उद्देश्य एक पूर्वदर्शित लक्ष्य है जो किसी क्रिया को संचालित करता है अथवा व्यवहार को प्रेरित करता है। यदि लक्ष्य निश्चित तथा स्पष्ट होता है तो व्यक्ति की दिया उस समय तह उत्साहपूर्वक चलती रहती है, जब तक वह उस लक्ष्य ओ प्राप्त नहीं कर लेता। जैसे-जैसे लक्ष्य के निकट आता जाता है जब व्यक्ति अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने को ही उद्देश्य की प्राप्ति कहतें हैं। संक्षेप में उद्देश्य की पूर्वदर्शित लक्ष्य है जिसको प्राप्त करने के लिए व्यक्ति प्रसन्नतापूर्वक उत्साह के साथ चिंतनशील रहते हुए क्रियाशील होता है।
मानव जीवन के प्रत्येक पक्ष तथा दैनिक जीवन की प्रत्येक क्रिया को सफल बनाने के उदेश्य का विशेष महत्व होता है। बिना उद्देश्य के हम जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं हो सकते। शिक्षा के क्षेत्र मे भी यही बात है। इसका मात्र एक कारण यह है की प्राकृतिक बालक तथा प्रगतिशील एवं विकसित समाज की आवश्यकताओं तथा आदर्शों के बीच एक गहरी खाई होती है इस खाई को पाटने के लिये केवल शिक्षा ही एक ऐसा साधन है जो किसी उद्देश्य के अनुसार समाज के बदलती हुई आवश्यकताओं तथा आदर्शों को दृष्टि में रखते हुए बालक की मूल प्रवृत्तियों का विकास इस प्रकार से कर सकते हैं की व्यक्ति तथा समाज दोनों ही विकसित होते रहें। इस दृष्टि से नर्सरी, प्रईमारी, माध्यमिक तथा उच्च स्तरों एवं सामान्य व्यवसायिक एवं तकनीकी तथा प्रौढ़ , आदि सभी प्रकार की शिक्षा के उदेश्य अलग-अलग और स्पष्ट होना चाहिये
जब व्यक्ति को किसी उद्देश्य स्पष्ट का ज्ञान होता है तो उसके मन में दृढ़ता तथा आत्मबल जागृत हो जाता है। इससे वह एकाग्र हो कर अपने कार्यों को पुरे उत्साह से करने लगता है। यही नहीं, उदेश्य हमें शिक्षण-पधितियों के प्रयोग करने, साधनों का चयन करने, उचित पाठ्यक्रम की रचना करने तथा परिस्थितियों के अनुसार शिक्षा की व्यवस्था करने में भी सहायता प्रदान करता है। इससे व्यक्ति तथा समाज दोनों विकास की ओर अग्रसर होते रहते हैं। जिस शिक्षा का कोई उद्देश्य नहीं होता वह व्यर्थ है। ऐसी उद्देश्यविहीन शिक्षा को प्राप्त करके बालकों में उदासिनता उत्पन्न जो जाती है। परिणामस्वरूप उन्हें अपने किये हुए कार्यों में सफलता नहीं मिल पाती जिससे कार्य को आरम्भ कनरे से पूर्व बालक तथा शिक्षक दोनों को शिक्षा के उद्देश्य अथवा उद्देश्यों का स्पष्ट ज्ञान होना परम आवश्यक है। उद्देश्य के ज्ञान के बिना शिक्षक उस नाविक के समान होता है जिसे अपने लक्ष्य का ज्ञान नहीं तथा उसके विधार्थी उस पतवार-विहीन नौका का समान है जो समुद्र की लहरों के थपेड़े खाती हुई तट की ओर बढ़ती जा रही है
शिक्षा के उद्देश्यों के विभिन्न रूप होते हैं। मोटे तौर पर हम शिक्षा के सभी उद्देश्यों को निम्नलिखित शीर्षकों में विभाजित कर रहें हैं –
विशिष्ट उद्देश्यों को “ असामान्य उद्देश्यों की संज्ञा दी जाती है। इन उदेश्यों का क्षेत्र तथा प्रकृति सीमित होती है। यही नहीं, इनका निर्माण किसी भी विशेष परिस्थिति तथा विशेष कारण को ध्यान में रहते हुए किया जाता है। इस दृष्टि से यह उद्देश्य लचीले, अनुकूल योग्य तथा परिवर्तनशील होते हैं दुसरे शब्द में शिक्षा के विशिष्ट उद्देश्य देश, काल तथा परिस्थिति के अनुसार बदलते रहते हैं।
