बिरहोर जैसा कि नाम से ही पता चलता है जंगल का आदमी। वैसे बिर का अर्थ जंगल और होर का अर्थ आदमी होता है। बिरहोर पहाड़ों और जंगलों में एकांत जीवन बिताने वाले लोग हैं। बिरहोर छोटानागपुर के पठार की संभवतः सबसे प्राचीन घुमक्कड़ जातियों में से एक है। इनका कोई निश्चित आवास स्थल नहीं है। ये लोग छोटे झुंडों में एक जंगल से दुसरे जंगल बंदरों को पकड़ने, खरगोशों का पीछा करने, हिरण तथा अन्य जानवरों का शिकार करने तथा मधु और रस्सी बनाने के काम में आने वाले रोप फाइबर जमा करने के लिए घुमते फिरते हैं। ये लोग रस्सियाँ, मधु तथा मोम बेचने का काम भी करते हैं।
बिरहोरों की आबादी हजारीबाग, रांची पलामू तथा सिंहभूम जिलों में पायी जाती है। बिरहोरों की मान्यता है कि वे और खरवार एक ही समूह के है जो सूर्य से इस धरती पर आये हैं। माना जाता है कि सात भाई इस देश में खैरागढ़ (कैमूर की पहाड़ियों) से आये, इनमें से चार पूरब की ओर चले गये जबकि तीन रामगढ़ जिले में ही रह गये। एक दिन जब तीनों भाई इस देश के शासकों के खिलाफ युद्ध के लिए जा रहे थे इनमें से एक भाई की पगड़ी एक पेड़ से फंस गई और उसने इसे यात्रा में अपसकुन माना तथा जंगल में ही रूप गया तथा उसके अन्य दो भाई आगे बढ़ गये तथा युद्ध में यहाँ के शासकों पर विजय पाकर जब लौट रहे थे तो पाया कि उनका भाई पेड़ काटने का काम करने लगा है। दोनों भाईयों ने उसे बिरहोर के नाम से पुकारने का निश्चय किया (मुंडारी भाषा में बिरहोर का अर्थ होता है लकड़ी काटने वाला या लकड़हारा)। भाईयों के संबोधन पर उसने जवाब दिया कि घमंडी भाईयों के साथ रहने के बजाय बिरहोर बन कर वह जगलों में ही रहना पसंद करेगा। इस प्रकार बिरहोर शब्द की उत्पति हुई, जिसका एक अर्थ जंगलों का मालिक (बादशाह) भी होता है। उसके दोनों अन्य भाई रामगढ़ नामक देश के राजा बने। बिरहोरों को दो वर्गों में बांटा जाता है। उथलू या भूव्या (घुमक्कड़) और जगही थानीय (अधिवासी) 1941 की जनगणना में इनकी संख्या थी 2,250 जबकि 1981 में यह बढ़कर 4,377 हो गई।
उथलू बिरहोर हमेशा अपना स्थान बदलते रहते हैं। जब कभी स्थान विशेष में इनके खाद्य पदार्थों की कमी हो जाती है ये उस स्थान को छोड़कर दुसरे जंगल की ओर निकल जाते हैं। लेकिन बरसात के मौसम में ये अपना आवास नहीं बदलते हैं। कभी – कभी अच्छे जंगलों उत्पाद और जानवरों की उम्मीद में ये बहुत लंबी दूरियां तय कर लेते हैं। उदाहरण के लिए कुछ बिरहोर उड़ीसा से घुमते फिरते बिहार के हजारीबाग जिले में पहुंचे हैं।
