অসমীয়া   বাংলা   बोड़ो   डोगरी   ગુજરાતી   ಕನ್ನಡ   كأشُر   कोंकणी   संथाली   মনিপুরি   नेपाली   ଓରିୟା   ਪੰਜਾਬੀ   संस्कृत   தமிழ்  తెలుగు   ردو

सामजिक प्रचलन

सामजिक प्रचलन – एक परिचय

सामाजिक संगठन की दृष्टि से उराँव जनजाति अन्य जनजातियों एवं जातियों से अनेक दृष्टि से अलग है। यद्यपि आज उराँव लोग विभिन्न जनजातियों में एवं जातियों के साथ रह रहे हैं। अत: उनके सामाजिक जीवन पर दूसरों का पर्याप्त प्रभाव पड़ा, साथ ही उन्होंने भी दूसरों को प्रभावित किया है। फिर भी सामाजिक दृष्टि से अपनी मौलिकता आज भी बहुत हद तक बरकरार रखे हुए है। उराँव जनजाति के रीति - रिवाज, धर्म, विश्वास कला, प्रथाएँ आदि ऐसी है जो दूसरों से इन्हें अलग करने में सर्मथ है, प्रस्तुत अध्याय में उराँव जनजाति के सामाजिक प्रचलनों को प्रतिपादित करने का प्रयत्न किया जाएगा।

परिवार

सामाजिक संरचना के अंतर्गत परिवार का अलग स्थान है। यह भी कहा जाता है कि परिवार सम्पूर्ण मानव समाज की आधारशिला है क्योंकि परिवार के माध्यम से ही हम संतति द्वारा अपने वंश को सुरक्षित रख सकते हैं। मानव समाज में परिवार एक सार्वभौमिक संस्था हैं। यह प्रत्येक मानव समूह के अंतर्गत पाया जाता है। चाहे वह आदि जनजाति हो आधुनिक। उराँव जनजाति व्यवस्था सचमुच ही ध्यान देने लायक है क्योंकि इस जनजाति समाज में आज के आधुनिक सभ्य समाज के जैसा ही छोटे परिवार और बड़े परिवार दोनों की प्रथा है। वैसे किसी भी मानव समाज में एक छोटा परिवार के अंतर्गत पति पत्नी और उनके बच्चे अनिवार्य रूप से इसके सदस्य होते हैं। यह प्रक्रिया उराँव जनजाति में भी पाई जाती है। इनके समाज में तो जैसे ही घर के लड़के की शादी कर दी जाती है वह नव-विवाहित पत्नी के साथ अलग रहने लगता है और छोटा सा परिवार बना लेता है। परंतु वृद्धावस्था आने पर युवक पुत्र और पुत्रियाँ एवं अपने माता पिता के सेवा भी करते हैं  और हर तरह से उनके देख – भाल भी करते हैं। इस तरह से अलग हो जाने पर भी उराँव समाज में परिवार संयुक्त की रहता है।

उराँव जनजातियाँ पूर्णतया कृषि प्रधान जनजाति है। इसके पुरूष खेतों में काम करते हैं और स्त्रियाँ घर – गृहस्थी के अन्य कार्यों में लगी रहती हैं। पंरतु खेती में भी कुछ ऐसे कार्य होते है जिनमें स्त्रियाँ भी अपना सक्रिय योगदान करती हैं। उदहारण के तौर पर धान रोपना, काटना तथा निकौनी करना आदि कार्य स्त्रियों के जिम्मे ही होता है। जिन दिनों कृषि कार्य नहीं चलता है उन दिनों उराँव युवक मछली मारना, शिकार खेलना आदि कार्यों में लगे रहते हैं। वर्तमान में ऐसी स्थिति है की कृषि का कार्य संपन्न होने पर भी ये उराँव युवक बंगाल, असम एवं अन्य औद्योगिक क्षेत्रों में जाकर संभवत: तीन – चार माह तक रोजगार कर लेते हैं। इधर घर की औरतें अपने बच्चों के साथ घर में अपने मवेशियों के साथ ही घर की देख भाल करती हैं। कभी – कभी तो ऐसा भी देखा गया है कि उराँव युवतियों को उपर लिखित जगहों के ठीकेदार उन्हें ईंट भट्ठा आदि स्थानों पर ले जाकर काम कराते हैं। यहाँ पर हमें यह कहते थोड़ी सी भी हिचक नहीं है कि बिहार सरकार अनेक प्रयत्नों के बावजूद हर क्षेत्र में इनका शोषण हो रहा है। इसके साथ ही इनका एक सुसंगठित परिवार पर  कुठाराघात किया जा रहा। फिर भी बिहार की अन्य जनजातियों की अपेक्षा उराँव जनजाति में शिक्षा का प्रचार प्रसार अधिक है और प्राय: प्रत्येक परिवार में इन दिनों सभी बच्चे किसी न किसी तरह शिक्षा ग्रहण कर रहे है और कुछ उच्च शिक्षा में भी पहुँच रहे हैं। उराँव समाज में स्त्री शिक्षा पर भी पर्याप्त बल दिया जा रहा है। वैसे उराँव परिवार पुरूष प्रधान परिवार है।

