भारतीय समाज एक पुरुष प्रधान समाज है। अत यहाँ लड़की का विकास बाधाओं और जटिलताओं से परिपूर्ण है। लड़के और लड़की के लिए अलग-अलग मूल्य पालन किये जाते हैं। यहाँ लड़कियों की उपेक्षा को सामाजिक अनुमोदन प्राप्त हैं, जो पारस्परिक सामाजिक ढांचे, संस्थानों तथा लोकरीतियों में गहरी जुड़े जमा चुका है। यह अखिल भारतीय तथ्य है।
भारत में लड़कियाँ सदैव अनचाही औलाद रही हैं कभी उनके जन्म का स्वागत नहीं किया जाता। और परिवार तथा समाज में व्यापक रूप में असमानताओं के अंतर्गत उनका लालन-पालन होता है। लड़कियों को हमेशा से ही लिंग भेदभाव का सामना करना पड़ता है। अवहेलना तथा शोषण और उत्पीड़न के विभिन्न रूपों को बढ़ावा देता है। अक्सर लड़कियों वंचित, अल्पपोषित तथा उपेक्षित रहती है व उनसे अधिक काम कराया जाता है। उनका पालन-पोषण ठीक से नहीं होता। उन्हें कम पढ़ाया जाता है, उनकी देखभाल में कोताही बरती जाती है। उनके साथ दुर्व्यवहार किया जाता है। लड़कों की अपेक्षा हर चीज में उन्हें दोयम दर्जे की चीजों का माना जाता है। जैसे दोयम दर्जे की स्वास्थ्य देखभाल, कम अवसर, कम शिक्षा, कम भोजन, कम संम्पत्ति तथा पारिवारिक संसाधनों का कम उपभोग। इससे उनमें स्वयं के प्रति निम्न आत्म-सम्मान तथा गहन विनम्रता का विकास होता है। इस दृष्टि से लड़की को महत्वहीन बालिका की संज्ञा दी जा सकती है।
ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी बढ़ने पर अधिकाश बालिकाएँ अपने श्रम को बेचकर पारिवारिक आय में अपना योगदान देती है। बड़े शहरों तथा नगरों में प्रवासी कर्जदार परिवारों की लड़कियों के बीच यह तस्वीर आम देखी जा सकती ही। परिवार का आकार, गरीबी, कर्ज तथा अशिक्षा जैसे सामाजिक-आर्थिक और जनसांख्यिकी कारक गरीब परिवारों के बच्चों को श्रमशक्ति में भागीदार बनने के लिए मजबूर करते है।
भारत में दोनों लिगों के बाल मजदूरों के आर्थिक शोषण का लम्बा इतिहास है वैसे तो लड़कियों के मामले में उनका आर्थिक, सामाजिक तथा यौन शोषण व्यापक है और बढ़ता प्रतीत हो रहा है। वर्तमान काल में भारत में बाल श्रमिक की समस्या एक ज्वलंत विषय है। और विशेषकर लड़कियों की स्थिति अतिसंवेदनशील है। यहाँ बाल श्रम के असहनीय तथा व्यापक रूप में देखने को मिलते हैं जैसे दासता, ऋण बंधन से जुड़ा प्रबल तथा अनिवार्य श्रम उनका वेश्यावृत्ति तथा अश्लील साहित्य में उपयोग।
वैसे बाल मजदूरी के सन्दर्भ भारतीय प्राचीन ग्रंथों में भी मिलते हैं लेकिन अंग्रेजों के व्यापार फैलने के साथ ही आधुनिक उद्योगों, खानों, परिवहन और बागान विकास ने 19वीं शताब्दी के उतरार्ध में भारतीय समाज में औद्योगिक श्रमिक वर्ग के रूप में एक सर्वथा नवीन वर्ग को जन्म दिया। 