बिहार की आदिम जनजाति सावर का निवास मुख्य रूप से पूर्वी सिंहभूम जिले में है। सन 1981 की जनगणना के मुताबिक बिहार में इनकी कुल संख्या 3,014 थी। सावर के विषय में एस. सी. राय के मतानुसार ये हिल खड़िया परम्पराओं के पोषक हैं और संभवत: उनके साथ इनके बहुत निकट के संबंध रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि सावरों ने भी महानदी की घाटी जो अब गंजाम और विशाखापत्तनम जिलों के नाम से जाने जाते हैं इस क्षेत्र में प्रवेश किया। यहीं से ये मुख्य जनजाति से अलग होकर उड़ीसा की पहाड़ियों में अपना स्वंत्रता अस्तित्व कायम कर लिया। इनक निवास धालभूम और बीरभूम में बना।
लेकिन आर. बी. रसेल की धारणा कुछ और है। सावरों की शास्त्रियों कहानियों के आधार पर रसेल कहते हैं कि ऐसा लगता है सावर के प्रथम पूर्वज किसी समय भील कहलाते थे। रसेल कहते हैं सावर शब्द 800 ईसा पूर्व से 1200 ईसवी के बीच संस्कृत साहित्य की विभिन्न पुस्तकों में उल्लेखित हुआ है। इससे यह संभावना बनती है कि सावर मुंडा जनजाति थी जिसका गोंडों से पूर्व इस क्षेत्र या भू- भाग पर अधिकार था।
धालभूम में रहने वाले सावर संभवत: मूल रूप से उड़ीसा और उसके आप – पास से यहाँ आये हैं, क्योंकि इन क्षेत्रों में सावर आज भी वैवाहिक संबंध स्थापित करते हैं।
सावर सजातीय विवाह करने वाले होते हैं तथा इन्हें चार उप जन - जातियों में विभाजित किया जाता है। धालभूम सब डिवीजन में सावर जनजाति की जाहरा उप – जनजाति निवास करती है जबकि इसकी तीन अन्य उप – जनजातियाँ उड़ीसा में निवास करती है।
सावरों में कोई गोत्र प्रथा नहीं होती है। धालभूम में सावरों के बीच विवाह रिश्तेदारी के आधार पर होती है। तीन पीढ़ियों तक के नातेदारों के साथ विवाह वर्जित होता है। इनमें नियोग और बहन संघ दोनों ही तरह की प्रथाएं विद्यमान हैं। इनमें विधवा विवाह की भी अनुमति है। शादी – विवाह तय कराने में कन्या दहेज़ की प्रथा आम है। दहेज की रकम साधारणत: विवाह की बात तय कराने वाले बिचौलियों की मदद से ही निर्धारित की जाती है। इस जनजाति में विवाह का प्रस्ताव लड़का पक्ष से आता है। चूंकि सावरों में बाल विवाह का प्रचलन है, विवाह के एक या दो दिन बाद दुल्हन अपने पिता के घर लौट जाती है। इसके बाद उसे अपने पति को देखने की अनुमति नहीं होती है। लड़की का दूसरा विवाह तब होता है जब वह बालिग़ और रजस्वला होती है। विवाह फाल्गुन (फरवरी – मार्च) तथा बैशाख (अप्रैल – मई) माह में सपन्न होते हैं। लड़के की ओर से लड़की के पिता के घर पर बारात आती है विवाह संपन्न कराने के लिए एक ब्राहमण पुजारी होता है। वर द्वारा कन्या के ललाट पर सिन्दूर लगाया जाता है। यह विवाह बंधन का प्रतिक है।
प्रसव बूढ़ी दाई करवाती है। प्रसव के नौ दिन बाद जच्चा – बच्चा स्नान करते हैं। जच्चा 21 दिनों तक अपवित्र मानी जाती है। उसके शुद्धिकरण के लिए समारोह मनाया जाता है। इस अवसर पर गांव वालों को भोज दिया जाता है। जब बच्चा एक या वर्ष का होता है तो उसका नामकरण किया जाता है। नामकरण के मौके पर भी नाते – रिश्तेदारों को दावत दी जाती है।
