स्कूल का अर्थ – स्कूल शब्द की उत्पति एक ग्रीक शब्द से हुई है। इस शब्द का अर्थ है- अवकाश। यधपि स्कूल का अर्थ विचित्र सा लगता है, परन्तु यह वास्तविकता है कि प्राचीन यूनान में इन अवकाश के स्थानों को ही स्कूल के नाम से सम्बोधित किया जाता था। ऐसा लगता है कि उस युग में अवकाश काल को ही ‘ आत्म विकास’ समझा जाता था जिसका आभ्यास अवकाश नामक निश्चित स्थान पर किया जाता था। अत: अवकाश शब्द का अर्थ है आत्म विकास अथवा शिक्षा। शैने-शैने ये अवकाशालय ऐसे थान बन गए जहाँ पर शिक्षक किसी निश्चित योजना के अनुसार एक निश्चित पाठ्यक्रम को निश्चित समय के भीतर समाप्त करने लगे। इस प्रकार आधुनिक युक में स्कूल का एक भौतिक अस्तित्व होता है जिसकी चारदीवारी में बालकों को शिक्षा प्रदान की जाती है। अवकाश शब्द का स्पष्टीकरण करते हुए ए०एफ०लीच ने लिखा है – “ वाद-विवाद या वार्ता का स्थान जहाँ एथेन्स के युवक अपने अवकाश के समय को खेल-कूद, व्ययाम और युद्ध के प्रशिक्षण में बितात्ते थे, धीरे-धीरे दर्शन तथा उच्च कक्षाओं के स्कूलों में बदल गये। ऐकेडमी के सुन्दर उधोग में व्यतीत किये जाने वाले अवकाश के माध्यम से स्कूलों विकास हुआ। “
स्कूल की परिभाषा
स्कूल के अर्थ और अधिक स्पष्ट करने के लये हम निम्नलिखित पक्तियों में कुछ परिभाषायें डे रहे हैं –
(1) जॉन डीवी- “ स्कूल एक ऐसा विशिष्ट वातावरण है, जहाँ बालक के वांछित विकास की दृष्टि से उसे विशिष्ट क्रियाओं तथा व्यवसायों की शिक्षा दी जाती है “|
(2) जे०एम०रास – स्कूल वे संस्थायें हैं. जिनको सभ्य मानव ने इस दृष्टी से स्थापित किया है कि समाज में सुव्यवस्थित तथा योग्य सदस्यता के लिए बालकों की तैयारी में सहयता मिले। “
स्कूलों युग में मानव का जीवन अत्यंत सरल था। उस युग में ज्ञान की इतनी वृधि नहीं हुई थी जितनी आज हो गई है। इसका कारण यह है कि उस युग में मानव की आवश्यकतायें सीमित थी तथा उन्हें परिवार एवं अन्य अनौपचारिक साधनों के द्वारा पूरा कर लिया जाता था। परन्तु जनसंख्या की वृधि तथा जीवन की आवश्यकताओं की बाहुल्यता के कारण शैने-शैने: संस्कृति का रूप इतना जटिल होता चला गया कि उसका सम्पूर्ण ज्ञान बालक को परिवार तथा अन्य अनौपचारिक साधनों के द्वारा देना कठिन हो गया। इधर माता-पिता भी जीविकोपार्जन के चक्कर में फँसने लगे। उनके पास बालकों को शिक्षा देने के ल्क्ये न तो इतना समय ही रहा और न वे इतने शिक्षित ही थे कि वे उनको भाषा, भूगोल, इतिहास, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, शरीर-रचना तथा वैज्ञानिक अनुशंधानो के सम्पूर्ण ज्ञान की शिक्षा दे सकें। अत: एक ऐसी नियमित संस्था की आवश्यकता अनभव होने लगी जो सामाजिक तथा सांस्कृतिक सम्पति को सुरक्षित रख सके तथा उसे विकसित करके भावी पीढ़ी को हस्तांतरित कर सके। इस दृष्टी से स्कूल का जन्म हुआ। ध्यान देने की बात है कि आरम्भ में स्कूलों से केवल उच्च वर्ग के लोगों ने ही लाभ उठाया। जनसाधारण के लिए स्कूलों की स्थापना करना केवल आधुनिक युग की देन है। जैसे-जैसे जनतंत्रवादी दृष्टिकोण विकसित होता गया, वैसे-वैसे स्कूलों के रूप में भी परिवर्तन होता चला गया। चीन, मिस्र, यूनान, रोम, बैबिलोनिया तथा भारत अदि सभी देशों में स्कूल के जन्म की यही कहानी है।
निम्नलिखित पक्तिओं में हम स्कूल के महत्त्व पर प्रकाश डाल रहे हैं –
(1) विशाल सांस्कृतिक सम्पति – वर्तमान युग में ज्ञान इतना अधिक विकसित हो गया है तथा सांस्कृतिक सम्पति भी इतनी विशाल हो गई है कि इनकी शिक्षा देना परिवार तथा अन्य अनौपचारिक साधनों के सामर्थ से परे की बात है। अब संस्कृति की सुरक्षा, विकास तथा इसके प्रचार करने के लिए स्कूल से अच्छा और कोई साधन नहीं है। इस दृष्टी से बालक की शिक्षा के लिए स्कूल एक महत्वपूर्ण साधन है।
(2) परिवार तथा विश्व को जोड़ने वाली कड़ी – परिवार बालक में प्रेम, दया, सहानभूति, सहनशीलता, सहयोग, सेवा तथा अनुशासन एवं नि:स्वार्थता आदि गुणों को विकसित करता है। परन्तु परिवार की चारदीवारी के चक्कर में पड़कर बालक के ये सारे गुण उसके निजी सम्बन्धियों तक सीमित ही रह जाते हैं। इससे उसका दृष्टिकोण संकुचित हो जाता है। स्कूल बालक के पारिवारिक जीवन को बाह्य जीवन से जोड़ने वाली एक महत्वपूर्ण कड़ी है। इसका कारण यह है कि स्कूल में रहते हुए बालक अन्य बालकों के साथ सम्पर्क स्थापित करता है। इससे उसका दृष्टिकोण विशाल हो जाता है जिससे उसके बाह्य समाज से सम्पर्क स्थापित होने में कोई कठिनाई नहीं होती।
(3) विशिष्ट वातावरण की व्यवस्था – अनौपचारिक संस्थाओं द्वार दी गई शिक्षा किसी निश्चित योजना पर आधारित नहीं होती है। परिणामस्वरूप इन संस्थाओं का वातावरण इतना अस्पष्ट तथा विरोधी होता है कि उसका बालक के व्यक्तित्व पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। स्कूल में एक निश्चित योजना के अनुसार एक विशिष्ट वातावरण प्रस्तुत किया जाता है जो अत्यन्त सरल, शुद्ध, नियमित, सुरुचिपूर्ण तथा सामान्य एवं व्यवस्थित होता है। ऐसे वातावरण में रहते हुए बालक का शारीरिक, मानसिक, नैतिक एवं व्यवसायिक सभी प्रकार का विकास होना सम्भव है। अत: स्कूल बालक की शिक्षा का एक महत्वपूर्ण साधन है।
