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लाखो बोदरा

परिचय

हो बिहार की प्रमुख अनुसूचित जनजातियों में से एक है। यह जनजाति मुख्य रूप से पूर्वी तथा पश्चिम सिंहभूम जिले में निवास करती है। प्रसाद की दृष्टि में हो जनजाति, मुंडा जनजाति की एक शाखा है। अनुश्रूतीयों के अनुसार रांची जिसे खूँटी क्षेत्र से मुंडा जनजाति के कुछ समुदायों का प्रवेश सिहंभूम जिले में हुआ था, जो आज हो के नाम से जाने जाते हैं। इसका सबसे बड़े प्रमाण हो भाषा है, जो ध्वनि परिवर्तन के बावजूद मुंदरी भाषा ही है। हो तथा  मुंडा जनजाति की बहुत से परम्पराएँ एक हैं और उनके लोक साहित्य में भी एक जैसी सामग्रियाँ मिलती हैं प्रसाद (1961:104) के अनुसार भी हो जनजाति, मुंडा परिवार के ही हैं तथा वे चुटिया नागपुर से कालान्तर में प्रवास कर कोल्हान क्षेत्र में बस गये हैं।

1981 की जनगणना के अनुसार हो जनजाति की कुल संख्या 5,36,523 (पुरूष – 2,64,852 तथा महिला – 2,71,671) थी। हो जनजाति का आर्थिक जीवन मुख्य रूप से कृषि पर आधारित है। यह जनजाति आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ती हेतु जंगलों से लघु वन पदार्थों का भी संग्रहण करती है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ही क्षेत्र में खदानों तथा कल – कारखानों की स्थापना के कारण उत्पन्न नई औद्योगिक अर्थ – व्यवस्ता के परिणामस्वरुप हो जनजातीय पारम्परिक सांस्कृतिक तत्वों तथा मूल्यों में व्यापक परिवर्तन हुआ। उद्योगजनित व्यवसायों में उनके नाचने, गाने तथा मद्यपान एवं माघे इत्यादि पर्वों में अधिक दिनों तक संलग्न रहना उनकी तात्कालिक सामाजिक आवश्यकता नहीं रह गयी थी। यहाँ तक की औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया आरंभ होने के पूर्व से ही हिन्दू धर्मावलंबियों के साथ सांस्कृतिक अंतक्रिया, आधुनिकीकरण एवं आर्थिक अनुकूलन इत्यादि के कारण हो समाज में सुधार की आवश्यकता महसूस की जाने लगी थी। लाखो बोदरा द्वारा स्थापित आदि समाज इन्हीं परिस्थितियों का परिणाम थ। लाखो बोदरा द्वारा प्रारंभिक गया आदि समाज आन्दोलन एक पुनर्जीवन प्रदान करने वाला आन्दोलन था, जिले बैलेस (1956: 264- 281) ने समाज के सदस्यों द्वारा अधिक संतोषप्रद सांस्कृतिक निर्माण के लिए संकल्पित, संगठित तथा जागरूक प्रयास के रूप में परिभाषित किया है।

लाखो बोदरा द्वारा स्थापित आदि समाज एक संगठन मंच से संचालित किया गया। इसका उद्भव उस भौगलिक क्षेत्र में हुआ जहाँ परंपरागत मूल्यों ठाठ नये औद्योगिक व्यवस्था की अनिवार्यताएं एक संक्रमित सांस्कृतिक संपर्क की ओर उन्मुख हो चुका था। संभवत: आदि समाज आन्दोलन ज्यादा संतोषप्रद सांस्कृति की पुनर्गठन तथा व्याप्त बुराईयों, निम्न संस्थाओं, विश्वासों व मान्यताओं से परिष्कृत संस्कृति को सुसंगठित करने का प्रयास था। बोदरा की मान्यता थी कि हो जनजाति के पास एक सम्पन्न सांस्कृतिक परंपरा थी जो कालक्रम में विलुप्त हो गयी है। यद्यपि आदि समाज आन्दोलन में अनेकों हिन्दू तत्वों का समावेश था, जिसका हो संस्कृति तथा परंपरा के अंर्तगत सांस्कृतिक अंतक्रिया के फलस्वरूप अस्तित्व रहा है। आदि समाज आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य विलुप्त आदि संस्कृति की खोज करना रहा है ताकि उसका पुनर्गठन कर उसे विकसित समाज के समकक्ष लाया जा सके उसे राष्ट्र के समक्ष एक आदर्श के रूप में रखा जा सके।