सार्वभौमिक उद्देश्य मानव जाती पर समान रूप से लागू होती है। इन उद्देश्यों का तात्पर्य व्यक्ति में वांछनीय गुणों का विकास करना है। अत: इनका क्षेत्र विशिष्ट उद्देश्यों की भांति किसी विशेष स्थान अथवा देश तक सीमित न रह कर सम्पूर्ण मानव जाती है। सामान्य उद्देश्यों की प्रकृति भी विशिष्ट उद्देश्यों की भांती सीमित नहीं होती। अत: ये उद्देश्य सनातन, निश्चित तथा अपरिवर्तनशील होते है। संसार के सभी शिक्षा दर्शनों ने इन उद्देश्यों के सार्वभौमिक महत्वों को स्वीकार किया है। मानव के व्यक्तित्व का संगठन उचित शारीरिक तथा मानसिक विकास समाज की प्रगति, प्रेम तथा अहिंसा आदि शिक्षा के कुछ ऐसे सार्वभौमिकउद्देश्य है जो, शिक्षा को सार्वभौमिक रूप प्रदान करते हैं।
व्यक्ति वादियों के अनुसार समाज के अपेक्षा व्यक्ति बड़ा है अत: शिक्षा का वैयक्तिक उदेश्य व्यक्ति की व्यक्तिगत शक्तिओं को पूर्णरूपेण विकसित करने पर बल देता है। प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री सर टी० पी० नन ने इस उदेश्य पर बल देते हुए लिखा है – “ संसार में जो भी अच्छाई आती है वह व्यक्तिगत पुरूषों तथा स्त्रियों के स्वतंत्र प्रयासों द्वारा आती है।शिक्षा की व्यवस्था इसी सत्य पर आधारित होनी चाहिये तथा शिक्षा को ऐसी दशायें उत्पन्न करनी चाहिये जो वैयक्तिकता का पूर्ण विकास हो सके तथा व्यक्ति मानव जीवन को अपना मौलिक योग दे सके “
समाज वादियों के अनुसार व्यक्ति के अपेक्षा समाज बड़ा है। अत: वे शिक्षा सामाजिक उदेश्य पर विशेष बल देते हैं। उनका विश्वास है कि व्यक्ति सामाजिक प्राणी है। वह समाज से अलग रह कर अपना विकास नहीं कर सकता है। अत: उनके अनुसार व्यक्ति को अपनी वैयक्तिकता का विकास समाज की आवश्यकताओं तथा आदर्शों को ध्यान में रखते हुए करना चाहिये।
ध्यान देने की बात है कि उपर्युत्क विशिष्ट तथा सार्वभौमिक उदेश्यों में सन्तुलन बनाये रखना परम आवश्यक है। ऐसे ही वैयक्तिक तथा सामाजिक उदेश्यों के बीच सन्तुलन तथा समन्वय स्थापित करने से व्यक्ति तथा समाज दोनों उन्नति की शिखर पर चढ़ते रहेंगे।
शिक्षा के उदेश्यों का सम्बन्ध सम्पूर्ण समाज के समस्त बालकों से है। अत: इनके निर्माण का कार्य अत्यन्त उतरदायित्वपूर्ण है। यदि जल्दी से अनुचित प्रथा दोषपूर्ण उदेश्यों का निर्माण करके शिक्षा की प्रक्रिया की संचालित कर दिया गया तो केवल एक अथवा दो बालक को ही नहीं अपितु सम्पूर्ण समाज की आने वाली न जाने कितनी पीढ़ियों को हानि होने का भय है। अत: इस सम्बन्ध में समाज के बालकों तथा शिक्षा के शिधान्तों को दृष्टि में रखते हुए यथेष्ट विचार विनिमय तथा गूढ़ चिन्तन की आवश्यकता है जिससे शिक्षा के वैज्ञानिक तथा लाभप्रद उद्श्यों का निर्माण किया जा सके। वस्तुस्थिति यह है कि शिक्षा समाज का दर्पण है। समाज की उन्नति अथवा अवनित शिक्षा पर ही निर्भर करती है। जिस समाज में जिस प्रकार की शिक्षा व्यवस्था होती है, वह समाज वैसा ही बन जाता है। चूँकि शिक्षा के उदेश्यों का जीवन के उदेश्यों से सम्बन्ध होता है, इसीलिए शिक्षा के उदेश्यों का निर्माण करना भी ठीक ऐसे ही है जैसे जीवन के उदेश्यों को निर्धारित करना। इस सम्बन्ध में यह खेद का विषय है कि शिक्षा के उदेश्यों का निर्माण अब तक उन लोगों ने किया है जिनका शिक्षा से कोई सम्बन्ध ही न रहा है। दुसरे शब्दों में, शिक्षा के