किशोर न्यायालय में दिलचस्पी का केंद्रबिंदू हमेशा किशोर आर उसका कल्याण है ना की वह क्रिया या परिणाम जो उनको न्यायालय के समक्ष लाने का कारण बना होगा।
कानून के साथ विरोध में आए किशोर का आपराधिक मामला किशोर न्याय बोर्ड के द्वारा निदान किया जाना है, किसी सामान्य अपराधी न्यायालय के द्वारा नहीं 20वीं शताब्दी के मोड़ पर बनाए गए किशोर कानून का यह जनादेश है साथ साथ अपराधी प्रक्रिया कोड 1998 व 1973 ओ, सी.आर.पी.सी 1973 का सेक्शन 27 उद्धृत करता है।
किशोर मामलों में न्याय का अधिकार न्यायालय के समक्ष पेश करने की तिथि को यदि किशोर 16 वर्ष से कम उम्र की है तब उसे या ऐसे किसी भी व्यक्ति को मृत्यु आ उम्र कैद की सजा नहीं दी जाएगी। इसे मुख्यत न्यायिक दंडाधिकारी या बाल कानून 1960 (1960 का 60) के तहत बने किसी भी न्यायालय के द्वारा देखा जा सकता है और कोई भी कानून जो एक समय विशेष में तत्काल प्रभाव से युवा अपराधियों के प्रशिक्षण और पुर्नस्थापना को महत्व प्रदान करता है”।
इस तरह के ही प्रावधान 1998 कोड में भी मौजूद है। यह सबसे ज्यादा आश्चर्यजनक है कि 2005 में अपराधिक प्रक्रिया कोड को संशोधित किया जा चोका हा इसके बावजूद सेक्शन 27 को वर्तमान किशोर कानून के साथ एकाकार करने हेतु नहीं बदला गया है किशोर कानून के बन जाने के साथ सी.आर.पी.सी. का यह प्रावधान अब व्यर्थ हो चुका है।
भारत का पहला किशोर न्यायालय 1927 में मुम्बई में स्थापित किया गया था। शूरूआत में इसे अध्यक्षीय मजिस्ट्रेट द्वारा चलाया जाता था जो निश्चित दिनों में कुछ घंटो के लिए बैठा करते थे। उसके बाद 1942 से किशोर न्याय का संचालन एक पूर्ण कालिक तनख्वाह लेने वाला मजिस्ट्रेट होता है जिसे विशेषज्ञों, निगरानी अधिकारी और मनोवैज्ञानिकों का एक समूह मदद करता है। बाल अधिनियमों में नौजवान अपराधियों और अवहेलित बच्चों के मामलों को निपटाने के लिए किशोर न्यायालय स्थापित करने के प्रावधान हैं। अपराधी किशोरों और अवहेलित किशोरों के मामलों कि एक ही प्राधिकरण द्वारा निपटाने की यह व्यवस्था 1986 में बदली गई जब अंतराष्ट्रीय स्तर पर किशोर की गलती पर न्याय की समझ ने कल्याणवाद से ऊपर का स्थान ले लिया, सौभाग्यवश, भारतीय कानून में किशोर मामलों में सामाजिक कायर के हस्तक्षेप का महत्व बरकरार रहा। 1986 के कानून के अंतर्गत किशोर कल्याण बोर्ड स्थापित किए गए ताकि खासतौर पर अवहेलित किशोरों के मामलों को निपटाया जा सकते और किशोर न्यायालय स्थापित किए गए ताकि उनका पूरा प्रभाव व ध्यान अपराधी किशोरों पर हो। किशोर न्यायालयों को दो मनोनीत सामाजिक कार्यकर्त्ताओं के एक पैनल द्वारा सहयोग किया जाता है जिनकी योग्यता बताए गए अनुसार होती व उनमें कम से कम एक महिला होगी और उनकी नियुक्ति राज्य सरकार द्वारा की जायगी। निगरानी अधिकारी ही सामाजिक कार्यकर्त्ताओं की दोहरी भूमिका निभाते है। 1986 के कानून के अनुसार किशोर न्यायालयों में मजिस्ट्रेटों को एक पीठ का होना आवश्यक था, अर्थात, दो या अधिक मजिस्ट्रेट जिनमें एक मुख्य मजिस्ट्रेट की तरह नियुक्त होगा। पर अधिकतर मामलों को एक ही मजिस्ट्रेट देखता था।
