অসমীয়া   বাংলা   बोड़ो   डोगरी   ગુજરાતી   ಕನ್ನಡ   كأشُر   कोंकणी   संथाली   মনিপুরি   नेपाली   ଓରିୟା   ਪੰਜਾਬੀ   संस्कृत   தமிழ்  తెలుగు   ردو

पंडित रघुनाथ मुरमू - ऑलचिकि लिपि के नृवैज्ञानिक

परिचय

पंडित रघुनाथ मुरमू का जन्म 5 मई 1905 को डाडपोस नामक छोटे से गाँव जो रायरंगपुर से 4 कि. मी. दूर है हुआ। उनके पिता नन्दलाल ने मैट्रिक तक शिक्षा दिलवायी। इसके बाद वह विद्युत विभाग बारीपदा में अप्रेंटिस का कार्य करने लगे। अप्रेंटिस के दौरान एक दिन राज्य के मुख्य इंजीनियर श्री बेल बुड को संस्थापक ब्लू प्रिंट्स में गलतियाँ बताकर अपनी तीक्ष्ण बुद्धि का परिचय दिया।

इसके बाद वह दरियां बुनना शुरू उसमें भी नए – नए प्रयोग करते हुए धागों को नए ढंग से सजाकर सुन्दर दरिया बुनने लगे। उनके इन दरियों के तरफ मयूरभंज के दीवान पी. के. सेन का ध्यान गया। सेना ने उन्हें औद्योगिक शिक्षा के लिए कलकत्ता भेजा वहां से लौटने के बाद वह बारीपदा पूर्णचंद्र के औद्योगिक संस्थान में शिक्षक हो गये। इस बीच पिता की मृत्यु के बाद वे घर के पास ही रहना चाहते थे और अपने स्थानान्तरण करवा लिए। वे बादामतलिया मिडिल विद्यालय में प्रधानाचार्य हो गये।

गुरू गोमके एवं पंडित की उपाधि

पं रघुनाथ मुरमू एक बड़े धार्मिक नेता और संथाली समाज के सामाजिक, सांस्कृतिक एकता के प्रतिक रहे हैं। 21 फरवरी 1977 को पश्चिम बंगाल के झाड़ग्राम से 3 कि. मी. की दूरी पर बेताकुन्दरीडीह ग्राम में एक संथाली विश्वविद्यालय का शिलान्यास किया उनके इस योगदान के लिए मयूरभंज आदिवासी महासभा ने उन्हें गुरू गोमके (महान शिक्षक) की उपाधि प्रदना की।

रांची के घुमकुरिया ने आदिवासी साहित्य में उनके अपूर्व योगदान के लिए उन्हें डी. लिट प्रदान की। आदिवासी नेता श्री जयपाल सिंह ने उन्हें नृवैज्ञानिक और पंडित कहा। चारूलाल मुखर्जी ने उन्हें संथालियों के धार्मिक नेता तथा प्रो. मार्टिन ओराँव ने ऑलचिकी लिपि की प्रशंसा करते हुए उन्हें संथालियों के धार्मिक गुरू कह कर संबोधित की है।

ऑलचिकि लिपि और वर्णमाला की उत्पति

रघुनाथ मुरमू के दिमाग में ऑलचिकि लिपि के अविष्कार की बात कैसे आयी यह बात उनके कई साक्षात्कारों से छनकर आती है कि पुरानी कथाओं एवं गीतों में खासकर बिन्नी गीतों में ऑलचिकि का जिक्र आता था। उनके अनुसार यह नाम कैसे हो सकता था अगर यह चीज नहीं थी। रघुनाथ मुरमू संथालों के सामाजिक, सांस्कृतिक भाषा के विकास के लिए सोचते रहते थे इसी क्रम में उनके दिमाग में संथालियों के लिए एक अलग लिपि की बात आयी।

जयपाल सिंह ने अपनी पत्रिका आदिवासी सकम में लिया कि आदिवासियों को अपनी जातीयता का बोध कराना एक जरूरी सवाल बना हुआ है और कई लिपि की मान्यता देने से उनमें अस्तित्व बोध का जागरण होगा। ऐसी ही सोच रघुनाथ मुरमू की भी थी। उनको भी लगा रहा था कि दूसरी जातियां संथालियों को हेय दृष्टि से देखते हैं, क्योंकि संथाली अशिक्षित थे। मुरमू की सोच थी कि जब तक संथाल अपनी भाषा, साहित्य, परम्पराओं एवं सांस्कृति से पूरा परिचित नहीं होंगे जब तक जागृति नहीं आयेगी। इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने निश्चय किया कि एक अपनी लिपि, वर्णमाला जो मुंडाओं के अक्षरों को समेट सके उनका खोज किया जाये। इसमें  बंगाल, बिहार, उड़ीसा और असम के संथाली भाषी एक हो। मयूरभंज के महाराजा पी. सी. भंजदेव यह लिपि देखकर खुशी हुए और इसके विकास तथा प्रचार – प्रसार के लिए राज्य में कार्यक्रम जारी किया। तीन वर्ष बाद रघुनाथ मुरमू प्रोन्नति पाकर रायरंगपुर हाई स्कूल चले गये। सन 1964 में निजी कारणों से अपने पद से त्याग पत्र दे दिए।

