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शिक्षण व अध्ययन

शिक्षण एवं अध्ययन, एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें बहुत से कारक शामिल होते हैं। सीखने वाला जिस तरीके से अपने लक्ष्यों की ओर बढ़ते हुए नया ज्ञान, आचार और कौशल को समाहित करता है ताकि उसके सीख्नने के अनुभवों में विस्तार हो सके, वैसे ही ये सारे कारक आपस में संवाद की स्थिति में आते रहते हैं।

पिछली सदी के दौरान शिक्षण पर विभिन्न किस्म के दृष्टिकोण उभरे हैं। इनमें एक है ज्ञानात्मक शिक्षण, जो शिक्षण को मस्तिष्क की एक क्रिया के रूप में देखता है। दूसरा है, रचनात्मक शिक्षण जो ज्ञान को सीखने की प्रक्रिया में की गई रचना के रूप में देखता है। इन सिद्धांतों को अलग-अलग देखने के बजाय इन्हें संभावनाओं की एक ऐसी श्रृंखला के रूप में देखा जाना चाहिए जिन्हें शिक्षण के अनुभवों में पिरोया जा सके। एकीकरण की इस प्रक्रिया में अन्य कारकों को भी संज्ञान में लेना जरूरी हो जाता है- ज्ञानात्मक शैली, शिक्षण की शैली, हमारी मेधा का एकाधिक स्वरूप और ऐसा शिक्षण जो उन लोगों के काम आ सके जिन्हें इसकी विशेष जरूरत है और जो विभिन्न सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से आते हैं।

रचनात्मकता का सिद्धांत

रचनात्मकता शिक्षण की एक ऐसी रणनीति है जिसमें विद्यार्थी के पूर्व ज्ञान, आस्थाओं और कौशल का इस्तेमाल किया जाता है। रचनात्मक रणनीति के माध्यम से विद्यार्थी अपने पूर्व ज्ञान और सूचना के आधार पर नई किस्म की समझ विकसित करता है।

इस शैली पर काम करने वाला शिक्षक प्रश्न उठाता है और विद्यार्थियों के जवाब तलाशने की प्रक्रिया का निरीक्षण करता है, उन्हें निर्देशित करता है तथा सोचने-समझने के नए तरीकों का सूत्रपात करता है। कच्चे आंकड़ों, प्राथमिक स्रोतों और संवादात्मक सामग्री के साथ काम करते हुए रचनात्मक शैली का शिक्षक, छात्रों को कहता है कि वे अपने जुटाए आंकड़ों पर काम करें और खुद की तलाश को निर्देशित करने का काम करें। धीरे-धीरे छात्र यह समझने लगता है कि शिक्षण दरअसल एक ज्ञानात्मक प्रक्रिया है। इस किस्म की शैली हर उम्र के छात्रों के लिए कारगर है, यह वयस्कों पर भी काम करती है।

परिदृश्

ब्रूनर के सैद्धांतिक ढांचे में एक प्रमुख विचार यह है कि शिक्षण एक ऐसी सक्रिय प्रक्रिया है जिसमें सीखने वाला अपने पूर्व व वर्तमान ज्ञान के आधार पर नए विचार या अवधारणाओं को रचता है। सीखने वाला सूचनाओं को चुनकर उनका रूपांतरण करता है, प्रस्थापनाएं बनाता है, निर्णय लेता है और ऐसा करते समय वह एक ज्ञानात्मक ढांचे पर भरोसा करता है। ज्ञानात्मक संरचनाएं (योजना, मानसिक प्रारूप) अनुभवों को संगठित कर सार्थक बनाती हैं और व्यक्ति को 'उपलब्ध सूचनाओं' के पार जाने का मौका देती हैं।