किशोर मामलों की अलग प्रक्रिया का मुख्य कारण था कि इन मामलों में एक समाजिक कानूनी समझ की जरूरत पड़ती है ताकि सुधार व पुनर्वास हो सके और सजा इसका मकसद न हो। किशोर न्याय अधिनियम 2000 के अंतर्गत, किशोर न्याय बोर्ड कानून का उल्लंघन करने वाले किशोरों के मामलों में “संबंधित प्राधिकरण” होता है। किशोर न्याय बोर्ड का गठन किशोर कानून के इस लक्ष्य को दर्शाता है। किशोर न्याय बोर्ड का रास्ता बहुत मुश्किल होता है; किशोर अपने अपराधों के लिए दोषी होते हैं, पर उन्हें इन क्रियाओं के लिए सजा नहीं दी जानी चाहिए बल्कि उन्हें जिन्दगी भर के लिए अपराध के घेरे में जाने से रोकना इनका मुख्य ध्येय होना चाहिए। 2000 का कानून मजिस्ट्रेट व सामाजिक कार्यकर्त्ताओं को सामान महत्व देता है, और वे संयूक्त रूप से किशोर मामलों को निपटाने वाली संबंधित प्राधिकरण को बनाते हैं।
किशोर न्याय बोर्ड में एक महानगरीय मजिस्ट्रेट या फिर और महानगरीय इलाकों में प्रथम दर्जे का कानूनी मजिस्ट्रेट व दो सामाजिक कार्यकर्त्ता जिनमें से एक महिला आवश्य होनी चाहिए शामिल होंगे। मजिस्ट्रेट व सामाजिक कार्यकर्त्ताओं को एक पीठ की तरह कार्य करना है, अर्थात साथ साथ पर अलग भूमिकाओं के तहत, मजिस्ट्रेट यह तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका रखते हैं कि किशोर ने अपराध किया या नहीं। जब बोर्ड को इस बात का यकीन हो जाए की अपराध हुआ हा तो सामाजिक कार्यकर्त्ता, अपराध की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए उसके सर्वांगीण पुर्नवास को तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। बैरी सी. फेल्ड द्वारा यह बहुत अच्छी तरह बताया है कि मजिस्ट्रेट किशोर के करम का और सामाजिक कार्यकर्त्ता उसकी जरूरतों का स्थान रखते हैं।
दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत मजिस्ट्रेट को मिले अधिकार ही किशोर न्याय बोर्ड को भी मिले हैं। महानगरीय मजिस्ट्रेट या प्रथम दर्जे के कानूनी मजिस्ट्रेट को मुख्य मजिस्ट्रेट का दर्जा मिलता है। यदि किशोर न्याय बोर्ड के सदस्यों में किसी तरह का मतभेद हो तो बहुमत बाले राय की संभावना न हो तो मुख्य मजिस्ट्रेट की राय मान्य होगी।
हर जिलें में 21 अगस्त 2007 तक किशोर न्याय बोर्ड की स्थापना होना जरूरी है। किशोर न्याय बोर्ड के बैठकों का स्थान, दिन व समय निर्धारित होना जरूरी है। बैठकों की बारम्बारता किसिस बोर्ड के समक्ष रुके हुए मामलों पर निर्भर होगा। बोर्ड द्वारा किसी मामले की शीघ्र जाँच होना बेहद महत्वपूर्ण है ताकि किशोर का जीवन गैर-जरूरी ढंग लम्बे समय के लिए उथल पुथल न हो और उसके पुनर्वास की प्रक्रिया जल्द से जल्द शुरू हो सके। लम्बे समय जाँच का रूका रहना किशोर के लिए पीड़ादायक होता है जिसे आसानी से रोका जा सकता है। निगरानी गृहों में व्यवसायिक प्रशिक्षणों की सुविधा नहीं होती है और न ही किशोर को व्यस्त रखने की तरकीबें जिसके फलस्वरूप किशोर बेचैन हो जाते हैं। लम्बी अवधि तक बंद रहने के कारण किशोरों के गृहों से भागने या भगाने की कोशिशों की घटनाएँ सामने आई है या फिर गृहों में हंगामा मचाने, जिससे विध्वंस होता है, की घटनाएँ भी हुई हैं।
