प्रारंभ से ही मानवशास्त्रियों का झुकाव आदिम समाज के अध्ययन की ओर रहा है। जनजातियां आदिम समाज का सटीक उदाहारण मानी जाती है। ये दोनों जनजाति एवं आदिम जाती पर्यायवाची शब्द बन गए हैं। विश्व के अनेक भागों में रहने वाले उन समुदायों को जनजाति कहा जाने लगा जो सांस्कृतिक दृष्टिकोण से तत्कालीन यूरोपियन समाजों की तुलना में अत्यंत पिछड़े हुए थे। प्रश्न उठाया जाता है। कि वे कौन सी विशेषताएँ थी जो यूरोपियन समाजों से अलग – थलग थी और जिसके कारण मानव समाज के इस विशिष्ट भाग के लिए जनजाति या आदिम शब्दावली का प्रयोग उचित माना गया है। यह उल्लेखनीय है की जनजातियों की विशेषताओं को निश्चित तौर पर कभी भी स्पष्ट नहीं किया जा सका है। अपने अध्ययनों के आधार पर जिसमें जो भी विशेषताएँ गैर यूरोपियन समाजों में पायी, उन्हें ही जनजाति की विशेषताएँ कहा। यही कारण है कि मानव विज्ञान की सामान्य पुस्तकों में विशेषताओं का रूप भी बदलता रहा।
भारत में जनजातियों को अनेक नाम दिए गये हैं। कुछ लोग उन्हें वन्य जातियां अर्थात वनों में रहने वाली जातियां कहते हैं। भारत सरकार ने इनको अनुसूचित जनजातियाँ कहा है। क्योंकि इन्हें पिछड़े वर्ग की एक विशेष अनुसूची में रखा गया है तथा उनके लिए कुछ विशेष अधिकार स्वीकृत किए गये हैं। ऐसी, एलविन, रिजले ठक्कर वापा ने इनको आदिम जातियां कहा है। आदिवासी शब्द को प्रारंभ में ईसाई धर्म प्रचारकों ने भारत की कुछ जनजातियों के लिए प्रयोग किया। यह अंग्रेजी के एविरिजिनस शब्द का पर्याय है। आदिवासी का शाब्दिक अर्थ है आदिकाल से देश में रहने वाली जातियां। अत: भारत में रहने वाली किसी भी जाति के लिए इस शब्द का प्रयोग ठीक नहीं है क्योंकि इनमें से लगभग सभी वर्तमान जनजातियाँ भारत में बाहर से आयी मानी जाती है आजकल जनजातियों के कुछ राजनीतिक नेताओं ने आदिवासी शब्द को अपना लिया है। भारत सरकार द्वारा प्रकाशित ‘आजकल’ नामक मासिक पत्रिका के एक विशेषांक का नाम भी आदिवासी अंक था। डॉ. धुरिय ने इस शब्द को व्यावहारिक तथा वैज्ञानिक दोनों दृष्टि से अनुपयुक्त माना है। वे इन्हें पिछड़े हुए हिन्दू कहते हैं। वास्तव में इस शब्द की आड़ लेकर कुछ लोग अपने जाति को भारत का आदिवासी बताकर विशेषाधिकारों की मांग करते हैं। समाजशास्त्रीय दृष्टि से इनको जनजातियाँ कहना ही अधिक उपयुक्त है।
मानव विज्ञान की एक प्रमाणिक पुस्तक नोट्स एंड क्वैरिज इन एन्थ्रोपोलॉजी जिसे यूरोप के एक मानवशास्त्रीय संस्था ने इस शताब्दी के मध्य में तैयार किया था के अनुसार ‘जनजाति एक ऐसा समुदाय है जो राजनितिक या सामाजिकता के आधार पर स्वायत है और किसी एक भू – भाग में निवास करता है या उस भू – भाग का निवासी होने का दावा करता है। इसमें दो विशेषताओं का जिक्र है विशेष भू – भाग और राजनीतिक या सामाजिक स्वायत्ता।
एडम्सन हॉवेल ने अपनीं चर्चित पाठ्यपुस्तक में जनजाति की परिभाषा करते समय राजनीति को आवश्यक आधार नहीं माना है। इनके अनुसार जनजाति वह समुदाय है जिसके सदस्य विशिष्ट भाषा बोलते हो, विशिष्ट संस्कृति के पोषक हों तथा अपने को अन्य समुदाय से पृथक मानते हों। राल्फ पिडीगटन ने भी जनजाति के लिए राजनीतिक विशिष्टता अनिवार्य नहीं माना है। जनजाति की परिभाषा में समाज विशेष की विशिष्टाओं में सीमित क्षेत्र, भाषा, संस्कृति, राजनीतिक और आर्थिक स्वायत्तता, विशेष प्रकार की विश्वास पद्धति, पृथकता जैसे तत्व सम्मिलित हैं।
भारत के संदर्भ में जनजाति की परिभाषाओं में एक से अधिक लोकप्रिय संबोधन शब्द प्रचलित रहे हैं तथा आदिवासी, वन्य जाति, पर्वतवासी, वनवासी, आदिमजाति, जनजाति आदि – आदि।
पाश्चात्य भारतीय मावन शास्त्री स्वर्गीय डी. एन. मजुमदार ने भारतीय परिवेश में जनजाति की परिभाषा दी हैं – कोई भी जनजाति परिवारों तथा पारिवारिक वर्गों का एक ऐसा समूह है जिनका यह सामान्य नाम है, जिनके सदस्य एक निश्चित भू – भाग पर निवास करते हैं, और एक सामान्य भाषा का प्रयोग करते हैं तथा विवाह, पेशा संबंधित कुछ विशेषताओं का पालन करते हैं, जिन्होंने एक आदान – प्रदान संबंधी पारस्परिक कर्तव्य विषयक एक निश्चित व्यवस्था का विकास कर लिया है। साधारणत: जनजाति अन्तर्विवाह नियमों का समर्थन करती है।
भारतीय जनजातियों का भौगोलिक वितरण
1981 की जनगणना के अनुसार जनजातियों की संख्या 5.32 करोड़ है जो भारत की पूरी आबादी का 7.76 प्रतिशत है। एक आंकड़े के अनुसार देश में लगभग 225 विभिन्न जनजातीय समूह हैं। यदि प्रत्येक राज्य और संघ संरक्षित क्षेत्रों में घोषित समूहों को अलग – अलग जनजाति माना जाए तो संपूर्ण देश में 1981 की जनगणना के अनुसार 566 जनजातियाँ हैं। चूंकि कई एक क्षेत्रों की जनजातियों के नाम एक हैं और केवल नाम के आधार पर वर्गीकरण किया जाए तो देश में 225 जनजाति समूहों में संस्थापित है।
1. हिमालय क्षेत्र (उत्तर प्रदेश, मणिपुर, त्रिपुरा, अरूणाचल, असम, मेघालय, नागालैंड एवं मिजोरम)
2. मध्य भारत क्षेत्र (पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा, मध्यप्रदेश)
3. पश्चिम भारत का क्षेत्र (राजस्थान, महाराष्ट्र, गोवा, दमन तथा दादर हवेली)
4. तटवर्ती द्वीप समूहों के साथ दक्षिणी भारत का क्षेत्र (आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, अंडमान व निकोवर द्वीप समूह तथा लक्षद्वीप)
1. कॉकशायड (प्रोटो अस्ट्रेलायड) मध्य भारत की जनजातियाँ)
2. मंगोलियाड (उत्तरी पूर्वी क्षेत्र)
3. नीगोयाड (दक्षिण भारत की जनजातियाँ)
1. आस्ट्रिक
2. द्राविड़
3. तिब्बती वर्गी (उत्तरी पूर्वी भारत)
1. जगंलों में शिकार करने वाली जनजातियाँ
2. पहाड़ी कृषि करने वाली जनजातियाँ
3. समतल भूमि पर कृषि करने वाली जनजातियाँ
4. सरल कारीगर जनजातियाँ (असुर लोहे का कार्य)
5. पशुपालन करने वाली जनजातियाँ
6. लोककलाकार जनजातियाँ
7. कृषि व गैर कृषि श्रामिक जनजातियाँ
8. नौकरी और व्यापार में लगी जनजातियाँ
1. हिन्दू धर्मावलम्बी
2. ईसाई धर्मावलम्बी
3. बौद्ध धर्मावलम्बी
4. इस्लाम धर्मावलम्बी
5. जैन धर्मावलम्बी
6. अन्य जनजातीय धर्मावलम्बी।
जनजातीय जनसंख्या की दृष्टि से बिहार राज्य का स्थान भारत में तीसरा है। 1981 की जनगणना के अनुसार बिहार राज्य में जनजातियों की संख्या 58,10,867 है जो बिहार की कुल जनसंख्या का 8.31 प्रतिशत है। बिहार की करीब 93 प्रतिशत जनजातियाँ ग्रामीण क्षेत्रों में तथा 7 प्रतिशत शहरी क्षेत्रों में निवास करती है। भारत सरकार गृह मंत्रालय की अधिसूचना संख्या एस. आर. ओ. 2477 ए, दिनांक 29. 10. 1956 जो भारत के संविधान की धारा 342 (1) के तहत निर्गत है, के अनुसार बिहार राज्य में 30 अनुसूचित जनजातियाँ है, जिसमें 8 आदिम जनजातियाँ है।
बिहार की अनुसूचित जनजातियों की संख्या (1981 जनगणना)
क्र.सं |
नाम |
पुरूष |
महिला |
योग |
प्रतिशत |
जिला/जहाँ अधिक है। |
1. |
संथाल |
1039248 |
1021482 |
2060730 |
35547 |
संथाल परगना |
2. |
उराँव |
523524 |
530542 |
1054066 |
18.98 |
पलामू, रांची |
3. |
मुंडा |
432148 |
423709 |
855887 |
14.56 |
राँची |
4. |
हो |
264852 |
271671 |
536523 |
9.23 |
सिंहभूम |
5. |
खरवार |
1133473 |
109282 |
222758 |
3.83 |
पलामू, रोहतास |
6. |
खड़िया |
69171 |
72600 |
141771 |
2.44 |
राँची |
7. |
भूमिज |
68353 |
67756 |
136109 |
2.35 |
सिंहभूम |
8. |
लोहरा |
86159 |
82930 |
169089 |
2.91 |
रांची |
9. |
महली |
46701 |
45167 |
91868 |
1.59 |
रांची |
10. |
सौरिया पहाड़िया |
19835 |
19434 |
39269 |
0.69 |
संथाल परगना |
11. |
गोंडा |
48711 |
47863 |
96574 |
1.66 |
सिंहभूम |
12. |
मालपहाड़िया |
39810 |
39512 |
79322 |
1.37 |
संथालपरगना |
13. |
वेदिया |
30336 |
30110 |
60445 |
1.04 |