जीवनी

लाखो बोदरा का जन्म 19 सितम्बर 1919 ई. में सिंहभूम जिले के चक्रधर के निकट अवस्थित पसेया गाँव के के हो परिवार में हुआ था लाखो बोदरा का पिता लेबेया बोदरा एक संपन्न किसान था। लाखो बोदरा चाईबासा जिला स्कूल के मैट्रिक की परीक्षा में उत्तीर्ण हासिल कर नोआमूंडी के निकट डंगुवापुसी स्थित रेलवे कार्यालय में लिपिक के रूप में कार्यरत था। अपने लिपिक के कार्यकाल में उसने एक लिपि का अविष्कार किया ता तथा उसकी इच्छा थी कि हो जनजाति उसे अपनी लिपि के रूप में अंगीकार कर लें। उसका विश्वास था कि हो जनजाति की अपनी लिपि थी। उसके इस समर्थन में विभिन्न क्षेत्रों से प्राप्त शिलालेख मयुरभंज के पकेणा, पहाड़, चरियाडेगा के राबनचाया तथा केयोनझर के सीताबोंगा तथा सिंहभूम के मंझगाँव के निकट बेनीसागर से प्राप्त हुए लिखे गए थे। ये शिलालेख संभवत: ब्राह्मी लिपि में लिखे गये थे। लाखो बोदरा के अनुसार तूरी नामक एन हो तांत्रिक के द्वारा पहले हो लिपि का अविष्कार किया गया था। तूरी हिन्दू पौराणिक वैद्य धन्वातरी के समकक्ष माना जाता है। बाद में आक्रमण तथा उसके परिणामस्वरूप हो जनजाति के प्रवजन के कारण हो लिपि का लोप हो गया। 1957 ई.में लाखो बोदरा ने तत्कालीन उपशिक्षा मंत्री मनमोहन दास से दिल्ली में भेंट आकर अपने द्वारा आविष्कृत  लिपि के बिषय में चर्चा की।

1954 ई. में झिंकपानी सीमेंट कारखाना कॉलोनी में साथ सदस्यों की एक समिति बनाकर आदि समाज की स्थापना की गई, जिसके संस्थापक होने का श्रेय लाखो बोदरा को प्राप्त है। आदि समाज के सदस्य तथा अनुयायी लाखो बोदरा द्वारा आविष्कृत लिपि की ओर आकर्षित थे, चूंकि हो जनजाति की अपनी कोई लिपि नहीं थी। झिंकपानी के इर्द – गिर्द के विभिन्न गांवों के लगभग बीस लोग लाखो बोदरा से लिपि सीखने जाया करते थे। लाखो बोदरा द्वारा आविष्कृत लिपि में पाठ्य – पुस्तकें भी छापी गयी। 1956 ई. में चाईबासा सीमेंट कारखाना के निकट जोड़ापोखर नामक गाँव में सह – शिक्षा विद्यालय की शुरूआत की गयी, जहाँ सिंहभूम से आने वाले लगभग 500 छात्रों का नामांकन किया गया। सुदूर क्षेत्र से आने वालों छात्रों के लिए यहाँ आवासीय सुविधा भी मुहैया कराया गया। इस विद्यालय में विद्यालयी विषयों के साथ – साथ हो भाषा में विकसित नई पाठ्य – पुस्तकों की सहायता भी प्रदान की जाती थी। छात्रों की बढ़ाईगिरी, लोहारी. बुनाई, बागवानी, सिलाई, कढ़ाई के प्रशिक्षण देने के साथ – साथ लाखो बोदरा द्वारा प्रतिपादित धर्म विज्ञान संबंधी उपदेश के भी कक्षा आयोजित किये जाते थे। विद्यालय के सभी शिक्षक हो जनजाति के थे तथा स्वैच्छिक रूप से काम करते थे। ये सभी शिक्षक लाखो बोदरा के अनुयायी थे तथा उसे द्वारा प्रशिक्षित किये गये थे। बाद में चलकर इसी प्रकार के तीन विद्यालय जगन्नाथपुर, मंझगाँव तथा जमशेदपुर में खोले गये। जोड़ापोखर स्थित विद्यालय को कुछ कठिनाईयों के कारण 1965 ई. में बंद कर दिया गया तथा बाद में मंझगाँव तथा जगन्नाथपुर स्थित विद्यालय भी समाप्त हो गया।

आदि समाज नामक संस्था, जिसका संस्थापक तथा निदेशक लाखो बोदरा थे, के दस नियंत्रित केंद्र हैं, जो निम्न स्थानों पर अवस्थित हैं –