ऑलचिकि लिपि और भाषा को गैर संथाली आदिवासी न तो अपनाए न मान्यता दिए। इसका कारण यह रहा कि पं मुरमू ने भी इसको प्रारंभ से ही संथाली लिपि ही माना। इसमें अन्य जनजातियों के भाषाओँ के लिपि को थोड़ा बहुत स्थान न दिया। यहाँ यह कहना अनुचित नहीं होता कि संथाल नेताओं के मत भी ऑलचिकि मामले में बंटे हुए थे। एक बड़ी संख्या बिहार और बंगाल से जो काफी मुखर थी, चाहती थी कि रोमन लिपि का भी संथाली भाषा के लिए प्रयोग हो, इसलिए भी ऑलचिकि का उतना व्यापक प्रयोग नहीं हो पाया।

ऑलचिकि  का प्रचार – प्रसार

शिक्षित संथाली अपनी बात चार लिपियों – उड़िया, बंगाली, देवनागरी एवं रोमन से करते थे। यह ऑलचिकि के प्रचार के लिए विशेष उलझन बन गयी। रघुनाथ मुरमू ने सोचा कि इस समस्या का सबसे अच्छा समाधान यह होगा कि प्राथमिक शिक्षा संथालियों को उनकी भाषा एवं लिपि में ही हो जाए। परंतु निम्नलिखित कारणवश यह संभव नहीं हो पाया।

1. संथाली भाषा एवं ऑलचिकि में अच्छे पुस्तकों की कमी।

2. इस लिपि एवं भाषा में अच्छे शिक्षकों की कमी।

3. इस लिपि एवं भाषा में प्रकाशित साहित्य की कमी जो भाषा का गरिमा प्रदान कर सकता है।

4. संथाली जनसमुदाय में इस सीखने और प्रयोग करने के दृढ़ निश्चय की कमी। स्थानीय भाषाओँ के बदले आपसी आदान – प्रदान में अगर इसका प्रयोग होता तो शायद समस्या कम हो जाती है।

1946 ने खरवाल जरपा समिति ने नेलजोंग लागित ऑलचिकि जमशेदपुर में प्रकाशित किया और ठक्कर बापा उप – समिति जब चाईबासा आई तो उन्हें भेंट स्वरुप दिया गया। रायरंगपुर के सामाजिक, शैक्षिक और सांस्कृतिक संस्था असेका ने संथाली साहित्य और ऑलचिकि की प्रोन्नति का भर उठाया और असेका ने सेमलेट सकवा पत्रिका निकाली जो ऑलचिकि में थी।

ऑलचिकि में शिक्षा की पुस्तकों को लिखने के साथ साथ संत मुरमू को इस बात की जानकारी थी कि बड़ी संख्या में शिक्षकों को शिक्षित करने की भी आवश्यकता है। जुलाई 1967 में एक सेमलेट एम. ई. विद्यालय की स्थापना की गयी ताकि शिक्षकों को यहाँ शिक्षित किया जा सके। जाने माने संथाली नेता इसमें इसमें समय – समय पर क्लास लिया करते थे। असेका संस्था ने शिक्षा के कई शिविर चलाए जो सात से दस दिनों के लिए जगह – जगह पर खोले गये जिसमें ऑलचिकि लिपि और भाषा सीखने की सरल विधियाँ बतायी गयी।

ऐसे शिक्षा शिविरों के अतिरिक्त इतुन आसाम नाम की गई शैक्षिक संस्थाएं खोली गयी जहाँ प्राथमिक शिक्षा दिया जाने लगा। 1976 – 77 में ऐसी ही 24 इतुन आरू मयूरभंज में चलाये गये थे और इनमें 35 विद्यार्थी ऑलचिकि लिपि और भाषा में पढ़कर उत्तीर्ण हुए थे। इन संस्थाओं को चलाने के लिए असेका ने एक शिक्षा परिषद की स्थापना की जिसमें अध्यक्ष सचिव और कई सदस्य भी हैं। परिषद ने प्राथमिक पाठ्य पुस्तकों को प्रकाशित किया और स्नातक स्तर तक का व्याकरण और भाषा की पुस्तकों भी तैयार किया।