तेज जाँच की जरूरत को समझते हुए कानून में किशोर न्याय बोर्ड को एक जाँच 4 महीने के भीतर निपटाने का आदेश है, पर यदि किन्हीं वजहों से यह संभव न हो तो विशेष परिस्थितियों के लिहाज से किशोर न्याय बोर्ड इस अवधि को जाँच के पूरा होने तक, कारणों सहित दिए गए आदेश से बढ़ा सकती है। कौन सा वक्त इस अवधि की शूरूआत मानी जाए, जब यह मामला किशोर न्याय बोर्ड के समक्ष आया हो या जब चार्जशीट दायर की गई हो या फिर जब किशोर की अर्जी दर्ज की गई हो 1986 में सर्वोच्च न्यायालय निर्देशित किया कि राज्य मशीनरी को यह सुनिश्चित करना चाहिए की चार्जशीट दायर की गई हो और किशोर की जाँच पूरी की गई हो: -
“हम निर्देशित करते हैं कि जब किसी 16 वर्ष से कम आयु के बच्चे के विरूद्ध प्राथमिकी दर्ज की गई हो जिसमें अधिकतम कैद की सजा की सीमा 7 वर्ष हो तो जाँच की प्रक्रिया शिकायत या प्राथमिकी दर्ज करने से तीन महीने के भीतर पूरी कर ली जाए और यदि जाँच इस अवधि के दौरान पूरी नहीं होती तो बच्चे के खिलाफ मामले को समाप्त समझा जाना चाहिए......।”
आदेश यह कहता है कि चार्जशीट दायर होने के तीन महीनों के भीतर जाँच पूरी हो जानी चाहिए। इस आदेश के अनुसार, 1986 के कानून के अंतर्गत, किशोर के खिलाफ मामले की सुनवाई अधिकतम 6 महीने के भीतर हो जानी चाहिए। 1986 का कानून कहता है कि, “इस अधिनियम के अंतर्गत किसी किशोर के मामले में जाँच जल्द से जल्द होनी चाहिए और आमतौर पर इसकी शूरूआत की तिथि से 3 महीने के भीतर पूरे हो जानी चाहिए, अगर कोई विशेष कारण न हो, जिसे लिखित रूप से दर्ज करना आवश्यक है, जिसे संबंधित प्राधिकरण निर्देशित करेगा” 2000 का कानून इस अवधि को बढ़ाकर 4 महिना करता है, और किशोर न्याय बोर्ड को यह अवधि किसी मामले से जुड़ी विशेष परिस्थितियों और विशेष मामलों के संबंध में बढ़ाने की छूट देता है। इस लिए मौजूदा कानून के अनुसार किसी किसर का मामला आमतौर पर उसकी गिरफ़्तारी के 7 महीने के भीतर निपटा दिया जाता है।
किशोर कानून के अंतर्गत चार्जशीट दायर करने की अधिकतम अवधि तय नहीं की गई है। यह बात मान्य है कि जब तक किसी कानून में कोई विशेष प्रक्रिया न दर्ज हो तब तक दंड प्रक्रिया संहिता में चार्जशीट दायर करने की कोई तयशुदा अवधि नहीं दी गई है, पर यह कहा गया है कि यदि अपराध मृत्युदंड, आजीवन कारावास या 10 वर्ष से अधिक अवधि का हो तो 90 दिनों तक या किसी अन्य अपराध के लिए 60 दिनों तक यदि चार्जशीट दायर नहीं होती तो आरोपी जमानत का अधिकारी है। किशोर के मामले में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 को चार्जशीट दायर करने की अवधि मानी जाती है। और यदि इस अवधि के भीतर चार्जशीट दायर नहीं किया जाता है तो किशोर के विरूद्ध मामला ख़ारिज हो जाता है।
