संविदा की परिभाषा है ''एक ऐसा करार जिसमें एक पक्ष प्रतिफल के लिए कुछ करने की पेशकश करता है और दूसरा पक्ष उसे स्वीकृत करता है।'' व्यापार, वाणिज्य और उद्योग में लेन-देनों का अधिकांश इन्हीं संविदाओं पर आधारित होता है। भारत में भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 संविदाओं का शासी कानून है जिसमें संविदाओं के निर्माण, निष्पादन और प्रवर्तनीयता से जुड़े सामान्य सिद्धांत तथा विशेष प्रकार की संविदाओं जैसे क्षतिपूर्ति और गारंटी; अमानत और गिरवी रखना और एजेंसी से संबंधित नियम निर्धारित किए गए हैं।
अधिनियम के अनुसार, "संविदा" कानून द्वारा प्रवर्तन किया जाने वाला करार है। कानून द्वारा प्रवर्तन न किए जाने वाले करार ''संविदा'' नहीं होते। ''करार'' का अर्थ है ''एक वायदा या अनेक वायदों का सेट'' जो एक दूसरे के अनुसार किए जाते हैं। और वायदा तब किया जाता है जब प्रस्ताव स्वीकृत किया जाता है। निहितार्थ में, करार एक स्वीकृत प्रस्ताव होता है। दूसरे शब्दों में, करार में एक ''पेशकश'' और इसकी ''स्वीकृति'' होती है।
''पेशकश'' करार निष्पादित करने की प्रक्रिया का आरंभिक बिन्दु है। प्रत्येक करार की शुरूआत एक पक्ष द्वारा कुछ बेचने या सेवा प्रदान करने इत्यादि की पेशकश से होती है। कानूनी बाध्यता सृजित करने का इच्छुक कोई व्यक्ति जब दूसरे व्यक्ति को कोई कार्य करने या न करने की इच्छा ऐसे कार्य को करने या न करने के प्रति दूसरे व्यक्ति की सहमति प्राप्त करने की दृष्टि से सूचित करता है, तो वह व्यक्ति प्रस्ताव या पेशकश कर रहा कहा जाता है।
पेशकश की स्वीकृति से करार की उत्पत्ति होती है। इस तरह, ''स्वीकृति'' संविदा करने का दूसरा चरण है। स्वीकृति पेशकश की शर्तों पर उस व्यक्ति की सहमति की अभिव्यक्ति है जिसे पेशकश की गई है। इससे उस व्यक्ति की उसे सूचित की गई प्रस्ताव की शर्तों से आबद्ध होने की इच्छा व्यक्त होती है। वैध होने के लिए, स्वीकृति पेशकश की शर्तों के बिल्कुल अनुरूप होनी चाहिए, यह बिना शर्त और पूर्ण होनी चाहिए और यह अवश्य ही पेशकशी व्यक्ति को सूचित की जानी चाहिए।
कोई ''करार'' तब संविदा बनता है यदि यह विधिसम्मत प्रतिफल के लिए और विधिसम्मत उद्देश्य के लिए संविदा करेन हेतु समक्ष पक्षों की स्वतंत्र सहमति से किया गया हो और स्पष्ट रूप से निरस्त न किया गया हो। संविदा निश्चित रूप की होनी चाहिए और इसका प्रयोजन कानून संबंध स्थापित करना होना चाहिए। संविदा करने वाले पक्षों में इस निष्पादित करने की कानूनी क्षमता होनी चाहिए। संविदा अधिनियम के अनुसार, ऐसा प्रत्येक व्यक्ति संविदा करने के लिए सक्षम है जो उस कानून जिसके वह अध्यधीन है के अनुसार वयस्क हो चुका हो और जिसकी मानसिक स्थिति ठीक है और जो किसी ऐसे कानून जिसके वह अध्यधीन है, द्वारा संविदा करने के लिए अयोग्य घोषित न किया गया हो। इस तरह, अवयस्क, मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्ति और किसी कानून द्वारा संविदा करने के लिए अयोग्य घोषित व्यक्ति संविदा करने में अक्षम है।
इस अधिनियम के मुख्य प्रावधान इस प्रकार है:-