उदेश्यों का निर्माण अब तक केवल माता-पिता, दार्शनिकों, शासकों, राजनीतिज्ञों तक विचारकों ने ही किया है, शिक्षकों ने नहीं। इन शभी उदेश्यों की प्रकृति में अन्तर है। इनमें से कुछ उद्देश्य तो सनातन, निश्चित तथा अपरिवर्तनशील है और कुछ लचीले, अनुकूलन योग्य एवं परिवर्तनशील। पाठकों के मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि शिक्षा के उदेश्यों की प्रकृति में अन्तर क्यों है ? इसका उत्तर केवल यह है कि शिक्षा के मुख्य आधार चार हैं। वे हैं – (1) आदर्शवाद (2)प्रकृतिवाद, (3) प्रयोजनवाद तथा (4) यथार्थवाद। इन्ही चारों आधारों के अनुसार शिक्षा में उक्त सभी प्रकार के उदेश्यों की रचना हुई हैं, हो रही है तथा होती रहेगी। जब तक हम शिक्षा के विभिन्न आधारों का अध्ययन नहीं करेंगे तब तक हमको शिक्षा के उदेश्यों के विषय में पूरी जानकारी नहीं हो सकेगी।
आदर्शवादी दर्शन के अनुसार अंतिम सत्ता आध्यात्मिक है तथा प्रकृतिवाद दर्शन का बिलकुल उल्टा है। अत: आदर्शवादीयों के अनुसार शिक्षा एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है जो व्यक्ति को आध्यात्मिक जगत के लिए तैयार करीत है तथा प्रकृतिवादियों की दृष्टि में शिक्षा एक भौतिक प्रक्रिया है, जो व्यक्ति को केवल सांसारिक सुखों को भोगने के व्योग्य बनती है। ध्यान देने की बात है कि आदर्शवादीयों के अनुसार भौतिक तत्व नाशवान हैं। अत: वे भौतिक तत्वों की अपेक्षा विचार के महत्व को स्वीकार करते हैं। उनका अखण्ड विश्वास है कि व्यक्ति की आत्मा तथा परमात्मा का मिलन केवल विचारों के द्वारा ही हो सकता है। इस दृष्टि से आदर्शवाद सत्यं, शिवं तथा सुन्दरम् जैसे चिन्तन मूल्यों को प्रतिपादित करता है मूल्य अपरिवर्तनशील है। इनका पूर्ण ज्ञान होने से मानव को मोक्ष प्रप्त हो सकता है। अत: आदर्शवादी समाज में भौतिक जगत की अपेक्षा सार्वभौमिक मूल्यों की प्राप्ति पर बल दिया जाता है। जो समाज आदर्शवादी है, वहाँ की शिक्षा के निश्चित, सनातन तथा अपरिवर्तनशील सार्वभौमिक उदेश्य होते हैं। इन उदेश्यों से मानवीय गुणों का विकास होता है जिससे समाज प्रगति की ओर अग्रसर रहता है।
यथार्थवादी और प्रयोजनवादी दोनों विचारधारायें आदर्शवादी दर्शन का विरोध करती है। प्रयोजनवादी के अनुसार वास्तविकता अभी निर्माण की अवस्था में है। अत: इस विचारधारा के अनुसार अन्तिम सत्ता निश्चित तथा अपरिवर्तनशील नहीं है अपितु परिवर्तनशील है। चूँकि प्रयोजनवादी विचारधारा के अनुसार सत्य सदैव बदलता रहता है, इसलिए शिक्षा के उद्देश्य भी सदैव देश, काल तथा परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते हैं।” प्रयोजनवाद की भांति यथार्थवादी विचारधारा भी आदर्शवादी दर्शन का विरोध करती है। यथार्थवादी भी आदर्शवादी भावनाओं के चक्कर में न पड़कर जीवन की यथार्थ परिस्थितियों, आवश्यकताओं तथा समाज की बदलती हुई समस्याओं के सुलझाने में विश्वास करते हैं। अत: यथार्थवादी भी प्रयोजनवादीयों की भांति समाज की निम्नलिखित भौतिक परिस्थितियों को आधार मानते हुए शिक्षा के लचीले, अनुकूलन योग्य तथा परिवर्थानशील विशिष्ट उदेश्यों का निर्माण करते हैं जिससे बालक यथार्थ जगत के योग्य बनकर अपने व्यावहारिक जीवन की अनेक समस्याओं को सुलझाकर सुखी, सम्पन्न तथा प्रसन्न जीवन व्यतीत कर सके –
(1) जीवन दर्शन