मयूरभंज के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और पं रघुनाथ मुरमू

सन 1949  में मयूरभंज स्टेट का उड़ीसा में विलय हुआ तो आदिवासियों की एक बड़ी संख्या विशेषकर संथालियों सोनाराम सोरेन के नेतृत्व में मयूरभंज का जिला बिहार के साथ करना चाहते थे इस कारण उनमें काफी असंतोष भी रहा। उन्होंने अपनी सभाओं में यह आवाज भी उठाई की मयूरभंज पहले सिंहभूम को उड़ीसा का हिस्सा बनाया जाता तो मयूरभंज को भी बिहार में मिलाया जाना चाहिए। अगर सिंहभूम को उड़ीसा का हिस्सा बनाया जाता तो मयूरभंज भी उड़ीसा का हिस्सा हो सकता था. ये आन्दोलन प्रखरता से चला सभी तरफ कानून और व्यवस्था की समस्याएँ बढ़ गयी। आदिवासियों ने पूर्ण रूप से प्रशासन को गतिहीन करने की कोशिश की। सरकार ने हारकर पुलिस द्वारा गोलियां चलवाई तथा बहुत से लोगों को जेल में बंद कराया। सन 1950 में सरकार ने जेल में आदिवासियों को रिहा कर दिया। आदिवासियों को काई रियायतें भी दी गयी।

इस समय तक रघुनाथ मुरमू  ने ऑलचिकि का अविष्कार कर दिया था और कई नाटक इस लिपि में लिख चुके थे। उनकी सहानुभूति मोर्चे के साथ थी पर वे अपनी बातों में सामाजिक एवं सांस्कृतिक कार्यों पर अधिक जोर डालते थे।

मयूरभंज की ऑलचिकि समिति ने सन 1953  में एक आदिवासी सांस्कृतिक संघ की स्थापना का प्रस्ताव लाया और उसका उद्घाटन 14 मार्च 1954 को नाकीबगान में हुआ। सभा में संकल्प लिया गया कि संघ को कैसे चलाया है।

1.  ऑलचिकि द्वारा आदिवासियों को साक्षर बनाना, पुराने गीतों एवं परंपराओं का संग्रह – था में पढ़ाने योग्य नृत्य एवं संगीत को प्रोत्साहित करना।

2.  आदिवासी छात्रों की पढ़ाई उनकी अपनी भाषा तथा लिपि में ही होनी चाहिए।

3.  प्रत्येक आदिवासी गांव में एक शिक्षक की बहाली होनी चाहिए जो गांव के लड़के – लड़कियों को पढ़ा सके।

4.  आदिवासी सांस्कृतिक संस्था के सदस्य इन विद्यालय का निरीक्षण करके शिक्षकों का मार्गदर्शन करेंगे।

5.  सरकार द्वारा एक पर्यवेक्षक की नियुक्ति करायी जाएगी जो विद्यालयों का पर्यवेक्षण करें।

सरकार आदिवासियों की शिक्षा उनकी ही भाषा में आश्रय विद्यालयों सेवाश्रमों और प्राथमिक विद्यालयों में दें।

1962 में संघ का नाम बदलकर आदिवासी सामाजिक  शैक्षिक और सांस्कृतिक संघ रखा गया। 1964 में इसका विधिवत पंजीकरण भी हुआ। संघ को हर समय रघुनाथ मुरमू ने परामर्श निर्देश देकर मार्गदर्शन किया। 23  एवं 24 जून 1962  को रायरंगपुर  की सभा में एक संघ की एक एडहाक समिति की स्थापना हुई। संस्था ने इन्हीं भाषाओँ में प्रशिक्षण दिया ताकि भाषा को प्रचलित एवं प्रसारित करने में सुविधा हो।

सामाजिक शैक्षिक और सांस्कृतिक सम्मलेन

21 एवं 22 अक्टूबर 1966 को आदिवासी सामाजिक शैक्षिक और सांस्कृतिक सम्मलेन में निम्न प्रस्ताव पारित हुए –

1.  आन्दोलन को राष्ट्रीय स्तर देना।

2.  समुदाय के सरपंच को सामाजिक झगड़ों को सुलझाने का अधिकार।

3.  मासिक पत्रिका सगन सगम के लिए डाक की दरों में छुट विभाग दवारा।

जुलाई 1967 में संस्था ने रायरंगपुर में सेमलेट एम्. ई. स्कूल प्रारंभ की। विद्यार्थियों को इस ओर आकर्षित करने हेतु प्रवेश एवं पढ़ाई आदि की फीस माफ कर दी गयी। स्थायी शिक्षक के अलावे संस्था के मुख्य नेता भी यहाँ भिन्न –भिन्न विषयों को पढ़ाया करते थे।