(i) संविदा करने के लिए कम से कम दो पक्षों की ज़रूरत होती है। एक पक्ष को पेशकश करनी होती है और दूसरे पक्ष को स्वीकृत करनी होती है। जो व्यक्ति ''प्रस्ताव '' या ''पेशकश'' करता है ''प्रतिज्ञाकर्ता'' या ''पेशकशी'' कहलाता है। जब किसी व्यक्ति को पेशकश की जाती है तो पेशकश प्राप्त व्यक्ति (ऑफरी) कहलाता है और जो व्यक्ति पेशकश स्वीकारता है ''स्वीकर्ता'' कहलाता है। एक ''पेशकश'' होनी चाहिए और पेशकश की ''स्वीकृति'' होनी चाहिए जिसकी परिणति करार में होती है। पेशकश और स्वीकृति दोनों ही विधिसम्मत होनी चाहिए।
(ii) पक्षकारों का आशय कानूनी बाध्यता सृजित करना होना चाहिए। प्रवर्तित किए जाने वाले करार में दोनों पक्षों के बीच कानूनी संबंध की बात होनी चाहिए।
(iii) संविदा मूलत: दोनों पक्षों के बीच एक सौदा होता है जिसमें प्रत्येक पक्ष को ''कुछ'' ऐसा प्राप्त होता है जो उसके लिए मूल्यवान या लाभकारी होता है। इस ''कुछ'' को कानून में ''प्रतिफल'' कहते हैं। प्रतिफल किसी भी वैध संविदा का अनिवार्य घटक होता है। यही वह कीमत है जिसके लिए दूसरे का वायदा खरीदा जाता है। प्रतिफल रहित संविदा अमान्य होनी है। यह प्रतिफल धन, दी गई सेवाओं, आदान-प्रदान किए गए माल या किसी त्याग जो दूसरे पक्ष के लिए मूल्य रखता हो, के रूप में हो सकता है। यदि प्रतिफल अतीत, वर्तमान या भविष्य हो सकता है लेकिन यह विधिसम्मत होना चाहिए।
(iv) संविदा करने वाले पक्षकार इस अर्थ में कानूनी तौर पर सक्षम होने चाहिए कि वे वयस्क हो चुके हों, उनकी मानसिक स्थिति ठीक हो और उन्हें संविदा करने से स्पष्ट रूप से अयोग्य घोषित न किया गया हो। अक्षम पक्षकारों द्वारा किया गया करार कानून अमान्य होगा।
(v) संविदाकारी पक्षों को अपनी सहमति ''स्वेच्छा से'' देनी चाहिए। ''सहमति'' का अर्थ है कि पक्षकार करार के विषय पर एक ही अर्थ में और एक ही समय में सहमत हैं। सहमति तभी 'स्वेच्छा से' मानी जाएगी यदि यह दबाव, अनुचित प्रभाव, धोखाधड़ी, गलत बयानी या गलती के बिना दी जाए। स्वेच्छा से सहमति न होने पर संविदा की कानूनी प्रवर्तनीय प्रभावित होगी।
(vi) करार का उद्देश्य अवश्य विधि सम्मत होना चाहिए। करार गैर-कानूनी होगा यदि यह :- (i) अवैध है (ii) अनैतिक है (iii) धोखाधड़ी है (iv) ऐसे स्वरूप का है कि यदि अनुमति दी जाए तो कानून के प्रावधानों का उल्लंघन होगा (v) दूसरे व्यक्ति या दूसरे व्यक्ति सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाता है (vi) सार्वजनिक नीति के विरुद्ध है।
(vii) संविदा अधिनियम या किसी अन्य कानून के तहत स्पष्ट रूप से अमान्य घोषित करार प्रवर्तनीय नहीं होता और इस तरह संविदा नहीं माना जाता। संविदा अधिनियम कुछ किस्म के करारों को अमान्य घोषित करता है जैसे कि विवाह पर रोक, व्यापार या कानूनी कार्रवाइयों जैसे कुछ करार या शर्त लगाने वाले करार।
(viii) संविदा की शर्तें अस्पष्ट या अनिश्चित नहीं होनी चाहिए। यदि कोई करार अस्पष्ट है और इसका अर्थ निश्चित नहीं किया जा सकता, तो इसे प्रवर्तित नहीं किया जा सकता। साथ ही, संविदा की शर्तें ऐसी होनी चाहिए जो कार्यान्वित की जा सके। असंभव कार्य करने का करार अमान्य होगा और कानून द्वारा प्रवर्तनीय नहीं होगा।