(4) व्यक्तित्व का सामंजस्यपूर्ण विकास – परिवार, समुदाय, तथा धर्म आदि अनौपचारिक साधनों का कोइ पूर्व-निश्चित उद्देश्य तथा पूर्व नियोजित कार्यक्रम नहीं होता। इसलिए ये सभी साधन कभी-कभी बालक के सामने ऐसा भी वातावरण प्रस्तुत कर देते हैं जिसका उसके व्यक्तित्व पर बुरा प्रभाव पड़ जाता है, यह बात स्कूल के साथ नहीं है। स्कूल के पूर्व निश्चित उद्देश्य तथा पूर्व नियोजित कार्यक्रम होते हैं। अत: इससे बालक के व्यक्तित्व का सामंजस्यपूर्ण विकास हो जाता है। ऐसी दशा में स्कूल के महत्त्व को कम नही किया जा सकता।
(5) बहुमुखी सांस्कृतिक चेतना का विकास – स्कूल एक उत्तम स्थान है जहाँ विभिन्न परिवारों, सम्प्रदायों तथा संस्कृतियों के बालक शिक्षा प्राप्त करने आते है। साथ-साथ रहते हुए बालकों में सामाजिकता, शिष्टाचार, सहानभूति, निष्पक्षता तथा सहयोग अदि वांछनीय गुणों, आदतों तथा रुचियों का विकास स्वत: ही हो जाता है। यही नहीं, उनमे एक-दुसरे के सांस्कृतिक गुण भी विकसित हो जाते हैं। इसलिए स्कूल को बालकों में बहुमुखी संस्कृति विकसित करने का महत्वपूर्ण साधन माना जाता है।
(6) राज्यों के आदर्शों तथा विचारों का प्रसार – प्रत्येक राज्य के आदर्शों और विचारों को थोड़ी से देर में प्रसारित करने के लिए स्कूल एक महत्वपूर्ण साधन है। यही कारण है कि जनतंत्रीय, फासिस्टवादी तथा साम्यवादी सभी प्रकार की सरकारों ने स्कूल के महत्त्व को स्वीकार किया है।
(7) समाज की निरन्तरता का विकास – स्कूल सामाजिक वातावरण के रूप में एक ऐसी संस्था है। जिसके द्वारा समाज अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए निरन्तर विकसित होता है। स्कूल समाज के परिवर्तनों का प्रतिनिधित्व भी करता है तथा अधिकतम एवं श्रेष्ट लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु उनमें सुधर भी करता रहता है।
(8) सामुदायिक जीवन को प्रोत्साहन – स्कूल एक सामाजिक संस्था है तथा शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया। अत: ये दोनों सामाजिक विकास तथा सामुदायिक जीवन विकसित करने में सहयोग प्रदान करते हैं। सामाजिक विकास से सामाजिक गुण प्राप्त होते हैं तथा सामुदायिक जीवन बालकों में स्वतंत्रता समानता एवं मातृत्व अदि आदर्शों के महत्त्व को प्रोत्साहित करता है।
(9) शिक्षित नागरिकों का निर्माण – जनतंत्र में स्कूल का विशेष महत्त्व होता है। स्कूल के द्वारा बालकों को नागरिकों के कर्तव्यों तथा अधिकारों का ज्ञान होता है तथा उनमें प्रेम, सहानभूति, सहनशीलता, सहयोग तथा अनुशासन एवं उतरदायित्व आदि अनेक गुण विकसित होते हैं। इन गुणों से सुसज्जित होकर बालक प्रौढ़ व्यक्ति के रूप में उपयोगी नागरिक सिद्ध होते हैं।
(10) स्कूल घर की अपेक्षा शिक्षा का उत्तम स्थान – स्कूल में विभिन्न परिवारों, समुदायों तथा संस्कृतियों के बालक शिक्षा प्राप्त करने आते हैं। वहाँ वे सब साथ-साथ रहते हुए उन सब बातों को स्वत: ही सीख जाते हैं जिन्हें वे परिवार के प्रांगण में नहीं सीख सकते। अत: यदि बालकों में सामाजिक शिष्टता, सहानभूति एवं निष्पक्षता आदि गुणों को विकसित करना है तो उनको शिक्षा प्राप्त करने के लिए स्कूल ही भेजना चाहिये।
(11) विभिन्न साधनों का सहयोग – स्कूल ही एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा परिवार, समुदाय तथा राज्य आदि सभी साधनों का उचित सहयोग प्राप्त किया जा सकता है। यही कारण है कि ये सभी साधन स्कूल पर ही आँख लगाये रहते हैं तथा इसके विकास में यथाशक्ति सहयोग प्रदान करने का प्रयास करते हैं। इन साधनों की सहायता के बिना स्कूल उन्नति नहीं कर सकता। अत: जनतांत्रिक दृष्टि से भी स्कूल एक महत्वपूर्ण साधन है।
स्कूल के विषय में दो धारणायें हैं। एक प्राचीन तथा दूसरी नविन। प्राचीन धारणा के अनुसार परम्परागत स्कूलों का जन्म हुआ था तथा नविन धारणा के अनुसार प्रगतिशील स्कूलों को स्थापित किया जाता है। अग्रलिखित पंक्तिओं में हम इन दोनों प्रकार के स्कूलों की अलग-अलग चर्चा कर रहे हैं –