13 अक्टूबर 1967 के खुले अधिवेशन में चकुलिया (बिहार) में संस्था के उद्देश्यों पर विशेष चर्चा करते हुए कई प्रस्ताव पारित किए गए। जैसे पाटानाय की निंदा, जहेरा (पूजनीय भूमि) का बचाव, आदिवासी बच्चों की प्राथमिक शिक्षा ऑलचिकि में करवाने की मांग आदि। 1969 से 1975 के बीच संस्था का कार्य कुछ धीमा पड़ गया। पुनः 1976 – 77 के कार्यक्रम के अनुसार संस्था ने मांग किया कि संथाली साहित्य का विकास ऑलचिकि के माध्यम से हो। आदिवासी संस्कृति और सामाजिक सुधार की प्रोन्नति पत्रिका सारेन सकम का प्रकाशन हो। संस्था का कार्य बहुत आगे नहीं बढ़ रहा था। रघुनाथ मुरमू इससे नहीं थे, समय – समय पर वह दुःख प्रकट करते थे। कहते थे कि सभी कार्यकर्ता अपनी भलाई के लिए ही काम करते हैं, समाज संस्कृति के लिए आज कौन कुछ करना चाहता है।

18 – 20 जनवरी 1977 को झाड़ग्राम में त्रिदिवसीय अखिल भारतीय आदिवासी संथाल समागम हुआ। इसमें असम, बिहार, उड़ीसा तथा मध्यप्रदेश के लोग भी भाग लिए थे। सर्वसम्मति से यह पारित हुआ कि ऑलचिकि ही संथाली शिक्षा का माध्यम बने। सरकार से मांग की गयी कि संथाली संस्कृति और त्योहारों के उपलक्ष्य में 6 छुट्टियाँ ही दी जाय। पं. मुरमू  ने संथाली विश्व विद्यालय का शिलान्यास किया।

संघ की सारी गतिविधियों कार्यक्रमों आदिवासी संस्कृति, साहित्य के संरक्षण एवं एकता के लिए है, इन सबके संचालन में पं. मुरमू का का विशेष मार्गदर्शन रहा है।

पं. मुरमू द्वारा ऑलचिकि में प्रकाशित पुस्तकें

1.  ऑल सिमेट(संथाली प्राइमर) – चित्रों से सज्जित एक अच्छी प्राइमर है जो असेका द्वारा प्रकशित की गयी है जिसके दस संस्करण निकल चुके हैं।

2.  परसी त्योहा (संथाल रीडर भाग एक और दो- उगते ओकुर की – चकुलिया के असेका द्वारा 1968 में प्रकाशित की गयी।

3.  एलखा पाताल (प्राइमरी छात्रों के लिए गणित) – कई संस्करण निकल चुके हैं।

4.  पारसी इटुन (शिक्षकों के लिए संयुक्त पाठ)- यह पुस्तक फ़रवरी 1975 में प्रकाशित किया गया।

असेका संस्था का मुख्य उद्देश्य यह है कि शिक्षकों को ऑलचिकि में शिक्षित करना ताकि वे सरल व्याकरण रचना और गणित के लिए इसका प्रयोग कर सके। पाठ्यक्रम में भी संथालों के आस – पास के पर्यावरण को देखते हुए उनके घरों, गाँवों, आपसी सम्बन्ध आदि के विषय है।

पं. मुरमू ने अपनी अनेक रचनाओं में संथालियो के उज्जवल परंपरा उनकी अछूतेपन और नैतिक मूल्यों पर स्थिर है इसी कारणवश वे अपनी पौसा की परंपरा के विषय में हर वक्त बोलते रहते हैं।  ऐसी रचनाओं में तीन नाटक हैं –

1.  विदुचंदन

2.  खेखाल वीर

3.  दरिगे धान।

पहले का नाटक बहुत ही प्रसिद्ध और स्टेज पर मंचन किये जाने योग्य है। इनकी कहानियां अच्छी हैं। इन नाटकों को किवदंती, इतिहास और रोजमर्रे के सामाजिक प्रश्नों को पाया जाता है।