(ix) सामान्यतया, संविदा मौखिक या लिखित हो सकती है। तथापि, कुछ संविदाएं लिखित में होनी अपेक्षित हैं और उनके लिए पंजीकरण की भी ज़रूरत हो सकती है। इसलिए जब किसी कानून में अपेक्षा की जाती है कि करार को लिखित रूप में या पंजीकृत होना है, तो इसका अनुपालन अवश्य किया जाए। उदाहरणार्थ, भारतीय न्यास अधिनियम में न्यास का सृजन लिखित रूप में होने की अपेक्षा की जाती है।
(x) संविदाएं अनेक प्रकार की होती हैं:- (i) स्पष्ट संविदा; (ii) अन्तर्निहित संविदा; (iii) अर्ध-संविदा; (iv) वैध संविदा; (v) अमान्य करार; (vi) अमान्य संविदा; (vii) अमान्यकरणीय संविदा।
(xi) जब कोई संविदा निष्पादित की जाती है, तो पक्षकारों को संविदा के तहत अपने-अपने दायित्व अवश्य पूरे करने चाहिए। यदि कोई प्रतिज्ञाकर्ता संविदा के कार्यान्वयन से पूर्व मर जाए तो उसका कानूनी प्रतिनिधि संविदा कार्यान्वित करने के लिए बाध्य होगा जब तक कि संविदा के शब्दों या संविदा के स्वरूप से कोई विपरीत आशय न प्रकट हो जाए।
प्रतिज्ञाकर्ता को चाहिए कि संविदा के तहत या तो अपने दायित्व अवश्य वास्तव में पूरे करे या प्रतिज्ञाती को ऐसा करने की पेशकश करे। इस पेशकश को ''निष्पादन निविदा'' कहा जाता है। वैध निष्पादन-निविदा के अनिवार्य घटक निम्नानुसार है :-
(i) यह बिना शर्त होना चाहिए;
(ii) यह उपयुक्त समय और स्थान पर होना चाहिए क्योंकि निर्धारित तिथि से पूर्व की गई निविदा प्रभावी नहीं होती;
(iii) यह उपयुक्त व्यक्ति को ही प्रस्तुत की जानी चाहिए;
(iv) इसकी मात्रा सही होनी चाहिए और समस्त दायित्व से संबंधित होनी चाहिए;
(v) यह ऐसे व्यक्ति द्वारा की जानी चाहिए जो उसी समय निष्पादन करने का इच्छुक हो;
(vi) इसमें प्रतिज्ञानी को माल या वस्तुओं के निरीक्षण का उचित अवसर दिया जाना चाहिए।
प्रतिज्ञाकर्ता द्वारा वैध निष्पादन–निविदा कर दिए जाने के बाद, प्रतिज्ञाती को निष्पादन को स्वीकारना होता है। यदि निष्पादन-निविदा दूसरे पक्ष द्वारा अस्वीकृत कर दी जाए तो प्रतिज्ञाकर्ता निष्पादन न किए जाने के लिए जिम्मेदार नहीं होता और वह संविदा भंग करने के लिए प्रतिज्ञाती पर मुकदमा दायर कर सकता है।
जिन संविदाओं का निष्पादन करना ज़रूरी नहीं, वे निम्नानुसार हैं:-
(i) असंभव कार्य करने के करार अमान्य होते हैं और उन्हें निष्पादित करने की ज़रूरत नहीं होती।
(ii) यदि किसी संविदा के स्थान नई संविदा की जाए, या निरस्त या परिवर्तित की जाए तो मूल संविदा निष्पादित करने की आवश्यकता नहीं होती।
(iii) कानून द्वारा रद्द की गई संविदाओं को निष्पादित करना ज़रूरी नहीं।
(iv) वे संविदाएं जो समय के साथ व्यपगत हो गई हों।
संविदा के निष्पादन हेतु समय और स्थान से संबंधित सिद्धांत निम्नानुसार हैं :-
(i) जहां संविदा में इसके निष्पादन के लिए समय और स्थान का उल्लेख हो, पक्षकारों को तदनुसार निष्पादन करना चाहिए।