(2) राजनितिक प्रगति
(3) प्रौधोगिक उन्नति
(4) सामाजिक तथा आर्थिक दशायें
(1) जीवन दर्शन – शिक्षा का तात्पर्य जीवन के लक्ष्य को प्रभावित करना है। इसके लिए वह जीवन दर्शन से प्रभावित होती है। चूँकि उदेश्य का सम्बन्ध शिक्षा से है, इसलिए शिक्षा के उदेश्य भी किसी न किसी रूप में जीवन दर्शन से ही प्रभावित होते हैं तथा होते रहेंगे। यही कारण है कि जिस व्यक्ति का जीवन दर्शन आध्यात्मिक रूप से उन्नत रहा है उसने शिक्षा के चरित्रगठन तथा नैतिक उदेश्य पर बल दिया है। इसके विपरीत जिस व्यक्ति का जीवन दर्शन बाह्य जगत की पूर्णता रहा है उसने शिक्षा का उदेश्य जीवन को सुखी बनाना माना है। उदाहरण के रूप में हरबार्ट आदर्शवादी दर्शन का अनुयायी था। अत: उसके अनुसार शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य है – नैतिकता। इसी प्रकार प्रकृतिवादी दार्शनिक हरबर्ट स्पेंसर का जीवन दर्शन बाह्य जगत की पूर्णता रहा है। अत: उसने बताया की शिक्षा का उदेश्य पूर्ण जीवन की तैयारी है। इस प्रकार हम देखते हैं कि शिक्षा के उदेश्य जीवन दर्शन से परभावित होते हैं।
(2) राजनितिक प्रगति – जे० एफ़० ब्राउन के अनुसार किसी भी देश की तथा किसी भी युग की शिक्षा शासक-वर्ग की विशेषताओं को व्यक्त करती है। इसका प्रमाण यह है कि जनतांत्रिक, स्वेच्छाचारी, फासिस्ट तथा साम्यवादी आदि सभी प्रकार की सकारों ने शिक्षा के उदेश्यों का निर्माण अपने-अपने अलग-अलग लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सदैव अलग-अलग ढंगों से किया है। जिन देशों में जनतंत्र का बोलबाला है वहाँ पर “ उतम नागरिक बनना “ ही शिक्षा का मुख्य उदेश्य होता है। अमरीका, इंग्लैंड तथा भारत आदि जनतांत्रिक देशों के उदाहरण इस सम्बन्ध में दिये जा सकते हैं। इसके विपरीत स्वेच्छाचारी राज्यों में चाहे वे राजतन्त्र हों अथवा तानाशाही, शिक्षा का उदेश्य “ शासकों के प्रति अपार श्रध्दा तथा उनकी आज्ञा का पालन करना “ हो होता है।
(3) प्रौधोगिकी उन्नति – आज के वैज्ञानिक युग में प्रौधोगिक उन्नति पर बल दिया जाता है। अमरीका, रूस, इंग्लैंड तथा जापान आदि देशों को केवल प्रौधोगिक उन्नति की दृष्टि से ही प्रगतिशील प्रशिक्षण को शिक्षा का महत्वपूर्ण उदेश्य माना है। जो देश प्रौधोगिक दृष्टि से पिछड़े हुए हैं वहां की शिक्षा का उदेश्य भी विज्ञान तथा प्रौधोगिक की शिक्षा देना हो सकता है। यही कारण है कि भारत में भी अब तकनीकी प्रशिक्षण के लिए विस्तृत सुविधायें दी जा रही है।
(4) सामाजिक तथा आर्थिक दशायें- शिक्षा के उदेश्यों के निर्माण में किसी देश की सामाजिक तथा आर्थिक दशाओं का भी गहरा हाथ होता है। जिन देशों की सामाजिक तथा आर्थिक दशायें सोचनीय होती है उन देशों विकसित करने के लिए “ कर्मठ नागरिकों का निर्माण करना तथा उनकी व्यवसायिक कुशलता में उन्नति करना “। आदि शिक्षा के उदेश्यों का निर्माण किया जाता है। हमारे देश में भी जब छात्रों को इस प्रकार का चारित्रिक प्रशिक्षण दिया जाता है कि वे नागरिक के रूप में देश की जनतांत्रिक तथा सामाजिक व्यवस्था में रचनात्मक ढंग से भाग लेते हुए अपनी व्यवहारिक एवं व्यवसायिक कुशलता में उन्नति कर सकें जिससे भारत सामाजिक तथा आर्थिक दृष्टि से दिन-प्रतिदिन उन्नतिशील होता रहे।