परम्परागत स्कूल में केवल औपचारिक शिक्षा दी जाती है। इन स्कूलों का जन्म उसी समय से हुआ है जब से परिवार अपने कार्यों को करने में समर्थ हो गया था। पहले धर्म तथा राज्य अलग-अलग संस्थायें नहीं थी। अत: उस युग में धार्मिक नेता ही शिक्षक हुआ करते थे। उन शिक्षकों ने परम्परागत शिक्षा को इतना मूल्यवान बना दिया था कि उसके द्वारा होने वाला लाभ केवल उच्च वर्ग के लोगों को ही प्राप्त था। कालांतर में धर्म तथा राज्य अलग-अलग संस्थायें हो गई। शैने-शैने: राज्यों में जनतंत्रवादी दृष्टिकोण विकसित होने लगा। इधर तेरहवीं शताब्दी में कागज तथा पंद्रहवी शताब्दी में छापने के यंत्रों का अविष्कार हो गया जिसके परिणामस्वरूप जन-साधारण को भी इन स्कूलों में शिक्षा प्राप्त करने के अवसर मिलने लगे। परन्तु ध्यान देने की बात है कि वर्तमान परिस्थितियों में ये सभी परम्परागत स्कूल ऐसी दुकाने बन गए हैं जहाँ पर ज्ञान का क्रय तथा विक्रय होता है। शिक्षक ज्ञान को बेचते हैं तथा बालक खरीदते हैं। दुसरे शब्दों में ज्ञान के विक्रेता अर्थात शिक्षक इन स्कूलों में पके-पकाए ज्ञान को बालकों के मस्तिष्क में बलपूर्वक ठूंसने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार इन समस्त स्कूलों की दिनचर्या बड़ी कठोर होती है जिसके कारण शिक्षा की प्रक्रिया नीरस तथा निर्जीव हो गई है। संक्षेप में, परम्परागत स्कूलों का वातावरण कृतिम तथा अमनोवैज्ञानिक होता है जिसके परिणामस्वरूप शिक्षा के सच्चे उद्देश्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता। पेस्टालॉजी ने इन स्कूलों के सम्बन्ध में ठीक ही लिखा है – “ हमारे अमनोवैज्ञानिक स्कूल बालकों को अनके प्राकृतिक जीवन से दूर कर देते हैं, उन्हें अनाकर्षक बातों को याद करने के लिए भेड़ों के समान हांकते हैं तथा घण्टों, दिनों, सप्ताहों, महीनों एवं वर्षों तक दर्दनाक जंजीरों से बांध देते हैं। “
पेस्टालॉजी की भांति फ्रोबिल, हरबार्ट, मान्टेसरी, नन्न, पार्कहर्स्ट, एवं टैगोर आदि शिक्षाशास्त्री ने इस बात पर बल दिया की शिक्षा बालक के लिए है न की बालक शिक्षा के लिए। इन सभी शिक्षाशास्त्रियों ने परम्परागत स्कूल की उस नीरस तथा निर्जीव शिक्षा का विरोध किया जिसके अनुसार बालक की व्यक्तिगत विभिन्नता की अवहेलना करके उसके मस्तिष्क में ज्ञान को बलपूर्वक ठूंसना का प्रयास किया जाता था। उन्होंने ने नये-नये शैक्षिक प्रयोग किये जिससे नविन अथवा पगतिशील स्कूलों का जन्म हुआ। इस प्रकार प्रगतिशील स्कूल का विकास परम्परागत स्कूल की विरोधी प्रवृति के कारण हुआ।
प्रगतिशील स्कूल की निम्नलिखित प्रमुख विशेषतायें हैं –
(1) बालक के व्यक्तित्व का महत्त्व – परम्परागत स्कूल में बालक की अपेक्षा पाठ्यवस्तु को अधिक महत्त्व दिया जाता है। अत: इन स्कूलों में बालक की स्वतंत्र रुचियों, अभिरुचियों तथा क्षमताओं एवं स्वतंत्र चिन्तन का दमन करके उसके मस्तिष्क में पाठ्यवस्तु को बलपूर्वक ठुंसा जाता है। इसके विपरीत प्रगतिशील स्कूल में पाठ्यवस्तु की अपेक्षा ब्लाक को अधिक महत दिया जाता है तथा उसके व्यक्तित्व का आदर किया जाता है। बालक को अधिक महत्व देने का तात्पर्य है कि उसकी आवशयकताओं, रुचियों तथा क्षमताओं को ध्यान में रखते हुए उसकी जन्मजात शक्तिओं तथा योग्यताओं को स्वतन्त्रतापूर्वक विकसित करना। इस प्रकार प्रगतिशील स्कूल के समृदध, सक्रिय तथा उल्लासपूर्ण वातावरण में बालक अपनी इच्छा, रूचि तथा क्षमता के अनुसार चुनी हुई पुस्तकें तथा विषयों का अध्ययन अपनी गति के साथ करता है।
(2) शिक्षा में क्रियाशीलता के सिधान्त का महत्त्व – परम्परागत स्कूल में बालक को निष्क्रिय रूप से शिक्षित किया जाता है। इसके विपरीत प्रगतिशील स्कूल में बालक को क्रिया के आधार पर शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। वस्तुस्थिति यह है कि “ एक प्रगतिशील स्कूल का वातावरण सरलीकृत, शुद्ध, तथा सन्तुलित होता है। ऐसे वातावरण में रहते हुए बालक को विभिन्न प्रकार की क्रियाओं को करते हुए प्रयोग स्वर अनेक सामाजिक अनुभव प्राप्त करने के अवसर प्रदान किये जाते हैं। इस दृष्टि से प्रगतिशील स्कूल एक प्रयोगशाला है जहाँ पर बालक क्रिया के माध्यम से जो कुछ भी सीखता है वह अपने अनुभव द्वारा सीखता है। ऐसा ज्ञान सार्थक, पक्का तथा दृढ होता है।
(3) शिक्षा में व्यावहारिक ज्ञान पर बल – परम्परागत स्कूल बालक की रुचियों, शारीरिक क्रियाओं तथा रचनात्मक एवं सामाजिक भावनाओं का दमन करके केवल पुस्तकीय ज्ञान पर बल देता है। परन्तु प्रगतिशील स्कूल पुस्तकीय ज्ञान की अपेक्षा जीवन उपयोगी, लाभप्रद, रचनात्मक तथा व्यावहारिक ज्ञान देता है। इन स्कूलों का पाठ्यक्रम जीवन के अनुभवों पर आधारित होता है। अत: बालक जिस अनुभव को क्रियाशील होकर प्राप्त करता है वह उसके व्यवहारिक जीवन में लाभप्रद सिद्ध होता है। इस प्रकार प्रगतिशील स्कूलों में बालकों की आवशयकताओं को ध्यान में रखते हुए शिक्षा दी जाती है। पश्चिमी देशों में इस प्रकार के स्कूलों ने बहुत उन्नति की है। हमारे देश में भी अब पाठ्य सहयोगी क्रियाओं पर बल दिया जा रहा है।