(ii) जहां संविदा में इसके निष्पादन के लिए कोई समय निर्दिष्ट नहीं किया गया हो और प्रतिज्ञाकर्ता ने प्रतिज्ञानी से कोई अनुरोध प्राप्त किए बिना निष्पादन का वचन दिया है तो यह उचित समयावधि में अवश्य किया जाना चाहिए।
(iii) जहां कोई संविदा किसी निश्चित दिन को निष्पादित की जानी है और प्रतिज्ञाकर्ता ने प्रतिज्ञानी से कोई अनुरोध प्राप्त किए बिना निष्पादन का वचन दिया है, तो प्रतिज्ञाकर्ता ऐसे दिन को निर्दिष्ट स्थान पर कारोबार के सामान्य घण्टे के दौरान किसी भी समय निष्पादन कर सकता है।
(iv) जब वायदा किसी निश्चित दिन पूरा किया जाना है और प्रतिज्ञाकर्ता ने प्रतिज्ञानी से अनुरोध प्राप्त किए बिना वायदा पूरा न करना हो तो प्रतिज्ञानी को उपयुक्त स्थान पर और कारोबार के सामान्य घण्टों के भीतर निष्पादन करने का अनुरोध अवश्य करना चाहिए।
(v) जब कोई वायदा प्रतिज्ञानी के अनुरोध के बिना पूरा किया जाना हो और इसके निष्पादन के लिए कोई स्थान नियत नहीं हो तो प्रतिज्ञाकर्ता को प्रतिज्ञानी से अनुरोध करना चाहिए कि वह निष्पादन के लिए उचित स्थान नियत करे और उसे ऐसे स्थान पर वायदे को पूरा करना चाहिए।
क्षतिपूर्ति की संविदा ऐसी संविदा होती है जिसमें कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को स्वयं प्रतिज्ञाकर्ता या किसी तीसरे व्यक्ति के आचरण से हुई हानि से बचाने का वायदा करता है। उदाहरणार्थ, शेयरधारक कम्पनी के पक्ष में एक क्षतिपूर्ति बाण्ड तैयार करता है जिसमें वह अपने किसी कार्य के परिणामस्वरूप हुए किसी नुकसान के लिए कम्पनी को क्षतिपूर्ति देने के लिए सहमत होता है। क्षतिपूर्ति देने वाला व्यक्ति ''क्षतिपूरक'' कहलाता है और जिस व्यक्ति की सुरक्षा के लिए यह दी जाती है, ''क्षतिपूर्ति धारक'' या ''क्षतिपूरित'' कहलाता है। क्षतिपूर्ति की संविदा स्वयं प्रतिज्ञाकर्ता या किसी तीसरे व्यक्ति द्वारा किए गए नुकसान की भरपाई करने तक ही सीमित होती है। यह नुकसान किसी मानवीकरण से होना चाहिए। आग या समुद्री – खतरों जैसी दुर्घटनाओं से हुए नुकसान क्षतिपूर्ति संविदा में शामिल नहीं होते।
''गारंटी'' की संविदा ऐसी संविदा होती है, भले ही मौखिक हो या लिखित, जो किसी तीसरे व्यक्ति के वायदा पूरा करने, या देनदारी चुकाने में चूक होने के मामले में, दी जाती है। गारंटी की संविदा में तीन व्यक्ति शामिल होते हैं अर्थात् वह व्यक्ति जो गारंटी देता है ''जमानतदार'' कहलाता है, जिस व्यक्ति द्वारा चूक होने के मामले में गारंटी दी जाती है, ''प्रमुख उधारकर्ता'' कहलाता है और जिस व्यक्ति को गारंटी दी जाती है ''ऋणदाता'' कहलाता है। गारंटी की संविदा जमानतदार द्वारा किया गया सशर्त वायदा है कि यदि प्रमुख उधारकर्ता चूक करता है तो ऋणदाता के प्रति वह देनदार होगा।