उपयुर्क्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षा के उदेश्यों का निर्माण जीवन तथा समाज की आवश्यकताओं के अनुसार किया जाता है।
शिक्षा के उदेश्यों का व्यक्ति के जीवन तथा समाज के आदर्शों से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। जो देश भौतिक उन्नति की दौड़ में पिछड़ जाते हैं उनमें प्राय: शिक्षा के व्यवसायिक उदेश्य पर बल दिया जाता है जिससे वहाँ के व्यक्ति अपनी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं ही करके अपने जीवन को सुखी बना सके। इसकी विपरीत कभी-कभी शिक्षा के उदेश्यों का निर्माण केवल समाज की आवश्यकताओं, आकांक्षाओं तथा आदर्शों को ही दृष्टि में रखकर किया जाता है। उदहारण के लिए राजतन्त्र, तथा अधिनायकतंत्र में व्यक्ति की अपेक्षा समाज हित की अधिक महत्व दिया जाता है। वहाँ केवल समाज की तत्कालीन आवश्यकताओं को ही पूरा करने के लिए शिक्षा के उदेश्यों का निर्माण किया जाता है, जैसे –हिटलर के समय में जर्मनी की शिक्षा का उदेश्य वहाँ की जनता में अपने देश के प्रति श्रद्धा, अपारभक्ति, तथा त्याग की भावना को ही विकसित करना था। इस उदेश्य का आशय यह था कि वहाँ की जनता आवश्यकता पड़ने पर अपने देश को प्रतिष्ठा तथा मान को बनाये रखने के लिए अपने जीवन की आहुति भी दें सकें। अब हम निम्नलिखित पंक्तिओं में शिक्षा के उदेश्यों के इसी समबन्ध पर प्रकाश डाल रहे हैं।
शिक्षा के उदेश्यों का व्यक्ति के जीवन से निम्नलिखित रूपों से सम्बन्ध होता है –
प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा का विकास होना परम आवयशक है। यदि व्यक्ति को उसकी आत्मा के विकसित होने के लिए उचित अवसर प्रदान नहीं किये जायेंगे। हरबार्ट तथा फ्रेब्रिल आदि प्रसिद्ध शिक्षाशाश्त्रियों ने इस बात का समर्थन किया ही है कि व्यक्ति की आत्मा का विकास केवल शिक्षा के वांछित उदेश्यों द्वारा ही हो सकता है अन्यता नहीं।
जीवन की विभिन्नता पर नियंत्रण रखना तथा जीवन के मूल्यों को प्राप्त करना सफल जीवन की कुंजी हैं। व्यक्ति को यह सफलता केवल उस समय ही प्राप्त हो सकती है जब शिक्षा के उद्देश्य इतने उत्तम हों कि वे व्यक्ति को उसके इस लक्ष्य की प्राप्ति में पूर्ण सहयोग प्रदान करें। अवांछित उदेश्यों के होते हुए व्यक्ति जीवन के मूल्यों को प्राप्त नहीं कर सकता।
व्यक्ति की जीवन का लक्ष्य है –जीवन की पूर्णता को प्राप्त करना। इसके लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति में इतने ज्ञान की वृद्धि अवश्य हो जाये कि वह अनुशासित रहते हुए सत्यम, शिवम् तथा सुन्दरम् की प्राप्ति कर ले। यह बात भी शिक्षा के उदेश्यों पर निर्भर करती है। यदि शिक्षा के उदेश्य व्यक्ति को उक्त चिरन्तन सत्यों तथा मूल्यों के प्राप्त कनरे में सहयोग प्रदान करते हैं तो वह अपने जीवन की पूर्णता को अवश्य प्राप्त कर लेगा।
शिक्षा के उदेश्यों का व्यक्ति के मानसिक तथा अध्यात्मिक विकास से घनिष्ठ सम्बन्ध है। कोई भी व्यक्ति अपने जीवन की पूर्णता को आत्म-प्रकाशन, क्षमता तथा अनुभव का निरन्तर वृद्धि होते हुए ही प्राप्त कर सकता है। व्यक्ति का यह अध्यात्मिक विकास उसी समय हो सकता है जब शिक्षा के उदेश्य उसके जीवन की बदलती हुई आवश्यकताओं के अन्सुअर बदलते रहें। इससे शिक्षा के उद्देश्यों तथा व्यक्ति के जीवन दोनों में समंजस्यपूर्ण सम्बन्ध बना रहेगा। यदि शिक्षा के उदेश्य व्यक्ति के जीवन की बदलती हुई आवश्यकताओं के अनुसार नहीं बदलेंगे तो व्यक्ति का मानसिक तथा अध्यात्मिक विकास असम्भव है।