सिंहभूम |
14. |
चेरो |
26818 |
25392 |
52210 |
0.90 |
पलामू, रोहतास |
15. |
चीकबड़ाईक |
20144 |
20195 |
40339 |
0.69 |
रांची, पलामू |
16. |
करमाली |
19704 |
18945 |
38651 |
0.66 |
हजारीबाग |
17. |
कोरा |
17138 |
16814 |
33940 |
0.58 |
संथालपरगना |
18. |
कोरवा |
10997 |
10943 |
21940 |
0.38 |
पलामू |
19. |
किसान |
11804 |
11616 |
23420 |
0.40 |
पलामू |
20. |
परहहिया |
12250 |
11762 |
24012 |
0.41 |
पलामू |
21. |
विझिया |
5001 |
5008 |
10009 |
0.17 |
संथालपरगना |
22. |
असुर |
3912 |
3871 |
7783 |
0.13 |
रांची, पालमू |
23. |
विरजिया |
2041 |
2017 |
4057 |
0.07 |
रांची |
24. |
सवर |
1495 |
1519 |
3014 |
0.05 |
सिंहभूम |
25. |
विरहोर |
2254 |
2123 |
4377 |
0.07 |
हजारीबाग |
26. |
भोगइत |
2671 |
2535 |
5206 |
0.09 |
रांची |
27. |
बैगा |
1794 |
1757 |
3551 |
0.07 |
पलामू |
28. |
वथूडी |
828 |
767 |
1595 |
0.03 |
सिंहभूम |
29. |
खोंद |
625 |
639 |
1264 |
0.02 |
हजारीबाग |
30. |
बंजारा |
222 |
189 |
411 |
0.04 |
संथालपरगना |
बिहार की अनुसूचित जनजातियों को प्रमुख तथा अल्पसंख्यक आदिमजाति दो श्रेणियों में रखा गया है। अल्पसंख्यक आदिम जातियों का आर्थिक व्यवस्था प्रांरभिक स्तर का होता है तथा उनमें शिक्षा का स्तर निम्न होता है जबकि प्रमुख जनजातियों की आबादी अपेक्षाकृत विकसित होती है।
बिहार में निम्नलिखित 8 अल्पसंख्यक आदिम जातियां हैं।
क्र. सं |
नाम |
कुल जनसंख्या |
प्रतिशत कुल जनजातियों |
1. |
असुर |
7783 |
0.13 तदैव |
2. |
विरहोर |
4377 |
0.07 तदैव |
3. |
विरजिया |
4057 |
0.07 तदैव |
4. |
कोरवा |
21940 |
0.38 तदैव |
5. |
परहिया |
24012 |
0.41 तदैव |
6. |
सौरिया पहाड़िया |
39269 |
0.69 तदैव |
7. |
माल पहाड़िया |
79322 |
1.37 तदैव |
8. |
सवर |
3014 |
0.05 तदैव |
1971 जनगणना के अनुसार माल पहाड़िया 48636 थे जो 1981 जनगणना में अप्रत्याशित रूप से बढ़कर 79322 दर्शाया गया और सौरिया पहाड़िया 59047 से घटकर 39269 हो गया। यह गणना की खामियों के कारण हुआ है।
स्वतंत्रता के बाद भारत की जनजाति जनसंख्या के प्रति लोगों की रुचि बहुत बढ़ गई है। उदाहरणार्थ भारतीय जनजातियों का पुनर्वास, कल्याण, रक्षा आदि से संबंधित बातें अक्सर गोष्ठियों और प्रतिवेदनों में सुनी और पढ़ी जाती है, कुछ विद्ववादी रूमानी रखने वाले जो विभिन्नता में एकरूपता लाने की कोशिश करते हैं कि जनजातियों का जीवन का चिर संगीत का धुन और नृत्य की लय है। वे इनके सीधे - सादे लोगों के साथ उल्लास अनुभव करते हैं क्योंकि स्वयं उनमें यायावर की मस्ती छायी रहती है। जनजाति लोगों का सर्वदा से चतुर तथा आर्थिक दृष्टि से शक्तिशाली समूहों द्वारा शोषण हुआ है। परंतु भारत में करोड़ों की संख्या में हमारे ग्रामीण भी है, जो अज्ञानता, गरीबी तथा उपेक्षा के कारण इन जनजातियों के सदृश्य है। परंतु इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता है कि जनजातीय समस्या ग्रामीण तथा शहरी समस्या से कहीं अधिक कठिन, जटिल तथा भिन्न है क्योंकि जनजातियाँ भिन्न भाषा बोलती है, दूर पहाड़ों और जंगलों में रहती है। प्राचीन विचार तथा सोच पर विश्वास एवं श्रद्धा रखती है तथा विभिन्न सांस्कृतिक तथा आर्थिक स्तरों से गुजरती हैं। इधर कुछ वर्षों में संपूर्ण जनजातीय जनसंख्या बाहरी प्रभावों एवं प्रवृतियों से प्रभावित हुई है। इन पर सांस्कृतिक, आर्थिक एवं धार्मिक प्रभाव काफी पड़ा है। उदाहरणार्थ छोटानागपुर के मुंडा तथा उराँव बड़ी संख्या में ईसाई बन गए हैं। ईसाई आदिवासी एक आधुनिक व्यक्ति है जो अपने विगत जीवन से भिन्न विद्यालयों तथा कॉलेजों में जाते हैं तथा इच्छानुसार पेशा ग्रहण करते हैं। ये विधि चिकित्सा, शिक्षण तथा असैनिक सेवा आदि में हैं ऐसा शिक्षित समूह अनुमानत: अधिक नहीं है।
भारतीय तथा बिहार की जनजातियाँ वनों और पर्वतों में प्रस्थान कर गयी क्योंकि किसानों के संपर्क में आने पर जब उन्होंने देखा होगा कि उनके पास इसके अलावा कोई दूसरा मार्ग नहीं रहा। प्रो. निर्मल कुमार बसु के अनुसार जंगल के कुछ भाग में वृक्ष आदि काट कर वहां पर आग जलाकर और खोदने की लकड़ी की सहायता से जली हुई भूमि में बीज बोकर खेती करने से प्रति वर्गमील भूमि के उत्पादन में 20 से 30 व्यक्ति तक का निर्वाह इस स्थिति में हो सकता है जबकि ये लोग जंगल में थोड़ा बहुत कंद – मूल, फल और शिकार से मांस भी प्राप्त कर सके।
जनजातियों के प्रति ब्रिटिश राजनीति इस प्रकार प्रारंभ हुई जो कालान्तर में जनजातीय क्षेत्रों के पृथक्करण को शिक्षा और चिकित्सा की सुविधा देकर उन्हेअपने पड़ोसी गैर जनजातियों से अलग रखकर सरकार की नीति को और दृढ़ कर दिया। जनजातियों की स्वत्रंत भावना और आन्दोलन के प्रति जब भारतीय स्वतंत्रता खतरे में थी, सरकार ने जनजातीय समुदायों की वश में रखने के लिए कुछ पुरातन कूटनीति अपनाई। उदाहरणार्थ क्रिमिनल ट्राइबल्स एक्ट द्वारा पेनल कोड की साधारण सजा में वृद्धि की गई। राष्ट्रीय सरकार द्वारा इस कानून को खंडित किया गया और इस प्रकार कानून के समक्ष भारतीय जनजातियों को कई अलगाव वर्ताव नहीं किया गया।
विधान की सभी धाराएँ विशेष महत्वपूर्ण है। खास कर जनजातियों के लिए जिन्हें हाल तक धर्म, जाति तथा जन्म स्थान के आधार पर अलग किया जाता था। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 के द्वारा भाषण, अभिव्यक्ति, निवास स्थान, संपति का अर्जन एवं विक्रय, व्यवसाय संघ और भ्रमण की स्वतंत्रता प्रदान की गई है।
अनुच्छेद 25 – 28 के अनुसार स्वतंत्रता एवं धर्म का अधिकार प्रदान करता है। अनुच्छेद 29 के द्वारा अल्पसंख्यकों के संस्कृतिक एवं शैक्षणिक अधिकार की रक्षा होता है। यह उपबन्ध जनजातियों के लिए खास अर्थ रखता है। क्योंकि ये देश की महत्वपूर्ण अल्पसंख्यक जाति है।
संविधान के चतुर्थ भाग अनुच्छेद 46 के द्वारा राज्य समाज के पिछड़े हुए लोगों को शैक्षणिक एवं आर्थिक मामलों में बढ़ावा देगा और विशेषकर अनुसूचित जाति एवं जनजातियों की सामाजिक अन्याय एवं सभी तरह की शोषण से रक्षा करेगा।
अनुच्छेद 164 के द्वारा बिहार, मध्यप्रदेश एवं उड़ीसा राज्यों में जनजातीय कल्याण के लिए मंत्रीमंडल की स्थापना की गूंजाइश है।
अनुच्छेद 275 भाग 9 में अनुसूचित जनजातियों के हित और प्रशासन में अच्छी प्रगति के लिए केंद्रीय सरकार द्वारा राज्य सरकार को खास पूँजी देने की गूंजाइश है।
अनुच्छेद 325 भाग 15 के अनुसार किसी भी नागरिक को धर्म, जाति, वर्ण या लिंग के आधार पर मतदान के अधिकार से वंचित किया जायेगा।
अनुच्छेद 330 एवं 332 भाग 16 के द्वारा अनुसूचित जाति या जनजातियों के लिए लोक सभा एवं राज्य की विधानसभाओं के सुरक्षित स्थान की व्यवस्था की गई है। संविधान के अनुसार इस ढंग की सुविधा संविधान के लागू होने के दिन से दस वर्षों तक की रहेगी। पर सरकार फिर से अगले 10 वर्षों तक के लिए बढ़ा सकती है, इसका प्रावधान भी है।
अनुच्छेद 335 द्वारा यह आश्वसन किया है कि अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों को नौकरी में विशेष सुविधा प्रदान होगी।
अनुच्छेद 338 द्वारा अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए राष्ट्रपति द्वारा एक विशेष पदाधिकारी की नियुक्ति होगी। इस ढंग की नियुक्ति की गई और वर्तमान समय में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के पद पर पदस्थापन का प्रावधान है।
अनुच्छेद 339 के द्वारा राष्ट्रपति को यह अधिकारी दिया गया है कि संविधान के लागू होने के 10 वर्षो बाद से अनुसूचित क्षेत्रों के विशेष प्रबंध एवं अनुसूचित जनजातियों के कल्याण के संबंध में प्रतिवेदन मांगे। यह प्रतिवेदन दस वर्ष के पूर्व भी मांगे जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त केंद्रीय सरकार को यह अधिकार है कि वह अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन के संबंध में राज्य सरकार को निर्देश दें।