जहां तक निर्देशों का सवाल है, तो निर्देशक को छात्रों को सिद्धांतों की खुद खोज करने के लिए प्रोत्साहित करनी चाहिए। निर्देशक और छात्र को सक्रिय संवाद की स्थिति में होनी चाहिए ।
(सुकरात का सिद्धांत) निर्देशक का काम शिक्षण संबंधी सूचना को छात्र की समझदारी के मुताबिक रूपांतरित करना होता है। पाठ्यक्रम को कुंडलाकार तरीके से विकसित किया जाना चाहिए ताकि पढ़ने वाला अपने पूर्व ज्ञान के आधार पर लगातार और ज्यादा सीखता रहे।

ब्रूनर (1966) का कहना है निर्देशन के सिद्धांत को चार प्रमुख पक्षों पर केन्द्रित होनी चाहिए:
1. सीखने की ओर झुकाव,
2. किसी भी ज्ञान की इकाई को किस तरीके से पुनर्संरचित किया जाए जिससे कि सीखने वाला उसे सबसे आसानी से आत्मसात कर सके,
3. शिक्षण सामग्री को प्रस्तुत करने का सबसे प्रभावी क्रम,
4. पुरस्कार और दंड का स्वरूप,

ज्ञान की पुनर्संरचना ऐसे तरीके से की जानी चाहिए जिससे नई प्रस्थापनाएं आसान बन सकें और सूचना को आसानी से परोसा जा सके।

हाल ही में ब्रूनर ने (1986, 1990, 1996) अपने सैद्धांतिक ढांचे को विस्तार देते हुए शिक्षण के सामाजिक व सांस्कृतिक पहलुओं समेत कानूनी कार्रवाइयों को भी इसमें समाहित किया है।

संभावना/प्रयोग

ब्रूनर का रचनात्मकता का सिद्धांत, ज्ञान के अध्ययन पर आधारित शिक्षण दिशा-निर्देशों के लिए एक सामान्य ढांचे का कार्य करता है। सिद्धांत का अधिकांश प्रयास बाल विकास शोध (खासकर पियाजे) से जाकर जुड़ता है। ब्रूनर (1960) के सिद्धांत में जिन विचारों को रेखांकित किया गया है, वे विज्ञान और गणित शिक्षण पर केंद्रित एक सम्मेलन से निकले थे। ब्रूनर ने अपना सिद्धांत छोटे बच्चों के लिए गणित और सामाजिक विज्ञान कार्यक्रमों के संदर्भ में प्रतिपादित किया था। तर्क प्रक्रिया के लिए एक ढांचे के विकास को ब्रूनर, गुडनाउ और ऑस्टिन (1951) के काम में विस्तार से वर्णित किया गया है। ब्रूनर (1983) बच्चों में भाषा शिक्षण पर जोर देते हैं।

यह ध्यान देने योग्य बात है कि रचनात्मकता का सिद्धांत दर्शन और विज्ञान में एक व्यापक अवधारणात्मक संरचना है और ब्रूनर का सिद्धांत इसके सिर्फ एक विशिष्ट परिप्रेक्ष्य को ही सामने लाता है।

उदाहरण: यह उदाहरण ब्रूनर (1973) से लिया गया है।

“'अभाज्य अंकों के ज्ञान को एक बच्चा ज्यादा आसानी से आत्मसात कर लेता है जब वह रचनात्मक तरीके से यह सीखता है कि संपूर्ण पंक्तियों के भरे होने पर कुछ फलियों को उसमें नहीं डाला जा सकता। ऐसी फलियों की संख्या को या तो एक फाइल या अपूर्ण पंक्तियों में डाला जा सकता है जहां हमेशा पूरी पंक्ति को भरने में एक अतिरिक्त या एक कम फली रह जाती है। तब जाकर बच्चा समझता है कि इन्हीं पंक्तियों को अभाज्य कहते हैं। यहां से बच्चे के लिए एक से अधिक टेबल पर जाना आसान हो जाता है, जहां वह अभाज्य संख्याओं में घटक निकालने, गुणनफल आदि को साफ-साफ देख सकता है।”

सिद्धांत

1. दिशा-निर्देश अनुभवों और उन संदर्भों से जुड़े होने चाहिए जिससे बच्चा सीखने को तत्पर हो सके।

2. दिशा-निर्देश संरचित होने चाहिए ताकि ये बच्चों को आससानी से समझ में आ सकें। (कुंडलाकार ढांचा)

