उम्र का सुनिश्चित होना इस प्रकार से बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है क्योंकि इससे यह सुनिश्चित होता है कि एक किशोर, कानून के अंतर्गत मिलने वाली सुरक्षा से लाभान्वित हो।
किशोर कानून के अस्तित्व में होने के बावजूद, जो 18 वर्ष की उम्र से कम कई बार किशोर न्याय सबसे पहले तो की तरह देखते जो उनके व्यवहार किया जाता है और विधि के लबों से वंचित रखे जाते है। पुलिस पहले नजर में एक किशोर जो कानून के साथ विरोध में हा को गलती पूर्वक एक वयस्क है। मैजिस्ट्रेट व जज इसके बाद भी किशोर के साथ वैसा ही व्यवहार जारी रखते हैं। इस अनहोनी के कारण, बच्चे जेल में बंद किए जाते हैं और कानून के पूरे उल्लंघन के साथ उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी जाती है।
पुलिस इस बात के लिए जानी जाती है कि वह एक किशोर को बंद रखने के लिए उसे एक वयस्क के रूप में चित्रित करती है। एक बार उसके किशोर होने का पता चल जाने के बाद उसे निगरानी गृह में भेज दिया जाता है और वह किशोर न्याय बोर्ड के नियंत्रण में रहता है इसके अतिरिक्त पुलिस को किशोर न्याय बोर्ड के नियमित दौरे असुविधा फारक उसकी नियमित नियमावली से अलग होता है। इसलिए यह अच्छा समझा जाता है कि अभियुक्त की उम्र में कुछ साल जोड़ दिया जाए। मजिस्ट्रेट और न्यायाधीश यह को परखने के लिए कि उनके सामने एक किशोर मौजूद है। बहुत व्यस्त है। आर्थिक क्षमता और कानूनी ज्ञान के अभाव के कारण, अभियुक्त किशोर कानूनी प्रतिनिधित्व नहीं पा सकता। वकील भी प्राय: अपने क्लाइंट को उपयुक्त मशविरा नहीं देता है। इसलिए किशोर अपने सेक्शन 313 बयान के खतरनाक अपराधियों के बीच सुनवाई के अधीन जेल में रह जाता है। यह चरण सुनवाई के पूरा होने पर आता है जब न्यायालय सीधे तौर पर अभियुक्त का उम्र पूछता है लेकिन इस वक्त तक आते कई वर्ष बीत जाते हैं, और अभियुक्त अपनी किशोरता की उम्र को पार कर जाता है। मजिस्ट्रेट या न्यायाधीश दावे से नहीं कर सकते कि युवा अभियुक्त अपराध के वक्त 18 वर्ष से कम उम्र का था और परिणाम यह होता है कि उसे वे एक वयस्क के तौर पर सजा दे देते है। सर्वोच्च नयायालय ने रायसूल के मामले में सेक्शन 313 बयान में अभियुक्त के द्वारा दिए गए उम्र के स्तर न्यायालय के अंदाजे से बढ़कर माना।
ऐसे मामले रहे हैं जिनमें अपराधी न्याय प्रणाली ने एक अभियुक्त को किशोर नहीं माना है और स्वयं को किशोर सिद्ध करने का सवाल पहली बार सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष उठाया गया हैं। यह व्यवहार 1984 सर्वोच्च न्यायालय में पेश हुआ जहाँ मजिस्ट्रेट को एक अभियुक्त के 21 वर्ष से कम उम्र का प्रतीत होने पर उम्र के बारे में जाँच पड़ताल संचालित करने का निर्देश दिया गया। यह न्यायालय की जवाब देही है कि वह अभियुक्त की उम्र निर्धारित करने के कदम उठाए। मुम्बई उच्च न्यायालय (अपील सम्बन्ध) द्वारा प्रकाशित अपराधी पुस्तिका जो कि अपराध न्यायालय व उसके अदीन अधिकारीयों को निर्देशित करती है में लिखा है:
सभी न्यायालयों को चाहिए कि जब कभी भी एक युवा अपराधी या एक पार्टी उनके समक्ष पेश किया जाता है, वे उसकी उम्र निश्चित करने के कदम उठाए। यदि पुलिस के द्वारा दी गई उम्र अपराधी या पार्टी को देखकर सही प्रतीत नहीं होती और यदि पुलिस उम्र के सिलसिले में कोई संतोषजनक साक्ष्य नहीं पेश कर सकती तब न्यायालय को, मामले की सुनवाई से पहले अपराधी या पार्टी की उम्र जांचने के लिए चिकित्सा अधिकारी को भेजने की इच्छा पर विचार करना चाहिए। अभियुक्त की पूछताछ के समय, सत्र न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट को रिकार्ड करने के उद्देश्य से विशेष तौर पर ऐसे अभियुक्त स्त्री/पुरूष से उसकी उम्र पूछनी चाहिए। यदि स्तर न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट अभियुक्त को सामान्य देखते हुए या किसी अन्य कारण से उसके द्वारा बनाए गए उम्र पर संदेह करता है, जिसे सही नहीं बताया गया है तब सत्र न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट को उसके अंदाजे को नोट करना चाहिए। न्यायालय उपयुक्त या जायज है, अभियुक्त की सही उम्र को निश्चित करने के लिए उसकी चिकित्सकीय परीक्षा करने के आदेश दे सकता है। यदि उम्र को लेकर कोई दस्तावेज साक्ष्य उपलब्ध है, तब वकील इसे प्रस्तुत करने के लिए कह सकता है।”
अध्याय 5.198 में अपराधी मेनूअल जो बाल व युवा दोषियों की पात करता है, दंडाधिकारी को इसके लिए बाध्य करता है कि वह अपने समक्ष प्रस्तुत एक अभियुक्त की उम्र को सुनिश्चित करे। पुलिस की आवश्यकता है कि वह अभियुक्त की उम्र बताए और इसके समर्थन में साबुत पेश करे। उम्र का सबसे अच्छा साक्ष्य जन्म और मृत्यु रजिस्टर में प्रवेश करना है और जहाँ यह उपलब्ध नही है वहाँ अभियुक्त व्यक्ति की चिकित्सकीय परीक्षा की जानी चाहिए और उसके उम्र के संबंध में एक चिकित्सकीय प्रमाण पत्र ग्रहण किया जाना चाहिए। उसके उम्र के संबंध में एक निश्चित खोज को हरेक मामले में रिकार्ड में लिया जाना चाहिए। यदि अभियुक्त एक किशोर पाया जाता है तब उसे उसके मामले के दस्तावेजों के साथ किशोर न्याय बोर्ड (कि. न्या. बो.) के समक्ष पेश होना होगा।
भोला भगत के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने उन अदालतों को जिनके समक्ष ऐसे अभियुक्त की उम्र सुनिश्चित करने के लिए एक जाँच पड़ताल करने के लिए एक याचिका प्रस्तुत किया गया है और उनकी उम्र के पते को ठोस करने के लिए कहा गया है, उन्हें निर्देश दिए है।
उम्र का सबसे अच्छा साक्ष्य जन्म प्रमाण पत्र है लेकिन भारत में जन्म का पंजीकरण का दर बहुत ही कम है। राष्ट्रिय स्तर पर जन्म का पंजीकरण 1995 में 55% था। जन्म पंजीकरण का यह दर एक राज्य से दुसरे राज्य में गिरता-चढ़ता रहता है, जहाँ तमिलनाडू में यह 90.3%तथ वहीं राजस्थान में 23.7% । उम्र का अगला सबसे अच्छा साक्ष्य है विद्यालय प्रमाणपत्र। ज्यादातर लोग विद्यालय रखते हैं क्योंकि स्कूल नामांकन दर ऊँचा है। प्राथमिकता शिक्षा में कूल नामांकन दर वर्ष 2002 -3 में लड़कों के लिए 100% और लड़कियों 93% है। यह तक कि यदि एक बच्चे का विद्यालय में महज नामांकन हुआ है और उसने कभी विद्यालय में उपस्थिति नहीं की तब भी व उन दस्तावेजों को जिनमें उम्र रिकार्ड किया जाएगा मसलन नामांकन फार्म, विद्यालय रजिस्टर में प्रवेश आदि को ग्रहण कर सकेगा और ऐसी तिथियाँ विद्यालय परित्याग प्रमाणपत्र में भी दिखायी जाएंगी।