अनुच्छेद 340 के द्वारा राष्ट्रपति को यह शक्ति दी गई है कि वह एक आयोग नियुक्त करें, जो सामान्यता पिछड़ी जातियों की स्थितियों का अनुसन्धान करे और उनके विकास के लिए राय दे।
अनुच्छेद 342 द्वारा राष्ट्रपति को यह अधिकार है कि वह इस राज्य के राज्यपाल से विचार विमर्श करने के पश्चात् अनुसूचित जातियों, जनजातीय समुदाय को विशेष श्रेणी में रखे।
अनुच्छेद 344 (1) की पांचवीं अनुसूची के अनुसार एक राज्यपाल को अनुसूचित जनजातियों और अनुसूचित क्षेत्रों का प्रतिवेदन जब माँगा जाय, देना पड़ता है और राष्ट्रपति द्वारा उन्हें वैसे क्षेत्रों और समुदाय के शासन के संबंध में मार्ग दर्शाया जाता है।
इस धारा में अनुसूचित जनजातीय सलाहकार परिषद की नियुक्ति की व्यवस्था करती है जिससे 20 अधिक सदस्य न होंगे तथा जिनका तीन चौथाई सदस्य या उसके लगभग राज्य विधान सभाओं में अनुसूचित जनजातियों के प्रतिनिधि सदस्य होंगे।
उपयुक्त विधान के अनुच्छेदों के देखते हुए यह स्पष्ट है कि देश में जनजातीय समुदायों को वैधानिक सुरक्षा है और भारत के वर्तमान इतिहास में प्रथम बार जनजातीय समुदायों के लिए उनके सामाजिक, संस्कृतिक और बहुत दूर तक राजनीतिक स्वतंत्रता की यह विधान सुरक्षा देती है। उनको अन्य लोगों से अलग रखने का या उनके सामान्य प्रवृतियों के विरूद्ध सामाजिक प्रथा लगाने का प्रश्न नहीं उठता। ब्रिटिश नीति शायद इनकी विभाजन और शासन के लिए सर्वोच्च थी। इससे जनजातीय एवं अन्य जातियों की सामाजिक दूरी बढ़ती गयी। इसके फलस्वरूप जनजातियों ने अन्य जातियों को दिकू समझा और अन्य जातियों ने जनजातियों को अपराधी समझा।
प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ठीक इंगित किया है कि हमें जनजातियों के पास प्रेम तथा मित्रता की भावना के साथ जाना चाहिए और उन्हें स्वतंत्र बनाने में सहायक होना चाहिए। हमारा यह कर्तव्य है कि जब हम उनके पास जाएँ तो वे यही महसूस करें की हम उनको कुछ देने के लिए ही आयें है, उनसे छिनने के लिए नहीं। भारत में इसी प्रकार के मनोवैज्ञानिक एकीकरण की आवश्यकता है।
इतिहास
असुर की उत्पति के संबंध में वर्णन ऋग्वेद, उपनिषद आदि में बहुतों स्थान पर आता है। असुर शब्द का अर्थ जंगल के शक्तिशाली व्यक्ति से है। बिहार के असुर वीर असुर हैं। वीर असुरी भाषा में जंगल होता है। वीर असुर कब तथा क्यों कहलाये, इसका भी पता नहीं है। बिहार की जनजाति नाम जंगल से लिया गया है। बनर्जी शास्त्री के अनुसार में असुर वह शक्ति था जो वैदिक से आर्यन प्रभू शक्ति प्राप्त था। वरूण द्वारा असुरों को साम्राज्य दिए जाने की चर्चा है। आर्य असुरों के बीच बहुत दिनों तक लड़ाई हुई। जो असुर आर्य होने से अस्वीकार किए, उन्हें राक्षस कहा गया। आर्यों के समय ये शक्तिशाली थी। मजुमदार (1925) एवं बनर्जी शास्त्री बताते हैं कि ये अलिरियन शहर में थे जो मिस्र तथा बैबीलोन की सभ्यता अपनाये और इसे ईरान तथा भारत में लाये। 12 वी. सी. में असुर सर्वश्रेष्ठ थे। ये मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा सभ्यता को स्थापित किए। असर लंबे तथा हर्कूलियन शक्ति के होते हैं। रामायण में भी कोल का जिक्र आया है। ये कोल असुर ही थे। सनकरिया के अनुसार (1971) रामायण लौह युग का है। लंका सिलोन का आईजलैंड नहीं था। इनके अनुसार रामायण का लंका छोटानागपुर पहाड़ी पर ही कहीं था तथा इस पहाड़ी के आदिवासी ही वानर तथा राक्षस थे। इनके अनुसार रामायण की कहानी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, तथा बिहार पहाड़ियों का है। इसके लिए इन्होंने बहुत से खुदाइयों का जिक्र किया है। मुंडाओं के द्वारा असुर भगाए गए और नये सुरमुगा, उदयपुर, कोरिया, उत्तर विलासपुर तथा छोटानागपुर के पहाड़ी के पुराने वसिन्दा थे जिसे मुंडा लोग खदेड़ दिए और अब वे घने जंगल में चले गये। इस प्रकार असुर की विकसति सभ्यता थी। ये बहुत बहादुर थे परंतु आर्य लोग एवं मुंडा लोगों द्वारा हराए गये तथा भगाए गए।
बिहार की तीस जनजातियों में असुर एक बहुत पुरानी जनजाति है। साथ ही राज्य के आठ अल्पसंख्यक आदिम जनजातियों में एक है। आदिम जनजातियों में ढेवर कमिशन, शीलू आवदल एवं अनुसूचित जनजाति कमीशन द्वारा अलग – अलग जनजातियों का पहचान किया गया था, जो निम्न प्रकार थी –
ढेवर कमिशन |
शीलू आवदल |
अनुसूचित जनजाति कमिशन |
1. असुर 2. विरहोर 3. खड़िया 4. कोरवा 5. माल पहाड़िया 6. सौरिया पहाड़िया 7. सावर |
1. असुर 2. कोरवा 3. लोहरा 4. विरजिया 5. चिक बड़ाईक 6. महली 7. परहिया |
1. असुर 2. खड़िया 3. कोरवा 4. माल पहाड़िया 5. सौरिय पहाड़िया 6. सावर 7. लोहरा 8. विरजिया 9. चिक बड़ाईक 10. महली 11. परहिया 12. किसान 13. वैगा
|
परंतु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सरकार बिहार में 8 ( असुर, विरहोर, विरजिया, कोरवा, माल पहाड़िया, सौरिया पहाड़िया, परहिया तथा सावर) जनजातियों को अल्पसंख्यक आदिम जनजातियों के रूप में पहचान कर उसकी मान्यता दी है। इस प्रकार पाते हैं कि सभी कमीशन एवं दलों में असुर जनजाति की पहचान अल्पसंख्यक आदिम जनजाति के रूप में हुआ है। असुर अपने अस्तित्व के लिए सदा से संघर्ष करते रहे हैं। खासकर भोजन, आवास एवं सामग्री की खोज के लिए। रिजले का कहना है कि असुर सबसे पहले अवस्थित होने वाली जनजाति है जिसे मुंडा जनजाति द्वारा घोर जंगल में खदेड़ दिया गया। ये जंगल के बीच पहाड़ियों की चोटियों पर एकांत में चले गये, जहाँ आने – जाने का कोई भी साधन नहीं था। ये प्रथम मिट्टी को उर्वरक बनाने वाले अर्थात जमीन को पैदावार उगाने लायक बनाने वाले में थे। इनको अपने अगल – बगल की प्रकृति से गहरा तथा भावनात्मक लगाव है। इनके देवता (बोंगा) जंगल में रहते हैं जो इनके बच्चे तथा पूर्वजों की आत्माओं, जो सरना में रहते हैं, पर दयावान होते हैं, इनके पैदावार की रक्षा करते हैं। प्रकृति की गोद में ये जीवन का सूख लेते हैं तथा आनन्दित रहते हैं।
असुर जनजाति की तीन उपजातियां हैं जिनके नाम – वीर असुर, विरजिया, असुर तथा अगशिया असुर है। वीर उपजाति का भी विभिन्न नाम है, जैसे – सोल्का, थूथरा, कोल, जाट आदि। विरजिया एक अलग अल्पसंख्यक जनजाति के रूप में पहचाना गया है। अगड़िया मध्यप्रदेश में निवास करते हैं। बिहार में निवास करने वाले असुर वीर असुर उपजाति हैं। बिहार राज्य में असुर छोटानागपुर के नेतरहाट के पाट क्षेत्र में, पलामू, गुमला, लोहरदगा, सिंहभूम तथा धनबाद में रहते हैं। पाट क्षेत्र पहाड़ी की चोटी पर उबड़ – खाबड़, ऊँचा - नीचा होता है। छोटानागपुर के इस पहाड़ी भाग की ऊँचाई समुद्र तल से 3600 फीथई और करीब 484 वर्गमील में फैली हुई है। इस पहाड़ी का पत्थर लेटेराइट चट्टान का है। इन पत्थरों से असुर लोहा निकालने का कार्य करते हैं।
असुर जनजाति की संख्या बिहार में घटती – बढ़ती रही है। 1871 से आज तक की जनसंख्या को देखने से इसमें वृद्धि एवं ह्रास की स्थिति जानी जा सकती है।
वर्ष |
जनसंख्या |
वृद्धि अथवा ह्रास |
1871 |
1578 |
- |
1881 |
1204 |
(-) 374 |
1891 |
2303 |
(+) 1099 |
1901 |
2784 |
(+) 481 |
1911 |
3716 |
(+) 932 |
1921 |
2245 |
(-) 1471 |
1931 |
2024 |
(-) 221 |
1941 |
4388 |
(+) 2364 |
1951 |
- |
- |
1961 |
5819 |
- |
1971 |
7026 |
(+) 1207 |
1981 |
7783 |
(+) 757 |
जनसंख्या में वृद्धि तथा ह्रास में एक रूपता नहीं है। ऐसा जनगणना की गड़बड़ी से हुआ है। असुर जनजाति को जंगलों में कार्य का अच्छा अनुभव था। अतएव जलपाईगुड़ी, सिक्किम, भूटान, असम तथा अंडमान आइलैंड में चायबागानों में इन्हें काम मिला।