1880-81 तक इसका आकार साधारण था लेकिन इसे आधुनिक भारत में औद्योगिक उत्पादन से जुडी प्रक्रिया में बाल मजदूरों के शोषण के आरंभिक अध्याय के रूप में देखा जा सकता है।। मजदूरों के स्थिति ठीक नहीं थी। धीरे-धीरे इस क्षेत्र में वे सभी बुराइयाँ आ पहुंची जिन्होंने पहले अंग्रेज श्रमिकों की पीढ़ियों का जीवन विकृत किया था। प्रारम्भिक भारतीय कारखानों में काम करने वाले बच्चों के साथ भी कोई अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता था। 1881 तक बच्चों को भी उतने ही घंटे काम करना पड़ता था जितने घंटे वयस्क व्यक्ति काम करते थे। इसका परिणाम यह होता था कि वे बेचारे थकावट से चूर-चूर होकर मशीनों के बीच गिर जाते थे।
1881 के फैक्टरी एक्ट ने बच्चों के लिए काम के घंटों की अधिकतम सीमा 9 घंटे प्रतिदिन निर्धारित की और बच्चे की न्यूनतम आयु 12 वर्ष। फिर भी बहुत सारे कारखानों में बच्चे वयस्कों के बराबर लम्बे समय तक काम करते रहे। 1891 के फैक्टरी एक्ट ने बच्चों के काम के घंटों में और अधिक कटौती करके उसकी अधिकतम सीमा 7 घंटे प्रतिदिन की और बच्चों की न्यूनतम और अधिकतम आयु सीमा भी 7-12 के स्थान पर क्रमशः 9-14 तक बढ़ा दी गयी। परन्तु व्यवहार में इन दोनों प्रावधानों का प्रायः उल्लंघन किया जाता था।
रुई पींजने-दबाने जैसे काम में लगे छोटे और मौसमी कारखानों की स्थिति तो आरम्भ से ही हृदयदावक और भयावह थी। 1885 में बम्बई फैक्टरी लेबर कमीशन ने अवलोकन किया कि खानदेश के पिंजन और ‘संपीडन’ कार्य में जिसमें अधिकांशतः स्त्रियाँ और बच्चे ही लगे हुए थे और उनके काम के घंटे सामान्य रूप से सबेरे 4 अथवा 5 बजे से सायं 7,8 अथवा 9 बजे तक होते थे और जब काम का दबाव बढ़ जात था तो उन्हें 8-8 दिनों निरंतर दिन-रात तब तक काम करते रहना पड़ता था जब तक कि उनके हाथ थककर और स्वास्थ्य बिगड़कर काम करने से इंकार नहीं कर देते थे थे। (दासः फैक्टरी लेबर इन इंडिया पृष्ठ 59- ६०) लेकिन इन बिषम परिस्थितियों के बाबजूद मजदूरों की स्थिति सुधारने के लिए इंगलैंड के परोपकार और सेवावृतधारियों तथा वस्त्र उत्पादकों ने ही बच्चों के स्वस्थ्य संरक्षण हेतु पहल की। तब 25 मार्च 1875 को बम्बई सरकार ने एक आयोग बनाया जिसने 8 वर्ष से नीचे की आयु के बच्चों को कारखाने में काम पर पाबन्दी लगाई एवं 8 से 16 वर्ष तक की आयु के कार्य की समय सीमा 8 घंटे प्रतिदिन की सिफारिश की। इसके फलस्वरूप बाद में 1881 में इंडियन फैक्टरी एक्ट में परिवर्तन हुआ। इसमें 7-12 वर्ष के बच्चों को 9 घंटे प्रतिदिन से अधिक समय कार्य करने की अनुमति नहीं थी। लेकिन यह कानून केवल उन कारखानों पर लागू होता था जो मशीनी शक्ति का प्रयोग करते थे। नील के कारखानों, चाय और काफी बागानों का विशेष रूप से इस कानून की सीमा से बाहर रखा गया था। इस सारे प्रसंग में भारतीय अखबारों की भूमिका नकारात्मक रही। एक अखबार नेटिव ओपिनियन ने तो यहाँ तक लिख डाला (29 दिसंबर 1878) “स्कूल जाने वाले बच्चों की अपेक्षा कारखानों में काम करने वाले बच्चों का स्वास्थ्य अधिक अच्छा है।” जाहिर है कि ‘बचपन’ की कल्पना अभी भारतीय समाजशास्त्रियों की दृष्टि से ओझल थी। फैक्ट्री कानून के विरुद्ध राष्ट्रवादियों ने प्रबल विरोध जताया। उनका तर्क था कि यह कानून भारत के पनपते सूती वस्त्र उद्योग के विकास में बाधक बनेगा। इसके बाद 1891 का फैक्टरी अधिनियम आया।