गोत्र

उराँव जनजाति में भी अन्य जनजाति की तरह ही टोटम के आधार पर गोत्र होते हैं। एक ही गोत्र में उत्पन उराँव चाहे कहीं भी रहे परस्पर भाई बहन की तरह माने जाते हैं। इस कारण उनमें परस्पर विवाह नहीं होता है। अधिकांश हिंदूओं  की तरह ही गोत्र व्यवस्था पाई जाती है परंतु जहाँ हिंदूओं में ऋषियों के नाम पर गोत्र होते हैं वहाँ उराँव में गोत्र टोटम पर आधारित होते हैं।

टोटम की परिभाषा देते हुए नोट्स ऑन क्वारीज ऑन एन्थ्रोपोलॉजी में लिखा गया है कि टोटम बाद में ऐसे सामाजिक संगठन तथा जादू, वंश, धर्म सम्बंधी व्यवहार का नाम है जिसके द्वारा कई जनजाति अपना गोत्र या वंश किसी जीवत या अजीवित वस्तु से जोड़ लेती हैं।

टोटम वस्तुतः गोत्र के सदस्य का एक चिन्ह होता है। यह टोटम कल्पित होता है और इस पर समाज के सभी लोगों का पूर्ण विश्वास होता है। कोई भी पशु, पक्षी, वृक्ष इत्यादि टोटम हो सकते हैं और उस टोटम को मानने वाले लोगों की यह धरना होती है कि यह टोटम उनके संकट की स्थितियों में उनकी रक्षा करेगा। जो लोग जिस टोटेम को मानते हैं उस टोटेम वाली पशु पक्षी या पौधे को वे पूजते हैं तथा उनकी हर प्रकार से सुरक्षा करते हैं। इसे हानि पहुंचाना मारना वर्जित माना जाता है।

उराँव जनजाति में अनेक प्रकार के टोटेम के आधार पर अनेक गोत्र पाये जाते हैं। कुछ प्रमुख गोत्र निम्नलिखित हैं –

पक्षी टोटेम

  1. बकुला 2. ढेंचुआ (एक छोटी काली चिड़िया जिसकी पूँछ लंबी होती है) 3. गरवा (सारस), 4. गेड़े (बत्तख), 5. गिधी (गिद्ध), 6. गिसलिही (एक प्रकार की चिड़िया),  7. खाखा (एक प्रकार की चिड़िया) 8. केरकेट्टा (गरैया),  9. कोकरो (मुर्गा), 10. ओरगोरा ( एक प्रकार की चिड़िया), 11. टिरखौर (एक प्रकार की चिड़िया), तथा 12. टोप्पो (लंबी पूंछ वाली एक चिड़िया)।

वनस्पति टोटेम

  1. बाखला (एक प्रकार का घास) 2. बारा (एक प्रकार का वृक्ष), 3. बासा (एक प्रकार का वृक्ष), 4. कांदा (मीठा आलू या शकरकंद), 5. केंदी (एक प्रकार का वृक्ष), 6. पेड़ी (धान का पौधा),  7. कुजूर (एक प्रकार का फूल), 8. कून्दरी (एक प्रकार की सब्जी), 9. बेक (नमक)

पक्षी टोटेम

  1. आइंद, 2. एक्का (कछुवा), 3 गोडा (मगरमच्छ), 4. लिंडा, 5. खलखो (एक प्रकार की मच्छली), 6. मिंज (एक प्रकार की मच्छली)

पशु टोटेम

  1. आडो (बैल), 2. आला (कुत्ता), 3. बांडो (जंगली बिल्ली), 4. बटवा (जंगली कुत्ता), 5. रूंडा (सियार), 6. किस्पोटा (सूअर), 7. लकड़ा (एक प्रकार का बाघ), 8. तिग्गा (एक प्रकार का बंदर)