1. जोड़ापोखर (झिंकपानी के निडर), 2. जमशेदपुर, 3. डाईगोड़ा (घाटशिला के निकट), 4. लोटा (उत्तरी चाईबासा), 5. गेंडासाई (मनोहरपुर के निकट), 6. बड़ानंदा (जगन्नाथपुर के निकट), 7. टूंटा- कांटा (मंझगाँव के निकट), 8. टोंटो (भरभारिया के निकट), 9. सूकिन्दा (उड़ीसा के क्योंझर जिले में), 10. डंगुवापुसी (जगन्नाथपुर के निकट)।

ये सभी केंद्र निर्वाचित सदस्यों के द्वारा संगठित एक स्थानीय समिति के द्वारा चलाया जाता है। स्थानीय समिति के ऊपर एटे ए तुरतुड़, चांवरा अखाड़ा नामक कार्यकारणी समिति है। जोड़ापोखर केंद्र के आस पास 20 गांवो तथा सीमेंट कारखाने के कॉलोनी के लगभग 150 परिवार लाखो बोदरा द्वारा स्थापित आदि समाज के अनुयायी रहे हैं। (दासगुप्ता 1983 :96)

धार्मिक जीवन

आदि समाज के सदस्यों समाज के नियमावली तथा अधिनियमों के अनुपालन किया करते हैं। लाखो बोदरा द्वारा रचित पुस्तकें (1) सहार होड़ा (स्वर्ग के रास्ते) तथा (2) बोंगा होड़ा (बोंगा की राह) प्रकाशित की गयी जो उसके धर्म विज्ञान की व्याख्या करती हैं। सहार होड़ा विश्व की रचना तथा त्योहारों से संबंधित हैं, जबकि बोंगा होड़ा कर्म – कांडों से संबंधित हैं। बोदरा के एक प्रमुख अनुयायी के अनुसार बोदरा का धर्म विज्ञान की उत्पति ऋषि – मुनियों या साधुओं के समानांतर भक्ति संप्रदाय हुई है। आदि समाज के सदस्य एक वार्षिक समारोह का आयोजन करते रहे हैं, जब उन्हें धार्मिक प्रवचन या वर्तमान सामाजिक समस्याओं पर व्याख्यान देना होता है। इस समारोह के दौरान सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन तथा पौराणिक नाटकों का मंचन किया जाता है। लाखो बोदरा के धार्मिक प्रवचन तथा समाज के सदस्यों के लिए आचरण संबंधी नियम हिन्दू विश्वासों तथा प्रथाओं से संसिक्त होते थे, किन्तु उनके पारंपरिक हो संस्कृति के अनुसार पुनर्व्याख्या किये गये होते थे। आदि समाज के सदस्य सभी देशी हो त्यौहार को मनाया करते हैं, किन्तु कर्मकांड उनके पुजारी द्वारा निर्धारित तिथि को संपादित किये जाते हैं। अनेक देवी – देवताओं के नाम आदि समाज के प्रार्थना एवं झाडफूंक में दृष्टिगोचर होते हैं। लेकिन अधिकांश दशाओं में वे लोग वैचारिक रूप से ही देवगणों को बोंगो के सामान होते हैं, जैसे – ब्रह्मा देशाऊली, विष्णुगोसा बोंगा, शिव कौऊली तथा पार्वती जाहिरा बूढ़ी के सदृश्य हैं।

लाखो बोदरा द्वारा मानव के सृजन संबंधी प्रतिपादित कथा यह दर्शाती है कि हिन्दू वृहद परंपरा के देवी – देवताओं को कैसे स्थानीय देवी – देवताओं के साथ समन्वित किए गये। लाखो बोदरा के मतानुसार ब्रह्मा तथा महेश्वर ने एक केकड़े के अंडो से लूकु बूढ़ा की सृष्टि की थी। लूकु के रक्त से एक जेली मछली की सृष्टि की गई। जेली मछली ने सबसे पहले झींगा मछली का आकार ग्रहण किया तथा उसके बाद लूकु बूढ़ी नामक एक महिला का रूप धारण किया। लूकु  बूढ़ा तथा लूकु बूढ़ी के सम्मिलन के यादगार में सुखन पर्व मनाते हैं। इस अवसर पर दिआंग (हड़िया) का केवल लड़का तथा लड़कियों द्वारा उपयोग किया जाता है अन्यथा मद्यपान निषेधित है।

आदि समाज के सदस्य राजी खुशी (प्रेम विवाह) तथा कन्या मूल्य की निंदा करते हैं। वे लोग आन्दी विवाह (माता – पिता की स्वीकृति से संपन्न विवाह) को प्रोत्साहित करते हैं तहत उनके देउरी (पुजारी) कर्मकांड तथा होम हिन्दू विवाह के सदृश्य सम्पन्न कराते हैं। पुरूष जनेऊ तथा विवाहित महिलाऐं हिन्दू महिलाओं जैसा मांग में सिन्दूर लगाती हैं तथा लौह की चूड़ी धारण करती है। लाखो बोदरा हिन्दू धर्म ग्रन्थ वेद, रामायण तथा महाभारत से अच्छी तरह वाकिफ थे तथा वह कुरान व बाइबल से भी परिचित था।