(4) सामाजिक गुणों के विकास पर बल – परम्परागत स्कूल अत्यधिक शैक्षणिक तथा जीवन से प्रथक हैं। ये स्कूल अपने शिक्षण का कार्य सामाजिक तथा धार्मिक जीवन से अलग करते हैं। इन दृष्टी से इन स्कूलों का वास्तविक जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं है। इसके विपरीत प्रगतिशील स्कूल बालक के व्यक्तित्व का विकास सामाजिक वातावरण में रखते हुए करते हैं। ये स्कूल अपने बालकों को समाज-केन्द्रों तथा पुस्तकालयों आदि सामाजिक संस्थाओं से सम्बन्ध स्थापित करने तथा उनको अनेक प्रकार के सामाजिक कार्यों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहन देते हैं। इससे स्कूल की छोटी-सी दुनिया का बाहर की बड़ी दुनिया से घनिष्ट सम्बन्ध स्थापित हो जाता है तथा बालकों में वास्तविक जीवन के लिए अनके सामाजिक गुणों का विकास हो जाता है। इस प्रकार प्रगतिशील स्कूलों में बालकों को इस प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था की जाती है वे अपने कर्तव्यों तथा अधिकारों को समजते हुए जनतांत्रिक शासन व्यवस्था को समझ लें तथा अपने समाज की संस्कृति को विकसित करते हुए जीवन संघर्ष के लिए तैयार हो जायें।
(5) व्यक्तित्व के विकास पर बल – परम्परागत स्कूल बालक के केवल मानसिक विकास पर ही बल देते हैं। इसके विपरीत प्रगतिशील स्कूलों में बालक के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा संवेगात्मक सभी प्रकार के विकास पर बल देकर उसके सन्तुलित व्यक्तित्व का विकास किया जाता है जो सच्ची शिक्षा है।
(6) सामुदायिक जीवन का केन्द्र – प्रत्येक समाज अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए स्कूल खोलता है। अत: स्कूल को चाहिये कि वह बालक को इस प्रकार से शिक्षा दे कि यह अपने समूह के जीवन में कुशलतापूर्वक भाग ले सके। परम्परागत स्कूल अपने शिक्षण का कार्य वास्तविक जीवन में अलग रह कर करते हैं। इसके विपरीत प्रगतिशील स्कूल सामुदायिक जीवन का ऐसा केन्द्र होता है जहाँ बालकों को समाज की आवश्यकताओं, मांगों तथा आदर्शों के अनुसार विकसित किया जा सके। के०जी० सैयदेन का मत है – “ चूँकि समाज की ये मांगे सदैव बदलती रहती है, बढ़ती रहती है तथा इसमें सुधार होते रहते हैं, इसलिए स्कूल को बाहरी जीवन के साथ सजीव सम्बन्ध बनाये रखने चाहियें।“ ध्यान देने की बात है कि भारत में अभी तक परम्परागत स्कूलों का ही बोलबाला है। आशा है कि जैसे-जैसे शिक्षा में जनतांत्रिक पद्धतियों का प्रसार होता जायेगा वैसे-वैसे प्रगतिशील स्कूल भी खुलते चले जायेंगे।
ब्रुबेकर के अनुसार स्कूल के तीन कार्य हैं –
(1) संरक्षण कार्य,
(2) प्रगतिशील कार्य तथा
(3) निष्पक्ष कार्य
ऐसे ही टॉमसन के अनुसार स्कूल के पांच कार्य है –
(1) मानसिक प्रशिक्षण,
(2) चारित्रिक प्रशिक्षण,
(3) सामुदायिक जीवन का प्रशिक्षण,
(4) राष्ट्रीय गौरव एवं देश प्रेम का प्रशिक्षण, तथा
(5) स्वास्थ्य एवं स्वछता का प्रशिक्षण
सरलता के लिए हम स्कूल के कार्यों को औपचारिक तथा अनौपचारिक दो भागों में विभाजित करके अग्रलिखित पंक्तिओं में अलग-अलग प्रकाश डाल रहे हैं|
स्कूल के औपचारिक कार्यों का सम्बन्ध बालक के मानसिक विकास से है। अत: इस सम्बन्ध में स्कूल के निम्नलिखित कार्य हैं –
(1) मानसिक शक्तियों का विकास – स्कूल का प्रथम औपचारिक कार्य बालक की मानसिक शक्तियों का विकास करना है। जिससे वह अपनी स्वतंत्र विचार-शक्ति को सोचने, समझने तथा कार्य करने में सफलतापूर्वक प्रयोग कर सके। इस महान कार्य को करने के लिए स्कूल बालक की सामने ऐसा वातावरण प्रस्तुत करता है जिससे उसमें जिज्ञासा एवं उत्सुकता उत्पन्न हो जाती है तथा वह अपनी आवशयकताओं, रुचियों, योग्यताओं एवं रुझानों के अनुसार विकसित होता रहता है।
(2) गतिशील तथा सन्तुलित मस्तिष्क का निर्माण – स्कूल का दूसरा औपचारिक कार्य बालक को ऐसा ज्ञान देना है जो स्वयं साध्य न हो अपितु साध्य को प्राप्त करने का साधन हो। साध्य है – ऐसा गतिशील तथा सन्तुलित मस्तिष्क जो प्रत्येक परिस्थिति में साधनपूर्ण तथा साहसपूर्ण हो एवं अज्ञात भविष्य के लिए नवीन मूल्यों का निर्माण कर सके।
(3) संस्कृति की सुरक्षा, सुधार तथा हस्तान्तरण – स्कूल का कार्य संस्कृति की सुरक्षा, उसमें सुधार, तथा उसे भावी पीढ़ी को हस्तान्तरित करना है। अत: स्कूल को चाहिये कि वह संस्कृति की रक्षा तथा सुधार करे एवं उसे भावी पीढ़ी को विभिन्न सामाजिक एवं वैज्ञानिक विषयों के रूप में हस्तान्तरित करे जिससे बालक प्राकृतिक, राजनितिक, आर्थिक, सामाजिक , सांस्कृतिक तथा धार्मिक सभी प्रकार के वातावरण से परिचित हो जाये।
(4) व्यवसायिक तथा औधोगिक शिक्षा – स्कूल का चौथा कार्य बालकों को व्यवसायिक तथा औधोगिक शिक्षा देना है। अत: यह आवश्यक है कि स्कूल बालकों को व्यवसायिक तथा औधोगिक शिक्षा प्रदान करे जिससे आगे चलकर वे समाज तथा अन्य वय्क्तियों पर भार न बनते हुए अपनी जीविका की समस्या को स्वयं ही सुल्झा लें। भारत जसी निर्धन देश में स्कूलों को इस सम्बन्ध में विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।