औद्योगिक टोटम

  1. पन्ना (लोहा), 2. वेक (मक)।

गोत्र की अपनी विशेषताएँ है जैसे एक पक्षीय प्रकृति यह उभय पक्षीय नहीं होता। गोत्र या तो मातृ वंशीय होता है या पितृ वंशीय अर्थात सदैव  एक पक्षीय होता है। इसकी सदस्यता जन्मजात होती है। एक बार जिस गोत्र में व्यक्ति पैदा होता है। जीवन भर वह उस गोत्र का सदस्य बना रहता है। गोत्रों के सदस्य अपने को एक दूसरे के संबंधी मानते हैं। जिसके चलते अलग – अलग गाँव में रहने के बावजूद आपस में शादी – विवाह नहीं करते हैं। यही कारण है कि गाँव में बहिर्विवाह की तथा प्रचलित हैं।

इस प्रकार से गोत्र उराँव जनजाति के सामाजिक संगठन में एक मजबूत संगठन का काम करता है।

नातेदारी

उराँव जनजाति के मीती नातेदारी व्यवस्था एक जाल का काम करती है क्योंकि नातेदारी व्यवस्था के अंतर्गत ही मानव एक – दूसरे से संबंधित है। इसी संबंध के अंतर्गत मनुष्य एक- दूसरे के कभी बहुत निकट रहता है और इसी प्रकार से एक – दूसरे के मधुर संबंध के द्वारा बंधे व्यक्तियों के समूह को ही निश्तेदारी या नातेदारी कहते हैं। नातेदारी व्यवस्था में केवल प्राणी शास्त्रीय संबंध ही नहीं आते, बल्कि समाज द्वारा मान्यता प्रपात संबंध भी आते हैं।

जैसा कि हम सभी मानते हैं नातेदारी व्यवस्था दो प्रकार की होती है, एक विवाह द्वारा एवं दूसरा रक्त संबंध द्वारा। ठीक यही प्रक्रिया उरांव जनजाति के अंतर्गत भी पाई जाती है। फिर भी अन्य जनजातियों के अपेक्षा इनके यहाँ संबोधन के कुछ खास तरीके है। जैसे एक उराँव अपने बाप के भी भाईयों को बा कहकर संबोधन करता है इसी प्रकार अपनी माता और इन सभी महिलाओं को जिनसे पिता की शादी हो सकती है एक शब्द आयो कहलाता है।

उराँव जनजातियों में नातेदारी शब्दों को हम इस तरह से प्रस्तुत कर सकते हैं –

  1. एमबस                      पिताजी के लिए।
  2. गे काकस                    पिताजी के छोटे भाई के लिए।
  3. गे वाराम कोहा एमबस         पिताजी के बड़े भाई के लिए।
  4. गे ससुर                     पत्नी के पिताजी के लिए।
  5. गे बारस                     नाना जी के लिए।
  6. गे भाया ससुर                मामा ससुर के लिए।
  7. आयो                       माँ के लिए।

विवाह

अति प्राचीनकाल से हि संसार की सभी जातियों एवं जनजातियों में विवाह प्रथा का उल्लेख मिलता है।  निश्चित रूप से आज के समाज में जिस ढंग की प्रथा पाई जाती है वह प्राचीनकाल में नहीं रही होगी। आज वैवाहिक धारणाओं का सुधरा हुआ रूप है। किसी भी समाज में यौन अराजकता को दूर करने के लिए विवाह रुपी संस्था का जन्म हुआ होगा। विवाह सामाजिक मान्यता प्राप्त ऐसी प्रथा, संस्था या नियम है जिसके अनुसार स्त्री – पुरूष के यौन – संबंध नियमित होते हैं और जिसके कारण घर बसाने तथा संतान के पालन – पोषण के लिए एक स्थायी आधर प्राप्त है।