दूसरी ओर जगही बिरहोर अपेक्षाकृत अधिक स्थायी निवास रखने वाले होते हैं। इन लोगों ने स्थायी रूप से कृषि के लिए जंगल की कुछ भूमि साफ कर ली है लेकिन इनमें से अधिकतर भूमिहीन हैं अत: ऐसे बिरहोर शिकार करके तथा रस्सियाँ बेच कर अपनी आजीविका चलाते हैं ये लोग स्थान बदल – बदल कर खेती भी करते हैं तथा कुछ मात्रा में मक्का और बीन उपजा लेते हैं। अधिकतर बिरहोरों की स्थिति ऐसी है कि उन्हें अन्न नसीब नहीं होता है। अधिकतर की स्थिति ऐसी है कि यदि उन्हें सिर्फ एक दिन भी जंगल में कोई शिकार नहीं मिले या रस्सियाँ बनाने के लिए रेशे या कोई जंगली उत्पाद नहीं मिले या फिर उनकी स्त्रियों द्वारा कंद – मूल नहीं इकट्ठा किया जा सके तो उस दिन पूरे परिवार को भूखे सोने की नौबत आ जाती है। शिकार के लिए अक्टूबर से जून के आरंभ तक का मौसम अनुकूल होता है। इसी समय में बिरहोर पुरूष शिकार खाद्य पदार्थों को जमा करने के लिए निकलती है। यह समय एक बिरहोर के लिए वर्ष भर में सर्वोत्तम होता है। भूमिहीन बिरहोर लकड़ी का खरल - मूसली, शिकारी जाल तथा विभिन्न वस्तुयें रखने के लिए उपयोगी पात्र का निर्माण करता है। इन्हें बाजार में बेचा जाता है या खाद्यान्न के साथ इनकी अदला – बदली की जाती है। कुछ बिरहोर स्त्री – पुरूष आस – पास के गांवों में मजदूरी भी करते हैं।
बिरहोरों के आवास स्थल टांडा का नाम से जाना जाता है। एक टांडे में आधा दर्जन या उससे कुछ अधिक झोपड़ियाँ होती हैं। इनकी झोपडियों की बनावट शंकुनुमा होती है। 8’20’’ फुट ऊंचाई वाली इनकी झोपड़ियों का निर्माण पत्तों और पेड़ों की टहनियों से होता है। प्रत्येक परिवार की झोपडी दो हिस्सों में विभाजित होता है। इनमें से एक हिस्से का इस्तेमाल स्टोर या विभिन्न वस्तुओं के भण्डारण के लिए होता है जबकि दुसरे हिस्से का प्रयोग रसोई और सोने के लिए होता है। इनकी संपति एक या उससे अधिक लोहे की कुल्हाड़ी (टांगी), शिकार पकड़ने के लिए जाल, ताड़ के पत्तों की चटाई, लकड़ी के ओखल मूसली तथा कुछ मिटटी के बर्तन। कुछ टांडों में गितिओंडा (केवल युवाओं और अविवाहित बिरहोरों के लिए सोने का स्थान) थी होता है।
बिरहोर कई गोत्रों में विभाजित होते हैं जिनका नामकरण जानवरों, फलों या फूलों के नाम पर होता है। ये लोग पितृसत्ता को मानने वाले होते हैं। एक ही गोत्र में विवाह प्रतिबंधित है। इनमें बड़े भाई का विवाह छोटे भाई की विधवा से भी निषिद्ध है। हालाँकि बड़े भाई की विधवा से विवाह के लिए छोटे भाई को पहली प्राथमिकता होती है। यदि छोटे भाई इस विवाह से इंकार कर देता है तथा कोई अन्य व्यक्ति उसकी विधवा भाभी से विवाह करता है तो छोटा भाई स्त्री दहेज़ लेने का अधिकारी होता है। बच्चे के जन्म से पूर्व उसके बाद जच्चा – बच्चा की बुरी आत्माओं से सुरक्षा के लिए सभी प्रचलित उपाय किये जाते हैं। जन्म से 21 दिन तक बच्चा और उसकी माता अपवित्र मानी जाती है तथा इनसे परहेज रखा जाता है। जन्म के पहले सात दिन बिरहोरों पर पूरा टांडा निषेध मनाता है। तथा इस दौरान टांडा में कोई पूजा या बलि नहीं दी जाती है। सात दिनों के बाद जच्चे बच्चे की आरम्भिक शुद्धि की जाती है जबकि