(5) मानवीय अनुभवों का पुनर्गठन तथा पुनर्रचना – स्कूल का कार्य मानवीय अनुभवों का पुनर्गठन तथा पुनर्रचना करना भी है। वास्तविकता यह है कि स्कूल का सम्बन्ध केवल समाज की निरन्तर को ही बनाये रखना नहीं है अपितु उसे इसके विकास हेतु भी प्रयत्नशील होना चाहिये। अत: स्कूल को सदैव मानवीय अनुभवों का पुनर्गठन तथा पुनर्रचना करना चाहिये। चूँकि स्कूल समाज की पुनर्रचना करता है, इसलिए उसे उच्च प्रकार की संस्कृति के निकट भी रहना चाहिये। इसके लिए ज्ञान की उच्च शाखाओं में शोध की आवश्यकता है। इस कार्य को केवल स्कूल ही पूरा कर सकता है।
(6) नागरिकता का विकास – स्कूल का छठा औपचारिक कार्य बालकों के अन्दर नागरिकता के गुणों को विकसित करना है जिसमें वे वर्तमान जनतंत्र के उत्तम तथा उतरदायित्वपूर्ण नागरिक बन जायें। एक उत्तम नागरिक को अपने कर्तव्यों तथा अधिकारों का ज्ञान होना एवं उनका उचित प्रयोग करना परम आवशयक है। इस दृष्टी से स्कूल को बालकों के समक्ष ऐसा वातावरण प्रस्तुत करना चाहिये जिसमें रहते हे उन्हें अपने कर्तव्यों तथा अधिकारों का ज्ञान हो जाये।
(7) चरित्र का विकास – स्कूल का सबसे महत्वपूर्ण कार्य बालकों का नैतिक तथा चारित्रिक विकास करना है। प्राचीन युग में परिवार तथा चर्च (धर्म) दोनों संस्थायें बालकों को नैतिक तथा चारित्रिक विकास सरलतापूर्वक कर देती थी। परन्तु समाज की जटिलता के कारण इस महान कार्य को करने में ये दोनों संस्थायें अब असमर्थ हो गई है। ऐसी दशा में इस महत्वपूर्ण कार्य को करने का उतरदायित्व केवल स्कूल का ही है। ध्यान देने की बात है कि नैतिक एवं चारित्रिक विकास सामाजिक वातावरण में सामाजिक क्रियाओं द्वारा ही सम्भव है। इसलिए स्कूल को चाहिये कि वह बालकों के सामने ऐसा शुद्ध तथा पवित्र सामाजिक वातावरण प्रस्तुत करे जिसमें रहते हुए वे आध्यात्मिक स्वतंत्रता का अनुभव करते हुए सामाजिक क्रियाओं में प्रशंसनीय ढंग से भाग लेकर अपना नैतिक तथा चारित्रिक विकास कर सकें।
स्कूल के अनौपचारिक कार्यों का सम्बन्ध बालक से शारीरिक, सामाजिक तथा संवेगात्मक विकास से है। अत: इस सम्बन्ध में स्कूल के निम्नलिखित कार्य है –
(1) शारीरिक विकास- स्कूल का अनौपचारिक कार्य बालक को स्वस्थ तथा शक्तिशाली बनाना है। वर्तमान युग में बालकों के स्वास्थ की दीन दशा को देखकर स्कूल को इस कार्य की ओर विशेष ध्यान देना चाहिये। दुसरे शब्दों में, स्कूल का सम्पूर्ण वातावरण ऐसा होना चाहिये जिसमें रहते हुए बालक स्वयं ही स्फूर्ति अनुभव करता है।
(2) सामाजिक भावना का विकास – स्कूल द्वितीय अनौपचारिक कार्य बालक में सामाजिक भावना को विकसित करना है। वास्तविकता यह है कि स्कूल समाज का लघु रूप होता है। अत: स्कूल को चाहिये कि वह बालक के सामने छात्र संगठनों, समाज सेवा कैम्प, सामाजिक उत्सव तथा अभिभावक-शिक्षक-संघ आदि की व्यवस्था करके ऐसा सामाजिक वातावरण प्रस्तुत करे कि बालकों में सामूहिक प्रवृति तथा सामाजिक दृष्टिकोण उत्पन्न होते रहें तथा उनमें सामाजिक चेतना, सहानभूति, सहयोग, सामाजिक सेवा, सहनशीलता तथा अनुशासन आदि विभिन्न सामाजिक गुण विकसित हो जायें।
(3) संवेगात्मक विकास – स्कूल का तीसरा अनौपचारिक कार्य बालक का संवेगात्मक विकास करना है। इसके लिए स्कूल का समस्त वातावरण कलात्मक होना चाहिये। दूसरों शब्दों में, स्कूल में उधान, फूलों की क्यारियाँ तथा प्राकृति निरिक्षण की व्यवस्था होनी चाहिये। कक्षाओं के कमरों को भी बालकों द्वारा सुन्दर ढंग से सजाया जाये तथा कलाकारों द्वारा बालकों को विभिन्न कलाओं की शिक्षा दी जाये। समय-समय पर यात्रा, देशाघटन, संगीत सम्मेलनों, नाटकों, वाद-विवाद प्रतियोगताओं, प्रदर्शिनियों तथा चित्रशालाओं के आयोजन से भी बालक के संवेगात्मक विकास में सहयोग मिलता है तथा उनकी सौन्दर्य अनुभूति जागृत होती है। इससे बालकों को आगे चलकर सत्यम, शिवम् तथा सुन्दरम के लिए भी प्रेरित किया जा सकता है।
उपयुक्त पक्तिओं में हम स्कूल की आवशयकता, उसके महत्त्व, उसकी धारणा एवं कार्यों पर प्रकाश डाल चुके हैं। यदि हम भारतीय स्कूलों को उपर बताई गई कसौटी पर कसें तो हमको उनमें अनेक दोष दिखाई पड़ेंगे। प्रेफेसर के०जी० सैयदन का मत है कि भारतीय स्कूल में भूगोल और विज्ञानं आदि की अनौपचारिक शिक्षा दी जाती है। अपने निम्न रूप में ये ऐसे स्थान है , जहाँ पर बालकों के उल्लास तथा कार्यों के प्रति प्रेम का गला घोंटा जाता है। इस दृष्टि से भारतीय स्कूलों के लिए भी वही बात पूर्णतया: सत्य है जो इंग्लैंड के गैर-सरकारी स्कूलों के विषय में एच०जी०वेल्स ने लिखा है – “ यदि आप जानना यह चाहते हैं कि हमारी पीढियाँ की पीढियाँ पहाड़ी नदियों के वेग की भांति विनाश की ओर क्यों बढ़ती जा रही है तो आप किसी गैर-सरकारी स्कूल को ध्यान से देखिये”|
भारतीय स्कूलों के दोष निम्न प्रकार है –
(1) स्कूलों का स्वरुप- भारतीय स्कूलों का संगठन ब्रिटिश शासन की आवशयकताओं को पूरा करने के लिए हुआ था। यदपि अब भारत एक सर्वसत्ता लोकतन्त्त्रात्मक गणराज्य है, परन्तु हमारे स्कूलों का स्वरुप जनतांत्रिक विचारधारा पर आधारित न होकर अब भी वही है जो अंग्रेजों के शासन काल में था।