कुछ किशोर न्याय बोर्ड, खासकर वे जो महानगरों में होते हैं, के पास काफी रुके हुए मामले होते हैं। ऐसे रुके हुए मामलों को खत्म करने का एक तरीका किशोर न्याय बोर्ड की बैठकों बढ़ाना होता है। मुम्बई किशोर न्याय बोर्ड के पास रुके हुए मामलों को बोर्ड के बैठकें धीरे धीरे बढ़ाकर निपटाया गया, शुरूआत में किशोर न्याय बोर्ड हफ्ते में एकबार बैठती थी जिसे बढ़ाकर हफ्ते में 3 दिन दिया गया और अंतत: हफ्ते के सभी कार्य दिवस कर दिया गया। मुंबई उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को मुंबई के अर्धशहराती इलाकों के लिए एक अतिरिक्त किशोर न्याय बोर्ड के गठन के लिए निर्देश के ताकि मामलों का रूकना कम हो जाए। 2006 के संशोधन से धारा 14 (2) डाली गई जिसमें यह मुख्य महानगरीय मजिस्ट्रेट या मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट या मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की जिम्मेदारी है कि वह हर 6 महीने में रुके हुए मामलों की जाँच करेगा और बोर्ड को अपने बैठकों की बारंबारता बढ़ाने के आदेश देगा या अतिरिक्त बोर्ड के गठन का आदेश देगा। कानून यह आवश्यक करता है कि बोर्ड के सदस्य बोर्ड की बैठकों में हाजिर रहें। किसी खास सदस्य की सेवाओं को ख़ारिज किया जा आ है यदि वह लगातार 3 महीनों तक किसी जायज कारण के बिना बोर्ड की बैठकों में हाजिर होने से chookta है या वह एक साल में होने वाली baithबैठकों की तीन चौथाई बैठकों में शामिल नहीं होता। इस कानून के अर्थ को इसके पहले वाक्य की वजह से गलत ढंग से पेश किया जाता है। जबकि यह कानों यह चाहता है कि तीन चौथाई बैठकों में भाग न लेने वाले सदस्य को बोर्ड में उसकी सेवाओं से मुक्त कर दिया जाए।
इसके अतिरिक्त, निगरानी गृह में माहौल अच्छा हो जाता है जब किशोर न्याय बोर्ड सही ढंग से काम करता है, और अपने रोजमर के मामलों को व्यवस्थित रखता है और मामलों में जल्द बढ़ता रहता है। दुर्भाग्यवश, किशोर न्याय व्यवस्था व्यक्तियों व उनकी योग्यताओं पर निर्भर करती है। इसलिए, किशोर न्याय बोर्ड में सही व्यक्ति का नियुक्त होना सुनिश्चित करना आवश्यक है। किशोर न्याय बोर्ड के सदस्यों को नियुक्त करने के लिए किए चयन समिति का गठन किया जाना चाहिए, जिसमें मजिस्ट्रेट भी शामिल है। फ़िलहाल, राज्य सरकार उच्च न्यायालय की मुख्य न्यायाधीश की सलाह से मजिस्ट्रेट को नियुक्त करता है। किशोर न्याय (देख रेख व सुरक्षा) नियम 2007 चयन समिति द्वारा सामाजिक कार्यकर्ताओं के चुनाव बोर्ड के सदस्यों के रूप मकरे का प्रावधान देता है, पर मजिस्ट्रेट के बारे में इसमें सिर्फ इतना कहा है, बाल मनोविज्ञान या बाल कल्याण में विशेष ज्ञान आ प्रशिक्षण वाले किसी मजिस्ट्रेट को मुख्य मजिस्ट्रेट मौजूद नहीं हो तो तो राज्य सरकार द्वारा कोटी अवधि की बाल मनोविज्ञान या बाल कल्याण में प्रशिक्षण दिलवाया जाना चाहिए। किशोर न्याय बोर्ड के कार्य को सबसे बेहतर करने के लिए यह जरूरी है की एक seऐसा मुख्य मजिस्ट्रेट चूना जाए जो इस पड़ को ली की सचमुच इच्छा