मृतक का अंतिम संस्कार उसका सिर उत्तर की दिशा में रख कर किया जाता है। इनमें शव को जलाने और दफ़नाने दोनों ही प्रथाएं हैं। मृतक यदि गरीब हो तो उसे दफना दिया जाता है शव को ससन (श्मशान) तक ले जाने के लिए लकड़ी की पट्टी या खाट को उलट कर प्रयोग में लाया जाता है। यदि किसी व्यक्ति की मौत चेचक या हैजे से होती है तो उसका शव जंगल में फेंक दिया जाता है।
सावरों की पारिवारिक संरचना पितृसत्तात्मक होती है तथा पैतृक संपत्ति पिता से पुत्र को हस्तांतरित होती है। पिता की मृत्यु के बाद उसके पुत्रों में संपत्ति बराबर बांट दी जाती है। सवरों में अधिकतर एकल परिवार का प्रचलन है। विवाह के बाद युवा दंपत्ति अपनी अलग गृहस्थी बसाते हैं। सावरों में एक पत्नी का रिवाज है लेकिन बहुविवाह से भी ये अनजान नहीं हैं। पिता के जीवनकाल में उसके विवाहित पुत्रों को जीवन – यापन के लिए पिता की सम्पत्ति का कुछ हिस्सा उन्हें दिया जाता है। विवाह होने तक लड़कियां भी भरन – पोषण के लिए सम्पति की अधिकारी होती है। इस जनजातीय समुदाय में गोद लिये गये बालक का भी सम्पत्ति पर पूर्ण अधिकार होता है।
धालभूम में रहने वाली सावर जनजाति का हिन्दूकरण हो गया है। यह जनजाति काली तथा मनसा देवी की उपसना करते हैं। इस जनजाति के धार्मिक रस्म रिवाज ब्राह्मण या पुरोहित सम्पन्न कराते हैं। आर्थिक बदहाली के कारण इनका सामाजिक स्तर तुलनात्मक रूप से बहुत निम्न है। यह जनजाति अपने जनजातीय रीति – रिवाजों से जुड़ी नहीं है इसका अब हिन्दूकरण हो गया है। समय बीतने के साथ धीरे – धीरे इस जनजाति का हिन्दू समुदाय में विलय हो जा सकता है। वर्तमान समय में किरास, लोहरा आदि सामान जातियों की तुलना में हिन्दू सामाजिक व्यवस्था में सावरों का स्थान ऊँचा नहीं है। नृत्य और गीत संगीत संस्कृतिक जीवन का अभिन्न अंग हैं। ये लोग जन्म, विवाह तथा अन्य उत्सवों पर नाचते गाते हैं। चावल की शराब या देशी शराब इनकी सामाजिक जरूरत बन गई है। सावर डोमकच तथा पंतासल्या नाच करते हैं। इस नाच में एक व्यक्ति नगाड़ा बजाता है जिसके समाने स्त्रियों गोल घेरा बनाने हुए नृत्य करती हैं।
इस जनजाति के आवास आयताकार होते हैं। मिट्टी से बने घर को साल, केंद और महूआ की लकड़ी तथा घास फूस से छारा जाता है। सामान्यत: इसमें एक ही कमरा होता है जो सोने के काम में आता है, इसका प्रयोग रसोई, अतिथिशाला और भंडार के रूप में भी होता है। इसके घर में एक दरवाजा होता है लेकिन खिड़की नहीं होती है। घर के अंदर लकड़ी के ताखे (रैक) बने होते हैं। जिस पर घरेलू उपयोग के सामान रखे जाते हैं। सामान्यत: चूल्हा कमरे के भीतर ही दक्षिण पश्चिम किनारे पर बनाया जाता है। इनके घर निश्चित कर्म में नहीं बने होते हैं।
सावर पुरूषों का पहनावा धोती और अंगा (शर्ट) होता है। जबकि स्त्रियां साड़ी इस तरह बांधती है कि उससे उनके शरीर का ऊपरी हिस्सा भी ढक जाता है। चार – पांच वर्ष तक के बालक बालिकाएं वस्त्र धारण नहीं करते। कपड़े बाजार से खरीदे जाते हैं।