(2) अन्य साधनों का सहयोग नहीं – स्कूल का रूप तथा क्षेत्र कुछ भी हो, फिर भी वह परिवार का स्थान नहीं ले सकता है। अत: अपने कार्य को सुचारू रूप से चलने के लिए स्कूल को परिवार, समुदाय तथा राज्य आदि सभी शैक्षिक साधनों का सहयोग लेना परम आवशयक है। भारतीय स्कूलों का इस ओर ध्यान नहीं है।
(3) पाठ्य-वस्तु पर बल – भारतीय स्कूलों में बालक की अपेक्षा पाठ्य-वस्तु पर अधिक बल दिया जाता है। अत: इन स्कूलों में बालकों की आवशयकताओं, रुचियों, अभिरुचियों तथा क्षमताओं का दमन करके उनके मस्तिष्क में विषय वस्तु को बलपूर्वक ठूंसने का प्रयास किया जाता है।
(4) एकांगी विकास – हमारे स्कूलों में बालक का सर्वांगीण विकास नहीं होता है। सभी स्कूलों में प्राय: अधिक से अधिक अच्छे परीक्षाफल प्राप्त करने की होड़ लगी रहती है। इस कारण बालकों का सर्वांगीण विकास न होकर केवल एकांगी अर्थात मानसिक विकास ही हो पाता है और वह भी केवल रटन शक्ति का।
(5) अमनोवैज्ञानिक वातावरण – भारतीय स्कूलों का वातावरण नीरस निर्जीव तथा भयंकर होता है। अधिकतर स्कूलों के पास तो भवन ही नहीं हैं। केवल घांस-फूस छापरों से काम चलाया जाता है। यदि कुछ स्कुओं के पास भवन हैं तो वे इतने छोटे होते हैं कि उनमें कक्षा में पुरे बालक आसानी से नहीं बैठ सकते। इन स्कूलों में कमरे ही नही हैं अपितु उनमें स्वच्छ वायु, प्रकाश तथा धुप आदि को आने के लिए खिड़कियाँ या रोशनदान भी नहीं हैं। वास्तविकता यह है कि कमरों में बैठकर जी उबने लगता है। अधिकांश स्कूलों के पास फर्नीचर, प्रयोगशालायें, पुस्तकालय, एवं वाचनालय तथा शिक्षण की सामग्री अरु खुले हुए खेल के मैदान का भी आभाव है। ये स्कूल ऐसी दुकानों जहाँ पर ज्ञान का क्रय तथा विक्रय होता है। ज्ञान के विक्रते (शिक्षक) बालकों को कुछ गिने-चुने विषयों की पुरानी घिसी-पिटी प्रश्नोत्तर विधि के द्वारा औपचारिक शिक्षा देते हैं जिसमें बालक परीक्षा में उतीर्ण हो जायें। इस प्रकार भारतीय स्कूलों का समस्त वातावरण इनता अमनोवैज्ञानिक है कि इनके द्वारा शिक्षा की वास्तिविकता उद्देश्य प्राप्त करना असम्भव है।
(6) स्थायी तथा कठोर पाठ्यक्रम- भारतीय स्कूलों में जिस पाठ्यक्रम के अनुसार शिक्षा दी जाती है उसका निर्माण राजकीय शिक्षा विभाग करता है। इस पाठ्यक्रम की रचना करते समय स्थानीय दशाओं, जीवन की आवश्यकताओं तथा समस्याओं के अनुसार किसी प्रकार का कोई संशोधन करने की शिक्षकों को भी सुविधा नहीं है। इस दृष्टि से भारतीय स्कूलों का पाठ्यक्रम स्थयी तथा कठोर है। इसके द्वारा बालकों की आवश्यकताओं, आकांक्षाओं तथा सम्भावनाओं को पूरा नहीं किया जा सकता है।
(7) दोषपूर्ण शिक्षण पधातियाँ – भारतीय स्कूलों में अब भी वही प्राचीन दोषपूर्ण शिक्षण-पद्धतियां प्रचलित है जो बालकों की रुचियों, आवश्यकताओं, योग्यताओं तथा क्षमताओं का पूर्णरूपेण अवहेलना करती है।
(8) व्यक्तिगत विभिन्नता की उपेक्षा – भारतीय स्कूलों में व्यतिगत विभिन्नता के सिधान्त को कोई स्थान नहीं दिया जाता है। व्यक्तिगत विभिन्नता का अर्थ है प्रत्येक बालक की रुचिओं, अभिरुचियों तथा क्षमताओं को ध्यान में रखते हुए उसकी जन्मजात शक्तियों तथा योग्यताओं को स्वतंत्रता पूर्वक विकसित करना है। हमारे स्कूलों में प्रत्येक बालक को एक सी ही पाठ्यवस्तु पढाई जाती है। इस प्रकार भारतीय स्कूलों में व्यक्तिगत विभिन्नता की अवहेलना की जाती है।
(9) चरित्र निर्माण तथा नैतिकता के विकास का आभाव – भारतीय स्कूलों का सम्पूर्ण वातावरण इनता दूषित है कि ऐसे वातावरण में रहते हुए बालकों के चरित्र का निर्माण एवं उसनका नैतिक विकास होना सम्भव नहीं हो तो कठिन अवश्य है।
(10) व्यवसायिक शिक्षा का आभाव – भारतीय स्कूलों में व्यवसायिक शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है। व्यवसायिक शिक्षा के आभाव में बालक बड़े होकर भी अपनी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दूसरों पर निर्भर रहते हैं अथवा रुई के गोले की भांति बेचारे जहाँ कहीं चिपक जाते हैं उसी में सन्तोष प्राप्त करते हैं।
(11) पुस्तकीय ज्ञान पर बल – पाश्चात्य देशों में खेलों तथा अन्य शैक्षणिक क्रियाओं पर बल दिया जाता है। पर हमारे स्कुओं में इन महत्वपूर्ण बातों की अवहेलना करके पुस्तकीय ज्ञान को ही प्रोत्साहित किया जाता है। इस प्रकार हमारी समस्त शिक्षा केवल पुस्तकों पर ही आधारित है।
(12) रचनात्मक तथा सृजनात्मक क्रियाओं का आभाव – वर्तमान शिक्षा रचनात्मक तथा सृजनात्मक क्रियाओं पर बल देती है, परन्तु भारतीय स्कूलों में क्रियाओं को व्यर्थ समझते हुए प्रत्येक बालक दो निष्क्रिय रूप से ही शिक्षित किया जाता है। इनमें बालक की सुसुप्त शक्तियाँ विकसित नहीं हो पाती। परिणामस्वरूप वह राष्ट्रीय जीवन के किसी रचनात्मक कार्य में सफलतापूर्वक भाग नहीं ले पाता है।