बालक में प्रशंसनीय आचरण तथा नैतिक चरित्र का विकास करना शिक्षा का मुख्य कर्तव्य है। इस महान कार्य की पूर्ति भी शिक्षा के वांछनीय उदेश्यों के बिना नहीं हो सकती। यदि शिक्षा के उद्देश्य धर्म तथा दर्शन पर आधारित होंगे तो उनका सम्बन्ध व्यक्ति के जीवन से अत्यन्त प्रशंसनीय होगा। ऐसे उदेश्यों द्वारा प्रदान की हुई शिक्षा से बालकों में उत्तम आचरण के द्वारा उत्तम चरित्र को विकसित करने की इच्छा दिन-प्रतिदिन उत्पन्न होती रहेगी।
शिक्षा के उदेशों का व्यक्ति के जीवन से अट्टू सम्बन्ध होता है। यदि शिक्षा के उद्देश्य व्यक्ति के जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करते रहेंगे तो निश्चित ही उसके व्यक्तित्व का सन्तुलित विकास होता रहेगा।
सफल जीवन के लिए यह भी आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति अच्छे-बुरे, सत्य-असत्य, नैतिक-अनैतिक, हितकर तथा अहितकर कार्यों और विचारों में अन्तर समझ सकें तथा उनका मुल्यांकन करके उचित निर्माण की क्षमता विकसित हो जाएगी, अन्यथा नहीं।
प्रत्येक व्यक्ति को आत्मसुरक्षा करना परम आवश्यक है। शिक्षा के अच्छे उदेश्य व्यक्ति में इतनी क्षमता पैदा कर सकते हैं कि वह जीवन की प्रत्येक आकस्मिक दुर्घटना तथा विनाश का सामान करके अपने आत्म की सुरक्षा कर सकता है।
व्यक्ति कि यह इच्छा सदैव बनी रहती है कि वह एक ऐसे समाज का निर्माण करे जिसमें रहते हुए उसे अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए अधिक से अधिक अवसर प्राप्त हो सकें। व्यक्ति की यह इच्छा उस समय पूरी हो सकती है जब उसके जीवन तथा शिक्षा के उदेश्यों में घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हो जाये।
शिक्षा के उदेश्य बलाकों में सामाजिक भावना को विकसित करके उन्हें इस योग्य बना सकते हैं कि वे सामाजिक जीवन में सक्रिय रूप से भाग लें सकें। यदि शिक्षा के उदेश्य वांछनीय है तो बालकों में सामाजिक भावना की वृद्धि अवश्य हो जाएगी, अन्यथा नहीं।
जिस प्रकार शिक्षा के उदेश्यों का व्यक्ति के जीवन से सम्बन्ध है उसी प्रकार शिक्षा के उद्देश्यों का समाज की आवश्यकताओं से भी अटूट सम्बन्ध होता है। मानव सभ्यता का इतिहास इस तथ्य की पुष्टि करता है जब भी कभी किसी समाज में शिक्षा के उदेश्यों का निर्माण किया है, उसने सबसे पहले अपने आदर्शों तथा आवश्यकताओं को ही सामने रखा है। संक्षेप में जैसा समाज होता है उसी के अनुसार शिक्षा के उदेश्यों की रचना हो जाती है। वर्तमान समाज के विभिन्न रूप है। प्रत्येक समाज ने अपने-अपने आदर्शों के अनुसार शिक्षा के उदेश्यों की रचना की है। निम्नलिखित पंक्तियों में हम इस बात को स्पष्ट कर रहे हैं कि विभिन्न समाजों में शिक्षा के उदेश्यों का सम्बन्ध किस रूप में दिखाई देता है –
आदर्शवादी दर्शन के अनुसार भौतिक जगत की तुलना में आध्यात्मिक सत्यों तथा मूल्यों को प्राप्त करना परम आवश्यक है। इस महान कार्य को उसी समय पूरा किया जा सकता है जब शिक्षा का संगठन करते समय आध्यात्मिक मूल्यों को विकसित करने पर बल दिया जाये। इसी दृष्टि से आदर्शवादी समाज में विचार तथा बुद्धि को विशेष महत्व देते हुए आध्यात्मिक विकास के आदर्श को ध्यान में रखकर शिक्षा के उदेश्यों का निर्माण किया जाता है। इन उदेश्यों में चरित्र गठन तथा नैतिक विकास आदि शिक्षा के मुख्य उदेश्य है।