उराँव जनजाति में भी भारत की अन्य जातियों की तरह हि विवाह प्रथा पायी जाती है। पिछले पृष्ठ पर यह कहा जा चुका है कि उराँव जनजाति गोत्रवाद को स्वीकार करती है और इस आधार पर एक ही गोत्र में उत्पन्न बालक – बालिकाओं को भाई – बहन की तरह माना जाता है इसलिए गोत्र में विवाह पूर्णतया वर्जित है। इस प्रकार उराँव जनजाति भी बहिर्गामी विवाह का उदहारण है। एक ही गोत्र में कभी भी विवाह नहीं होता है परंतु बच्चों के विवाह के समय उसकी माँ के गोत्र में तीन पीढ़ी तक को वर्जित माना जाता है। हिन्दू जाति में पिता के पक्ष में इसके सरगोत्रा और माता के पक्ष से सकुल्य कहा जाता है वहीँ बात उराँव जनजाति पर भी लागू होती है। परंतु हिन्दू जाति में जहाँ सकुल्य सात पीढ़ियों को स्वीकार किया गया है। वहीँ उराँव जनजातियों में तीन पीढ़ियों को सकुल्य माना गया है।

उराँव विवाह का ढांचा जैसा भी हो, परंतु प्रत्येक जनजाति में अपना जीवन साथी चुनने के विशेष तरीके प्रचलित हैं। एक जनजाति किसी एक ही तरीके प्रणाली पर निर्भर नहीं करती, वरन यह भी संभव है कि उसमें एक से अधिक तरीकों द्वारा विवाह संबंध स्थापित किये जाते हैं। उदहारण के तौर पर आपसी बातचीत के द्वारा विवाह संबंध तय करना। आज यह भी प्रथा प्रत्येक गाँव में पूर्ण रूपेण प्रचलित है। इस प्रकार विवाह में लड़के वाले, लड़की वाले के घर गाँव के ही किसी विशेष व्यक्ति, जो लड़की वालों से भी परिचित हों, को भेजा जाता है। वे वहां अपने आने का उद्देश्य लड़की वालों को बतलाते हैं, रात को घर में सभी लोगों के बीच बैठक होती है। उसी समय एक - एक दोना हड़िया के साथ विवाह की बात चलने लगती है। अनेक तरह के विचार – विमर्श के बाद यह तय होता है कि आप उन लोगों को खबर कर सकते हैं कि हमलोग अपनी लड़की देगें। मध्यस्त करने वाला लड़के के गाँव वापस आ जाता है, लड़के वालों को यह शुभ समाचार देता है। कुछ दिन बाद विवाह संबंधी प्रथम अध्याय शुरू होता है। जिसे – घर – वर देखना कहते हैं

  • घर वर देखना

इसमें लड़की के घर वाले, लड़के के घर चले जाते हैं। लड़के वाले उनकी अच्छी तरह से स्वागत करते हैं। रात को उनके लिए मन्यासंभव जो भी उनके स्वागत के हेतु बन पड़ता है लोग पीने और खाने की व्यवस्था करते हैं। यदि लड़की वालों को लड़का एवं उसका घर पसंद हो जाता है तो वे दिन का भी भोजन करते हैं। संध्या विदा लेकर वापस चले जाते हैं।

  • जोममाड़ी (बड़ा खाना या बड़ा मेहमान)

इसमें लड़की वालों के द्वारा लड़के के घर में बुला कर बड़ा खाना दिया जाता है। इस प्रकार के बड़ा खाना में प्राय: लड़के के सभी नजदीकी संबंधी आते हैं जो संख्या में लगभग 20 – 25 के होते हैं। इनके लिए स्वागतार्थ खस्सी एवं हड़िया की प्रचुर मात्रा की व्यवस्था की जाती है। रात भर वे विवाह संबंधी चर्चायें एवं विवाह गाना गाते हैं। सुबह नहा – धोकर वे सभी आंगन में बैठते हैं और लड़का को बीच में बैठाकर सामाजिक रस्म – रिवाज पूरा करते हैं। विवाह को अंतिम रूप देने के लिए किसी खास दिन का चुनाव करते हैं। दोपहर का भोजन लेते हैं और लड़की के गाँव वापस होते हैं।