(13) सुप्रशिक्षित शिक्षकों का आभाव- भारतीय स्कूलों में सुप्रशिक्षित शिक्षकों का आभाव है। इसका कारण यह है कि देश में जनसंख्या की वृधि के कारण स्कूलों की संख्या तो बढ़ गयी है, परन्तु स्कूलों में बढ़ती हुई संख्या के अनुपात में प्रशिक्षण संस्थायें शिक्षकों को प्रशिक्षित करने में असमर्थ है। सुप्रशिक्षित शिक्षकों के आभाव में सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था नीरस, निर्जीव तथा अव्यवस्थित हो गयी है।
(14) आर्थिक तथा शैक्षणिक जीवन से पृथक्- भारतीय स्कूल अत्यधिक शैक्षणिक हैं। वे वास्तविक जीवन से अलग हैं। ये स्कूल अपने शिक्षण कार्य को सामाजिक तथा आर्थिक जीवन से अलग रहकर करते हैं। दुसरे शब्दों में, इन स्कूलों का वास्तविक जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं है।
(15) सामाजिक उन्नति के विकास में असमर्थ- प्रत्येक समाज अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए स्कूलों को खोलता है। इस दृष्टि से स्कूलों को समाज की आवश्यकताओं को पूरा करना चाहिये। खेद का विषय है कि हमारे स्कूल अभी तक समाज का लघु रूप नहीं बन पायें हैं। वे अभी तक बालकों में सामाजिक भावनाओं को उत्पन्न करने, सामाजिक समस्याओं को सुलझाने तथा सामाजिक क्रियाओं को करने एवं सामाजिक प्रगति विकसित करने में असमर्थ हैं
भारतीय स्कूलों को शिक्षा के प्रभावशील साधन बनाने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये जा रहे हैं –
(1) स्कूलों का स्वरुप- भारत अब विदेशी नियंत्रण से मुक्त हो गया है। यह एक जनतान्त्रिक राष्ट्र हैं। अत: अब आवश्यकता इस बात कि है कि यहाँ का प्रत्येक बालक जनतान्त्रिक ढंग से रहना सीख जाये जाये। परन्तु कोई भी बालक जनतान्त्रिक ढंग से रहना केवल उसी समय सीख सकता है जब उसे जनतान्त्रिक ढंग से रहना केवल उसी समय सीख सकता है जब उसे जन्त्तान्त्रिक ढंग से रहने के लिए उचित अवसर प्रदान किये जायें। अत: बालकों को जनतंत्र की शिक्षा देने के लिए भारतीय स्कूलों का स्वरुप अब जनतान्त्रिक विचारधा|रा पर आधारित होना चाहिये तथा इन्हें संस्कृति का संरक्षण, विकास, एवं हस्तान्तरण जनतान्त्रिक ढंग से करना चाहिये जिससे बालक वातावरण के साथ अनुकूलन तथा आवश्यकतानुसार उसमें सुधार भी कर सकें।
(2) अन्य साधनों का सहयोग- भारतीय स्कूलों को शिक्षा का प्रभावशाली साधन बनाने के लिए परिवार, समुदाय, तथा राज्य आदि सभी शिक्षिक साधनों का अधिक से अधिक सहयोग प्राप्त करना चाहिये।
(3) बालक के व्यक्तिगत पर बल – भारतीय स्कूलों में अब पाठ्यवस्तु के साथ-साथ बालक को भी अधिक महत्त्व देना चाहिये। बालक के व्यक्तित्व पर बल देने का तात्पर्य है उसकी आवश्यकताओं, रुचियों, अभीरुचियों, तथा क्षमताओं को ध्यान में रखते हुए उसकी जन्मजात शक्तियों तथा योग्यताओं को स्वतन्त्रतापूर्वक विकसित करना, न कि ज्ञान को बाहर से बलपूर्वक ठूंसना।
(4) व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास – भारतीय स्कूलों को बालक के मानसिक विकास के साथ-साथ उनका शारीरिक, सामाजिक तथा संवेगात्मक सभी प्रकार का विकास करना चाहिये। किसी भी अंग के अधिक अथवा कम विकसित होने से व्यतित्व का सर्वांगीण विकास नहीं हो सकता है अत: भारतीय स्कूल इस ओर विशेष ध्यान दें।
(5) मनोवैज्ञानिक वातावरण – भारतीय स्कूलों को बालकों के सामने ऐसा समृध, सक्रिय तथा उल्लासपूर्ण मनोवैज्ञानिक वातावरण प्रस्तुत करना चाहिये जिसमें रहते हुए वे अपनी रुचियों तथा क्षमताओं के अनुसार चुनी हुई क्रियाओं को अपनी गति के अनुसार करते रहें। इससे बालक को अपनी उन्नति के पूर्ण अवसर प्राप्त होंगे तथा वे अपने किये हुए कार्य के लिए स्वयं ही उतरदायित्व अनुभव करेंगे।
(6) लचीला पाठ्यक्रम – भारतीय पाठ्यक्रम की रचना स्थानीय दशाओं, जीवन की आवश्यकताओं एवं बौधिक विकास आदि महत्वपूर्ण तथ्यों को ध्यान में रखकर की जानी चाहिये। इस दृष्टि से पाठ्यक्रम लचीला होना चाहिये तथा शिक्षक को इस बात की स्वतंत्रता होनी चाहिये कि वह इसमें आवश्यकतानुसार परिवर्तन कर सके।
(7) प्रगतिशील शिक्षण पद्धतियां- किसी भी पाठ्यक्रम का अच्छा अथवा बुरा होना शिक्षण-पद्धति अथवा पद्धतियों पर निर्भर करता है। अच्छी शिक्षण-पद्धतियां पाठ्यक्रम को सफल बना सकती है। इस शिक्षण-पद्धतियाँ के अन्तर्गत योजना, डाल्टन, मान्टेसरी आदि शिक्षण-पद्धातियां आती है। भारतीय स्कूलों को इन सभी शिक्षण-पद्धतियों की आवश्यकतानुसार प्रयोग करना चाहिये।
(8) व्यक्तिगत विभिन्नता पर बल – भारतीय स्कूलों को व्यक्तिगत विभिन्नता के सिद्धांत को दृष्टि से रखते हुए प्रत्येक बालक की आवश्यकताओं, रुचियों, अभिरुचियों, योग्यताओं, तथा क्षमताओं के अनुसार ऐसे वातावरण का निर्माण करना चाहिये जिसके द्वारा बालक के सन्तुलित एवं प्रगतिशील मस्तिष्क का निर्माण हो सके और वह साधानपूर्ण तथा साहसपूर्ण बनकर अज्ञात भविष्य के लिए नवीन मूल्यों का निर्माण कर सके।