विदुचंदन में मुरमू ने जाति के लिए जान देने वाली बात पर जोर दिया है। विदुचंदन देवताओं के नर्तक है और भगवान मारंगबूरू ने उन्हें धरती पर इसलिए भेजा है कि नृत्य और संगीत के दैनिक गुणों से जाति को अवगत करा सके। यह नाटक दैवी पात्रों का जीवन गाथा है, जिसके कुछ अंश जो सुन्दर, पूज्य एवं विश्वव्यापी हैं को नाटक में प्रस्तुत किया गया है।

खेखाल वीर में दमनी (ख़राब शक्ति) और मानकी (अच्छी शक्ति) का वर्णन है। संथालों को मूलतः खेखाल कहा जाता था यह नाटक पूरी जाति को नैतिक श्रेष्ठतम देता है।

दारेगेधान नाटक में ब्रह्माचर्य के गुणों का गुणगान है। इसमें लोगों का नाचना गाना शिकार पर जाना आदि गुणों का वर्णन है। इस नाटक में यह सीख दी है गई है की स्वास्थय और शक्तिवान बने रहने के लिए हड़िया को सिर्फ त्योहारों पर ही प्रयोग करना चाहिए।

मुरमू ने अपनी बाखेन (1967) नाम की पुस्तिका में संथालियों के बीच वर्षों से प्रचलित गीतों एवं भजन का संग्रह है। उनहोंने संथाली जनता को सलाह दिया है कि वे इन भजनों एवं गीतों को भूलें नहीं बल्कि प्रत्येक अवसर पर गायें बजायें। जैसे – (1) बाहा (फूलों का त्यौहार) (2) इरोह या इरोक (रोपनी), (3) सूरा सागेन याह माने (रोपनी के बाद पूजन), (4) असालिया (जब खेतों में से घास – फूस निकला जाता है), (5) जोमनोवा या नोवा हुलू रकब (नई कटनी), (6) गीत पूजा (मवेशी पूजा), (7) राशि पूजा (हड़िया) की पूजा, (8) चलियार निमदा (बच्चे के जन्म पर पूजा), (9) नाहन अर बांदन (अस्थियों के अर्पण के बाद का नहान गीत) हितल (अप्रकाशित रचना) के दो भाग संथालियों की जड़ों की खोज पर आधारित है। इसमें संथालों के ऐतिहासिक गतिविधियों, उनके गांधार से पूर्व की ओर आना, सिंधु गंगा की तराई को पार करना और पूर्वीं क्षेत्रों में बसने का वर्णन है। इसमें कितना ऐतिहासिक सत्य है यह कहना मुश्किल है। पर इन बातों पर मुरमू एवं अन्य संथाल नेता पूर्ण विश्वास रखते हैं। यह विश्वास काफी गहराई तक संथालियों में उतर चुका और उनकी कहानियों तथा गीतों का अंश बन गया है।

मुरमू का विश्वास है कि पुरातन काल में संथालियों का जीवन चारों तरफ धन धन्य से परिपूर्ण एवं संस्कृतिपूर्ण रूप से विकसित थी। इसी पृष्ठभूमि में सोनाराम सोरेन ने जातरा पाता एनेज गिरा पुस्तिका का संपादन किया है। यह गीतों का संग्रह है जिसमें संथालियों को आगाह किया गया है कि वे गैर संथाली के साथ जातरा आदि में न नाचे गायें। हिवल और जातरा पाता दोनों ही संथालियो की परंपरा संस्कृति और उज्जवल अतीत के विषय में बताते हैं और कहते हैं कि इन्हीं बातों का ध्यान रखकर संथाली अपनी एकता और संस्कृति बनाये रख सकेगें।

इस प्रकार हम देखते हैं कि पं रघुनाथ मुरमू का आदिवासियों का सामाजिक, शैक्षिक रूप से एक होने एवं उन्नति हेतु मार्ग दर्शन में तथा ऑलचिकि द्वारा पारम्परिक संथाली संस्कृति को संरक्षित रखने में विशेष योगदान है। उनके इस कार्य से संथालियों में बोध जगाया। वे संथालियों के सामाजिक, सांस्कृतिक एकता के प्रतिक रहें हैं। पं मुरमू ने संथाली का स्वास्थ्य मजबूत शरीर देखने, व्यायाम करने और नशीली चीजों से परहेज बताया है। त्यौहार को छोड़कर और सर्वोपरी अपने समाज, देश के लिए जान प्राण देने के लिए रहने का संदेश दिया।

स्त्रोत: जनजातीय कल्याण शोध संस्थान, झारखण्ड सरकार

अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020



© C–DAC.All content appearing on the vikaspedia portal is through collaborative effort of vikaspedia and its partners.We encourage you to use and share the content in a respectful and fair manner. Please leave all source links intact and adhere to applicable copyright and intellectual property guidelines and laws.
English to Hindi Transliterate