वर्ष 1921 के बाद ही 1931 तक में ये कार्य हेतु इन जगहों में गए, फलस्वरूप इन वर्षों में इनकी जनसंख्या में ह्रास हुआ। पुन: वर्ष 1931 के बाद इन बागानों से इनका पलायन होना शुरू हुआ। अतएव 1941 की जनगणना में इनमें अप्रत्याशित वृद्धि दर्ज हुआ है।
बिहार के प्रखंडों में 1971 की जनगणना के अनुसार असुर जनजाति की आबादी
गुमला अनुमंडल जो अब जिला है |
|
गुमला |
1 |
चैनपुर |
1388 |
विशुनपुर |
1719 |
घाघरा |
1049 |
डुमरी |
277 |
रायडीह |
3 |
कुल |
4437 |
पलामू जिला लातेहार अनुमंडल में |
|
लातेहार |
198 |
महुआटांड़ |
61 |
चंदवा |
131 |
बालुमाथ |
22 |
अन्य जगह |
3 |
कुल |
415 |
लोहरदगा अनुमंडल जो अब जिला है |
|
किस्को |
1460 |
सेन्हा |
665 |
अन्य जगह |
6 |
कुल |
2131 |
सिंहभूम |
20 |
धनबाद जिला |
16 |
अन्यत्र |
7 |
कुल |
43 |
कुल – 4437 + 415 + 2131 + 43 = 7026
असुर जनजाति का मत है कि बच्चे भगवान का प्रसाद यानि देव है। जब कोई औरत भगवान को खुश नहीं करती तो उसे बच्चे नहीं होते तथा बाँझ औरतों का असुर समाज में प्रतिष्ठा कम हो जाती है। बाँझ औरतों को तलाक दिया जाता है अथवा उसका पति दूसरी औरत से दूसरी शादी करता है। यह इनके परंपरागत नियम के अनुसार होता है। ये जानते है कि बच्चा नौ माह पर होता है परन्तु ये समय का अंकन नहीं कर सकते है। पुरानी तथा बूढ़ी औरतें, औरतों के पेट के आकार को देख कर गर्भ का निर्धारण करती है। जब बच्चा जनने वक्त पेट दर्द शुरू होता है इस समय उस औरत को एक कमरे में रखा जाता है। इस कमरे को सउरी गृह कहते है। बच्चा के जन्म के बाद चमइन द्वारा नाल काटा जाता है। नाल छूरी अथवा हसूआ से काटा जाता है। जब चमइन उपलब्ध नहीं होती है तो असुर जाति बूढ़ी औरतें नाल काटती है और इन्हीं की देख - रेख में बच्चा होता है। नाल काटने के बाद बाहर ले जाकर आग में जला दिया जाता है। जिस घर में बच्चा जन्म लेता है उस घर में 5 – 6 दिनों तक पौलुशन मनाया जाता है। असुर जनजाति पहले लड़की का जन्म मानते हैं। उनका मानना है - कि पहला पुत्र जन्म लेने से माता - पिता पुत्र की शादी नहीं देख पाते अर्थात माता – पिता अल्पायु होते हैं। पुत्री जन्म प्रथम जन्म समृद्धि का सूचक मानते हैं, इससे माता – पिता दीर्घायु होते हैं।
असुर संयूक्त परिवार में रहते हैं। कहीं – कहीं नकलियर परिवार भी हैं। असुर अपने गोत्र में शादी नहीं करते। जब ये अपने गोत्र को भूल जाते हैं तब वे शादी नातेदारी के आधार पर निश्चित करते हैं। खून के संबंध वालों के साथ भी शादी वर्जित है। जीवन की सफलता के लिए शादी आवश्यक समझते हैं। अभिभावक शादी निश्चित करते हैं। दुल्हन की कीमत देने की प्रथा असुरों में है। यह 5 से 7 रूपये होता है, इसके अतिरिक्त लड़की, लड़की की माँ तथा लड़की के भाई के लिए कपड़े भी देना पड़ता है। दोनों पक्ष को पाने संबंधियों को भोज देना पड़ता है। इसे ये बहुत खर्चे में पड़ जातें तथा कभी – ऋण के चंगुल में फंस जाते हैं। शादी के रश्म पूरा किए बिना भी कुछ असुर पति – पत्नी की तरह रहते हैं। जब ये अपने बच्चे तथा बच्चियों की शादी करते हैं तब ऐसे अभिभावक अपनी शादी का भी रश्म पूरा करते हैं। यह असुरों की प्रचलित रीति है। असुर एक से अधिक पत्नी रख सकते हैं जब पहली पत्नी बाँझ हो। असुर अपने बड़े भाई की पत्नी से शादी करते हैं जब बड़ा भाई मर जाता है। ये अपनी पत्नी की छोटी बहन से भी शादी रचाते हैं। असुर महिलाऐं पति की मृत्यु के बाद दूसरी शादी करती हैं। शादी हमेशा परिवार प्रधान द्वारा निश्चित की जाती है। लेकिन कभी – कभी भाग कर भी लड़के – लड़कियां शादी कर लेते हैं। असुर में सेवा शादी, भगा कर शादी, जबरदस्ती शादी, गोलट शादी की भी पद्धति देखने को मिलती है। असुर परिवार में औरतों को प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त है। असुर अपने जाति बिरादरी के बाहर शादी नहीं करते हैं। जबकि इनके बच्चे - बच्चियों समाज के आखड़ा तथा धूमकुड़िया में सभी तरह की स्वतंत्रता रहती है। विभिन्न यात्राओं में भी इन्हें सभी तरह की स्वतंत्रता रहती है। विभिन्न यात्राओं में भी इन्हें सभी तरह की स्वतंत्रता रहती है। असुरों की शादी शुदा जीवन बहुत स्थायी होता है। इनमें तालाक बहुत कम होता है। यदि कोई अविवाहित असुर बालिका गर्भवती हो जाती है तो इनके पंचायत उस व्यक्ति का नाम बताने के लिए कहता है जिससे गर्भ ठहरा है। यदि वह व्यक्ति दुसरे गोत्र का हुआ तो उससे दंड लेकर उस लड़की से शादी को कहा जाता है। यदि वह दंड देने के बाद उस लड़की से शादी के लिए तैयार नहीं होता तो असुर समाज दुसरे लड़के को संशय नाश कर शादी के लिए तैयार करा कर शादी कराते है। यदि दोनों एक ही गोत्र के हुए तो उन पर भी यह नियम लागू होता है।
असुर जनजाति में मृत्यु, बाँझ रहने, छोड़े जाने पर लड़की के अभिभावक को दुल्हन की कीमत लड़की के पति को वापस करना पड़ता है। यदि शादीशुदा औरत का संबंध किसी दुसरे व्यक्ति से होता है और वह दुसरे गोत्र का है जब उस लड़की को जब शादी का खर्च अदा कर उस व्यक्ति के साथ संबंध करने को कहा जाता है। लड़की अथवा लकड़ी पक्ष से तालाक लिया जा सकता है। असुर जनजाति का उत्तराधिकारी पुरूष वर्ग होता है। पिता की मृत्यु के बाद उसके सभी पुत्रों को समान हिस्सा मिलता है। कुछ में बड़े लड़के को संपति में अधिक हिस्सा दिया जाता है। लड़की का अधिकार संपति में नहीं होता लेकिन उसकी देखरेख तथा शादी की व्यवस्था पिता की संपति से की जाती है। घर जमाई को अपने ससुर की संपति की व्यवस्था का अधिकार है अगर वह अपने गाँव रहने के लिए जाते हैं तो उन्हें अपने सुसर के संपति में कोई अधिकार नहीं बनता। उसी प्रकार बेवा औरत को भरण – पोषण कर सकती है। अगर वह अपने पति गाँव छोड़कर अपने मायके चली जाती है अथवा दुसरे शादी रचाती है तो वह अपने पूर्व पति की संपति की हकदारी खो देती है। जिसे कोई सन्तान नहीं होता है वे दुसरे पुरूष बच्चा को गोद ले सकते हैं।
असुरों की आयु एवं शादी की स्थिति
|
पुरूष |
महिला |
पुरूष |
महिला |
पुरूष |
महिला |
कुल |
3911 |
3871 |
382 |
482 |
636 |
585 |
अविवाहित |
2099 |
1929 |
382 |
482 |
636 |
585 |
विवाहित |
1681 |
1699 |
X |
X |
X |
X |
विधवा |
120 |
233 |
X |
X |
X |
X |
तलाक |
11 |
6 |
X |
X |
X |
X |
असुर परिवार में बूढों को आदर का स्थान प्राप्त है। असुर जनजाति में प्रचलित रीति – रिवाज का कोई लिखित दस्तावेज़ नहीं होता है। इस स्थिति में परिवार के बुजूर्ग लोग प्रचलित रीति रिवाज के रखवाला होते है हो एक पुश्त से दुसरे पुश्त चलता रहता है। इनका मानना है कि असुर पुरूष एवं महिला संसार में भगवान द्वारा एक निर्धारित अवधि के लिए भेजे जाते हैं और वह निर्धारित अवधि समाप्त होते ही वे भगवान द्वारा बुला लिए जाते है और यह प्रक्रिया मृत्यु कहलाती है। मृत शारीर को गाड़ा जाता था परंतू आज कल इसे समाज द्वारा जलाया जा रहा है। जलाने के दस रोज बाद परिवार के पुरूष सदस्य के केशों को नाई के द्वारा मुंडन कराया जाता है और उस दिन श्राद्ध क्रिया संपन्न होती है और संबंधियों को भोज दिया जाता है।
मृतक के सभी कपड़े मृतक के साथ जला दिए जाते हैं। जो असुर सम्पन्न है वे मृतकों के शरीर पर नया कपड़ा लपेटते हैं, कुछ टुकड़े समाधि पर या कब्र में रखा जाता है और एक टुकड़ा मृतक के मूंह में रख दिया जाता है। ये मृतक के पैर दक्षिण रख कर जलाते हैं। जलाने के बाद स्नान कर घर लौटते हैं। श्राद्ध कर्म के समय घर में अनाज नहीं रहने पर इसे स्थगित रखा जाता है और जब पैदावार होता है तो भोज का आयोजन होता है। ये मृतक की परछाई की याद में धार्मिक संस्कार करते हैं जिसे मुंडारी में उम्बूल अडेर तथा सादरी में छई भीतरैल कहते हैं यह कमान के दिन होता है।