(9) चरित्र निर्माण तथा नैतिक विकास- स्वतन्त्रता प्राप्त करना तथा स्वतंत्रता की रक्षा करना दोनों अलग-अलग बातें हैं। हमने अपने त्याग तथा तप के बल पर अपनी स्वतन्त्रता प्राप्त की है। सब इस स्वतन्त्रता की रक्षा करना एक समस्या बन गई है। इसका कारण यह है कि हमारे देश में चरित्र तथा नैतिक का दिन-प्रतिदिन पतन होता जा रहा है। एक दिन वह था जब मार्कोपोलो तथा फाहियान आदि विदेशी यात्रियों ने भारतीय चरित्र की कंठ मुक्त प्रशंसा की थी। परन्तु आज हम स्वयं ही अनुभव कर रहे हैं कि हमारे देश में नैतिकता के रक्षक अनैतिकता को प्रोत्साहित कर रहे हैं। यह सब शिक्षा की कमी है। भारतीय स्कूलों के बालकों के चारित्रिक विकास के लिए बालचर –संघ, समाज सेवा समितियाँ तथा सहयता कोष आदि कार्यों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिये तथा ऐसे वातावरण का निर्माण करना चाहिये जिसमें रहते हुए उनमें नैतिकता विकसित हो जाये।
(10) व्यवसायिक शिक्षा की व्यवस्था- भारतीय स्कूलों को चाहिये कि वे बालकों को व्यवसायिक कुशलता एवं भौतिक सम्पन्नता की प्राप्ति के लिए उनको उनकी इच्छा, आवश्यकता तथा क्षमता के अनुसार व्यवसायिक शिक्षा की व्यवस्था करें जिसमें वे बड़े होकर अपनी जीविका कमाते हुए आत्मनिर्भर तथा सामाजिक दृष्टि से कुशल नागरिक बन सकें।
(11) व्यावहारिक ज्ञान पर बल – भारतीय स्कूलों को पुस्तकीय ज्ञान की अपेक्षा जीवन उपयोगी, लाभप्रद, रचनात्मक तथा व्यवहारिक ज्ञान पर बल देना चाहिये। इसकी लिए पाठ्यक्रम को जीवन के अनुभवों पर आधारित होना चाहिये जिससे बालक जिस अनुभव को क्रियाशील होकर स्वयं प्राप्त करे वह उसके व्यावहारिक जीवन में लाभप्रद सिद्ध होता रहे। संक्षेप में हमारे, स्कूलों में जीवन की आवशयकताओं को ध्यान में रखते हुए शिक्षा मिलनी चाहिये।
(12) रचनात्मक तथा सृजनात्मक क्रियाओं पर बल – भारतीय स्कूलों में क्रिया के सिद्धांतों पर विशेष बल दिया जाना चाहिये। इसके लिए स्कूल का समस्त वातावरण सरलीकृत, शुद्ध तथा सन्तुलित होना चाहिये जिससे बालकों को विभिन्न क्रियाओं एवं प्रयोंगों के द्वारा अनके प्रकार के अबुभावों को प्राप्त करने के अवसर मिलते रहें। वास्तव में स्कूल एक प्रयोगशाला हैं जहाँ पर बालक क्रिया के माध्यम से जो कुछ भी सीखता है वह अपने अनुभवों द्वारा ही सीखता है। ऐसा सीखा हुआ ज्ञान सार्थक पक्का तथा दृढ होता है। संक्षेप में, भारतीय स्कूलों को पुस्तकीय ज्ञान की अपेक्षा रचनात्मक तथा सृजनात्मक क्रियाओं पर विशेष बल देना चाहिये। साथ ही बालकों की मूल प्रवृतियों का शोधन तथा मर्गान्तिकरण करने के लिए अनेक प्रकार के पाठान्तर क्रियाओं को प्रोत्साहित करना चाहिये।
(13) शिक्षकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था- भारतीय सरकार को देश में सुप्रशिक्षित शिक्षकों की बढ़ती मांग के अनुसार विभिन्न राज्यों में शिक्षकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था करनी चाहिये। साथ ही राज्य सरकारों को बढ़ती हुई महंगाई के अनुसार वेतन में वृधि तथा उनकी सेवाओं की सुरक्षा भी करनी चाहिये। इससे शिक्षा जगत के सभी संकट दूर हो जायेंगे और राष्ट्र के निर्माता राष्ट्र की उन्नति के लये सक्रिय रूप से जुट जायेंगे।
(14) सामुदायिक जीवन का केन्द्र- भारतीय स्कूलों को चाहिये कि वे बालकों को इस प्रकार से शिक्षा दें कि वे उस समूह के जीवन में कुशलतापूर्वक भाग ले सकें, जिसके वे सदस्य हैं। इस दृष्टि से भारतीय स्कूलों को सामुदायिक जीवन का केन्द्र बनाना चाहिये जिससे बालकों में समाज अथवा राष्ट्र के विकास हेतु, राष्ट्रीय एकता, संवेगात्मक एकता, राष्ट्रीय अनुशासन, सचरित्रता, नैतिकता, आत्म-निर्भर,अपने हितों की अपेक्षा, राष्ट्रीय हित को प्राथमिकता देने की भावना, सामाजिक कुशलता, उत्तम नागरिक तथा नेतृत्व आदि अनके गुण विकसित हो जायें और वे अपने भावी जनतांत्रिक जीवन का कर्तव्यों तथा अधिकारों का उचित प्रयोग कर सकें।
(15) सामाजिक मूल्यों पर बल – भारतीय स्कूलों को बालक के व्यत्क्तित्व का विकास सामाजिक वातावरण में रखते हुए करना चाहिये। अत: स्कूलों को चाहिए कि वे बालकों को सामाजिक केन्द्रों तथा पुस्तकालयों आदि सामाजिक संस्थाओं से सम्बन्ध स्थापित करने तथा अनके प्रकार के सामाजिक कार्यों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करें। इसमें स्कूल की छोटी दुनिया का बाहर की बड़ी दुनिया से सम्बन्ध स्थापित जो जायेगा तथा बालकों में वे भी सामाजिक गुण विकसित हो जायेंगे जिनकी जनतन्त्र में आवश्यकता होती है।
स्त्रोत: पोर्टल विषय सामग्री टीम
इस लेख में शिक्षा और समुदाय के सम्बन्ध में जानकारी...
इस पृष्ठ में स्वतंत्रता सेनानी शहीद करतार सिंह सरा...
इस भाग में नि:शुल्क कोचिंग योजना की जानकारी दी गई ...
इस पृष्ठ में कोडरमा जिले की विस्तृत जानकारी दी गयी...