''अमानत'' संविदा होने पर किसी प्रयोजनार्थ एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति की गई वस्तुओं की सुपुर्दगी होती है जो प्रयोजन पूरा हो जाने पर, सुपुर्दगी करने वाले व्यक्ति के निदेशों के अनुसार उसे वापस या निपटान कर दिया जाना चाहिए। वस्तुओं की सुपुर्दगी करने वाला व्यक्ति जमानत देने वाला (बेलर) और जिसे वस्तुओं की सुपुर्दगी की जाती है अमानतदार (बोली) और जिसे वस्तुओं की सुपुर्दगी की जाती है अमानतदार (बेली) कहलाता है। अमानत की संविदा के उदाहरण इस प्रकार है: मरम्मत के लिए घड़ी या रेडियो सुपुर्द करना; पार्किंग स्टैण्ड में कार या स्कूटर छोड़कर जाना; क्लोक रूम में सामान छोड़ना; ज़ेवर बनाने के लिए जौहरी को सोना देना; ड्राई क्लीनर के पास कपड़े छोड़ना इत्यादि। अमानत का सार तत्व है स्वामित्व का अंतरण स्वामित्व स्वामी के पास रहता है। अचल सम्पत्ति को अमानत नही रखा जाता।
गिरवी रखने का अर्थ वस्तुओं की अमानत रखना है जहां किसी ऋण के भुगतान या वायदे की पूर्ति के भुगतान के लिए जमानत के तौर पर माल सुपुर्द किया जाता है। अमानत देने वाले को गिरवीकर्ता या अधिकर्ता कहते हैं और अमानतदार को गिरवीदार या अधिग्राही कहते हैं। इस तरह गिरवी विशेष प्रकार की अमानत व्यवस्था है। गिरवी केवल चल सम्पत्तियों का ही किया जा सकता है। गिरवी को कानूनी तौर पर वैध बनाने के लिए ज़रूरी है कि गिरवीकर्ता को माल रखने का कानूनी अधिकार या हकदारी प्राप्त हो।
एजेंट ऐसा व्यक्ति होता है जिसे कोई कार्य करने अथवा किसी तीसरे व्यक्ति से बातचीत करने में किसी अन्य व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करने के लिए नियोजित किया जाता है। जो व्यक्ति एजेंट को नियोजित करता है और जिसके लिए कार्य किया जाता है या जिसका प्रतिनिधित्व किया जाता है, ''प्रमुख'' कहलाता है। एजेंट और प्रमुख के बीच के संबंध में ''एजेंसी'' कहा जाता है। केवल तभी जब कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के प्रतिनिधि के रूप में एवं तीसरे व्यक्ति के बीच संविदात्मक दायित्वों के सृजन, संशोधन या समापन के लिए इसी क्रम में कार्य करता है तब वह एजेंट कहलाता है। एजेंसी की संविदा का सार-तत्त्व है एजेंट की प्रतिनिधि-क्षमता जिसके साथ ''प्रमुख'' की तीसरे व्यक्ति के साथ कानूनी संबंधों को प्रभावित करने की शक्ति भी शामिल है।
एजेंसी की संविदा दो महत्वपूर्ण सिद्धांतों पर आधारित है:-
व्यक्ति जो कुछ व्यक्तिगत तौर पर कर सकता है, उसे एजेंट के ज़रिए किए जाने की भी अनुमति दी जानी चाहिए सिवाय वैयक्तिक सेवाओं वाली संविदाओं के मामलों के छोड़कर जैसे चित्रकारी, विवाह, गायन इत्यादि।
जो व्यक्ति विधिवत प्राधिकृत एजेंट के माध्यम से कोई कार्य करता है, वह कार्य वह स्वयं करता है अर्थात एजेंट के कार्य ''प्रमुख'' के कार्य समझे जाते हैं।
संविदा तब पूरी हो गई समझी जाती है जब संबंधित पक्षकारों की देनदारियां समाप्त हो जाए या निर्धारित हो जाए। संविदा निम्नलिखित विधियों से पूरी की जा सकती है:-
निष्पादन द्वारा :- जब दोनों पक्ष अपने वायदे पूरे कर दें और कुछ करने को शेष न रहे संविदा खत्म हो गई मानी जाती है।
निष्पादन के असंभाव्यता द्वारा :- असंभाव्यता आरंभिक अथवा अनुवर्ती हो सकती है।
परस्पर करार द्वारा :- जब संविदाकारी पक्ष इलक संविदा के स्थान पर नई संविदा लाने, या इसे रद्द करने या बदलने पर सहमत हो जाएं, तो मूल संविदा खत्म हो जाती है।