भौतिकवादी समाज में भौतिक सम्पन्नता को प्रमुख स्थान दिया जाता है। ऐसे समाज में नैतिक आदर्शों, आध्यात्मिक मूल्यों, रचनात्मक कार्यों तथा विवेक आदि के विकास पर कोई ध्यान न देते हुए शिक्षा के उदेश्यों का निर्माण केवल भौतिक सुखों की उन्नति के लिए किया जाता है जिससे वह समाज धनधान्य से परिपूर्ण हो जाये।
प्रयोजन वादी विचारधारा आदर्शवादी दर्शन के बिलकुल विपरीत हैं। प्रयोजनवादी, आदर्शवादीयों की भांति पारलोकिक जीवन को महत्व न देते हुए केवल भौतिक जगत को ही सब कुछ समझते हैं। प्रयोजनवादी इस बात में विश्वास नहीं करते कि अंतिम तथा आध्यात्मिक स्वरुप की है। वे आदर्शवादीयों की भांति पूर्व-निश्चित आदर्शों तथा मान्यताओं को स्वीकार नहीं करते। उसका विश्वास है कि सत्य सदैव देश, काल तथा परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है। उनके अनुसार सत्य की कसौटी उनका पुननिरिक्षण है। अत: यदि कोई सत्य किसी परिस्थिति में सत्य सिद्ध नहीं होता, तो वह असत्य है। चूँकि प्रयोजनवादी के अनुसार सत्य परिवर्तनशील है इसलिए प्रयोजनवादी समाज में विचार की अपेक्षा क्रिया तथा बुद्धि की अपेक्षा परिस्थिति को अधिक महत्व देते हुए केवल नविन मूल्यों के निर्माण करने को ही शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य माना जाता है।
फासिस्ट समाज में राज्य को मुख्य तथा व्यक्ति को गौण स्थान प्राप्त होता है। ऐसे समाज अथवा राज्य में व्यक्ति से यह आशा की जाती है कि वह सत्य की भलाई के लिए अपनी जान भी न्यौछावर कर दे। दुसरे शब्दों में फासिस्ट समाज में व्यक्ति की स्वतंत्रता उसका मौलिक अधिकार नहीं होता। उसका तो केवल मौलिक कर्त्तव्य ही होता है। मौलिक कर्त्तव्य है – अपने राज्य अथवा नेता की आज्ञा का पालन करना। यदि ऐसे समाज में व्यक्ति अपने नेता की आज्ञा का पालन नहीं करता तो उसे मौत के घात उतार दिया जाता है। हिटलर तथा मुसोलिनी ने आज्ञा पालन न करने वाले न जाने कितने व्यक्तिओं को मच्छर की तरह मसल दिया। इस प्रकार फासिज्म वह विचारधारा है जो व्यतिवाद, अन्तराष्ट्रीय, जनतंत्र तथा साम्यवाद का विरोध करती हुई संकुचित राष्ट्रीयता, नेतृत्व में अन्ध विश्वास तथा युद्ध की तैयारी में अटल विश्वास रखती है। ध्यान देने की बात है कि फासिस्ट समाज में जनसाधारण का कोई महत्व नहीं होता है। इसका कारण यह है कि फासिज्म इस बात में विश्वास करता है कि सभी व्यक्ति शारीरिक तथा मानसिक योग्यता में एक जैसे नहीं होते। अत: सभी व्यक्तिओं को शिक्षा प्राप्त करने का समान अधिकार भी नहीं दिया जा सकता है जो प्रतिभाशाली हों तथा जो अपनी विकसित बुद्धि एवं योग्यता के बल पर जनसाधारण का नेतृत्व करके राज्य की सेवा कर सकें। इसीलिए फासिस्ट समाज में शासक के द्वारा शिक्षा को केन्द्रीकरण कर दिया जाता है। परिणामस्वरूप जनसाधारण को शिक्षा प्राप्त करने का समान अवसर नहीं मिल पाता। इस दृष्टि से फासिस्ट समाज में शिक्षा का उदेश्य केवल ऐसे राज्य भक्त तैयार करना है जो अपने निजी हितों को त्याग कर राज्य की सेवा में जुटे रहें।
