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लाला लाजपत राय

भूमिका

प्रसिद्ध तिकड़ी-लाल, बाल, पाल (लाला लाजपतराय, बाल गंगाधर तिलक और बिपिन चंद्र पाल) में से एक लाला लाजपतराय ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ भारत के स्वतंत्रता संग्राम के एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्‍यक्ति थे। उनका जीवन निरंतर गतिविधियों से परिपूर्ण रहा और उन्‍होंने राष्‍ट्र की निस्‍वार्थ भाव से सेवा करने के लिए अपने जीवन को समर्पित किया। पंजाब के एक शिक्षित अग्रवाल परिवार में जन्मे लाला लाजपत राय की प्रारंभिक शिक्षा रिवाड़ी में हुई। उसके बाद अवि‍भाजित पंजाब की राजधानी लाहौर में उन्‍होंने अध्‍ययन किया। 19वी सदी के भारत के पुनरोद्धार के सबसे रचनात्‍मक आंदोलनों में से एक आर्य समाज में भी वे शामिल हुए, जिसकी स्‍थापना और नेतृत्‍व स्‍वामी दयानंद सरस्‍वती ने किया। बाद में उन्‍होंने लाहौर में दयानंद एंग्‍लो वैदिक स्‍कूल की स्‍थापना की, जिसमें भगत सिंह ने भी अध्‍ययन किया था।

स्वतंत्रता आंदोलन में अहम भूमिका

लाजपत राय इतिहास की उस अवधि से संबंधित रहे,  जब श्री अरविंद, बाल गंगाधर तिलक और बिपिन चंद्र पाल जैसे प्रसिद्ध व्‍यक्ति नरमपंथी राजनीति में बुनियादी दोष ढूंढने के लिए आए थे। इन लोगों ने आधुनिक राजनीति को राजनीतिक दरिद्रता का नाम दिया था तथा इसे धीरे-धीरे संवैधानिक प्रगति की खामियां बताया था। भारतीय इतिहासकारों के अगुआ श्रद्धेय आर.सी. मजूमदार ने तिलक, अरबिंद और लाजपत राय जैसे उच्‍च विचारकों द्वारा व्‍यक्‍त नये राष्‍ट्रवाद के आदर्शों को स्‍पष्‍ट करते हुए इन्‍हें ठोस आकार बताया, जिन्‍हें महात्‍मा गांधी के सविनय अवज्ञा आंदोलन का अग्रदूत कहा जा सकता है। कुछ नरमपंथियों का यह विश्‍वास था कि इंग्‍लैंड के लोग भारतीय मामलों के प्रति उदासीन थे और ब्रिटिश प्रेस भी भारतीय आकांक्षाओं को गति प्रदान करने की इच्‍छुक नहीं थी। अकाल से पीडि़त लोगों की मदद करने के लिए 1897 की शुरूआत में ही इन्‍होंने हिन्‍दू राहत आंदोलन की स्‍थापना की थी, ताकि इन लोगों को मिशनरियों के चंगुल में फंसने से बचाया जा सके।

कायस्थ समाचार (1901) में लिखे दो लेखों में उन्‍होंने तकनीकी शिक्षा और औद्योगिक स्वयं-सहायता का आह्वान किया। स्वदेशी आंदोलन के फलस्‍वरूप (बंगाल के विभाजन के खिलाफ 1905-8) जब पूरे देश में राष्ट्रीय शिक्षा की कल्‍पना के विचार ने पूरा जोर पकड़ रखा था, वे व्‍यक्ति लाजपत राय और बाल गंगाधर तिलक ही थे, जिन्‍होंने इस विचार का जोर-शोर से प्रचार किया। उन्‍होंने लाहौर में नेशनल कॉलेज की स्‍थापना की, जिसमें भगत सिंह ने पढ़ाई की। जब पंजाब में सिंचाई की दरों और मालगुजारी में बढ़ोतरी करने के खिलाफ छिड़े आंदोलन को अजित सिंह (भगत सिंह के चाचा) ने भारतीय देशभक्ति संघ के नेतृत्‍व में आगे बढ़ाया, तो इन बैठकों को अक्‍सर लाजपत राय भी संबोधित करते थे। एक समकालीन ब्रिटिश रिकॉर्ड में बताया गया है कि इस पूरे आंदोलन का सिर और केन्‍द्र एक खत्री वकील लाला लाजपत राय है, वह एक क्रांतिकारी और राजनीतिक समर्थक हैं, जो ब्रिटिश सरकार के प्रति तीव्र घृणा से प्रेरित हैं।

स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी बढ़ती भागीदारी के लिए उन्‍हें 1907 में बिना किसी ट्रॉयल के ही देश से बहुत दूर मांडले (अब म्यांमार) में सबसे सख्‍त जेल की सजा दी गई थी। उन्होंने जलियांवाला बाग में हुए भयावह नरसंहार के खिलाफ छिड़े आंदोलन को भी नेतृत्‍व प्रदान किया। उन्होंने अमेरिका और जापान की यात्राएं की जहां वे भारतीय क्रांतिकारियों के संपर्क में रहे। इंग्लैंड में वे ब्रिटिश लेबर पार्टी के एक सदस्य भी बन गए थे।