फादर डेजेधर के अनुसार यह जलाने के दिन नहीं बल्कि कमान के दिन घर तथा संस्कार के बीच के स्थान होता है। वे एक छोटा मचान बनाते है जिसे वे खरपतवार से ढकते हैं। वे एक कपड़ा लाते है और इससे उसमें आग लगाते हैं। उसके बाद मृत व्यक्ति के आत्मा से कहते हैं कि दूर भागो तुम्हारा घर बिल्कुल जल गया है। तूम समाधी में जाओ तथा पुन: पुराने घर नहीं लौटना। मृतक जलाया जाता है उस स्थान को श्मसान कहते हैं और प्रत्येक मृतक के लिए वहां एक पत्थर गाड़ दिया जाता है। अक्सर यह स्थान किसी पानी के स्थान पर गाँव से दूर होता है।
इनके सिंगबोंगा (सूर्य) सर्वश्रेष्ठ भगवान होते हैं। इनका विश्वास है कि इनके अनगिनत देवी देवतायें पहाड़ी में पेड़ों पर तथा इनके आवास के इर्द गिर्द निवास करते हैं। यदि समय पर इन्हें वैगा (पुजारी) के द्वारा खुश नहीं किया गया तो इनके परिवार एवं गाँव में विपति आ सकती है। अन्य जाति एवं जनजातियों की तरह असुर भी डायन में विश्वास करते हैं। वे सोहराई, सरहुल, फगुआ, नवाखानी, कथडेली तथा सरही कुतसी पर्व मनाते हैं। सरही कुतसी पर्व लोहा गलाने की उद्योग की समृधि के लिए मनाये जाते है जिसमें मुर्गे की बलि उसे सरसी से पकड़ कर हथौड़ा से मार कर देते हैं। ये अपने पूर्वजों की भी पूजा करते हैं। डायन के निवारण के लिए शोखा से संपर्क करते हैं। ओझा गुणी भी संपर्क किये जाते हैं खासकर बीमारी तथा विपति के अवस्था में। असुर हिन्दू धर्म को मानते हैं। कुछ असुर ईसाई धर्म भी अपना लिए हैं। असुर को अपने सामाजिक एवं संस्कृतिक जीवन पर गर्व है और इसे अपने क्षेत्र में सबसे उत्तम मानते है। ईसाई धर्मावलम्बी असुर खेती में आधुनिक तरीके अपनाते हैं। इसमें बहुत से अपने बच्चों को पहले से ही विद्यालय भेजते हैं। सीसर असुर में शिक्षा अधिक है। ब्रह्मवाद मानने वाले असुर जाट असुर कहलाते हैं।
धर्म असुरों का
|
देहाती |
शहरी |
||
पुरूष |
महिला |
पुरूष |
महिला |
|
सभी धर्म |
3776 |
3771 |
136 |
100 |
हिन्दू |
1861 |
1864 |
4 |
1 |
मुस्लिम |
X |
1 |
X |
X |
ईसाई |
620 |
626 |
1 |
2 |
भील |
X |
X |
X |
X |
बौद्ध |
77 |
68 |
130 |
97 |
जैन |
X |
X |
X |
X |
अन्य |
1217 |
1193 |
X |
X |
असुर समाज कील गोत्र में बंटा हुआ है। गोत्र के बाद परिवार सबसे प्रमुख होता है। बाप परिवार का मालिक होता है और परिवार का योग्य एवं समर्थ व्यक्ति परिवार का अभिभावक होता है। असुर समाज पुरानी प्रथा से शासित होता है। यदि कोई रीति - रिवाज को तोड़ता है तो इसे असुर समाज काफी गंभीरता से लेता है। असुर समाज असुर पंचायत से शासित होता है। असुर पंचायत को पदाधिकारी महतो, वैगा, पुजारी, गोड़ायत आदि होते हैं। सभी वालिग पुरूष पंचायत में भाग लेता है। जैसे ही आपतिजनक बातें मालूम होती है महतो, गोड़ायत को संपूर्ण असुर समाज को इकट्ठा होने की सूचना देने के लिए भेजता है। यह बैठक गाँव के आखड़ा पर निर्धारित समय में होता है। जैसी बैठक बैठती है आपत्तिजनक बातें बतायी जाती तथा आवश्यक गवाही ली जाती है। यह गवाही गाँव के बुजूर्गों तथा पंचायत के पदाधिकारी द्वारा ली जाती है। गवाही पर विचार – विमर्श के निर्णय को माना जाता है। निर्णय तुरंत सुना दिया जाता है। साधारणत: पंचायत के निर्णय को माना जाता है। यदि दोषी निर्णय नहीं मानता है तो उसे हमेशा के लिए गाँव छोड़ देना पड़ता है। साधारणत: दंड भी लगाया जाता है। कुछ असुर ईसाई धर्म अपना लिए हैं। ईसाई असुर फादर तथा बुजूर्गों द्वारा शासित होते हैं। असुर पूर्व जमीनदारों, महाजनों तथा जमीन हड़पने वालों द्वारा शोषित हुए हैं।
असुर जनजाति के गाँव, जंगलों में पहाड़ी के पाट पर अवस्थित रहता है। यह स्थान पहाड़ के सबसे उंचाई पर प्रकृति के गोद में होता है। इन क्षेत्रों के प्रति इनमें भावात्मक लगाव उत्पन्न हो गया है। असुर के गांवों में पहुँचना आसान नहीं है क्योंकि वहां न तो कोई सड़क होती और न ही कोई आवागमन के साधन। जंगल विभाग के लोग भी इस जनजाति के गांवों तक नहीं पहुँच पाते थे। असुर के पूर्वजों को आज की तरह जंगल के प्रतिबंधों का सामना नहीं करना पड़ता था। इनके पूर्वज जंगल के जमीनों का इस्तेमाल अपनी आवश्यकता के अनुसार करते थे। बाहर की दुनिया से इनका संबंध न के बराबर था। अतएव इनकी आवश्यकताएं बहुत कम थी। आज की तुलना में इनके पूर्वजों की आर्थिक स्थिति अच्छी थी। आज इन्हें जंगल के प्रतिबंधों से बंधना पड़ता है तथा इनका संबंध बाहरी दुनिया से होने के फलस्वरूप इनकी आवश्यकताएं भी बढ़ी है जिसकी पूर्ति इनकी खराब आर्थिक स्थिति में नहीं हो पाती। आज की दुनिया में दो ही लोग एकांत में रह सकता है वह या तो भगवान अथवा जीव – जन्तु, न कि मानव।
पलामू के राजस्व पदाधिकारी श्री एल.आर. फोर्वस द्वारा छोटानागपुर के आयुक्त श्री पी.टी. डाल्टन को प्रतिवेदित (1869) के अनुसार असुर जनजाति आदिम औद्योगिक एवं अस्थायी कृषक थे। उनका आवास जंगल था और ये अपना जनजातीय नाम जंगल से प्राप्त किए थे। बिहार के असुर वीर के नाम से पुकारे जाते थे। जाड़े के दिनों में ये लोहा गलाने का कार्य करते थे अर्थात पत्थर के चूर्ण को गलाकर लोहा निकालने का कार्य करते हैं। इसके लिए इन्हें जंगल में लकड़ी पर्याप्त मिल जाती थी जिसका चारकोल बनाकर ये लोहा गलाया करते थे। वर्ष के शेष अवधि में ये अस्थायी कृषि, जंगल के कंदमूल बटोरने, शिकार करने आदि में संलग्न रहते थे। जंगल को जलाकर ये कृषि के लिए जमीन तैयार करते थे। पाट पर जहाँ इन्हें बारी के लिए पर्याप्त जमीन होता था, जिसमें ये मकई, मडूवा, सुरगुजा, कुल्थी आदि उपजाते थे। प्रारंभ में इनका चरित्र नोमेडिक था परंतु बाद में ये गांवों में स्थायी रूप से बस गये। प्रांरभिक अवस्था में जंगल जलाने के बाद कुछ दिन उस जमीन में कुछ पैदावार नगण्य होने पर ये दूसरी जगह जाकर कृषि करते थे। पाट पर सिंचाई का कोई प्रबंध नहीं रहता था। अतएव इनकी कृषि वर्षा पर अवलंबित होती थी। जो पैदावार ये करते थे उससे सालों भर खाने की व्यवस्था नहीं हो पाती थी। अतएव ये जंगलों से कंद मूल, फूल, पत्ता, तंता, लाह तथा मधु इकट्ठा करने का कार्य करते थे। ये जंगली जानवरों का शिकार भी करते थे। ये जंगली नादियों तथा तालाबों में मछली पकड़ने का कार्य करते थे। यह व्यक्तिगत एवं सामूहिक दोनों प्रकार का होता है। महुलाइन पत्तियों से छतरी तथा खजूर के पत्तियों से चटाई भी बनाते हैं। लोहा गलाने का जो इनका फरनेस होता है वह नदी के किनारा या पानी के स्रोत का किनारा हुआ करते है। ये रूई भी उत्पादित करते हैं। ब्रिटिश काल में रेगुलेशन 1 वर्ष 1793 के अनुसार जमीन की स्थायी बंदोबस्ती में इन्हें उत्कृष्ट भूमि के मालिक करार दिया गया था। आज जंगल में पूर्व की भांति मनोनुकूल लकड़ी नहीं मिलती और इन्हें चारकोल बनाने में दिक्कत होती है। अतएव लोहा गलाने में इन्हें दिक्कत होने लगी है। लोहा गलाने के आधुनिक पद्धति के सामने इनकी पुरानी पद्धति मंहगा तथा बहुत दिक्कत वाला रहने से अब लोहा गलाने का ये छिटपुट कार्य करते हैं जिसे हम नगण्य ही कह सकते हैं। असुर लौह कार्य में प्रवीण होते हैं। इर्द – गिर्द के स्थापित फैक्टरियों में इन्हें काम असानी से मिला हुआ है। लकड़ी काटने में ये पारंगत होते हैं। जंगल का इन्हें अच्छा अनुभव रहता है। आज अपनी जीविका के लिए ये जंगलों से लकड़ी काट कर बेचते हैं। जंगल के प्रतिबंधों से ये काफी असुविधा महसूस करते हैं।