  • वैवाहिक रस्म

निश्चित दिन लड़का बारात पार्टी लेकर लड़की के गाँव आता है। इसके पहले लड़का एवं लड़की दोनों के घर में झुमड़ा (मड़वा) गाड़ना होता है। लड़का जब गाँव पहुँचता है तो गाँव के सारे लड़के - लड़कियां उनका स्वागत करते हैं उन्हें जनवासा के तौर पर किसी खास जगह पर ठहराया जाता है। लड़के के अभिभावक लड़की के घर आते हैं, पहले लगन लेने की बात होती है, इसी समय लड़की के लिए कपड़ा, सोना आदि लाया हुआ, लड़की एवं उसके माता – पिता को दिया जाता है। थोड़ी देर बाद बारात परछाने के लिए लड़की के घर से दल – बल, गाजा – बाजा, लोटा – पानी, आम की डाली एवं जलते हुए अंगारे के साथ जनवासा में पहुंचते हैं। दोनों तरफ से जम कर नाच होती है उसी क्रम में पूरे गाँव की परिक्रमा कराते हुए लड़की के घर पहुँचते हैं। लड़की की सहेलियां मुख्य प्रवेश द्वार अस्थायी धरना देती है। लड़का जब नियम अनुसार कुछ पैसा देता है तो लड़कियाँ द्वार खोल देती हैं। लड़कों को लेकर फिर घर के भीतर जाते हैं एवं शादी की तैयारियां होने लगती है। इस क्रम में एक रस्म होता है जिसे तेल रखौनी कहते हैं। इसमें दोनों तरफ के अभिभावक घर के बरामदे पर बैठकर दोनों तरफ से लाया हुआ तेल एवं सिंदूर का आदान – प्रदान करते हैं। यह रस्म खत्म होते ही लड़के – लड़की को लाकर सिंदूर दान करते हैं और शादी की रस्म पूरी हो जाती हैं। उसके बाद लोग रात भर खाना पीना करते हैं।

यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है जब तक शादी नहीं हो जाती तब तक लड़के वाले को लोग खाना - पीना एवं नाश्ता नहीं देते हैं।

शादी के बाद सुबह बारात पार्टी लड़की वाले खाना खिलाकर विदा कर देते हैं। दूसरे दिन लड़की वाले सराती के रूप में गाँव को लोगों के साथ लड़की लाने जाते हैं। ये भी वहां पहुंचते है तो इनका अच्छा स्वागत होता है। पहले लोग इनका पैर धोते हैं फिर चूना - तंबाकू के साथ विशेष झमड़ा पर बैठाते हैं। रात भर हड़िया पीते, शादी गाना गाते एवं फिर सुबह इन्हें भोजन (शादी खाना) कराते और लड़के के साथ लड़की को भी विदा कर देते हैं। गाँव आकर विवाहित युवक अपने गोत्र सबंधी के घर जाकर गोड़ (प्रणाम) लगते हैं इस प्रकार से एक उराँव अपने परिवार में शादी कर लेता है।

जोंख ऐरपा

जोंख ऐरपा उराँव लोगों का एकल शैक्षिणक संस्था है जिसे हिंदी में युवा गृह कहते हैं। यह संस्था उराँव लोगों के बीच प्राचीन काल से चली आ रही है। इस संस्था के द्वारा गाँव के कुंवारे लड़कों को  शिक्षा दी जाती है। इसी युवा गृह में युवकों को सामाजिक एवं नैतिक शिक्षा भी दी जाती है। यद्यपि इनके लिए रीति – रिवाज मुंडा और हिंदूओं के सांस्कृतिक समिश्रण के कारण आ गये तथापि जोंख ऐरपा प्राचीन समय से उराँव संस्कृति में पाई जाती है।

युवा गृह का भवन मिट्टी के दिवार से घिरा होता है, जिसमें एक केवल एक दरवाजा होता है और इसकी छत या तो पुवाल से बनी होती है या खैपरल का। इसके भीतर सोने के लिए ताड़ दे पत्ते से बना एक मचान होता है। किसी एक कोने पर लकड़ी का ढेर किया जाता है। ताकि जाड़े के दिनों में कमरे को गर्म रखने के लिए जलावन के उपयोग में लाया जा सके। इस घर में लगभग नाच – गान से संबंधित यंत्र होते है जैसे गाँव के दर्जनों झाड़ों, दो – तीन नगाड़े, दो - तीन मांदर, दो - चार नरसिंघा एवं लकड़ी के बने गोत्र टोटम के रूप में बड़े या छोटे पशु और पक्षी का स्वरुप रखा जाता है क्योंकि इन यंत्रों का व्यवहार यात्रा, त्यौहार और शिकार के अवसरों पर होता है। युवागृह एवं इसके कामों को देखने के लिए एक महतो (सरदार) का होना आवश्यक होता है। इनकी मदद के लिए कोटवार का होना भी आवश्यक समझा गया है। क्योंकि युवागृह (धुमकुरिया) के सदस्य का प्रवेश दस – ग्यारह वर्ष की अवस्था से लेकर 20 – 22 साल तक की अवस्था तक होता है। अत: इन सब को अपने समाज के रीति – रिवाज एवं सामाजिक कर्तव्यों के पालन सांस्कृतिक परंपराओं तथा धार्मिक अनुष्ठानों की शिक्षा यहीं दी जाती है। यह सब काम महोत के जिम्मे होता है। मगर कोटवार को पूरा अधिकार दिया जाता है कि वह युवागृह के सदस्यों को नाच और यात्रा में उपस्थित होने के लिए बाध्य करें। आवश्यकतानुसार उन्हें दंड भी दे सकता है।