रखता हो। इसके लिए जरूरी है कि चुनाव का मौजूदा तरीका बदला जाए और बच्चे के सर्वोपरी हित में यह सही होगा कि मुख्य मजिस्ट्रेट के चुनाव के लिए बनी चयन समिति का अध्यक्ष उच्च न्ययालय के न्यायाधीश बने। चयन समिति के अन्य सदस्यों में मुख्य महानगरीय मजिस्ट्रेट या मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, महिला एवं बाल विकास विभाग का सचिव और किसी सामाजिक कार्य महाविद्यालय के शिक्षक हो सकते है।
१. जाँच चलते वक्त किशोर को निगरानी गृह में रखा जाता है।
२. किशोर न्याय बोर्ड, खास परिस्थितियों के अलावा, किशोर को जमानत पर छोड़ देगी।
३. किशोर न्याय बोर्ड के समक्ष मामले को लगातर पेश करना है। यदि किशोर को जमानत पर नहीं छोड़ा जाता है तो, किशोर न्याय बोर्ड को पेशी की तारीख जल्दी जल्दी देनी है, और किसी भी मौके पर यह अवधि 15 दिनों से अधिक नहीं होती है।
४. एक बार निगरानी गृह में रखे जाने के बाद किसी भी किशोर को किशोर न्याय बोर्ड की पूर्व अनुमति के बगैर विशेष किशोर पुलिस इकाई या पुलिस के सुपूर्द नहीं किया जाएगा। किशोर की हिरासत विशेष किशोर की हिरासत विशेष किशोर पुलिस इकाई या पुलिस के सुपूर्द नहीं करेगा, जब तक की असाधारण स्थितियों में निगरानी में हिरासत न हो। यदि विशेष किशोर पुलिस यूनिट या पुलिस किशोर से पूछताछ करना या TIP करना चाहती है तो उसे इसका आवेदन किशोर न्याय बोर्ड के समक्ष पहले ही देनी है, जिसपर किशोर न्याय बोर्ड को उचित आदेश देना है। यदि ऐसा आवेदन मंजूर होता है तो किशोर न्याय बोर्ड यह निर्देशित करेगा कि ऐसी पूछताछ या TIP निगरानी गृह का निरीक्षक या निगरानी अधिकारी की मौजूदगी में होगा।
5. किशोर न्याय बोर्ड को किशोर का सर्वोपरी हित ध्यान में रखना है, और सुनि में प्रमुख भूमिका निभानी है कि विशेष किशोर पुलिस इकाई और पुलिस अपनी भूमिका सही ढंग से निभाएं, उदहारण के लिए किशोर न्याय बोर्ड को पुलिस को जल्द चार्जशीट दायर करने व आदेश पर गवाहों को पेश करने का निर्देश देना है।
6. पुलिस या विशेष किशोर पुलिस इकाई की जाँच का अंतिम बिन्दु चार्जशीट या पुलिस रिपोर्ट को किशोर न्याय बोर्ड के समक्ष दायर करना है। चार्जशीट में शिकायत कर्त्ता का नाम, सूचना की प्रकृति, कानून का उल्लंघन करने वाले किशोर का नाम, गवाहों के बयान इत्यादि दर्ज न्होते हैं। चार्जशीट पढ़ने के बाद ही न्यायालय यह तय करती है आरोपी के खिलाफ कोई मामला बन रहा है या नहीं, यदि चार्जशीट दायर करने के बाद भी साबुत मिलते हैं तो एक अतिरिक्त चार्जशीट पुलिस या विशेष किशोर पुलिस यूनिट द्वारा दायर की जा सकती है।