असुरों में आर्थिक बदलाव दो प्रकार हुए हैं। जमीन एवं राजस्व बंदोबस्ती की पद्धति के कारण इनमें अप्रत्यक्ष परिवर्तन इनके लोहा गलाने तथा सिफ्टिंग कृषि पर पड़ा है। उद्योग के विकास तथा विकास के कारण असुरों के लोहा गलाने के एकाधिकार पर प्रभाव पड़ा है। सरकार द्वारा जंगलों के संबंध में लगाये गये प्रतिबंध एवं जगंलों को सुरक्षित किए जाने से इन्हें कठिनाई हुई है। जनसंख्या में वृद्धि के कारण स्थायी कृषि में वृद्धि हुई। अतएव असुरों के लिए मात्र पहाड़ी जमीन स्थायी कृषि के लिए बच सकी। हाल की खेती से भी इन्हें झटका लगा क्योंकि इसमें पैसा को आवश्यकता थी तथा खेती मौसम पर आधारित है। असुर जंगल आधारित जाति थी जो जंगल के प्रतिबंधों से पूरी तरह प्रभावित हुई। सरकार द्वारा आबकारी टैक्स लगाने से भी इन्हें असुविधा हुई यह राजस्व आधारित है एवं जनजातियों में पीने का प्रचलन काफी हैं।
अब असुर एकांत में नहीं रह रहे हैं, इनका संबंध भी अन्य समाज, संस्कृति एवं प्रथा से हो चुका है। दूसरी जातियों तथा जनजातियों के संपर्क में आने से इनकी आवश्यकताएं तथा प्रेरणाएं बढ़ी हैं तथा नये विकास कार्यक्रम को अपनाने के लिए उत्सुक रहते हैं जो इनकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में इनकी आवश्यकता के अनुसार हो। असुर स्वीकारने लगे हैं कि उनके विकास में निम्नांकित चार कार्यक्रम का महत्वपूर्ण योगदान है। 1) कृषि, 2) उद्योग, 3) शिक्षा, 4) स्वास्थ्य। इनका मानना है कि इससे उनके आर्थिक एवं सामाजिक स्तर ऊँचा उठ सकता है। कुछ असुरों का आज भी मानना है कि भविष्य में आर्थिक, सामाजिक स्तर गरीबी रेखा के नीचे जाएगी क्योंकि हम अपने देवी – देवता जो हमारे चारों तरफ निवास करते हैं। उन्हें अप्रसन्न किये हैं। परंतु ऐसे विचारधाराओं के असुरों की संख्या बहुत कम है।
1971 की जनगणना के अनुसार 76.3 प्रतिशत असुर जनजाति कृषि पर अवलंबित हैं तथा 21.1 प्रतिशत मजदूरी करते हैं। इससे प्रमाणित होता है कि उनके जीविकोपार्जन का मुख्य स्रोत कृषि ही है। असुरों के पास बहुत अधिक जमीन नहीं है। मात्र 30 प्रतिशत असुरों को 5 से 10 एकड़ भूमि है। 50 प्रतिशत असुरों को 5 एकड़ से कम भूमि है तथा 20 प्रतिशत को 10 एकड़ से अधिक है। इनकी जमीन भी पाट में अवस्थित है तथा इन जमीनों में सिंचाई का कोई साधन नहीं है। इनकी खेती मॉनसून पर आधारित होती है। इनकी माली हालत भी अच्छी नहीं है कि ये अपनी जमीन को उर्वरक बना सकें। गरीबी के कारण खाद, बीज, हल बैल की भी व्यवस्था नहीं कर पाते। फलस्वरूप इनकी जमीन परती रह जाती है। अधिकांश असुर मुफ्त में खाद, बीज, हल बैल चाहते हैं। सरकार से बीज तथा खाद मुफ्त देने की व्यवस्था भी है। परंतु प्रखंड प्रशासन से इन्हें समय पर यह उपलब्ध नहीं होता। फलस्वरूप इनकी खेती प्रभावित होती है। प्रखंड कर्मचारियों का व्यवहार भी इनके प्रति उपेक्षापूर्ण होता है। सरकार द्वारा जमीन सुधारने (लैंड रिकेलेमेशन) की योजना है परंतु इसमें बिचौलिया तथा ठीकेदारों पनपते हैं तथा बढ़ते हैं। सरकारी कर्मचारी सब कुछ जानते हुए कुछ नहीं कर पाते हैं। सरकार को इन जाति क्षेत्रों में दादानुमा ठीकेदारों से त्राण के लिए कोई कारगार कदम उठाना होगा तथा जनजाति कर्त्तव्य के प्रति समर्पित कर्मचारियों एवं पदाधिकारियों के पदस्थापन पर गंभीरता से विचार करना होगा। तभी सरकारी कार्यक्रमों का लाभ इन्हें मिल सकता है। मानवशास्त्री एवं समाजशास्त्री लोगों के पदस्थापन पर विचार किया जा सकता है।
मैं पहले ही चर्चा कर चुका हूँ कि असुर सरकार के विकास कार्यक्रम में सहयोग करेंगे जबकि उनकी मूलभूत आवश्यकता से जुड़े विकास कार्यक्रम बनाये जाएँ। आज की अर्थव्यवस्था में पैसा का बड़ा महत्व है तथा असुरों के पास पैसा है नहीं कि वे कृषि के सामग्री तथा आवश्यकता जैसे शादी, जन्म – मरण पर व्यव की व्यवस्था कर सकें। सरकर से उत्पादन के लिए ऋण की व्यवस्था है परंतु असुर जनजाति सरकारी ऋण पाने में असमर्थ हैं क्योंकि उन्हें सरकार प्रक्रिया संपन्न करने में काफी दिक्कत होती है। दूसरी बात यह है शादी, जन्म, मरण पर व्यय के लिए कोई प्रावधान नहीं है। अतएव असुर स्थानीय महाजनों से ऋण लेते हैं। ये महाजन इनके साथ गांवो में रहते हैं तथा इनके अपने अनन्य की तरह हो गये हैं। ये बहुत दिनों से इनके साथ रहते आये हैं। इन ऋणदाताओं के दरवाजे सालों भर खुला रहता है। यह सुविधा सरकारी एजेंसी में नहीं। इन ऋणदाताओं द्वारा भोले – भाले असुरों को ठगा जाता रहा है। ऋण देते हैं तथा असुरों के घर पैदावार होने पर सस्ते दर पर अपने ऋण के एवज में उनका पैदावार उठा लेते हैं। असुरों को दुसरे दिन से पुन: इन महाजनों से ऋण लेकर अपने खाने – पीने लो व्यवस्था करनी पड़ती है। ऋण बढ़ने पर ये महाजन इनके जमीन को मौखिक गिरवी रख लेते हैं। इस व्यवस्था में असुरों की आर्थिक स्थिति दिन प्रति दिन ख़राब होती जा रही है।
सरकारी पदाधिकारी के पूछने पर ये अपने ऋणदाताओं का नाम तक नहीं बता सकते क्योंकि ये जानते हैं कि मनीलेंडर एक्ट के अंर्तगत महाजन को दंड मिल जायेगा और इन्हें दुसरे दिन में कर्जा मिलना बंद हो जायेगा और ये ऋण के अभाव में कठिनाई में पड़ जायेंगे। इस प्रकार सरकारी ऋण के अभाव में असुरों की कृषि बुरी तरह प्रभावित होती है। फलस्वरूप वर्ष में कुछ समय के लिए बंगाल अथवा असम में कृषि मजदूर के रूप में कार्य करने के लिए भी जाते हैं।
एक समय इनके जीविकापार्जन का मुख्य स्रोत लोहा गलाना था। आज भी ये मानते हैं कि इनके पूर्वजों का एक मात्र भरण – पोषण का साधन लोहा लगाना ही था। जैसे – जैसे समय व्यतीत होता गया सरकार द्वारा जंगल के संबंध में लगाये गये प्रतिबंधों के कारण अब इन्हें आयरन ओर तथा चारकोल मिलना कठिन हो गया है। आज असुरों के लौह उद्योग कल की चीज हो गई है तथा कुछ ही परिवारों द्वारा अब तक इसे जारी रखा गया मिलता है। असुरों का सोचना है की सरकार के सहयोग से असुर जनजाति की माली हालत इस उद्योग से आज भी सुधारी जा सकती है। यदि लोहरदगा तथा गुमला क्षेत्र के असुरों की सहयोग समिति बनाई जाये और कुछ जंगल के कूपों को इन सहयोग समिति के लिए सुरक्षित किया जाय, तो इस समुदाय को आयरन तथा चारकोल मिलने में कोई कठिनाई नहीं होगी। यह असुर जनजातियों की मूलभूत आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त सरकार की देख – रेख में प्रशिक्षण सह - उत्पादन केंद्र स्थापित किया जाना आवश्यक ताकि वे असुर जो लोहा गलाने की कला को भूल गये हैं उसे सीख सके तथा अपने जीवन में समृद्धि ला सके।
अच्छे तथा समृद्ध पड़ोसियों के प्रभावों के कारण असुर जनजाति के लोग महसूस करने लगे हैं की इनका आर्थिक एवं सामजिक उत्थान शिक्षा से ही संभव हो सकेगा। 1971 तथा 1981 के जनगणना के अनुसार असुर जनजातियों में साक्षरता का प्रतिशत क्रमश: 5.41 एवं 10.37 है। इस साक्षरता से इनकी भलाई संभव नहीं है। अन्य जातियों समृद्ध तथा सक्षम जनजातियों के बच्चों तथा बच्चियों की भांति इन्हें भी अपने बच्चे बच्चियों को विद्यालय तथा महाविद्यालयों तक की शिक्षा दिलानी होगी ताकि इन्हीं की तरह शिक्षा के बल पर नौकरी तथा रोजगार से असुर शिक्षित बच्चे एवं बच्चियां समाज की आर्थिक तथ सामाजिक स्तर ऊँचा कर सके। सरकार द्वारा असुर गांवों में पूर्व से विद्यालय खोले गयें है। अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग वर्ष 1054 के प्रतिवेदन के अलोक में राज्य सरकार वर्ष 1955 से 1965 में समुदायिक उन्मुखीकरण कार्यक्रम असुरों के लिए प्रारंभ की। इस कार्यक्रम के अनुसार बच्चों की शिक्षा के लिए वर्ष में 1955 – 1956 दो आवासीय कनीय बुनियादी विद्यालय सखुवा पानी तथा जोभीपाट में खोला गया। ये दोनों विशुनपुर प्रखंड जिला गुमला में पड़ता है। इन विद्यालयों में अध्ययन करने वाले बच्चों को सरकार की ओर से नि: शुल्क आवास, भोजन, वस्त्र, पठन - पाठन, विविध सामग्री शिक्षा की सुविधा दी गई। इन विद्यालयों के स्थापना के 15 वर्ष बाद असुर जाति के बच्चों तथा बच्चियों द्वारा स्नातक स्तर तक की शिक्षा पूरी करने की संभवना थी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और आज भी असुर जनजाति में स्नातक बच्चे बच्चियों की कमी है। आज भी मैट्रिक एवं स्नातक में असुर लोगों की संख्या नगण्य है, या इसलिए की इन्हें मार्गदर्शित करने के लिए कोई एजेंसी नहीं है। सरकारी अथवा गैरसरकारी एजेंसी नहीं है जो इस समुदाय के बच्चे – बच्चियों के प्राथमिक से स्नातक स्तर की शिक्षा की देखरेख एवं मार्गदर्शन कर सके और इन्हें रोजगार के अवसरों को सूचित करने के लिए भी कोई साधन नहीं है। इस स्थिति में असुर जनजाति के मैट्रिक एवं आई.ए. उतीर्ण छात्रों की अन्य जातियों की तरह रोजगार की खोज में दर दर की ठोकरें खानी पड़ रही है। आजतक असुर जनजाति के शिक्षित बच्चे – बच्चियों की सूची रखने के लिए किसी विभाग को अधिकृत नहीं किया गया है, अतएव कहीं सूचना उपलब्ध नहीं है।
