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बच्चों को होने वाली आम बीमारियॉं

बच्चों की बीमारियॉं

बच्चों को बीमारीयॉ का होना काफी आम बात है| इस अध्याय में साधारण या आम बीमारीयों का वर्णन दिया है|

भारत की जनसंख्या का 40 प्रतिशत 14 साल से कम के बच्चों का है। उसमें हर सौ बच्चो में से लगभग 12 बच्चे असल में 5 साल से कम उम्र के हैं। बीमारी और मौत छोटी उम्र के साथ ज्यादा हावी रहते हैं। 100 जवित पैदा हुए बच्चों में से 5 की म़त्यु अपनी उम्र का एक साल पूरा करने से पहले ही हो जाती हैं। बच्चों की यह मृत्यु दर विकसित देशों की मृत्यु दर से काफी ज़्यादा है। विकसित देशों में यह दर एक प्रतिशत से भी कम है। भारतीय बच्चों की लंबाई और वजन के पैटर्न को और उनकी बीमारियों को देखें तो हमें पता चलता है कि उनका स्वास्थ्य भी अच्छा नहीं है। करीब 40 प्रतिशत भारतीय बच्चों की वृद्धि ठीक नहीं हुई होती और वो कुपोषित होते हैं।

भारत में बच्चों के खराब स्वास्थ्य और मौतों का कारण रहन सहन के खस्ता हालात ही है। इन हालातों के कारण ही कुपोषण, संक्रमण रोग और दुर्घटनाओं की स्थितियॉं निर्मित होती हैं। भारत के अधिकांश समुदायों में लडकीयॉ के लिये जन्म से ही और भी ज़्यादा मुश्किल परिस्थितियॉं हैं। गर्भ में लडकी का पता चलते ही उसे गर्भपात कर निकाल देना और लडकी को जन्म के तुरन्त बाद ही खतम कर देना या बाहर कुडेदान पर फेंक देना भी यहॉं काफी समस्या है। कुपोषण, बीमारी, देखभाल का अभाव और मौतें भी बच्चियों के मामले में ज़्यादा देखने को मिलते हैं। इसी कारण से भारत में लिंग अनुपात यानी पुरुषों के मुकाबले महिलाओं या लड़कों में मुकाबले लड़कियों की संख्या कम है।

बच्चों में बड़े स्तर पर बीमारियॉं होने के बावजूद यहॉं बच्चों के स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव है। ग्रामीण इलाकों के अधिकांश स्वास्थ्य कार्यकर्ता और निजी चिकित्साकर्मी बच्चों की स्वास्थ्य सेवाओं के लिए प्रशिक्षित नहीं हैं। खास बच्चों की देखभाल के लिए चलाए गए आंगनवाड़ी कार्यक्रम भी पूरक पोषण और टीकाकरण तक ही सीमित रहते हैं। इसके अलावा कई कई बच्चे घरों में ही पैदा होते हैं और नवजात शिशुओं की ठीक देखभाल भी नहीं होती है। भारत में ३० प्रतिशत बच्चों का जन्म के समय वजन कम होता है और उन्हें जिऩ्दा रहने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ता है। इस अध्याय से आपको बच्चों के स्वास्थ्य की देखभाल के बारे में समझने में मदद मिलेगी।

बच्चों की बीमारियो की एक सूची

* पाचन तंत्र

दांत निकलने की परेशानियॉं, मुखपाक, उल्टि व अमाश्यशोथ, दस्त, पेचिश, पेट में दर्द, पीलिया, क़मि, मोतीझरा, दोहद, कब्ज़ और दुर्घटना से ज़हर चला जाना।

* श्वसन तंत्र

जुकाम खॉंसी, टॉन्सिल या कंठशालूक का शोथ, गला खराब होना (गलदाह), वायुविविर शोथ, श्वसनिका शोथ, निमोनिया, तपेदिक, क़मि परजीवी से होने वाली खॉंसी, दमा।