जोंख ऐरपा का काम सुचारू रूप से चले इसके लिए सदस्यों को तीन साल तक फ़ीस के रूप में समय – समय पर करंज का फल लेना पड़ता है इस करंज के फल से तेल निकाल कर युवागृह के कमरे को उजाला किया जाता है। हर तीन साल में युवागृह में प्रवेश पाने संबंधी रोचक कथा है, जैसे माघ महीने के शुक्ल पक्ष की द्वितीय को लड़कों को तीर और भाले के साथ जंगल में शिकार करने जाना पड़ता है। शाम को शिकार करके वापस लौटते हैं। नए लड़के उस जमीन को साफ करते हैं, जहाँ शिकार को रखा जाता है। अब पुराने लड़के आपस में सोच – विचार में लगते हैं कि कुछ नए लड़कों को इस जोंख ऐरपा में प्रवेश देना चाहिए। जिन लड़कों को अनुमति मिल जाती है, उनके घर में शिकार के मांस को साल के पत्ते में लपेट कर पहुंचा दिया जाता है। पूर्णिमा के दिन एक रस्म करके नये सदस्यों को बकरे का मांस खिला कर पूर्ण रूप से धुमकुरिया, युवागृह या जोंख ऐरपा का सदस्य मान लिया जाता है।

परंतु इन दिनों इस संस्था पर बाहरी लोगों की नजर लग गई है। सरकारी योजना के साथ सरकारी आदमी उराँव गाँव में प्रवेश पा गया है। आधुनिकता की पहुँच ने इन सीधे – साधे उराँव को अपने में जकड़ लिया है। अन्य जातियों के सम्पर्क से यह संस्था इन दिनों टूटती जा रही है। युवा गृह के सदस्यों का मुख्य कार्यक्रम नाच और गाना है। रात के समय गाँव की प्राय: सभी यूवातियाँ आखाड़े में इकट्ठा होती है और नाचती – गाती हैं। त्यौहार आदि के अवसर पर तो ये लोग लगातार कई दिन और रात नाचते और गाते हैं। रात को खाना खाने के बाद लड़के – लड़कियां सभी नाचते हैं जिसका अवलोकन कोटवार करता है।

इनके नाच - गान में केवल मनोरंजन ही नहीं होता है, बल्कि अपने कृषि के उत्पादन और मवेशियों की सूखी संपनता के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते हैं। अखाड़े में नाच – गान के द्वारा गाँव का पहरा भी करते है एवं बाहरी व्यक्तियों के हमलों से गांव को बचाते हैं। इनके नाच – गान विभिन्न अवसरों पर विभिन्न प्रकार के होते है और हर नाच के अलग – अलग गाने होते है।

उराँव लड़के – लड़कियों के लिए यात्रा (पड़हा) से बढ़ कर कोई त्यौहार नहीं है, क्योंकि यात्रा के दौरान कई पड़हा के लड़के – लड़कियाँ सम्मिलित होते हैं। इस यात्रा के दौरान लड़के – लड़कियां एक - दूसरे को अपना जीवन साथी भी चुनते हैं मगर इनके शादी माता – पिता की अनुमति पर निर्भर करती है। इस प्रकार के यात्रा में उराँव युवक – युवतियाँ अपना प्रेम भाव को एक दूसरे के प्रति व्यक्त करते हैं।

स्त्रोत: कल्याण विभाग, झारखण्ड सरकार

अंतिम बार संशोधित : 2/29/2020



© C–DAC.All content appearing on the vikaspedia portal is through collaborative effort of vikaspedia and its partners.We encourage you to use and share the content in a respectful and fair manner. Please leave all source links intact and adhere to applicable copyright and intellectual property guidelines and laws.
English to Hindi Transliterate