७. चार्जशीट दायर करने पर किशोर न्याय बोर्ड निगरानी अधिकारी की रिपोर्ट या सामाजिक जाँच रिपोर्ट की मांग करेगा, निगरानी अधिकारी सामाजिक जाँच रिपोर्ट सोशल इन्वेस्टीगेशन रिपोर्ट तैयार करते हुए किशोर के माता पिता या अभिभावक से मिलेगा और जरूरत पड़ने पर य्सके घर का दौरा भी करेगा। सामाजिक जाँच रिपोर्ट में निगरानी अधिकार किशोर की पृष्ठभूमि के बारे में उसके माता पिता या अभिभावक उसके जिम्मेदारी लेने लायक हैं या नहीं और किशोर के सम्पूर्ण पुनर्वास के लिए क्या किया जाना चाहिए इसके बारे में बताएगा। सजा देते वक्त सामाजिक जाँच रिपोर्ट एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, किशोर न्याय बोर्ड को किशोर के पुनर्वास से संबंधित फैसला सुनाने से पहले इस रिपोर्ट को ध्यान में रखना आवश्यक है। किसी मान्यता प्राप्त स्वयंसेवी संस्था सभी सामाजिक जाँच रिपोर्ट ली जा सकती है, खास तौर पर तब जब किशोर, बोर्ड के प्रभाव क्षेत्र के बाहर के किसी क्षेत्र से हो।
8. अगले चरण में किशोर का बयान दर्ज किया जाता है जिसमें उससे यह पुछा जाता है कि उसने अपराध किया है या नहीं। किशोर को संक्षेप में दायर मामले के बारे में उसका बयान दर्ज करने से पहले बताया जाता है।
9. यदि किशोर अपना अपराध स्वीकार करता है तो बोर्ड यह मान सकती है कि किशोर ने अपराध किया है और किशोर न्याय अधिनियम 2000 के धारा 15 के अंतर्गत फैसला सूना सकती है। किशोर के यह मानने, कि उसने अपराध किया है, के बाद भी बोर्ड जाँच जारी रख सकता है कारणों सहित यह बताने के बाद, कि उसने किशोर का बयान क्यों नहीं माना, आमतौर पर बोर्ड किशोर की स्वीकृत को मान लेती है जबतक उसे यह न लगे की स्वीकृति को मान लेती है जबतक उसे यह न लगे की ऐसा करना किशोर के सर्वोपरी हित में नहीं होगा या फिर उसे अपराध स्वीकार करने के लिए किसी व्यक्ति या व्यक्तियों द्वारा धमकाया गया है। किशोर न्याय बोर्ड, निगरानी गृह के निरीक्षक या निगरानी अधिकारी द्वारा किशोर अपराध स्वीकार करने के लिए दबाव बनाने के अभ्यास की भर्त्सना की जानी चाहिए। अक्सर किशोर गलती इसलिए स्वीकार कर लेता है है क्योंकि उसे, उसके माता पिता या अभिभावक को यह बताया जाता है कि अपराध स्वीकार लेना ही मामले को जल्दी निपटाने का एक मात्र तरीका है। किसी किशोर को अपराध स्वीकार करने के लिए बाध्य करना उसे काफी परेशान करता है, अगर उसे छोड़ दिया जाए तब भी क्योंकि इससे उसे ऐसा लगता है कि कुछ गलत किए बिना भी उसे अपराधी के रूप में चिन्हित कर लिया गया है।
10. किसी किशोर को जिसने अपराध स्वीकार नहीं किया है, को बोर्ड द्वारा अपराध स्वीकार करने दिया जा सकता है अगर ऐसा करना उसके सर्वोपरी हित में हो और अपनी इच्छा से किया गया हो। कोई किशोर अपना अपराध न स्वीकार करने के बाद गलत महसूस कर सकता है और अपना ब्यान बदलने की इच्छा जता सकता है, इसलिए किशोर की ऐसी इच्छा पर कोई रोक नहीं होनी चाहिए।
11. जब किशोर अपना अपराध स्वीकार नहीं करता या उसके स्वीकृति को बोर्ड नहीं मानती तो किशोर का मामला सबूतों को दर्ज करने के लिए तैयार होता है। सरकारी गवाह बुलाए जाते हैं और उनके बयान दर्ज किए जाते है। बोर्ड को, अतिरिक्त सरकारी वकील को निर्देशित करना चाहिए कि वे चार्जशीट को देखें और सिर्फ जरूरी गवाहों को बुलाएं ताकि मामला गैर जरूरी ढंग से लंबा ने खींचे।