इसमें बाल मजदूरी की न्यूनतम आयु 9 एवं अधिकतम आयु 14 रखी गयी। एवं काम के घंटों की सीमा प्रतिदिन 7 कर दी गयी। विरोधियों ने पुराना तर्क दोहराया कि काम न करने से बच्चे अपराधी बन जाते हैं। राष्ट्रवादी नेताओं को बच्चों से ज्यादा वस्त्र उद्योग की चिंता थी। (ए.वी.पी. 7 फरवरी 1987: हिन्दू १७ मई, 1899: सुरभि पताका 10 अप्रैल 1890, इंदु प्रकाश, 11 अप्रैल 1891)
इसी तरह जब 1901 में भारतीय खान अधिनियम आया तो महिलाओं द्वारा बच्चों को भू-गर्भ में अपने साथ ले जाए को मनाही करने वाली व्यवस्था का बंगाल खान मालिकों के संघ ने विरोध किया।
लेकिन समय के साथ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़े नेताओं के विचारों में परिवर्तन आता गया और बंगाल के कांग्रेस नेताओं ने असम के कुलियों के साथ होने वाला अमनावीय व्यवहार की आलोचना करनी प्रारभ की। इस काल में भारतीय अख़बारों, जिनमें दि हिन्दू, स्टेटमेन एवं दी टाईम्स ऑफ इंडिया प्रमुख थे, ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। बी. सी. पाल ने पाने लेखों में असम के चाय बागानों में कुलियों के जीवन का दर्दनाक वर्णन किया। अन्य भारतीय नेताओं ने भी कहा कि असम में कुली श्रम की पद्धति दासता के रूप से भिन्न नहीं थी क्योंकि वहाँ भारतीय कुली का जीवन प्राचीन काल के दासों अथवा आधुनिक काल के हब्शी दासों के जीवन से किसी भी रूप में बेहतर नहीं था। 1880 के आसपास के वर्षों में बंगाल की शिक्षित जनता ने ‘अंकल टाम्स कैबन’ पुस्तक की प्रशंसा में झंडे उठा लिए। इससे पता चलता है कि संवेदनशील बंगाली भद्र लोक में मानवीयता के बीज पनप रहे थे। ऐसी भावना गंगा के मैदान से नदारद थी। पाल ने न्यू इंडिया के 26 अगस्त 1901 के अंक में लिखा, “दंडनीय श्रम पद्धति दासता का संशोधित तथा आधुनिक रूप है।” इससे भी आगे बढ़कर असम कुलियों के पक्ष में आवाज बुलंद करने वाले अखबार ‘संजीविनी’ ने 3 दिसम्बर 1886 को सुझाव दिया कि “ शिक्षित भारतियों को चाय पीना बंद कर देना चाहिए क्योंकि यह चाय पीना गरीब, प्रताड़ित कुलियों के खून पीने के अतिरिक्त और कुछ नहीं।”
यानी अब भारतीय राष्ट्रवादी नेताओं में मन में मजदूर वर्ग की सामाजिक भूमिका के सम्बन्ध में नये विचार तथा इसके अधिकारों और दायित्वों के प्रति नये दृष्टिकोण ने जन्म लेना प्रारंभ कर दिया था। लेकिन या विचार कुछ गिने चुने नेताओं तक ही सिमित था। फिर भी विपिन चन्द्र पाल एवं जी. एस. अय्यर ने श्रम समस्या पर प्रगतिशील सुझाव रखे। इन्हीं कारणों से धीरे-धीरे भारतीय बाल मजदूरी की समस्या भी श्रम बहसों का हिस्सा बनने लगी। इसमें इंडियन नेशनल कांग्रेस ने सक्रिय रूप से काम किया।