आदि समाज के अधिकांश अनुयायी हो जनजाति के लोग हाँ, किंतु कुछ मुंडा तथा संथाल जनजाति के लोग बी इसके अनुयायी हैं। लाखो बोदरा द्वारा आदि समाज आन्दोलन एक समन्वयवादी सांस्कृतिक आन्दोलन प्रतीत होता है तथा परंपरागत हो संस्कृति पफर इसका प्रभाव सिमित रहा है। किन्तु इसके संगठित तथा औपचारिक स्वरुप के कारण कुछ क्षेत्रों में (जैसे – जोड़ापोखर था इसके पड़ोसी क्षेत्रों में) इसकी उपस्थिति तथा प्रभाव सहजता से अनुभव किया गया है। परंपरागत हो इस आदि समाज आन्दोलन को कुछ हद तक उभयवादी समझते हैं। वे लोग हो समाज के कुछ परंपरागत संस्थाओं पर सीधा प्रहार को पसंद नहीं करते किन्तु वहीँ वे लोग एक सामान्य लिपि चिन्ह की छत्रछाया में हो को एकताबद्ध किये जाने के प्रयास की सराहना भी करते हैं।

आदि समाज का घोषणा पात्र गीता के एक श्लोक से आरंभ होता है। आदि समाज के घोषणा पत्र के विश्लेषण से ज्ञात है हो यह आन्दोलन अपने उषागम में सार्वभौमिक दिग्विजय में धार्मिक तथा योजना में सुधारवादी रहा है। आदि समाज के घोषणा पात्र के अनुसार सभी वैदिक बच्चे तथा भारत के नागरिक आदि समाज में स्वीकार किये जा सकते हैं। आदि समाज के सामाजिक सुधार कार्यक्रम अनेकों सामाजिक संस्थाएं जैसे – विवाह, जन्म मृत्यु तथा मनोरंजन को अपने में शामिल करता है तथा वर्तमान समय में प्रचलित अनेकों सामाजिकों नियमों तथा प्रथाओं पर प्रहार करता है। आदि समाज राजी खुश विवाह, कन्या मूल्य, पशु – पक्षी की बलि, शिशु के जन्म के बाद लंबे अर्से तक प्रचलित प्रदुषित  कल, मनोरंजन के प्रति आसक्ति इत्यादि जो सभ्य प्रतिमान का हिस्सा नहीं समझ जाता है, की निंदा करता है। आदि समाज ने नाटकों का मंचन, शैक्षिक समितियों तथा कल्याण प्रशाखाओं का निर्माण इत्यादि नये कार्यक्रमों को लागू किया। आदि समाज के कल्याण प्रशाखा के अंतर्गत एक धार्मिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक  शोध विभाग एवं स्वास्थ्य केंद्र, सहकारिता प्रशाखा, छपाई प्रशाखा, कृषि प्रशाखा तथा दस्तकारी प्रशिक्षण प्रशाखा रहा है।

आदि समाज का मुख्य उद्देश्य ईसाई तथा हिन्दू उत्प्रेरणा के कारण धर्म सुधार द्वारा नृजातीय एकता को सुदृढ़ता प्रदना करना है। इस सामाजिक आन्दोलन का प्रत्यक्ष रूप में कोई राजनैतिक उद्देश्य नहीं है। यद्यपि लाखो बोदरा ने 1957 ई. में कांग्रेस के टिकट पर सिंहभूम लोकसभा निर्वाचन से चुनाव लड़ा किन्तु झारखंड दल के उम्मीदवार से चुनाव हार गया। वह 1962 ई. में पुन: स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा किन्तु दूसरी बार भी वह हार गया। यही उसके राजनैतिक जीवन का अंत था। लाखो बोदरा का निधन 29 जून 1986 ई. जमशेदपुर के एक अस्पताल में पेट के बीमारी के कारण हो गया। लाखो बोदरा द्वारा स्थापित आदि समाज आज भी अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु सक्रिय है, किन्तु गोंडा साईं, सुकिन्दा तथा डंगुवापुसी केन्द्रों की गतिविधियों में उदासीनता के संलक्षण दृष्टिगोचर होने लगे हैं।

स्त्रोत: जनजातीय कल्याण शोध संस्थान, झारखण्ड सरकार

अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020



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