12. जाँच चलाते वक्त बोर्ड की दंड प्रक्रिया सहिंता द्वारा दी गई प्रक्रिया को मानना चाहिए। गंभीर अपराधों के मामलों में बोर्ड को वारंट केसों की तरह सबूतों को विस्तार से दर्ज करना चाहिए ताकि किशोर के अधिकार की सुरक्षा होनी चाहिए।
13. सरकारी गवाहों से अतिरिक्त सरकारी वकील द्वारा सरकार की ओर से पूछताछ करनी है और किशोर के वकील द्वारा अतिरिक्त पूछताछ करनी है। बयान को बोर्ड द्वारा दर्ज किया जाता है और सबूतों के नोट की एक प्रति बिना चुके किशोर के वकील को दी जाती है।
14. किशोर न्याय बोर्ड को हर हाल में यह सुनिश्चित करना है कि तय तिथि में सरकारी गवाह अपना बयान देने के लिए हाजिर हो, और यदि ऐसा नहीं होता तो बोर्ड पुलिस से इस अनुपस्थिति की रिपोर्ट लेगी। यदि कोई सरकारी गवाह हाजिर नहीं होता तो बोर्ड उनकी उपस्थति सुनिश्चित करने के लिए जमानती या गैर जमानती वारंट दर्ज कर सकती है या उसका मामला बंद करने के लिए सरकार के पक्ष से बात कर सकती है।
15. आरोप पक्ष की ओर से मामले को बंद किए जाने के बाद, दंड प्रक्रिया सहिंता की धारा 313 के अंतर्गत किशोर का बयान बोर्ड द्वारा दर्ज किया जाता है। बोर्ड द्वारा प्रश्न किए जायेंगे कि किशोर यह बता सके की बयानों का कोई हिस्सा उसे अपराधी तो नहीं ठहराता, दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 के तहत बयान दर्ज करते हुए उससे कोई प्रतिज्ञा नहीं दिलवाई जानी है और न ही किसी गलत जवाब के लिए उसे सजा का हकदार बनाया जाता है। किशोर का बयान आरोप पक्ष के सबूतों का विकल्प नहीं माना जा सकता आरोप पक्ष को स्वतंत्र रूप से अपराध साबित करना है। किशोर के बयान को बोर्ड द्वारा आरोप पक्ष के द्वारा पेश सबूतों के साथ मिला कर देखना है।
16. किशोर यदि अपने बचाव व आरोप पक्ष अपनी मौखिक बहस चलाएंगे, लिखित तर्क उन फैसलों के साथ, जिन पर तर्क गढ़े गए हैं बोर्ड के समक्ष दोनों पक्षों द्वारा दिए जा सकते हैं।
17. इसके बाद बचाव व आरोप पक्ष अपनी मौखिक बहस चलायेंगे, लिखित तर्क, उन फैसलों के साथ, जिन पर तर्क गढ़ गए हैं बोर्ड के समक्ष दोनों पक्षों द्वारा दिए जा सकते हैं।
18. पेश किए गए सबूतों और दिए गए तर्कों के आधार बोर्ड मामले में अंतिम फैसला सुनाएगा। यदि बोर्ड इस बात पर संतुष्ट है कि किशोर ने अपराध किया है तो बचाव पक्ष को सजा पर बहस करने का मौका, फैसले सुनाने के पहले दिया जाना चाहिए। जाँच की वक्त किशोर को ऐसा माहौल दिया जाना चाहिए कि वह आराम से रह न की कृतज्ञता या डर की भावना से भर जाए। बैठने की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए ताकि बोर्ड व किशोर दोनों एक ही स्तर पर हों। बोर्ड को धीरे धीरे व ऐसी भाषा या तरीके से बात करनी है जो किशोर की समझ में आए, राज्य सरकार द्वारा बोर्ड को उपयुक्त ढाँचा व मानव संसाधन मुहैया करवाया जाना चाहिए जिसमें निगरानी अधिकारी, स्टेनो – टाइपिस्ट या कम्प्युटर ऑपरेटर, चपरासी व सफाई कर्मचारी शामिल हैं।
स्रोत: चाइल्ड लाइन इंडिया फाउंडेशन
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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