3. दिशा-निर्देश ऐसे होने चाहिए जिनके आधार पर अनुमान लगाए जा सकें और रिक्त स्थानों को भरा जा सके (यानी प्रदत्त सूचना का अतिक्रमण संभव हो सके)

स्रोत:www.instructionaldesign.org

अनुभवात्मक शिक्षण

अनुभवात्मक शिक्षण सिद्धांत (ईएलटी), शिक्षण प्रक्रिया का एक समग्र प्रारूप है और विकास का बहुरैखिक प्रारूप भी, जिसमें दोनों ही इस बात से संबंध रखते हैं कि हम इंसान को सीखने, बड़ा होने और विकास करने के बारे में कितना जानते हैं। इस सिद्धांत को अनुभवात्मक शिक्षण इसलिए कहते हैं ताकि सीखने की प्रक्रिया में अनुभव की केंद्रीय भूमिका पर जोर दिया जा सके। यही वह जोर है जो अनुभवात्मक शिक्षण सिद्धांत को अन्य शिक्षण सिद्धांतों से अलग करता है। 'अनुभवात्मक' का इस्तेमाल अनुभवात्मक शिक्षण सिद्धांत को ज्ञानात्मक शिक्षण सिद्धांत और व्यावहारात्मक सिद्धांत दोनों से ही अलग दिखाने के लिए किया जाता है।

अनुभवात्मक शिक्षण सिद्धांत शिक्षण को एक 'ऐसी प्रक्रिया के रूप में परिभाषित करता है जहां अनुभव के रूपांतरण से ज्ञान का सृजन होता है। अनुभवों को आत्मसात करने और उनके रूपांतरण के परिणामस्वरूप ज्ञान पैदा होता है।'

परिदृश्य

रोजर्स ने दो किस्म के शिक्षण- ज्ञानात्मक (निरर्थक) और अनुभवात्मक (महत्वपूर्ण) के बीच फर्क किया है। ज्ञानात्मक में अकादमिक ज्ञान, जैसे शब्द और पहाड़ा याद करना शामिल होता है जबकि अनुभवात्मक ज्ञान में व्यावहारिक ज्ञान की बात की जाती है, जैसे एक कार बनाने के लिए इंजन बनाना सीखना। इस फर्क की कुंजी यह है कि अनुभवात्मक शिक्षण सीखने वाले की आवश्यकता को संबोधित करता है। रोजर्स अनुभवात्मक शिक्षण के निम्न गुण गिनाते हैं- व्यक्ति की संलग्नता, स्वयं शुरू किया हुआ, सीखने वाले द्वारा मूल्यांकन किया जाना और उसके ऊपर पड़ने वाले असर। .
रोजर्स के लिए अनुभवात्मक शिक्षण निजी बदलाव और विकास के बराबर है। रोजर्स मानता है कि सभी मनुष्यों में सीखने की बुनियादी चाह होती है और शिक्षक का काम इसी दिलचस्पी को आगे बढ़ाना है। इसमें निम्न कदम शामिल हैं:
1.सीखने के लिए एक सकारात्मक माहौल का निर्माण
2. सीखने वाले के उद्देश्य को स्पष्ट करना
3.सीखने के संसाधनों को संगठित कर उपलब्ध करवाना
4. सीखने के बौद्धिक और भावनात्मक पक्षों में संतुलन कायम रखना
5. सीखने वालों के साथ बिना उन पर हावी हुए विचार और भावनाओं को साझा करना।

रोजर्स के अनुसार सीखने में तब आसानी होती है जब:

1. सीखने की प्रक्रिया में छात्र पूरी तरह हिस्सेदारी करता है और उसके स्वरूप व दिशा पर उसका पूर्ण नियंत्रण होता है,
2. यह प्रक्रिया बुनियादी तौर पर व्यावहारिक, सामाजिक, निजी और शोध समस्याओं के साथ साक्षात्कार पर आधारित होती है,
3. प्रगति या सफलता का मूल्यांकन करने का बुनियादी तरीका आत्म-मूल्यांकन है। रोजर्स सीखने के लिए सीखना और बदलने के लिए खुले रहने के महत्व पर भी जोर देते हैं,