स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी उत्कृष्ट भूमिका को मान्यता देने के लिए उन्‍हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन (1920) का अध्यक्ष चुना गया। उन्‍होंने मजदूर वर्ग के लोगों की दशा सुधारने में अधिक दिलचस्‍पी ली। इसलिए उन्‍हें  ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस का अध्यक्ष भी चुना गया था। लाजपत राय ने अधिक से अधिक समर्पण और सर्वोच्‍च बलिदान देने का आह्वान किया था और कहा था कि हमारी पहली चाहत धर्म के स्‍तर तक अपनी देशभक्ति की भावना को ऊंचा करना है तथा इसी के लिए हमें जीने या मरने की कामना करनी है।

उन्‍हें शारीरिक साहस की तुलना में नैतिक साहस के चैंपियन" के रूप में देखा गया है और वे समाज की बुनियादी समस्याओं से पूरी तरह वाकिफ थे।

भारत की हजारों साल पुरानी सभ्‍यता की समस्याओं से सबक लेते हुए और सर सैयद अहमद तथा उनके आंदोलन द्वारा लंबे समय से उठाई जा रही सांप्रदायिक अलगाववाद की राजनीति के उचित संदेश तथा मुस्लिम लीग कैंप से आगे बढ़ाए जा रहे खिलाफत और पान इस्‍लामवादियों के कार्यों के खिलाफ आवाज उठाने वाले कुछ नेताओं में वे भी शामिल थे, जिन्‍होंने यूनाइटेड उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष की कठिनाइयों को भी महसूस किया। उन्‍होंने सर्वप्रथम हिंदू समाज की एकता की जरूरत पर जोर दिया और इस प्रकार ब्रिटिश सरकार के खिलाफ संघर्ष के लिए तैयार हो गए। यही कारण है कि वे हिंदू महासभा से सक्रिय रूप से जुड़े रहे, जिसमें मदन मोहन मालवीय जैसे नेता भी शामिल थे, जिन्‍होंने यह महसूस किया कि अब देश के व्‍यापक हितों के मुद्दों से ध्‍यान हट गया है। उन्‍होंने हिंदी और नागरिक लिपि के माध्‍यम से सामाजिक, सांस्‍कृतिक विरासत की एक कार्यसूची को निर्धारित किया। उन्‍होंने हिंदी और देवनागरी लिपि के माध्‍यम से भारत की स्‍वदेशी सांस्‍कृतिक विरासत (जो अधिकांश रूप से नष्‍टप्राय: है) पर पाठ्य पुस्‍तकों के प्रकाशन, संस्‍कृत साहित्‍य के प्रचार और जिन लोगों के पूर्वज पहले हिंदू थे उनके शुद्धीकरण का आंदोलन तथा गैर-हिंदुओं के लिए ब्रिटिश सरकार के पक्षपातपूर्ण व्‍यवहार के खिलाफ प्रदर्शन कार्यक्रम चलाए।

वह बोधगम्य मन के धनी थे और एक विपुल लेखक के रूप में उन्‍होंने ‘अनहैप्‍पी इंडिया’ ‘यंग इंडिया’, एन प्रसेप्‍शन’ ‘हिस्‍ट्री ऑफ आर्य समाज’ ‘इंग्‍लैंड डेब्‍ट टू इंडिया’ जैसे अनेक लेखन कार्य किए और ‘मज्‍जीनी, गैरीबाल्‍डी और स्‍वामी दयानंद पर लोकप्रिय जीवनियों की श्रृंखला लिखी। एक दूरदर्शी और एक मिशन के व्‍यक्ति के रूप में उन्‍होंने पंजाब नेशनल बैंक और लक्ष्‍मी इंश्‍योरेंस कंपनी तथा लाहौर में सरवेंट्स ऑफ द पीपुल्‍स सोसायटी की स्‍थापना की।

एक जन नेता के रूप में उन्‍होंने सबसे आगे रहकर नेतृत्व प्रदान किया। लाहौर में साइमन कमीशन के सभी सदस्‍य अंग्रेज होने के खिलाफ जब वे एक विरोध प्रदर्शन का नेतृत्‍व कर रहे थे, तो ब्रिटिश अधिकारियों ने उन पर निर्दयतापूर्वक हमला बोला, जिसके कारण वे गंभीर रूप से घायल हो गए और 17 नवम्‍बर, 1928 को लाहौर में इस जन नायक, स्‍वतंत्रता सेनानी की असामयिक मृत्‍यु हो गई। इसी क्रूरता का बदला लेने के लिए भगत सिंह ने अपने साथियों के साथ हथियार उठा लिए और जिसकी उन्‍हें भी अंतिम कीमत चुकानी पड़ी। इस लघु निंबंध को समाप्‍त करने के समय कोई यह प्रश्‍न कर सकता है कि लाहौर जो वास्‍तव में सांस्‍कृतिक और राजनीतिक रूप से एक उन्‍नत शहर था, उसका बाद में पतन क्‍यों हुआ।

 

लेखन: डॉ सरदिंदु मुखर्जी; सदस्य-भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद (आईसीएचआर)

स्रोत: पत्र सूचना कार्यालय

अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020



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