊतकक्षयी हो जाती हैं।
तने पर रोग का संक्रमण मिट्टी की सतह के पास या तने के सबसे निचले हिस्से पर होता है। इस रोग के लक्षण सूखे मौसम में मिट्टी की सतह के नीचे एवं गीले मौसम में मिट्टी की सतह के नीचे एवं गीले मौसम में मिट्टी की सतह के ऊपर तने पर पाए जाते है। शुरू में मिट्टी की सतह के पास तने पर गहरी घूसर इ=विक्षति प्रकट होटी है फिर यह विक्षति सफ़ेद कवक जाल से तने के प्रभावित भाग को ढक लेती है। रोग बढ़ने दे साथ संक्रमित भाग में सरसों के बीज के आकार एवं रंग के स्कलेरोशिया दिखाई देने लगते हैं। स्पष्ट सड़न नीचे की ओर प्रकट होती है एवं पौधे के हरे भाग पीलापन एवं घूसर रंग के होकर मुरझा जाते हैं। रोग के संक्रमण से एक या दो शाखाएं या फिर पौधा मर जाता है।
रोग के प्रारंभिक लक्षण नयी पत्तियों पर क्लोरोटिक धब्बों के रूप में प्रकट होते हैं एवं फिर क्लोरोटिक परिगालित छल्लों के रूप में विकसित हो जाते हैं फसल पर टर्मिनल कलिका का परिगलन हो जाना इस रोग का विशेष लक्षण है। सहायक प्ररोह की वृद्धि रूकना, पर्णकोण की कुरूपता एवं पत्तियों का परिगलन हो जाना इस रोग की मुख्य पहचान है। अगर पौधे पर रोग का संक्रमण शुरू की अवस्था में हो जाता है तो पौधें की वृद्धि रूक कर पौधा झाड़ी जैसा रह जाता हैं। यदि रोग का संक्रमण पौधे पर एक माह बाद होता है तो पौधें की कुछ शाखाएं एवं शीर्षस्थ भाग ही प्रभावित होता है।
यह रोग भी मूंगफली की फसल में काफी नुकसान पहुँचाता हैं।
रोग के लक्षण नारंगी लालिमा युक्त भूरे रंग के यूरिडो स्पॉट के रूप में पत्ती की ऊपरी सतह एवं पौधे के अन्य वायव भागों पर भी दिखायी दानें लागतें है, ये यूरिडो स्पॉट अलग – अलग या फिर समूह में होते हैं। स्पॉट पत्ती की उप – वाह्य त्वचा पर सधन रंध्रों पर बनते हैं। तथा अधिवृशन के माध्यम से फटकर एवं उजागर हो जाते हैं। परिणामस्वरुप लाल भूरे बीजाणुओं के समूह पत्ती की ऊपर की सतह पर दिखायी देने शुरू हो जाते हैं। संक्रमण बढ़ने पर स्पॉट गहरे भूरे रंग के होकर आपस मिलकर पत्ती पर फ़ैल जाते हैं। अंत में पत्तियां मुड़कर गिर जाती हैं एवं विपत्रण हो जाता हैं संक्रमित पौधे में फलियाँ कम बनती हैं एवं दाने भी छोटे रह जाते हैं।
इनके ग्रब दुबले एवं इनके वक्षांग एवं पैर अच्छी तरह से विकसित होते हैं एवं इनके प्यूपा पौधों की सतह से लगे हुए रहते है एवं इनके उपांग सामने की तरफ होते हैं। इनके व्यस्क चमकीले पीले, नारंगी या गहरे लाल रंग के होतेहैं एवं इनके सामने के पंखों पर अधिकतर छोटे काले धब्बे होते हैं तथा वयस्कों के पैर, सिर और एंटीना काले रंग के होते हैं। कुछ प्रजातियों के सामने के पंख पूरी तरह से काले, भूरे या घूसर रंग के होते हैं।
मकड़ियों का शरीर दो भागों में बंटा होता है, अगला शिरोवक्ष एवं पिछला ऊदर होता है इनके पंख एवं एंटीना नहीं होते हैं। इनके शिशु वयस्कों के समान दीखते हैं। मकड़ियाँ रंग, आकार, ऊछ्लने का तरीका एवं उनके द्वारा बनाएं गये। जालों के आधार पर विभिन्न प्रकार की होती है।
मूंगफली की फसल में प्रमुख कीड़ों एवं रोगों से बचाव व उनके नियंत्रण के लिए एक आईपीएम तकनीकी/ मॉड्यूल का संश्लेषण व मूल्याँकन करके तथा क्षेत्र विशेष अनुसार उसमें संशोधन करके किसानों के खेतों के प्रसारित किया गया। आईपीएम अपनाने वाले किसानों की उपज में वृद्धि तथा शुद्ध आय में बढ़ोतरी हुई।
क. ट्राईकोडर्मा द्वारा बीजोपचार करने के लिए 10 ग्राम ट्राईकोडर्मा पाउडर प्रति एक किलो बीज के हिसाब से 4 – 5 मि. ली. पानी में मिलाकर उस का पोस्ट बना लें। फिर उस ट्राईकोडर्मा पेस्ट को बीज मिलाकर 20 – 30 मिनट के लिए छाँव ने सुखा लें और उसके बाद उस बीज की बुआई करें।