दयनीय आर्थिक दशा के कारण सावर महिलाएं जेवर गहने नहीं खरीद पाती हैं। इनकी कुछेक महिलाओं के पास ही पीतल के गहने देखे जाते हैं। सामान्यत: इनके गहने घासों की मनकेदार माला, कांच के होते हैं। स्त्रियों पीतल की चूड़ियाँ, जिसे कहरू कहते हैं पहनती हैं। त्यौहारों तथा अन्य खुशी के मौकों पर युवा सावर लड़कियां अपने बालों को साल तथा अन्य फूलों से सजाती हैं।
यह जनजाति बाजार से ख़रीदे गए मिट्टी के बर्तनों में भोजन पकाती है। खाने की वस्तुयें धातु की थालियों में परोसी जाती है। ये ताड़ के पत्तों से चटाई बनाते हैं। इनके घर में पत्थर की चक्की (जाता), गुलेल टोकरियाँ, कुल्हाड़ी (टांगी), तीर कमान तथा झाड़ू आदि सामान देखे जाते हैं।
सावर अपनी आजीविका के लिए मुख्य रूप से मजदूरी और कुछ जंगली उत्पाद पर निर्भर रहते हैं। यह लोग सालों भर मजदूर के रूप में काम करते हैं। संताल, हो तथा अन्य हिन्दू जातियां इन्हें अपने यहाँ मजदूर के रूप में रोजगार देती हैं। कुछ सावर अपने घर के पास स्थित छोटी बारी में धान, मक्का, तथा बाजरे की फसल उगाते हैं लेकिन खेती के लिए इनके पास अपना हल बैल नहीं होता है। ये अपने पड़ोसियों से इसे उधार मांगते हैं। अधिकतर सावर स्त्रियाँ जंगल जा कर खाने योग्य कुछ कंद – मूल या फल – फूल जमा कर लाती हैं। ये लोग महूआ की शराब बनाते हैं तथा पैसे कमाने के उद्देश्य से शराब बेचते हैं। शिकार करना भी इनका पेशा है। ये मुख्यत: खरगोश, जंगली मुर्गी, छोटे पक्षियों और भालुओं आदि का शिकार करते हैं।
सावरों की अपनी पारम्परिक पंचायती व्यवस्था है। पंचायत का प्रमुख ग्राम प्रधान होता है। प्रधान का पद वंशानुगत हुआ है। प्रधान को उसके कार्यों में गोराईत नामक अधिकारी मदद करता है। गोराईत संदेशवाहक भी होता है। सावरों की परम्परागत पंचायत के अपने नियम –कानून हैं जिसके माध्यम से सावर समाज को नियंत्रित किया जाता है। सावर समाज में पर स्त्री गमन, जादू – टोना, चोरी तथा व्यभिचार जैसे मामलों को अपराध माना जाता है। ख़राब व्यवहार, बाँझपन, आलस्य तथा व्यभिचार के आधार पर तलाक की अनुमति होती है। सामाजिक, आर्थिक तथा राजनितिक पहलुओं से जुड़े मामलों की भी पंचायत में सुनवाई होती है। इस प्रकार इनकी पंचायत परम्परागत कानूनों का संरक्षक होती है।
आज की बदहाली परिस्थितियों और परिवेश में सावर जनजाति अन्य जनजातियों और गैर जनजातियों के संपर्क में आ रही है।
बिहार सरकार के कल्याण विभाग द्वारा सावर जनजाति के बालकों के लिए पूर्वी सिंहभूम जिले के घाटशिला में एक आवासीय स्कूल चलाया जा रहा है। 1981 में सम्पन्न जनगणना के आंकड़े के मुताबिक सावरों में शिक्षा का प्रतिशत 6.87 था। आंकड़ें के मुताबिक सावरों में 80 लोग प्राइमरी स्तर, 46 लोग माध्यमिक स्तर, 29 उच्च माध्यमिक स्तर तथा एक स्नातक स्तर तक शिक्षित व्यक्ति था।
स्त्रोत: कल्याण विभाग, झारखण्ड सरकार
अंतिम बार संशोधित : 12/20/2019
माल पहड़िया जनजाति झारखंड राज्य की एक प्रमुख अनुसूच...
बिरजिया जनजाति झारखंड राज्य की एक प्रमुख अनुसूचित ...
परहिया जनजाति झारखंड राज्य की एक प्रमुख अनुसूचित ज...
कोरवा जनजाति झारखंड राज्य की एक प्रमुख अनुसूचित जन...