तो फिर काम की परिभाषा में किन-किन बातों का विचार करना चाहिए? जैसे हमने देखा, केवल मजदूरी की बात काफी नहीं है। इसे कुछ व्यापक बनाने के लिए उसमें आय बढ़ने वाली गतिविधियों की जोड़ने से भी समस्या सुलझेगी नहीं। क्योंकि यह तय करना कठिन है कि घर या गृहस्थी की आय में वृद्धि करने में किन-किन कामों का समावेश माना जाय। क्या रसोई बनाना, पानी भरना, बूढों और बच्चों को संभालना आदि को भी परोक्ष रुप से घर की आय बढ़ाने वाली प्रव्रत्ति मान सकते हैं। अगर मानते हैं तो वह परिभाषा बहुत व्यापक हो जाएगी, परिभाषा परिभाषा नहीं रह जाएगी। उसका कोई उपयोग नही हो सकेगा। इसलिए, परिभाषा छोटी और संक्षिप्त होनी चाहिए। यहाँ इसकी पूरी चर्चा में उतरने का हमारा इरादा नहीं है। यहाँ इतना कह देना काफी है कि उसकी कोई सीधी-सादी परिभाषा करना बहुत कठिन है, वैसा करने में कई बाधाएँ हैं एक उपाय यह हो सकता है कि उस व्यापक समाज परिवर्तन में घरेलू अर्थव्यवस्था की भूमिका और गृहस्थी की आर्थिक स्थिति का सम्बन्ध व्यापक अर्थनीति के साथ जोड़ कर देखा जाये।
बच्चे के, प्रौढ़ता की दिशा में सहज विकास की प्रक्रिया का विचार भी बाल श्रम की परिभाषा में एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। इससे हमारा ध्यान इस बात पर जाता है कि बच्चे का, शरीर से तथा वृद्धि से प्रौढ़ता की ओर विकास करते जाना उसका अधिकार ही। जो श्रम उसे इस अधिकार से वंचित करता हो वैसे काम का निषेध होना चाहिए। इस “अधिकार” को सभी संस्कृतियों की मान्यता प्राप्त है। दरअसल, जैसे पहले बताया गया है, बच्चे को सामाजिक गतिविधियों में भाग लेने-देने की प्रक्रिया का स्वरुप ही ऐसा है जिससे वह धीरे-धीरे और बुद्धि दोनों से बालिग होता जाता है।
इस प्रकार बाल श्रम की परिभाषा में जिन मुद्दों का होना आवश्यक हैं वे संक्षेप में इस प्रकार है:
समाज –परिवर्तन की प्रक्रिया में घरेलू आर्थिक स्थिति की भूमिका महत्व रखती है और बाल्य से प्रौढ़ता की ओर सहज विकास करते जाना बच्चों का अधिकार है। इस आधार पर हम ऐसी उत्तम योजना औए समुचित व्यूह रचना तैयार कर सकते हैं जो अच्छी तरह अमल में आ सकती है, द्वितीय की जा सकती है और न केवल अन्यायों के विरुद्ध संघर्ष छेड़ने वालों बल्कि पीड़ित लोगों के हितों का भी पूरा-पूरा ध्यान रखा जा सकता है।
वेबस्टर की डिक्शनरी में लड़की का उल्लेख बालिका, अविवाहित युवती, सेविका, प्रेमिका नामक अनंतर उपनामों से किया गया है। वास्तव में विश्व में लड़कियों का अनुपात काफी अधिक है, जिनमें से अधिकतर अल्पवयस्क है जिनका अभी तक विवाह नहीं हुआ है।
इस परिभाषा के तीन पैमाने हैं पहला जैविक तथ्यों के आधार पर वैध है, दूसरा लड़कियों के प्रति पूर्वाग्रह कथन है तथा अंतिम अत्यधिक तुच्छ कथन है स्पष्टीकरण या आलोचना करने योग्य है।