उच्च प्रमाणपत्र और विद्यालय परित्याग प्रमाण पत्र ही केवल वह दस्तावेजी साक्ष्य है जिनसे उम्र निर्धारण पर विचार किया जाता है। राशन कार्ड, परिवार कार्ड भारत सरकार के चुनाव आयोग द्वारा जारी पहचान पत्र इत्यादि उम्र के साक्ष्य नहीं है और अदालत को उन्हें वैसा नही मानना चाहिए, अभियुक्त के द्वारा पेश किया गया जन्म प्रमाणपत्र या विद्यालय परित्याग प्रमाण पत्र ताकि उसके उम्र को पुन: लिखा जाए को जांचा जा सकता है। यदि अदालत इसकी सत्यता पर संदेह कर रहा हो तो सत्यता को जाँच मूल रजिस्टर जिससे अंश जारी किए गए है की पुलिस के द्वारा विस्तार से जाँच के द्वारा समान्यता की जाती है, या अदालत के द्वारा उस अधिग्रहण की प्रतिनिधि का परिक्षण जिसने दस्तावेजों को जारी किया है और बच्चे के अभिभावक/रिश्तेदार से जाँच पड़ताल करके समान्यता किया जाता है। हालाँकि कई बार अभिभावकों/ रिश्तेदारों के द्वारा जारी किए गए दस्तावेजों ई रिकार्डिंग कुछ निश्चित मामलों में अदालत के द्वारा अभियुक्त का उम्र निर्धारित करने में महत्वपूर्ण सहायक होता है। एक किशोर से उसी तरह व्यवहार हो इसके लिए सभी संभव प्रयास किए जाने चाहिए।
दस्तावेज साक्ष्य की अनुपस्थिति में एक चिकित्सकीय व्यवहार कर्ता की राय ली जा सकती है। किशोर को उम्र निर्धारण के लिए सरकारी या पुलिस अस्पताल भेजा जाता है जहाँ उसके चिकित्सकीय जाँच होती है मुख्य तरीके, “किसी व्यक्ति की आयु का सर्वाधिक सही अनुमान लगा पाने के विशेष रूप से शूरूआती वर्षों में दांत, कद एवं वजन, हड्डियों के ऑसिफिकेशन एवं छोटे मोटे निशान, होते हैं।”
हाकियों की जाँच विभिन्न प्रमुख जोड़ों को रेडियोलॉजिकल परिक्षण के द्वारा किया जाता है और उम्र के बारे में राय हाकियों के मेल के विस्तार पर आधारित होता है। चिकित्सकीय परीक्षण के द्वारा तय की गई उम्र निष्कर्शीय साक्ष्य नहीं है और न्यायिक तौर पर यह लिया जाता रहा है कि ये महज एक चिकित्सक का विचार है और गलती का भेद दोनों पक्षों का लिए 2 वर्ष कहो सकता है। भारतीय अपराधी न्याय प्रणाली की स्थापना इस प्रकार की है कि कोई संदेह या एक से बहुत अधिक मत की स्थिति अभियुक्त के पक्ष में जाना चाहिए। इस प्रकार सीमारेखीय मामलों में एक अभियुक्त के साथ किशोर के रूप में व्यवहार किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त सर्वोच न्यायालय ने यह ग्रहण किया है कि न्यायालयों का रवैया किशोरता निर्धारित करने के दौरान अति तकनीकी नहीं होनी चाहिए।
दस्तावेजी साक्ष्य और चिकित्सकिय साक्ष्य के बीच किसी विरोध के मामले में एक विश्वनीय दस्तावेज पर दिखाए गए उम्र को अभियुक्त की सही उम्र के रूप में व्यवहार किया जाएगा। “डॉक्टर हमेशा सच नहीं बोलते,” प्रोफेशनल गवाह उनका पक्ष लेते है जो उनकी सेवा के लिए मामले में जहाँ एक निजी पक्ष द्वारा आयु निर्धारण की चिकित्सकीय जाँच करवाई गई थी। जब कोई कानून का उल्लंघन करने वाला किशोर पुलिस के साथ चिकित्सकीय अधिकारी के पास जाए तो अधिक जाँच की आवश्यकता होती है। यदि कोई रिपोर्ट किशोर दिखने वाले किसी