छूट देकर :- जब संविदकारी पक्ष दूसरे पक्ष द्वारा संविदा के निष्पादन में पूरी तरह या आंशिक रूप से छूट देता है या निष्पादन के लिए समयावधि बढ़ा देता है या निष्पादन के स्थान पर कोई अन्य प्रतिपूर्ति स्वीकार कर लेता है, तब संविदा छूट दी गई सीमा तक खत्म हो गई समझी जाती है।
कानून द्वारा :-
निम्नलिखित परिस्थितियों में कानून द्वारा संविदा खत्म हो गई मानी जाती है:-
वास्तविक परिवर्तन या लिखित दस्तावेज़ का खो जाना;
निकृष्ट संविदा का उत्कृष्ट संविदा में विलय होना;
व्यक्ति का दीवालिया होना;
जब एक ही संविदा में अधिकार और दायित्व एक ही व्यक्ति में निहित हो जाएं।
संविदा भंग होना या निपटान न करना :- जब कोई संविदाकारी पक्ष निष्पादन करने से इंकार कर दे अथवा अपना वायदा पूरा करने में अक्षम हो तो प्रतिज्ञानी प्रथम पक्षकार द्वारा संविदा भंग करने के कारण संविदा का समाप्त कर सकता है।
जब कोई संविदाकारी पक्ष निष्पादन करने से इंकार कर दे या निष्पादन करने में अक्षम हो, तो इसका अर्थ संविदा-भंग करना होता है और प्रतिज्ञानी संविदा को परे हटा सकता है जब तक कि उसने ही अपने शब्दों या आचरण से उसे जारी रखने का इरादा न जताया हो।
संविदा भंग करने के मामले में पीडित पक्ष को उपलब्ध समाधान इस प्रकार हैं:-
(i) संविदा के निरसन के लिए मुकदमा :- निरसन का अर्थ संविदा को रद्द करना है। जब एक पक्ष द्वारा संविदा भंग की जाती है तो दूसरा पक्ष निरसन के लिए अदालती कार्रवाई कर सकता है और आगे निष्पादन से इंकार कर सकता है। ऐसे मामले में, पीडित पक्षकार संविदा के तहत अपनी समस्त देनदारियों से मुक्त हो जाता है।
(ii) मुआवज़े के लिए मुकदमा :- संविदा भंग हो जाने से पीडित पक्ष मुआवज़े के लिए अदालती कार्रवाई कर सकता है। मुआवज़ा अदालत द्वारा पीडित पक्ष को दूसरे पक्ष द्वारा संविदा भंग करने के परिणामस्वरूप हुए नुकसान या क्षति के लिए दी गई मौद्रिक क्षतिपूर्ति है।
(iii) निषेधादेश जारी करने के लिए मुकदमा :- निषेधादेश अदालत का ऐसा आदेश होता है जिसमें व्यक्ति को वह कार्य करने से रोका जाता है जो संविदा का विषय रहा हो। निषेधादेश जारी करने की शाक्तियां विवेकाधीन होती हैं और यह अस्थायी रूप से या अनिश्चित काल के लिए दिया जा सकता है।
(iv) 'क्वांटम मेरुइट' के आधार पर मुकदमा :- 'क्वांटम मेरुइट' का अर्थ है योग्यतानुसार अथवा अर्जन अनुसार 'क्वांटम मेरुइट' का दावा उस संविदा, जो दूसरे पक्ष द्वारा उसे भंग किए जाने के कारण अमान्य हो गई हो, के तहत इस्तेमाल या प्रदाय की गई सामग्री की कीमत का दावा होता है। जब कोई संविदा अमान्य हो जाती है तो, ऐसी संविदा के तहत कोई लाभ प्राप्त करने वाले व्यक्ति को वे लाभ उस व्यक्ति को वापस करने हाते है जिनसे वे प्राप्त किए गए हों।
(v) विशिष्ट निष्पादन हेतु मुकदमा :- यदि संविदा भंग होने से हुए नुकसान की भरपाई हरजाने से नहीं की जा सकती अथवा नुकसान की मात्रा तय करने के लिए कोई मापदंड न हों तो पीडित पक्षकार संविदा के विशिष्ट निष्पादन हेतु आदेश जारी करने के लिए अदालत जा सकता है। विशिष्ट निष्पादन निम्नलिखित स्थितियों में किया जाता है जब:-