क्रियान्वयन

अनुभवात्मक शिक्षण काफी प्रभावी शिक्षण पद्घति हो सकती है। यह सीखने वाले को उसकी आवश्यकताओं को संबोधित करते हुए ज्यादा करीब से और निजी स्तर पर संलग्न करती है। अनुभवात्मक शिक्षण के लिए आत्म-पहल और आत्म-मूल्यांकन जैसे गुणों की जरूरत होती है। अनुभवात्मक शिक्षण को वास्तव में प्रभावी होने के लिए उसे समूची प्रक्रिया को अपने संज्ञान में रखना होगा- लक्ष्य निर्धारण से लेकर प्रयोग करना और प्रेक्षण, समीक्षा और अंत में कार्य योजना। इस समूची प्रक्रिया में एक व्यक्ति नए कौशल, नई प्रवृत्तियां और यहां तक कि नए तरीके से विचार करना सीखता है।
क्या आपको बचपन में खेले जाने वाले खेल याद हैं। हॉपस्कॉच जैसे सामान्य खेल कई अकादमिक और सामाजिक कौशल को सिखा सकते हैं, जैसे टीम प्रबंधन, संचार और नेतृत्व। अनुभवात्मक शिक्षण पद्धति में खेल इतने लोकप्रिय औजार का काम क्यों करते हैं, इसकी बड़ी वजह उनका मनोरंजक होना है। मनोरंजक तरीके से सीखने में सबक को लंबे समय तक याद रखा जा सकता है।
अधिकतर शिक्षक, शिक्षण की प्रक्रिया में अनुभवों की भूमिका को समझते हैं। सीखने का मनोरंजक माहौल, हंसी-मजाक और सीखने वाले की क्षमताओं के प्रति सम्मान का भाव आदि अनुभवात्मक शिक्षण के वातावरण को कामयाब बनाने का काम करते हैं। यह जरूरी है कि प्रक्रिया में व्यक्ति को खुद जोड़ा जाए ताकि वे नए ज्ञान की बेहतर समझ खुद बना सकें और लंबे समय तक सूचना को अपने पास रख सकें।

सिद्धांत

1. छात्र की निजी रुचियों के प्रासंगिक होने पर ही विषय-वस्तु सिखाने का काम कर सकती है,
2. खुद को भयभीत करने वाला शिक्षण कहीं जल्दी आत्मसात का लिया जाता है, बशर्ते बाहरी खतरे न्यूनतम हों,
3. खुद को कम खतरे होने पर सीखने की प्रक्रिया तेज हो जाती है,
4. खुद की पहल पर शुरू किया गया शिक्षण लंबे समय तक टिकता है और याद रहता है।

ज्ञानात्मक शिक्षण

मनुष्य प्रेक्षण, निर्देश ग्रहण करने और दूसरों के आचार की नकल करने से कहीं ज्यादा प्रभावी तरीके से सीखता है। ''ज्ञानात्मक शिक्षण सुनने, देखने, स्पर्श करने या अनुभव करने का परिणाम है।''

ज्ञानात्मक शिक्षण एक प्रभावी प्रणाली है जो ज्ञान के साधन उपलब्ध करवाती है और सिर्फ दूसरों की नकल करने तक सीमित नहीं रहती। आप हमारी वेबसाइट पढ़ कर क्या सीख रहे हैं, उसे आपका पोषण नहीं तय कर सकता। यही सीखना ज्ञानात्मक शिक्षण के महत्व को रेखांकित करता है।

ज्ञानात्मक शिक्षण ज्ञान और कौशल का मानसिक या ज्ञानात्मक प्रक्रिया द्वारा अधिग्रहण है, जो प्रक्रिया हमारे मस्तिष्क के भीतर सूचनाओं के प्रसंस्करण के लिए बनी होती है। ज्ञानात्मक प्रक्रिया के तहत भौतिक वस्तुओं और घटनाओं के मानसिक प्रतिबिंब रचे जाते हैं और सूचना प्रसंस्करण के अन्य रूप इसमें शामिल होते हैं।