व्यक्ति को 18 वर्ष से अदिक आयु का बताता है तो, दुसरे चिकित्सकीय परिक्षण, जो कि दूसरे अस्पताल में हो, के लिए आवेदन देने की जरूरत है, और यदि परिणामों में फर्क दिखे तो डॉक्टरों का बयां न्यायालय द्वारा दर्ज किया जाना चाहिए ताकि किस रिपोर्ट में आरोपी की ज्यादा सही आयु का अनुमान है यह तय किया जा सके। अपराधी पिटिशन संख्या 1694, २००३ (प्रेरणा बनाम महाराष्ट्र सरकार एवं अन्य) के मामले में, 18 फरवरी 2007 के दिये गए मुम्बई उच्च न्यायालय के फैसले में मजिस्ट्रेट व स्तर जजों को निर्देश दिया है कि महिलाओं व वच्चों के व्यवसायिक यौन उत्पीड़न के मामलों में “यदि पहली रिपोर्ट संदेहास्पद हो तो उम्र निर्धारण के लिए दुसरे सरकारी अस्पताल से जुड़े चिकित्सकीय अधिकारी से भुक्तभोगी के उम्र निर्धारण की चिकित्सकीय जाँच करवाने का आदेश दे।”
किशोर न्याय अधिनियम 2000 की अंतर्गत, किशोर न्याय बोर्ड को उसके समक्ष पेश किसी व्यकित के उम्र की जाँच के आदेश देते है, पर यह जाँच सिर्फ उन्हीं स्थितियों में जरूरी है जिन मामलों में व्यक्ति किशोर न दिखता हो।
“49 अनुमान एवं उम्र निर्धारण (1) जब किसी संबंधित प्राधिकरण को यह महसूस हो कि उसके समक्ष इस कानून के किसी भी प्रावधान के अंतर्गत पेश किया गया व्यक्ति (गवाही देने के अलावा), किशोर अथवा बच्चा है, तो संबंधित प्राधिकरण उसके उम्र के बारे में आवश्यक जाँच करेगी और इस संबंध में जरूरी सबूत (एफिडेविट के अलावा) इकट्ठा करेगी एवं अपनी जाँच के परिणाम दर्ज करेगी कि व्यक्ति किशोर अथवा बच्चा है या नहीं, जिसमें लगभग आयु दी जाएगी।” उप धारा (2), धारा 49 कहता है कि एकबार यदि किशोर न्याय बोर्ड ने किसी व्यक्ति को किशोर मानकर मामले को निपटा दिया तो फिर कोई अन्य प्रमाण उस व्यक्ति को वयस्क बताकर, दिए गए फैसले को खत्म करने के लिए नहीं माना जा सकता, यदि न्यायालय द्वारा किसी व्यक्ति के किशोर होने की जाँच के बाद उसे किशोर न्याय बोर्ड के समक्ष पेश किया जाता है तो, किशोर न्याय बोर्ड की उसके आयु की जाँच करवाने की कोई आवश्यकता नहीं है।
आरोपी द्वारा कैशोर्य का दावा मजिस्ट्रेट अथवा स्तर न्यायाधीश अथवा उच्च एवं सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष पेश किया जा सकता है। न्यायालयों ने बार बार माना है कि जिस किसी भी न्यायालय के समक्ष कैशोर्य का दावा पेश किया जाए, उसे आयु की जाँच करने या किसी निचली अदालत को आदेश देने की जरूरत है और आयु को दर्ज करने की जरूरत है। हाल में सूरिन्द्र सिंह मामले में याचिका झुकाव बदला है जब सर्वोच्य न्यायालय ने कैशोर्य के दावे को ख़ारिज किया जिसे पहली बार सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष ही पेश किया गया। विधान व्यवस्था ने किशोर न्याय अधिनियम 2000 के संशोधन से हस्तक्षेप किया ताकि किशोरों के प्रति सही व्यवहार सुनिश्चित हो सके कि न्यायालयों को कैशोर्य के दावे की किसी भी स्तर पर अहमियत देनी होगी, यहाँ तक कि मामले के अंतिम निर्णय के बाद भी 7ए किसी न्यायालय के समक्ष कैशोर्य का दावा उठाए जाने के बाद अमल में लाई जाने वाली प्रक्रिया, (1) जब भी किसी न्यायालय के समक्ष कैशोर्य का दावा किया जाए, या फिर न्यायालय का यह मानना हो कि आरोपी व्यक्ति किशोर है, तो न्यायालय जाँच करेगी, व जरूरी सबूत (जिसमें एफिडेविट शामिल नहीं है) इकठ्ठे करेगी जिससे आयु निर्धारण हो, और अपनी खोज को दर्ज करेगी कि वह व्यक्ति किशोर है या नहीं, उसकी लगभग आयु बताते हुए।