साम्यवादी समाज में प्रत्येक सरकारी फार्म तथा कारखानों को अपने यहाँ कार्य कनरे वाले श्रमिकों के बालकों की शिक्षा के लिए स्कूल खोलने अनिवार्य होते हैं। इन स्कूलों पर खर्चा तो सहकारी फार्मों तथा कारखानों को ही करना पड़ता है, परन्तु अधिकार शासक वर्ग का होता है। अत: शासक वर्ग आरम्भ से ही इन स्कूलों में पढ़ने वाले सभी बालकों को अपनी नीति के सम्बन्ध में परिचय करता है जिससे उन्हें साम्यवादी विचारधारा में अंधविश्वास हो जाये। ऐसे समाज में श्रम को विशेष महत्व दिया जाता है। अत: स्कूलों में पढ़ने वाले बालकों को भी श्रमिक ही समझ जाता है। ध्यान देने की बात है कि साम्यवादी समाज के तीन आदर्श होते हैं। वे हैं (1) मानसिक तथा शारीरिक कार्य कनरे वालों को समान समझना, (2) वस्तु का मूल्य उस पर किये गये परिश्रम के अनुसार निर्धारित करना तथा (3) भौतिक वस्तुओं के उत्पादन के ढंगों के अनुसार सामाजिक तथा राजनितिक संस्थाओं का स्वरुप निर्मित होना। इन्हीं आदर्शों को दृष्टि में रखते हुए समयावादी समाज में शिक्षा के उदेश्यों को प्रतिपादित किया जाता है ।
जनतंत्रवादी समाज में व्यक्ति के व्यक्तित्व को विशेष महत्व दिया जाता है। ऐसे समाज में एकसत्तावादी समाज की भांति व्यक्ति का दमन तथा संकुचन नहीं किया जाता। उससे यह भी आशा नहीं की जाती कि वह मशीन के पुर्जों की भांति समाज के आदर्शों का आँख मींचकर पालन करता रहे। चूँकि जनतंत्र वह आदर्श है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को एक सुखी, सम्पन्न तथा समृधिशाली जीवन व्यतीत करने के समान अवसर प्राप्त होते हैं, इसलिए जनतंत्रवादी समाज में प्रत्येक व्यक्ति को चिन्तन तथा मनन करने को पूर्ण स्वतंत्रता होती है। प्रत्येक व्यक्ति से यह आशा की जाती है कि वह ऐसे कार्य करे जिनसे सबका भाला हो। ऐसे समाज में एक व्यक्ति दुसरे व्यक्ति का आदर करता है तथा प्रत्येक व्यक्ति एक-दुसरे के विकास में बाधक सिद्ध न होकर मेल-जोल के साथ रहते हुए कंधे से कन्धा मिला कर चलता है जिससे समाज दिन-प्रतिदिन उन्नति के शिखर पर चढ़ता रहे। कहने का तात्पर्य यह है कि जनतंत्रवादी समाज में प्रत्येक व्यक्ति की स्वतंत्रता, सबके समान अधिकार तथा व्यैक्तिक और सामूहिक जीवन में विश्वास आदि आदर्शों को प्राप्त करने के लिए शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्यों का निर्माण किया जाता है –
(1) बालकों की रुचियों का विकास करना।
(2) अच्छी आदतों को विकसित करना।
(3) विचार शक्ति का विकास करना।
(4) सामाजिक दृष्टिकोण को विकसित करना।
(5) प्रेम, सद्भावना, सहानभूति, सहयोग, सहनशीलता, आत्म-अनुशासन, तथा कर्तव्यपरायणता आदि जनतांत्रिक गुणों का विकास करना।
(6) व्यवसायिक तथा उदार शिक्षा प्रदान करना।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट हो जाता है की शिक्षा के उद्देश्यों का व्यक्ति के जीवन तथा समाज के आदर्शों से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। यदि हम व्यक्ति तथा समाज दोनों के लिए अलग-अलग शिक्षा के उद्देश्यों का निर्माण करना चाहें, तो हम दोनों की आवश्यकताओं तथा आदर्शों को ध्यान में रखना होगा।
इस भाग में नोबेल शांति पुरस्कार(2014) प्राप्त शख्...
इस लेख में विश्व में उपलब्ध अजब-गज़ब वृक्षों के बार...
इस लेख में अंतर्राष्ट्रीय सदभावना के लिए शिक्षा के...
इस पृष्ठ में अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न - नि:शुल्...