धन पर्याप्त समाधान हो
यह दोनों पक्षकारों के लिए असमान होगा
संविदा वैयक्तिक स्वरूप की हो
अदालत इसके कार्यान्वयन की देख-रेख नहीं कर सकती।
संविदा के निष्पादन हेतु समय और स्थान से संबंधित सिद्धांत निम्नानुसार हैं :-
जहां संविदा में इसके निष्पादन के लिए समय और स्थान का उल्लेख हो, पक्षकारों को तदनुसार निष्पादन करना चाहिए।
जहां संविदा में इसके निष्पादन के लिए कोई समय निर्दिष्ट नहीं किया गया हो और प्रतिज्ञाकर्ता ने प्रतिज्ञानी से कोई अनुरोध प्राप्त किए बिना निष्पादन का वचन दिया है तो यह उचित समयावधि में अवश्य किया जाना चाहिए।
जहां कोई संविदा किसी निश्चित दिन को निष्पादित की जानी है और प्रतिज्ञाकर्ता ने प्रतिज्ञानी से कोई अनुरोध प्राप्त किए बिना निष्पादन का वचन दिया है, तो प्रतिज्ञाकर्ता ऐसे दिन को निर्दिष्ट स्थान पर कारोबार के सामान्य घण्टे के दौरान किसी भी समय निष्पादन कर सकता है।
जब वायदा किसी निश्चित दिन पूरा किया जाना है और प्रतिज्ञाकर्ता ने प्रतिज्ञानी से अनुरोध प्राप्त किए बिना वायदा पूरा न करना हो तो प्रतिज्ञानी को उपयुक्त स्थान पर और कारोबार के सामान्य घण्टों के भीतर निष्पादन करने का अनुरोध अवश्य करना चाहिए।
जब कोई वायदा प्रतिज्ञानी के अनुरोध के बिना पूरा किया जाना हो और इसके निष्पादन के लिए कोई स्थान नियत नहीं हो तो प्रतिज्ञाकर्ता को प्रतिज्ञानी से अनुरोध करना चाहिए कि वह निष्पादन के लिए उचित स्थान नियत करे और उसे ऐसे स्थान पर वायदे को पूरा करना चाहिए।
क्षतिपूर्ति की संविदा ऐसी संविदा होती है जिसमें कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को स्वयं प्रतिज्ञाकर्ता या किसी तीसरे व्यक्ति के आचरण से हुई हानि से बचाने का वायदा करता है। उदाहरणार्थ, शेयरधारक कम्पनी के पक्ष में एक क्षतिपूर्ति बाण्ड तैयार करता है जिसमें वह अपने किसी कार्य के परिणामस्वरूप हुए किसी नुकसान के लिए कम्पनी को क्षतिपूर्ति देने के लिए सहमत होता है। क्षतिपूर्ति देने वाला व्यक्ति ''क्षतिपूरक'' कहलाता है और जिस व्यक्ति की सुरक्षा के लिए यह दी जाती है, ''क्षतिपूर्ति धारक'' या ''क्षतिपूरित'' कहलाता है। क्षतिपूर्ति की संविदा स्वयं प्रतिज्ञाकर्ता या किसी तीसरे व्यक्ति द्वारा किए गए नुकसान की भरपाई करने तक ही सीमित होती है। यह नुकसान किसी मानवीकरण से होना चाहिए। आग या समुद्री – खतरों जैसी दुर्घटनाओं से हुए नुकसान क्षतिपूर्ति संविदा में शामिल नहीं होते।
''गारंटी'' की संविदा ऐसी संविदा होती है, भले ही मौखिक हो या लिखित, जो किसी तीसरे व्यक्ति के वायदा पूरा करने, या देनदारी चुकाने में चूक होने के मामले में, दी जाती है। गारंटी की संविदा में तीन व्यक्ति शामिल होते हैं अर्थात् वह व्यक्ति जो गारंटी देता है ''जमानतदार'' कहलाता है, जिस व्यक्ति द्वारा चूक होने के मामले में गारंटी दी जाती है, ''प्रमुख उधारकर्ता'' कहलाता है और जिस व्यक्ति को गारंटी दी जाती है ''ऋणदाता'' कहलाता है। गारंटी की संविदा जमानतदार द्वारा किया गया सशर्त वायदा है कि यदि प्रमुख उधारकर्ता चूक करता है तो ऋणदाता के प्रति वह देनदार होगा।