यह प्रावधान है कि कैशोर्य का दावा किसी भी अदालत के समक्ष पेश किया जा सकता है और उसे किसी भी स्तर पर मान्यता दी जाएगी, यहाँ तक की मामले में अंतिम फैसले के बाद भी, और ऐसे दावे को इस अधिनियम के अंतर्गत दिए जाए प्रावधानों व बने नियमों के आधार पर देखा जाएगा, यहाँ तक कि तब भी जब वह व्यक्ति इस कानून के अमल में आते वक्त या उससे पहले ही किशोर न रहा हो।
धारा 7 बताती है कि यदि किसी किशोर को किसी मजिस्ट्रेट के समक्ष गलती से पेश किया गया हो, तब क्या प्रक्रिया ली जानी चाहिए। मजिस्ट्रेट अपनी राय दर्ज करनी है और किशोर तथा पूरी प्रक्रिया को किशोर न्याय बोर्ड के समक्ष भेज देना है। शूरूआत में मजिस्ट्रेट के राय दर्ज करने की प्रक्रिया में अस्पष्टता थी। कुछ मानते थे कि आयु निर्धारण की प्रक्रिया मजिस्ट्रेट को करनी है, जबकी अन्य मानते थे कि मजिस्ट्रेट को सिर्फ मामला किशोर, न्याय बोर्ड के समक्ष संभावित किशोर की आयु जाँच, किशोर न्याय अधिनियम की धारा 4ए के अंतर्गत, करवाने के लिए भेज देनी चाहिए। इस पहले मत को ज्यादातर मजिस्ट्रेट द्वारा मान्यता दी गई जिसपर सर्वोच्च न्यायालय का भोला भगत मामला रोशनी डालता है। धारा 7ए के जोड़े जाने से यह मामला सुलझ गया जिसमें यह साफ तौर पर लिखा है कि जिस न्यायालय के समक्ष कैशोर्य का दावा उठाया गया हो, उसे ही आयु निर्धारण की जाँच करनी है। इसलिए मजिस्ट्रेट आयु निर्धारण की जाँच करने व अपनी खोज को दर्ज करने के लिए बाध्य है, इससे पहले कि वे किशोर को सुधार गृह और मामले को किशोर न्याय बोर्ड के समक्ष भेज सके।
अगला सवाल है कि जब न्यायालय की जाँच यह तय करे की आरोपी किशोर है, तब क्या किया जाए।
अगर कैशोर्य अपराध न्यायायलय में प्रक्रिया चलने से पहले ही पता चल गई हो तो मामले को स्थानांतरित कर दिया जाएगा व पुलिस को निर्देशित किया जाएगा कि वह चार्जशीट किशोर न्याय बोर्ड के समक्ष पेश करे, यदि इसमें वयस्क सह अभियुक्त हों तो न्यायालय को किशोर व आय व्यक्ति के लिए अगल अलग प्रक्रिया निर्देशित करने कि आवश्यकता है। पर यदि न्यायालय की प्रक्रिया चल रही हो तो देरी रोकने के लिए, न्यायालय को पूरी प्रक्रिया चलानी चाहिए और यह दर्ज करना चाहिए कि किशोर अपराधी है या नहीं और सजा देने के बजाए मामला किशोर न्याय बोर्ड इस अधिनियम के अंतर्गत फैसला देगी यह दर्शाते हुए कि इस अधिनियम के अंतर्गत चली जाँच में किशोर दोषी पाया गया है। मामले का किशोर न्याय बोर्ड में स्थानांतरण, किसी किशोर की संदर्भ में, जो कि किसी भी न्यायालय में रूका हुआ हो, कानून में शामिल कर लिया गया हैं कानून के अम्ल में आते वक्त या उसके बाद यह मामल उन पर भी लागू होता है जिन मामलों में गलत ढंग से किशोरों के साथ बड़ों जैसा व्यवहार करते हुए उनका मामला अपराध न्यायालय में ही चलाया गया हो।