ज्ञानात्मक तरीके से सीखने की प्रक्रिया

ज्ञानात्मक शिक्षण में व्यक्ति सुनने, देखने, स्पर्श करने, पढ़ने या अनुभव से सीखते हैं और उसके बाद सूचनाओं का प्रसंस्करण करते हैं और उन्हें याद रखते हैं। ऐसा प्रतीत हो सकता है कि ज्ञानात्मक शिक्षण अप्रत्यक्ष शिक्षण है क्योंकि इसमें मोटर गतिविधि नहीं होती है। हालांकि इस प्रक्रिया में सीखने वाला काफी सक्रिय रहता है क्योंकि ज्ञानात्मक शिक्षण में नई सूचनाओं का वह प्रसंस्करण करता है और उन्हें याद रखता है।

ज्ञानात्मक शिक्षण हमें एक जटिल संरचना पैदा करने और उसका प्रसार करने की अनुमति देता है जिसमें प्रतीक, बिंब, मूल्य, मान्यताएं और नियम होते हैं। चूंकि ज्ञानात्मक शिक्षण इंसानी व्यवहार के कई पहलुओं से जुड़ा होता है, इसलिए ऐसा लग सकता है कि यह प्रक्रिया सिर्फ इंसानों में ही होती है। हालांकि, इस किस्म के शिक्षण में कई पशुओं की प्रजातियां सक्षम हैं। उदाहरण के तौर पर एक चिडि़याघर में एक बंदर आगंतुकों या अन्य बंदरों की नकल करता है।

अध्यापन और शिक्षण की रणनीति

निर्देशन का 6E+S प्रारूप

6E और S (संलग्नता, अन्वेषण, विवरण, व्याख्या, मूल्यांकन, विस्तार और मानक) का प्रारूप अध्यापकों द्वारा शिक्षण संस्थानों के शिक्षकों के साथ परामर्श के बाद विकसित किया गया था और यह अध्यापन के रचनात्मकता सिद्धांत पर आधारित है। इसमें बनाई जाने वाली पाठ्य-योजना रचनात्मक निर्देशात्मक प्रारूप पर आधारित होती है जिसमें योजना के खंड और गतिविधि को इस तरह से बनाया जाता है कि छात्र लगातार अपने मौजूदा ज्ञान के साथ नए ज्ञान को समाहित करते जाते हैं।

प्रत्येक 6E, शिक्षण के चरणों को बताते हैं और हरेक चरण अंग्रेजी के E अक्षर से शुरू होता है- Engage, Explore, Explain, Elaborate, Evaluate, Extend। ये 6 E शिक्षकों और छात्रों को एक ही किस्म की गतिविधियों से जोड़ते हैं जिससे वे अपने मौजूदा ज्ञान के ऊपर नए ज्ञान की निर्मिति करते हैं, अर्थ का सृजन करते हैं और किसी अवधारणा की अपनी समझ का निरंतर मूल्यांकन करते हैं।

संलग्नता (एनगेज): इस गतिविधि में अतीत और वर्तमान के सीखने के अनुभवों को जोड़ा जाता है। इसमें गतिविधियों का खाका बना कर छात्रों के विचारों पर मौजूदा गतिविधियों के संदर्भ में ध्यान केंद्रित किया जाता है। छात्रों को सीखने वाले कौशल, प्रक्रिया और अवधारणाओं के साथ मानसिक रूप से संलग्न होना होता है। प्रत्येक पाठ्य-योजना में एक अनिवार्य प्रश्न होता है जो उनकी जांच का आधार होता है। आमतौर पर इस खंड में कुछ प्रमुख प्रश्न होंगे जिससे एक्सप्लोर नामक खंड में अन्वेषण को दिशा मिल सके।