बिहार सरकार कल्याण विभाग द्वारा असर जाति के लिए तुमुपाट, जोभीपाट, तथा सखुआपानी में उच्च आवासीय विद्यालय संचालित है। प्रत्येक में 248 असुर छात्रों को शिक्षा का प्रावधान है। जनगणना की गड़बड़ी के कारण इस वर्ग के बच्चे- बच्चियों की शिक्षा स्तर की वास्तविक जानकारी नहीं मिल पाती।
असुर जनजाति में शिक्षा (1981 जनगणना)
|
कुल जनसंख्या |
अशिक्षित |
शिक्षित |
(बिना शिक्षा स्तर के) |
||||
पुरूष |
महिला |
पुरूष |
महिला |
पुरूष |
महिला |
पुरूष |
महिला |
|
देहाती |
3776 |
3771 |
3143 |
3676 |
10 |
4 |
234 |
54 |
शहरी |
136 |
100 |
78 |
56 |
10 |
- |
24 |
42 |
|
मिडिल स्तर |
प्रवेशिका स्तर |
हायर सेकेंडरी स्तर |
आई. ए. |
||||
पुरूष |
महिला |
पुरूष |
महिला |
पुरूष |
महिला |
पुरूष |
महिला |
|
देहाती |
188 |
23 |
138 |
11 |
61 |
2 |
1 |
- |
शहरी |
10 |
3 |
16 |
- |
1 |
- |
- |
- |
|
अकुशल टेक्नीकल |
डिप्लोमा |
स्नातक |
उपर पोस्ट ग्रेजुएट |
||||
पुरूष |
महिला |
पुरूष |
महिला |
पुरूष |
महिला |
पुरूष |
महिला |
|
देहाती |
- |
- |
- |
- |
2 |
- |
- |
- |
शहरी |
- |
- |
- |
- |
- |
- |
- |
- |
|
अभियंत्रण |
मेडिकल |
कृषि डेयरी |
डिग्री |
भेटनरी |
शिक्षण अन्य |
||||||
पु. |
म. |
पु. |
म. |
पु. |
म. |
पु. |
म. |
पु. |
म. |
पु. |
म. |
|
देहाती |
- |
- |
- |
- |
- |
- |
- |
- |
- |
- |
7 |
- |
शहरी |
- |
- |
- |
- |
- |
1 |
- |
- |
- |
- |
- |
- |
यह एक दूसरी मुलभूत आवश्यकता असुर जनजाति की है। जब तक इस समुदाय के लोग स्वास्थय एवं निरोग नहीं रहते है तब तक किसी भी विकास कार्यक्रम का कोई अर्थ नहीं है। जनजातियों में रोग का मुख्य कारण कुछ तबूओ का भंग होना तथा प्रेतात्माओं के रूष्ट होना माना जाता रहा है। इस तरह अस्वस्थता दंड के रूप में प्राप्त होना माना जाता रहा है। ये प्राकृतिक व्यवधान को भी रोग का कारण मानते रहे हैं।
डॉक्टर एफ. ई. क्लेमेट द्वारा रोग का कन्सेप्ट निम्न प्रकार बताया गया है।
कन्सेप्ट ऑफ़ डिजीज
असुर इन्हें डायन या विशहा कहते हैं। यह समझा जाता है कि दुष्ट (एवील) के प्रभाव से रोग हुआ है। ये बुरी (एवील) दृष्टि (आई) बार – बार अस्वथ्य होने का कारण मानते हैं। साधारणतया असुर स्वस्थ्य जीवन व्यतीत करते हैं तब पर भी कुछ मलेरिया, चमड़े की बीमारी, पेट की बीमारी, एंफ्लूएंजा, रतौंधी, घेंघा आदि रोगों से पीड़ित रहते हैं। मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम के तहत अब मलेरिया रोग पर काबू कर लिया है। चमड़े की बीमारी में खुजली, उकवत, दिनाय आदि मुख्य हैं। पेट के गड़बड़ी में पेचिश एवं डायरिया है जो वर्ष तथा गर्मी के ऋतू में बहुत होता है तथा जानलेवा भी साबित हुआ है। इंफ्लूएंजा को ये हवा दुक कहते हैं जिसका अर्थ है हवा की गड़बड़ी। आँख की बीमारी असुरों में बहुत है लेकिन असुर लोग रतौंधी से बहुत पीड़ित रहते हैं। स्वच्छ पेयजल के अभाव में इन्हें घेंघा रोग तथा पेट की गड़बड़ी होती है। कोलेरा, स्माल पॉक्स, मीजिल्स, एवं बच्चों का पॉक्स महामारी के रूप में इस जनजाति में होता रहा है। बच्चों की बीमारी जिसे रंगबाद कहते है ये चाय बगान से लाया हुआ रोग है।
असुर जनजाति में रोगों के लिए जंगली जड़ी बूटी का उपयोग किया जाता है जैसे डिसेंट्री के लिए डिसेंट्री स्टोन रखते हैं। कुछ जड़ियां शारीर में बांधते हैं। वैगा बताया है कि रोग डायन, भूत या बुरी आत्मा के कारण हुआ है। ओझा लोग भी रोगों के निदान के लिए ओझाई करते हैं। इनमें आज भी अन्धविश्वास विद्यमान है। इस जनजाति के लोगों को कुछ जड़ी बूटियों का ऐसा ज्ञान है की उसके उपयोग से रोग दूर हो जाते हैं। लेकिन इन जड़ी बूटियों के संबंध कोई लेख इनके पास नहीं है। इनकी अधिकांश जड़ी बूटियों से हानि नहीं होता है। रोग पहचानने में इन्हें दिक्कत होती है क्योंकि बहुत से रोगों में लक्षण एक सा होता है। इनके बूटियों के कुछ नाम निम्न प्रकार है।
क्र.सं |
जड़ी बूटियों के नाम |
इन रोगों के निदान के लिए |
1 |
चितवार |
|
2 |
सतावर |
|
3 |
परही |
बुखार, बदन दर्द एवं सिर दर्द के लिए |
4 |
चरावोगोरा |
|
5 |
दुधिया |
|
6 |
घोड़वाछ |
|
7 |
काल मेघ |
|
8 |
सोनपाती |
|
9 |
सोभराज |
|
10 |
कोरैया |
|
11 |
कच्छाम्बा |
|
12 |
कुसूम |
लकवा के लिए |
13 |
रतनगोरा या छोटा परही |
|
14 |
घेकवार |
|
15 |
चंदवा |
|
16 |
धवई |
खांसी एवं दमा के लिए |
17 |
खरखसा, हरसिंगार |
|
18 |
रंगैनी |
|
19 |
वनावेर |
|
20 |
गरसुकरी |
|
21 |
कारीनारी |
कोलेरा, डायरिया एवं पेचिश के लिए |
22 |
रनपवान |
|
23 |
छोटी दूधी |
|
24 |
सेमरी सेम्बर |
|
25 |
मोआना |
मूत्र रोगों के लिए |
26 |
रैनपान |
|
27 |
बाह्मी |
|
28 |
आसन |
|
29 |
करामिन |
चर्म रोगों के लिए |
30 |
मनेरटीन |
|
31 |
बूढ़ी कुम्बा |
कमजोरी के लिए |
32 |
वगरौधा |
दांतों की तकलीफ के लिए |
33 |
गलफूली |
आँखों की तकलीफ के लिए |
34 |
विचिमांदर |
प्रसव के लिए |
35 |
सिमल |
एनीमिया के लिए |
36 |
कुजूरी मालकागनी |
गर्भपात के लिए |
साधरण बीमारियों में असुर दवा न देकर कुछ दिन इंतजार करते हैं। 1952 में विशुनपुर, वनारी, नेतरहाट एवं पड़ोस के गांवों का सर्वेक्षण कराया गया था जिसमें मलेरिया एवं इंफ्लूएंजा के रोगी इस जाति में पर्याप्त मिले थे। एक स्वास्थ्य उपकेन्द्र जोभीपाट में खोला गया है। स्वास्थ्य कर्मियों को इनके दिल जितने की जरूरत है तभी इनका अन्धविश्वास दूर होगा तथा आधुनिक दवाओं का इस्तेमाल कर सकेगें। असुरों द्वारा प्रयोगिक जड़ी बूटियों को सुरक्षित एवं उपयोगी बनाने के लिए इनका अनुसंधान आवश्यक प्रतीत होता है तथा इन जड़ीबूटियों वाले पौधों के पहचान के बाद इसके खेती को प्रोत्साहन मिलना चाहिए। इसकी पहचान में असुरों की सहायता ली जा सकती है।
शिकारी अवस्था में स्वाद एवं गन्ध के आधार पर खाद्य तथा अखाद्य सामग्रियों की पहचान की गई। पहले कंदमूल फल खाई जाती रही तथा जंगली पशुपक्षियों के शिकार से भी खाना की पूर्ति की जाती रही। धीरे – धीरे उबाल कर, सुखा कर तथा तल कर खाना प्रारंभ किए। इसमें दो मत नहीं है कि खाये जाने वाले कंद मूल, फूल – फल तथा मांस को सर्वप्रथम आदि पुरूष चख कर निर्धारित किये हैं तथा इसमें से कुछ जहरीले तथा विषैली होने के कारण बहुत से जनजाति लोगों को जान गवाना पड़ा होगा। सभ्यता के विकास के साथ खेती शुरू हुआ और इन खेतों में खाने योग्य सामग्रियों का उत्पादन किया जाने लगा। असुर आज से सैकड़ों वर्ष पूर्व के असुर नहीं रह गये है। भारतीय समाज का प्रभाव इन पर भी पड़ा और अब ये स्थायी रूप से गांवो में अवस्थित हैं तथा अन्य जनजातियों की तरह इनके खाने – पीने में भी बदलाव आया है। गरीबी तथा आवश्यकता बढ़ने के कारण इन्हें समुचित विकास के लिए जितने ऊर्जा, प्रोटीन, वसा की जरूरत होती है उतना इनके द्वारा खाए जाने वाली सामग्री से प्राप्त नहीं हो रहा है। अब जंगल बहुत कट गया। अतएव जंगल से जो पहले फल, फूल, कंद मिलता था उसमें बिल्कुल कमी तो हुई है साथ ही जानवरों को मारने पर लगे प्रतिबंध के कारण अब उन्हें जंगली जानवरों तथा पक्षियों का मांस नहीं मिल पा रहा है। यह इतनी महंगी है कि इसे खरीद कर नहीं खा सकते है।