उन मामलों में क्या किया जाए जिनमें आरोपी के किशोर होने का पता तब चला जब अपराध न्यायालय द्वारा मामले में सजा सुनाई जा चुकी है? भूप राम मामले, भोला भगत मामले, जयेंद्र के मामले, प्रदीप कुमार के मामले, उमेश सिंह के मामले, उपेन्द्र कुमार के मामले एवं सत्य मोहन सिंह के मामले, में सर्वोच न्यायालय ने अपराध मानते हुए, सजा खत्म कर दी और निर्देशित किया कि आरोपी छोड़ दिए जाए क्योंकि अपराध के दिन वे किशोर थे और फैसले के दिन वे किशोर नहीं रहे थे। मामले को किशोर, न्यायालय, जैसा कि उस वक्त कहा जाता था, के समक्ष भेजने का कोई तुक नहीं बनता था क्योंकी दावेदार उस वक्त लम्बी अवधि केलिए जेल में रह चुके थे और अब इतनी देर से उन्हें विशेष विद्यालय या विशेष गृह भेजने से कुछ हासिल नहीं होगा।
यह नजरिया बार बार न्यायालयों द्वारा, उन व्यक्तियों की सजा माफ़ करते हुए अपनाया गया है जिनको गलती से वयस्कों की तरह देखा गया था और उन्हें इसके अनुरूप सजा दी गई है। किशोर होने की जाँच देर से होने कारण, आरोपी कई साल जेल में बिता चुका है, जो कि अक्सर ही किशोर कानून में दी गई अधिकतम सीमा से ज्यादा है, और जो कि किशोर होने की उम्र पार कर चुके है। ऐसी परिस्थितियों में न्यायालयों ने अपने फैसले में दी गई सजा माफ़ करते हुए अपराधी को छोड़ दिया है। अक्सर लिए जाने वाले इस नजरिये से अलग कोई भी बात किशोर की अतिरिक्त तकलीफ का कारण बनेगा।
पहले तो, अपराध न्याय व्यवस्था आरोपियों को किशोर के रूप में नहीं पहचान पाती और उसे बचाने के लिए बने किशोर कानून के फायदे से उसे वंचित रखती है, दुसरे, यदि किशोर को किशोर कानून के अंतर्गत भी लिया जाता है और अपराध का दोषी पाए जाने पर विशेष गृह भेजा जाता है तो उसके कैद की सीमा काफी पहले ही पूरी हो चुकी होती है, तीसरे, उसे किशोर न्याय बोर्ड के समक्ष पेश किया जाना और दोबारा प्रक्रिया चलाना, उसके आम जिन्दगी में लौटाने की प्रक्रिया को धीमा करेगा जीमे उसकी कोई गलती नहीं होगी। चौथे, किशोरों के लिए दिए गए किसी भी न्याय के तरीके से किसी वयस्क को अच्छा फायदा नहीं हो सकता।
हालाँकि, किशोर न्याय बोर्ड के पास ही कानून का उल्लंघन करने वाले किशोरों से निपटने का अधिकार होता है जिसमें सजा देना शामिल है, पर किशोर न्याय अधिनियम 2000 की धारा (2) के अंतर्गत उच्च न्यायालय व सत्र न्यायालय के पास भी किशोर न्याय बोर्ड के अधिकार होते हैं जब अपील पुनर्विचार या अन्यथा कोई मामला उनके समक्ष आता है। इसलिए किसी किशोर का मामला आने पर उच्च न्यायालय या स्तर न्यायालय किशोर के सर्वोपरी हित में फैसले दे सकते हैं।
नई जोड़ी गई धारा 7ए यह जरूरी कर देता है कि न्यायालय की समक्ष जब भी कैशोर्य का दावा कि जाए तो उसे अपनी खोज को दर्ज करना है। इसें आगे लिखा है कि कोई व्यक्ति जिसे किशोर घोषित किया गया हो, किशोर न्याय बोर्ड का समक्ष किशोर न्याय अधिनियम 2000 की धारा 15 के अंतर्गत भेज दिया जाएगा और कोई भी सजा जो कि किसी न्यायालय द्वारा दी गई हो, उसका कोई प्रभाव नहीं होगा।
स्रोत: चाइल्ड लाइन इंडिया फाउन्डेशन
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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