अन्वेषण (एक्सप्लोर): इसमें छात्र विषय का और गहन अन्वेषण करते हैं। सबसे ज्यादा जरूरी यह है कि छात्रों को अपने तरीके से चीजों को समझने का मौका मिलता है और उन्हें कोई निर्देश जारी नहीं किया जाता। उन्हें कुछ दिशा की बस जरूरत होती है और अध्यापक जरूरी सवाल पूछ कर, उनके संवाद को सुन कर यह सुनिश्चित करेगा कि वे अपने काम में लगे रहें।

व्याख्या (एक्सप्लेन)- यह चरण छात्रों को उन अवधारणाओं की व्याख्या करने में मदद करता है जिसे वह सीखता है। वे अपनी समझ को शब्दों में सजाते हैं और अपने नये कौशल व्यवहार का परिचय देते हैं। इस चरण में अध्यापकों को औपचारिक शब्दावली, परिभाषा, अवधारणा, प्रक्रिया, कौशल और व्यवहार से छात्रों का परिचय कराने का मौका मिलता है।

विस्तार (एलेबोरेट): यहां छात्रों से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने अभ्यास पर सीधे काम करें। अब यह उनकी जिम्मेदारी होती है कि वे नई सूचना का प्रयोग कर अपने निष्कर्षों की प्रस्तुति दूसरों के समक्ष करें। अपने काम को मूल्यांकन के लिए जमा करने, प्रस्तुति करने और प्रोजेक्ट को पूरा करने का यह सबसे सही चरण और समय होता है।

मूल्यांकन (इवैलुएट): इस खंड में शिक्षक सीखे हुए का मूल्यांकन करता है। इस खंड में छात्र अपना काम पूरा करके जमा करते हैं। इस चरण में यह बेहद जरूरी है कि छात्रों को आत्म-मूल्यांकन, समूह-मूल्यांकन आदि के लिए प्रेरित किया जाए और वे अपने मूल्यांकन के औजार खुद विकसित कर सकें।

विस्तार (एक्सटेंड): इस खंड में कुछ परामर्श शामिल होते हैं जिससे छात्र अपने पाठ से आगे जा सकता है। इसका उद्देश्य उन तरीकों की पड़ताल करना है जिनसे छात्र अपने निष्कर्षों और समझ को नए व अपरिचित संदर्भों व स्थितियों में लागू कर सकेगा। आमतौर पर इस किस्म की गतिविधि छात्रों के सीखे हुए से उनमें पैदा हुए उत्साह के कारण सामने आती है। यह खंड प्राथमिक तौर पर छात्र संचालित है, हालांकि अध्यापक यह सलाह दे सकते हैं कि छात्र अपने काम में आपसी प्रतिस्पर्द्धा कैसे करें या अपने काम को स्कूल के बाहर दूसरी जगहों पर ले जाकर कैसेट प्रदर्शित करें।

मानक (स्टैंडर्ड): स्टैंडर्ड को फिलहाल पाठ्य-योजना के मुताबिक चरणबद्ध तरीके से इस प्रक्रिया में शामिल किया जा रहा है। इस खंड में पाठ का राज्य, प्रांत या राष्ट्रीय मानकों के साथ मिलान किया जाता है कि वह राष्ट्रीय या राजकीय मानक के मुताबिक है या नहीं। यह बुनियादी तौर अध्यापक के काम का होता है और इससे अध्यापक को यह सूचना प्राप्त होती है कि उक्त पाठ को स्थानीय बोर्ड, जिले या स्कूल के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए अथवा नहीं।