इसी दिन टांडा भी शुद्ध होता है। लेकिन बच्चा – जच्चा की अंतिम शुद्धि 21 दिनों के बाद होती है। इसी समय बच्चे के नामकरण की रस्म भी पूरी की जाती है। बिरहोर विभिन्न गोत्रों वाले होते हैं। ये झुंडों में एक साथ रहते हैं। इनका धर्म, इनकी परम्परा, इनकी भाषा, इनके रीति रिवाज एक होते हुए भी इन विभिन्न गोत्रों वाले बिरहोरों में शायद ही भावनात्मक या साहचर्य लगाव होता है।
एक टांडा में अलग – अलग गोत्र वाले कुछ परिवार रहते हैं। विभिन्न गोत्रों का समूह भोजन की खोज में एक साथ चलता है या स्थायी निवास बना कर रहता है। प्रत्येक समूह का एक प्रधान होता है जिसे नाथा कहते हैं। इसका चुनाव टांडा के अभिभावक के रूप में होता है। यह अकेला ही पूरे समूह को नियंत्रित रखता है। नाथा का पद वंशानुगत होता है।
बिरहोरों की यह दृढ़ मान्यता है कि जो बुरी आत्माएं उन्हें उनके जीवन काल में घेरे रहती है मृत्यु के समय वह उनसे मुक्त होकर एक ऐसे स्थिति को प्राप्त हो जाते हैं जहाँ से उन पर बुरी आत्माओं का प्रभाव समाप्त हो जाता है लेकिन वह स्वयं आत्मा के रूप में इतना शक्तिशाली हो जाता है कि किसी दुसरे प्राणी को प्रभावित भी कर सकता है या उसे अपने प्रभाव क्षेत्र में ला सकता है। बिरहोरों का विश्वास है कि एक व्यक्ति की छाया और दो आत्माएं एक स्त्री और एक पुरूष होती है। जब कोई व्यक्ति मरता है तो उसके छाया भी दृश्य आत्माओं के संसार के साथ हो जाती है। बिरहोर इस छाया को काम्बूल कहते हैं। इसी मान्यता के तहत मृत्यु के बाद बिरहोरों में काम्बूलाडार रस्म अदा की जाती है। इनकी मान्यता है कि जब व्यक्ति की मृत्यु होती है तो उसकी भीतर से स्त्री और पुरूष आत्माएं निकल कर किसी अन्य शरीर की तलाश कर उसमें प्रवेश कर जाती है। यह जरूरी नहीं होता है कि नया शरीर किसी बिरहोर का ही हो। बिरहोरों की धार्मिक मान्यताएं इस भावना पर केन्द्रित होती है कि वह अलौकिक शक्तियों से घिरा हुआ है। ऐसी शक्तियों की उपस्थिति के एहसास से वह जीवन को भय तथा भय मिश्रित विस्मय से देखता है।
जंगलों के काफी भीतर अपने निवास टांडा में रहने वाले बिरहोरों कुपोषण, चर्म रोग, घेघा तथा ऐसी ही अन्य बीमारी से ग्रस्त हैं। इन्हें पेयजल तथा अन्य जरूरतों के लिए झरने या नदियों के जल पर निर्भर रहना पड़ता है। अस्पताल, स्कूल, मातृत्व केन्द्रों आदि की सुविधाएँ इन्हें शायद ही उपलब्ध है।
बिरहोरों में साक्षरता का स्तर बहुत ख़राब है। यह 1961 में 2.61, 1971 में 2.51 तथा 1981 में 5.74 प्रतिशत थी। अभी तक के अंतिम अध्याय के आंकड़े के मुताबिक प्राइमरी स्तर पर 66, मिडिल स्तर में 29, माध्यमिक स्तर पर 3 तथा स्नातक स्तर पर सिर्फ 1 बिरहोर था।
स्त्रोत: कल्याण विभाग, झारखण्ड सरकार
अंतिम बार संशोधित : 9/18/2019
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