किशौर्य की आयु के पैमाने द्वयथर्क है। किशौर्य वर्ग 0 आयु से 18 वर्ष की आयु तक माना जाता है लेकिन यह विभिन्न सांस्कृतिक, क़ानूनी, राजनीतिक, धार्मिक रीति-रिवाजों के फरमान पर निर्भर रहती है। परन्तु मौटे तौर पर किशोरी वर्ग को 13 से 18 वर्ष की आयु तक स्वीकार करना व्यावहारिक है। उचित विकास के उद्देश्य के लिए लड़की को वर्ग 0-1. 1-5. 6-10. 11-14 और 15-18 की श्रेणी में रखकर देखना उपयुक्त होता। घरेलू बालिका मजदूर आयु वर्ग को जानने के उदेश्यों से भारत के बाल मजदूर अधिनियम के अनुसार 14 वर्ष से कम आयु को बालिकाओं को देखना होगा।
बाल मजदूर शब्द की परिभाषा संयुक्त राष्ट्र समिति बाल मजदूर समिति के अध्यक्ष हैमर ने इस प्रकार दी है, बच्चों द्वारा किया गया किसी भी प्रकार का ऐसा काम जो उनके शारीरिक विकास में वांछनीय न्यूनतम शिक्षा के लिए उनके अवसरों या उनके आवश्यक पुनःसृजन में अवरोध उत्पन्न करता है (हस्तक्षेप करता है)” व्यापार संघ के नेता (स्वर्गीय) श्री वी.वी. गिरी ने इस शब्द के दो अर्थों के बीच अंतर स्पष्ट किया है। प्रथम सम्पूर्ण आर्थिक कार्य के रूप में जिसमें बच्चा अपनी कमाई के माध्यम से परिवार की एक आर्थिक इकाई होता है, द्वितीय शारीरिक श्रम के खतरों से बच्चे को सामाजिक संकटों में डालना तथा साथ-साथ उसके विकास के अवसरों से उसे वंचित करना।
बाल मजदूर (निषेधाज्ञा तथा विनियमन अधिनियम) 1986 में जो 1938 के एक्ट में संशोधन कर बनाया गया। बाल मजदूर की परिभाषा इस प्रकार है: वह मजदूर व्यक्ति जिसने अपनी उम्र के 15 वर्ष पूरे न किये हो” यह कानून बच्चों के रोजगार के लिए कार्य करने के घंटे तथा शर्तों का नियमन करता है। आज 60 से भी अधिक जोखिमपूर्ण उद्योगों में बच्चों का रोजगार निषेध है।
शोषण के विरुद्ध कानून के सूक्ष्म परिक्षण के बिना यह परिभाषा घरेलू कार्यों में हिस्सा लेती हैं और दूसरा, वह जो आर्थिक कार्यों के लिए बाहर जाती हैं। विकाशील देशों में बालिकाओं को जंगल से ईंधन, चारा, फल और सब्जियों तथा गोबर इत्यादि एकत्रित करने में अत्यधिक मेहनत करनी पड़ती है। वास्तविकता यह है कि घर के कार्यों की जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेकर वे अपने माता-पिता को इस योग्य बनाती है कि अपने कार्यस्थल पर अधिक काम करके अधिक धन कमा सके। ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चे अपने माता-पिता के साथ कृषि उत्पादन के सभी प्रकार के कार्यों से जुड़े रहते हैं, जैसे दूध बेचना, इसी तरह मछुवारे शिल्पकार व दस्तकार भी कुटीर उद्योगों में अपने बच्चों को वंशानुगत शिल्पकार्यों से जोड़कर रखते हैं और यह कार्य पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनके द्वारा किया जाता रहता है। ऐसे में बालिका मजदूर के बारे में सामाजिक ध्यानकर्षण और भी कठिन हो जाता है।
स्रोत:- जेवियर समाज सेवा संस्थान, राँची।
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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