स्रोत: www.nortellearnit.org

भूमिका निर्वहन और अनुकरण

भूमिका निर्वहन या अभिनय और अनुकरण जैसी संवादात्मक अध्यापन रणनीतियां सबसे बेहतर उस वक्त काम करती हैं, जब उन्हें स्वयं स्फूर्त तरीके से छात्रों के समक्ष प्रस्तुत किया जाए। भूमिका निर्वहन के प्रभावी इस्तेमाल के लिए हालांकि पहले से काफी तैयारी की जरूरत होती है जिसमें प्रारूप को तय करना होता है, लक्ष्य और नतीजों को स्पष्टत: परिभाषित करना होता है और इसके खत्म होने के बाद व्याख्या करने का भी समय निकालना होता है। इस प्रक्रिया में छात्रों को भी अपने पास उपलब्ध सूचना को अन्यत्र क्रियान्वित करने की जिम्मेदारी होती है। इस रास्ते वे आलोचनात्मक तरीके से विचार करने और सहकारी तरीके से सीखने में सक्षम हो जाते हैं। ये शैक्षणिक औजार छात्रों को प्रवृत्तियों और विचारधाराओं को समझाने में मदद कर सकते हैं। साथ ही, इनकी मदद से अमूर्त अवधारणाओं और दुनियावी यथार्थ के बीच संबंध कायम किए जा सकते हैं।

विभिन्न आयु वर्ग के छात्रों की कक्षा में पढ़ाना

ऐसी कक्षा में शिक्षण करने के लिए सीखने वालों के बीच मौजूद विविधता का फायदा उठाया जाता है। इसमें इकाइयां बनाई जाती हैं जहां हरेक आयु वर्ग के छात्र विभिन्न इकाइयों में अलग-अलग प्रोजेक्ट पर काम कर रहे होते हैं। छात्रों को एक-दूसरे की मदद के लिए प्रेरित किया जाता है ताकि विभिन्न आयु और क्षमता वाले छात्रों के बीच मतभेद कम हो सकें व माहौल ठीक बनी रहे। सहकारी तरीके से काम करने की इस पद्धति में आमतौर पर बुजुर्ग छात्र युवा छात्रों के लिए आदर्श और संरक्षक बन कर उभरते हैं।
विभिन्न आयु वर्ग के छात्रों को पढ़ाने वाले अध्यापकों को प्रोत्साहित किया जाता है कि वे सभी को बराबर संबोधित करने के लिए अध्यापन और मूल्यांकन की व्यापक रणनीतियों को अपनाएं, समूह बनाने में लचीले तरीकों का इस्तेमाल करें, सीखने के लिए विशिष्ट लक्ष्यों को तय करें, सभी छात्रों की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करें और एक-दूसरे के प्रति सम्मान के वातावरण का प्रसार करें।

सहकारी शिक्षण

सभी अध्यापन रणनीतियों में सहकारी शिक्षण की रणनीति पर सबसे ज्यादा काम किया गया है। नतीजे बताते हैं कि जिन छात्रों को साथ मिल कर काम करने का मौका मिला है, उन्होंने ज्यादा सक्षम तरीके से और तेजी से ज्ञान प्राप्त किया है, ज्ञान को लंबे समय तक अपने पास रखा है और वे अपने सीखने के अनुभवों को लेकर कहीं ज्यादा सकारात्मक महसूस करते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि छात्रों को एक समूह में बांध कर एक प्रोजेक्ट देने भर से काम हो जाता है। समूह कार्य की सफलता को सुनिश्चित करने के कुछ विशिष्ट तरीके होते हैं, और यह जरूरी है कि अध्यापक और छात्र दोनों ही इस बारे में जागरूक हों। इस प्रक्रिया के दुरुपयोग के कारण हाल ही में इसकी काफी आलोचना भी की गई है। इतना साफ होना चाहिए कि यह कोई ऐसा तरीका नहीं है जिसे अपनाकर अध्यापक अपने काम से पल्ला झाड़ लें, कि बच्चे तो समूह में काम करते रहें और शिक्षक पर्चा जांचने में ही लगे रहें। यह कोई ऐसा भी तरीका नहीं जिसके रास्ते शिक्षक समूहों का नेतृत्व 'गिफ्टेड' यानी होनहार बच्चों के हाथों में देकर उन्हीं का पोषण करते रहें। यह एक ऐसा तरीका है जिससे छात्र अनिवार्य अंतरव्यक्तिक जीवन-कौशल को सीखते हैं और साथ मिल कर काम करने की क्षमता विकसित कर पाते हैं- यह एक ऐसा कौशल है जिसकी मांग आज कार्यालयों में सबसे ज्यादा है। यह एक ऐसा तरीका है जिससे छात्र अलग-अलग भूमिकाएं अपना सकते हैं- मध्यस्थ, रिपोर्टर, रिकॉर्डर इत्यादि। एक सहकारी समूह में हर छात्र के पास विशिष्ट काम होता है, हरेक को सीखने में संलग्न होना होता है और कोई भी काम से बच नहीं सकता। इस समूह की कामयाबी प्रत्येक सदस्य के सफल कार्य पर निर्भर करती है।