ख. बीज को इमिडाक्लोरापिड 2 मि. ली. प्रति कि. ग्राम बीज की दर से उपचारित करें।
इसके बाद भी यदि फसल पर किसी कीड़े अथवा रोग का आक्रमण होता है तो उसके आर्थिक परिसीमा स्तर के अनुसार आवश्यकता आधारित कीटनाशी रसासनों या फफूंदी नाशक का प्रयोग करें।
रा. स. ना. प्र. केंद्र द्वारा विकसित आई. पी. एम. प्रणली को वर्ष 2008 से वर्ष 2010 तक मिरजवाली मीर, हनुमानगढ़, राजस्थान के सिंचित क्षेत्र के किसानों द्वारा मूंगफली की फसल में अपनाने से उनकी उपज औसतानुसार 29.21 कु. प्रति हे. जबकि गैर आईपीएम किसानों की उपज 16.59 कु. प्रति हे. ही रही एवं शुद्ध लाभ रूपये 46188 प्रति हे. हुआ जबकि गैर आईपीएम को केवल 20772 रूपये का शुद्ध लाभ हुआ। इसी प्रकार आन्ध्र प्रदेश के कादरी मंडल के असिंचित क्षेत्र के किसानों द्वारा आईपीएम प्रणाली अपनाने से वर्ष 2008 एवं 2010 में आईपीएम किसानों की उपज केवल 6. 49 कु. प्रति हे. ही रही एवं उनकी शुद्ध लाभ 17,914 रूपये तथा गैर आईपीएम किसानों की शुद्ध लाभ केवल 12,259 रूपये प्रति हे. हुआ।
राज्य |
संशोधित किस्में |
|
खरीफ |
रबी – समर (जायद) |
|
आन्ध्र प्रदेश |
कादिरी – 6 नारायणी, आई. सी. जी. वी., 91114, , कादिरी – 9, अभया प्रसूना ग्री, मा, अजेया, विजेता जी. पी. बी.डी. – 4 |
कादिरी – 6, कादिरी, हरिचन्द्र, आई. सी. जी. वी. 00350, ग्रा. मा. |
गुजरात |
जी. जी.20 टी. जी. 37 जी. जी.5, जे. एल. 501, जी. जे. जी. 31 |
जी. जी. 20, टी. जी. 37अ, टी. पी.जी. 41, जी. जी. – 6 डी. एच. 86 जी. जे. जी. 9 |
कर्नाटका |
जी. पी. बी. डी – 4, अजेया, विजेता, टी. जी. एल. पी. एस, 3, वी. आर. आई. 6, आई. सी. जी. वी. 91114 |
टी. ए.जी. 24, कादिरी, हरिचंद्रा, टी.जी.एल. पी. एस – 3 |
तमिलनाडु |
वी. आर.आई. 2, 6, व 7, टी. एम. वी. 13, को 6, 5, ए. एल. आर. 2, जी. पी. बी. डी. 4, आई. सी. जी. वी. 00348. |
बी.आर.आर.-2, टी. एम.वी. 13, आई. सी. जी. वी. 00350 |
महाराष्ट्र |
ए. के. 159, 303, 265, जे. एल. 220, 286, 501, रत्नेश्वर, टी. एल. जी. 45 |
टी.ए. जी. 24, डी, एच 86, जे. एल – 286 |
राजस्थान |
एच. एन. जी. 10, गिरनार 2, प्रकाश, अंबर, उत्कर्ष, टी. जी. 37अ, जी. 37अ, जी. जी. 14, 21, एच.एन.जी. 69, 123, राज मूंगफली – 1 टी. बी. जी. 39, प्रताप मूंगफली – 1, 2 |
|
मध्य प्रदेश |
जे. जी, एन. 3. 23, ए. के. 159, जी. जी. 8 |
|
झारखंड |
बी. ए. यू. 13, गिरनार 3, जी. पी. बी. डी. 5 विजेता |
डी. एच. 86, 101 टी. जी. 38 बी, टी. जी. 51 |
पंजाब |
एम. 548, गिसार – 2, एच. एन. जी. 10. 69, 123, प्रकाश, टी. जी. 37 अ, अम्बर, उत्कर्ष, जी. जी. 14, 21, राज मूंगफली- 1 |
एस.जी. 99 |
बसंत ऋतु |
|
|
उत्तर प्रदेश |
प्रकाश, अम्बर, उत्कर्ष, एच. एन. जी. 10, 69, 123, जी. जी. 14, 21, राज मूंगफली- 1, गिरनार – 2, टी. जी. 37 अ |
डी. एच 86, टी. जी. 37अ (वसंत ऋतु) |
उत्तराखंड |
बी. एल. मूंगफली – 1 |
|
उड़ीसा |
ओ. जी. 52 – 1, आई सी. जी. वी. 91114, गिरनार – 3 |
ओ.जी.52 – 1, टी. ए. जी. 51, 37 अ, 38 ब, डी. एच 86, 101 |
गिरनार – 3 |
टी. ए. जी. 24, टी. जी. 51, 37अ, 38 ब. डी. एच 86, 101 |
|
ऊतर पूर्व पहाड़ी |
बी. ए. यू. 13 आईसीजीएस 76, आईसीजीवी. 86590 जीपीबीडी – 5 |
टी. ए. जी. 24, टी. जी. 37, अ, 38 ब, टी. जी. 51, डी. एच. 86, 101 |
मूंगफली की नवीनतम उन्नत किस्मों की सूची – स्रोत इन्टरनेट से प्राप्त।
लेखन: सुरेन्द्र कुमार सिंह एवं एम. एस. यादव
अंतिम बार संशोधित : 2/24/2020
इस भाग में अंतर्वर्ती फसलोत्पादन से दोगुना फायदा क...
इस पृष्ठ में 20वीं पशुधन गणना जिसमें देश के सभी रा...
इस भाग में जनवरी-फरवरी के बागों के कार्य की जानकार...
इस पृष्ठ में केंद्रीय सरकार की उस योजना का उल्लेख ...