असुरों द्वारा अस्थायी खेती के लिए जमीन सफाई कर पेओरा पाथर तैयार किया जाता जिसमें जंगल जलाकर वन खेती की जाती थी। यह पहाड़ की चोटी पर होता था। यह कार्य गर्मी के दिनों में करते थे यानि प्रथम वर्षा शुरू होने के पूर्व जब जंगल के पत्ते सुख कर गिर जाया करते थे। वर्षा के बाद सूखी खेती करते थे। लोहे के छुरी अथवा हंसूए से जमीन खोद कर बीज डालते थे। यह इनके खेती का औजार होता था। मडुआ, मकई, सूखा धान, दालें, सेम आदि उगाते थे। ये रूई की खेती भी करते थे। 1977 की जनगणना में सबसे अधिक खेतिहर असुर जाति के थे यानि 76.38 प्रतिशत थे।
असुर प्रति दिन दो शाम (सुबह – शाम) खाना पकाते हैं। सुबह के खाना को ये लोलोघोटू जोमेकूं तथा संध्या के खाना को वियारी छोटू जोमेकूं कहते हैं। इनके खाने में उबले हुआ अनाज, बाजरा, एक सब्जी का उबाला हुआ सब्जी अथवा मांस या जंगल के कंद मूल का सब्जी होता है। उसमें नमक एवं मिर्चा मिलाते हैं। जब उपज उनके घर में रहता है तो उसे खाना का माह तथा जब उपज समाप्त हो जाता है तो भूख का माह होता है जब उपज होता है तो आसानी से उन गांवों की दशा देख कर पहचाना जा सकता है और तब पुरूष दिन में मात्र एक शाम खाना खाते हैं तथा उन्हें हड़िया मिलना कठिन हो जाता है खाना की पूर्ति ये महुआ एवं सखुआ फूल तथा पत्ते से करते हैं। कटहल तथा मसरूम भी इनकी कमी पूरा करता है। जंगलों के कंद – मूल, फल – फूल इनको कमी के समय एकमात्र सहारा होता है। जब डाल्टन द्वारा लौह गलाने पर प्रतिबंध लगाया गया तो ये अपनी जमीन जोतने पर अधिक समय देने लगे और अस्थायी कृषि से स्थायी कृषि की ओर अग्रसर हुए तथा गांवों में स्थायी रूप से बसे।
सुअर, भेड़, मवेशी जो प्राकृतिक मृत्यु से मरते थे, हिरण, बाघ, लकड़बग्गा, साहिल तथा सांप के मांस खाते हैं। सांप के मुंह तथा चमड़ा हटा देते हैं। इनका कहना ही कि इसका स्वाद मुर्गे के मांस जैसा होता है। जो असुर सिद्धि के लिए होते हैं वह सांप नहीं खाते। किसी ख़ास अवसर पर मांस को तलते हैं अन्यथा उबाल कर पकाते हैं। जब तेल उपलब्ध रहता है तो उसे भी डालते हैं। खाना मिट्टी के बर्तन में बनाते हैं। अब इनके घरों तक अल्युमिनियम के बर्तन पहुँच गये हैं। असुरों का निम्नांकित खाना मुख्य है। (1) पिल्था (2) खिचड़ी (3) मकई का घाटों (4) महुआ का लाटादि है।
वैदिक शास्त्र में शराब का जिक्र आया है। प्राचीन आर्य ज़माने में सोमा एक शराब ही कहलाता था जबकि उसके कच्चे माल जिससे बनाया जाता था वह जानकारी में नहीं है। बिहार की जनजातियाँ शराब पीने के आदि हैं। असुर जनजाति भी आदि है। असुरों द्वारा निम्न नशा युक्त पेय पिया जाता है। (1) ताड़ी (2) दारू (3) हड़िया (4) बिरो जो एक औषधि पुआ होता है (5) झरूनी का हड़िया।
असुर जनजाति के जीवन में धूम्रपान का अपना स्थान है, यह इनके जीवन का एक हिस्सा है। ये सूखे तंबाकू को सखुआ पत्ता में लपेट का चुरूट जैसा पीते हैं। यह पिका कहलाता है। हुक्का पर तम्बाकू पीया जाता है। हुक्का लकड़ी या मिट्टी का बना हुआ होता है। उपर चिलम रखा जाता है जो मिट्टी का होता है। इसमें तम्बाकू पर आग रख कर पिया जाता है। असुर लोग खैनी के भी आदि हैं। इसमें चूना मिलाकर खाते हैं।
असुर जनजातियों के पयेजल का एक मात्र साधन डाढ़ी चूंआ, झरना या नदी है। जो उनके आवास के स्थान से 400 से 500 फीट नीचे अवस्थित रहता है। झरने तथा नदी का जल गन्दा या दूषित होने के कारण असुरों में घेघा रोग अत्यधिक पाया जाता है। सरकार का ध्यान इस जनजाति बस्तियों में शुद्ध जल आपूर्ति की ओर आवश्यक है जहाँ इन्हें पाइप तथा चापाकल से पेयजल पंहुचाया जा सके। पीने का पानी डाढ़ी या चूंआ से व्यवस्था करते हैं।
बिहार में संविधान की धारा 244 के आलोक में मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में जनजाति सलाहकार समिति का गठन हुआ है। 1971 छोटानागपुर एवं संथालपरगना ओटोनोमस विकास परिषद का गठन भी मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में हुई थी जो अब तीन प्रमंडलों के लिए तीन भाग में बांटी गई है। उत्तरी छोटानागपुर, दक्षिणी छोटानागपुर एवं संथालपरगना।
जनजाति उपयोजना के लिए एक क्षेत्रीय विकास आयुक्त सरकार के प्रधान सचिव की शक्ति के साथ रांची में पदस्थापित हैं। इनकी सहायता के लिए पदाधिकारियों का एक दल भी यह पदस्थापित हैं। वे है अवर सचिव, उपसचिव, संयुक्त सचिव, अपर सचिव एवं विशेष सचिव जो विभिन्न विभागों के प्रभार में हैं। ये शाखा सचिवालय में कार्यरत हैं। यह व्यवस्था कागज पर देखने में बहुत उत्तम लगता है लेकिन कुछ चीजों की उपस्थिति एवं अनुपस्थिति से संपूर्ण बनावट अप्रभावी हो जाता है। यह समझ लेना आवश्यक है कि क्षेत्रीय विकास का सिद्धांत ही जनजाति उपयोजना का लक्ष्य है। इस प्रकार धनराशि की कमी जनजातियों का समुचित विकास संभव नहीं है।
बिहार में जनजातियों के विकास के लिए कल्याण विभाग है। दुसरे राज्यों की भांति जनजातियों की आबादी अधिक रहते हुए भी जनजाति विकास विभाग, बिहार में अलग नहीं हैं। अतएव जनजाति कल्याण भी कल्याण विभाग के साथ संलग्न है। रांची एक आदिवासी कल्याण आयुक्त है जिनकी सहायता के लिए मुख्यालय में कुछ उपनिदेशक हैं। क्षेत्र में जिला कल्याण पदाधिकारी, अनुमंडल पदाधिकारी एवं प्रखंड कल्याण पदाधिकारी द्वारा अनूसूचित जनजाति एवं अन्य पिछड़ी जातियों की कल्याण के साथ जनजातियों के कल्याण की योजनाओं का देख - रेख भी किया जाता है। इसके अतिरिक्त कल्याण पदाधिकारी, जनजाति सहकारिता विकास निगम तथा बिहार जनजातीय कल्याण शोध संस्थान रांची है।
बिहार में जनजाति विकास योजनाओं के लिए वर्ष 1992 – 93 में कुल 1284 लाख का प्रस्ताव है। इस राशि से आवासीय विद्यालय, छात्रवास, छात्रवृत्ति, जनजाति छात्रों को पोशाक की आपूर्ति, परीक्षा शुल्क की भरपाई, प्राक प्रशिक्षण केंद्र, पुस्तक, बैंक, प्रशिक्षण उत्पादन केंद्र, ग्रेनगोला, जनजातीय सहकारी विकास निगम, चिकित्सा अनुदान, कृषि अनुदान, गैर सरकारी संस्थानों का अनुदान, विधिक सहायता, बिहार जनजातीय शोध संस्थान, कल्याण शोध संस्थान तथा विशेष अल्पसंख्यक जनजातियों के स्वास्थ्य योजना में खर्च होगा, संविधान की धारा 275 (1) के अनुसार धनराशि प्राप्ति का मुख्य स्रोत केंद्र सरकार है। असुर जनजाति पर परियोजना प्रतिवेदन की स्वीकृति मिल गई है। अन्य अल्पसंख्यक जनजातियों का भी शोध कर परियोजना प्रतिवेदन तैयार है। अल्पसंख्यक आदिम जातियों के विकास के लिए ये प्रतिवेदन तैयार हो रहे है ताकि इनका बहुमुखी विकास किया जा सके।
बिहार सरकार द्वारा असुर जनजाति के शैक्षिणक, समाजिक एवं आर्थिक विकास के लिए बहुत सी योजनाएं संचालित है। असुर छात्र – छात्राओं के शिक्षा के लिए अलग से राजकीय आवासीय उच्च विद्यालय कल्याण विभाग द्वारा संचालित है जिसमें पढ़ने वाले छात्र – छात्राओं को मुफ्त शिक्षा, आवास, पोशाक, पठन पाठन सामग्री, दवा दारू आदि सुविधा उपलब्ध कराया गया है। कॉलेज छात्रों के लिए छात्रावास तथा छात्रवृत्ति की सुविधा दे जा रही है ताकि इस जाति की शिक्षा में वृद्धि की जा सके।
स्त्रोत: कल्याण विभाग, झारखण्ड सरकार
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