छोटे-छोटे समूहों में छात्र अकादमिक कार्यों पर काम करके अपने और अपने साथियों को सीखने में मदद करते हैं। आमतौर पर सहकारी शिक्षण पद्धति में पांच लक्षण होते हैं-

  • छात्र एक ही काम पर मिलकर मेहनत करते हैं जिन्हें सामूहिक तरीके से अंजाम दिया जाता है,
  • दो से पांच सदस्यों के छोटे-छोटे समूहों में छात्र काम करते हैं,
  • छात्र सामाजिक और सहकारी आचार का इस्तेमाल करते हुए अपने काम करते हैं,
  • छात्र सकारात्मक रूप से स्वतंत्र होते हैं। गतिविधियों को इस तरीके से विकसित किया जाता है कि हरेक छात्र को काम पूरा करने के लिए दूसरे की मदद लेनी ही होती है,
  • अपने काम और सीखने के प्रति प्रत्येक छात्र निजी तौर पर जवाबदेह होता है।

सीखने की शैली

सीखने की शैली, सामान्यतया सीखने की एक अलग शैली या नजरिया होती हैं।

सीखने की शैलियों के प्रकार

दृष्टिगत शिक्षार्थी : देखकर सीखने वाले....

ऐसे शिक्षार्थियों को पाठ का मर्म समझने के लिए शिक्षक की शारीरिक भाषा एवं चेहरे के भावों को देखने की आवश्यकता होती है। वे कक्षा में सबसे आगे बैठना पसंद करते हैं ताकि दृष्टि में कोई रुकावट न हो (उदाहरण के लिए लोगों के सिर)। वे चित्रों के रूप में सोचते हैं एवं दृष्टिक प्रदर्शन से सबसे अच्छी तरह सीखते हैं, जिनमें शामिल है डाएग्राम, पुस्तकों में चित्र, ओवरहेड ट्रान्स्परन्सीज़, विडियो, फ्लिपचार्ट एवं हैण्ड-आउट्स। एक व्याख्यान या कक्षा के विचार विमर्श के दौरान, दृष्टिगत शिक्षार्थी सूचना को ग्रहण करने के लिए विस्तृत नोट्स लेते हैं।

श्रावणिक शिक्षार्थी: सुनकर सीखते हैं...

वे सबसे अच्छे तरीके से वाक्-व्याख्यान, विचार-विमर्श, बातचीत कर एवं दूसरों को क्या कहना है, इसके माध्यम से सीखते हैं। श्रावणिक शिक्षार्थी भाषण में निहित अर्थ व्याख्या, आवाज़ की टोन, पिच, गति अवं अन्य गूढ़ताओं के आधार पर करते हैं. लिखित जानकारी का बहुत कम अर्थ निकल सकता है जब तक उसे सुना न जाए। ऐसे शिक्षार्थियों को अक्सर पाठ जोर से पढ़कर या टेप-रिकॉर्डर के उपयोग से लाभ होता है।

काइनेस्थेटिक शिक्षार्थी/ स्पर्शग्राही: चलकर, करके या छूकर सीखनेवाले...
काइनेस्थेटिक/ स्पर्शग्राही व्यक्ति सबसे अच्छी तरह खुद-करने की पद्धति से सीखते हैं, अपने आस-पास की दुनिया को क्रियाशीलता से खोजकर। उन्हें ज़्यादा देर तक बैठना मुश्किल लग सकता है एवं क्रियाशीलता तथा खोज की आवश्यकता से उनका ध्यान विचलित हो सकता है।

अंतिम बार संशोधित : 2/20/2023



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