''अमानत'' संविदा होने पर किसी प्रयोजनार्थ एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति की गई वस्तुओं की सुपुर्दगी होती है जो प्रयोजन पूरा हो जाने पर, सुपुर्दगी करने वाले व्यक्ति के निदेशों के अनुसार उसे वापस या निपटान कर दिया जाना चाहिए। वस्तुओं की सुपुर्दगी करने वाला व्यक्ति जमानत देने वाला (बेलर) और जिसे वस्तुओं की सुपुर्दगी की जाती है अमानतदार (बोली) और जिसे वस्तुओं की सुपुर्दगी की जाती है अमानतदार (बेली) कहलाता है। अमानत की संविदा के उदाहरण इस प्रकार है: मरम्मत के लिए घड़ी या रेडियो सुपुर्द करना; पार्किंग स्टैण्ड में कार या स्कूटर छोड़कर जाना; क्लोक रूम में सामान छोड़ना; ज़ेवर बनाने के लिए जौहरी को सोना देना; ड्राई क्लीनर के पास कपड़े छोड़ना इत्यादि। अमानत का सार तत्व है स्वामित्व का अंतरण स्वामित्व स्वामी के पास रहता है। अचल सम्पत्ति को अमानत नही रखा जाता।
गिरवी रखने का अर्थ वस्तुओं की अमानत रखना है जहां किसी ऋण के भुगतान या वायदे की पूर्ति के भुगतान के लिए जमानत के तौर पर माल सुपुर्द किया जाता है। अमानत देने वाले को गिरवीकर्ता या अधिकर्ता कहते हैं और अमानतदार को गिरवीदार या अधिग्राही कहते हैं। इस तरह गिरवी विशेष प्रकार की अमानत व्यवस्था है। गिरवी केवल चल सम्पत्तियों का ही किया जा सकता है। गिरवी को कानूनी तौर पर वैध बनाने के लिए ज़रूरी है कि गिरवीकर्ता को माल रखने का कानूनी अधिकार या हकदारी प्राप्त हो।
एजेंट ऐसा व्यक्ति होता है जिसे कोई कार्य करने अथवा किसी तीसरे व्यक्ति से बातचीत करने में किसी और का प्रतिनिधित्व करने के लिए नियोजित किया जाता है। जो व्यक्ति एजेंट को नियोजित करता है और जिसके लिए कार्य किया जाता है या जिसका प्रतिनिधित्व किया जाता है, ''प्रमुख'' कहलाता है। एजेंट और प्रमुख के बीच के संबंध में ''एजेंसी'' कहा जाता है। केवल तभी जब कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के प्रतिनिधि के रूप में एव तीसरे व्यक्ति के बीच संविदात्मक दायित्वों के सृजन, संशोधन या समापन के लिए इसी क्रम में कार्य करता है तब वह एजेंट कहलाता है। एजेंसी कीसंविदा का सार-तत्त्व है एजेंट की प्रतिनिधि-क्षमता जिसके साथ ''प्रमुख'' की तीसरे व्यक्ति के साथ कानूनी संबंधों को प्रभावित करने की शक्ति भी शामिल है।
एजेंसी की संविदा दो महत्वपूर्ण सिद्धांतों पर आधारित है:-
व्यक्ति जो कुछ व्यक्तिगत तौर पर कर सकता है, उसे एजेंट के ज़रिए किए जाने की भी अनुमति दी जानी चाहिए सिवाय वैयक्तिक सेवाओं वाली संविदाओं के मामलों के छोड़कर जैसे चित्रकारी, विवाह, गायन इत्यादि
जो व्यक्ति विधिवत प्राधिकृत एजेंट के माध्यम से कोई कार्य करता है, वह कार्य वह स्वयं करता है अर्थात एजेंट के कार्य ''प्रमुख'' के कार्य समझे जाते हैं।
स्रोत: फेमा, भारत की औद्योगिक नीति, भारत का कंपनी अधिनियम, श्रम व कल्याण विभाग, व्यापार पोर्टल, भारत सरकार
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