* त्वचा

छाले, संक्रमण वाले घाव, एक्ज़ीमा, जूंएं, पामा (स्कैबीज़), दद्रु कृमि।

* आँखे

दुखती आँख, कोर्निया में अल्सर, रतौंधी, देखने में मुश्किल और कानापन।

* कान

बाहरी कान का संक्रमण, बाहरी कान में फंफूद, कान में मोम जमना, मध्यकर्ण का संक्रमण और बहरापन।

* तंत्रिका तंत्र

मस्तिष्कावरण शोथ, मस्तिष्क शोथ, टिटेनस, पोलियो, मिर्गी और मानसिक रूप से अविकसित होना। दिल और संचरण: जन्मजात गड़बड़ियॉं और वाल्व की बीमारियॉं।

* कंकाल तंत्र

पैरों के आकार में गड़बड़ी, अन्य हड्डियों और जोड़ों के आकार में गड़बड़ियॉं, रिकेटस, हड्डियों का संक्रमण, कुपोषण के कारण पेशियों का खतम हो जाना, पेशीविकृति।

* खून

दात्र कोशिका अनीमिया, लोहे की कमी से अनीमिया, मलेरिया, कैंसर और रक्त स्त्राव संबंधित गड़बड़ियॉं।

* लसिका तंत

फाइलेरिया रोग, कैंसर, गले में गांठें और वायरस से होने वाली गांठें।

* हारमोन

मधुमेह (डायबटीज़), घेंघा रोग और वृद्धि में अवरोध।

* मूत्र तंत्र

गुर्दे का शोथ (वृक्क शोथ), अपवृक्कीय संलक्षण, मूत्राशय में संक्रमण, मूत्रमार्ग शोथ, पथरी और पेशाब रुक जाना।

* पुरुष जनन तंत्र

वृषण का पूरी तरह से नीचे न आना, वृषण का विकसित न होना और निरुद्धप्रकाश।

* महिला जनन अंग

कम विकसित डिंबग्रंथि या गर्भाशय।

* अन्य बीमारियॉं

खसरा, रूबैला, छोटी माता, कनफेड़, कुपोषण, समय से पहले जन्म, जन्म के समय वजन कम होना।

* दुर्घटनाएं

चोट, जलना, किसी कीड़े आदि द्वारा काट लिया जाना, डूब जाना, बिजली का झटका, कान या नाक में कोई बाहरी चीज़ का चला जाना या ज़हर अंदर चला जाना। यह सूची केवल एक मोटी समझ बनाने के लिए है। आप बहुत सारी बीमारियों के बारे में अन्य अध्यायों में पढेंगे। इस अध्याय में केवल कुछ खास बीमारियों के बारे में ही बात की गई है। बचपन में पाचन तंत्र, श्वसन तंत्र और त्वचा की बीमारियॉं सबसे अधिक होती हैं। शरीर में कीड़े होने से भी कुपोषण बढ़ता है। बीमारी के लिए दवा दे देना ही काफी नहीं होता। बच्चों के स्वास्थ्य के लिए और उन्हें मौत से बचाने के लिए हमें बीमारियों से बचाव और शुरुआत में ही इलाज पर भी ध्यान देना चाहिए। पोषण, सफाई और टीकाकरण बहुत महत्वपूर्ण होते हैं।

बचपन में होने वाला निमोनिया

निमोनिया से फेफड़े के ऊतकों पर असर होता है। इसका कारण आमतौर पर बैक्टीरिया से होने वाला संक्रमण होता है। वायरस से संक्रमण बहुत कम होता है। संक्रमण हवा से होता है। निमोनिया में फेफड़ों के किसी भाग में शोथ हो जाता है। इससे बच्चा तेज़ तेज़ सांस लेने लगता है। शोथ से खॉंसी, बुखार और अन्य लक्षण जैसे भूख मरना, उल्टी और बहुत ज़्यादा कमज़ोरी हो जाती है। स्वस्थ बच्चे को निमोनिया आमतौर पर नहीं होता। आमतौर पर कोई और बीमारी होने पर जब शरीर की प्रतिरक्षा क्षमता कमज़ोर पड़ गई होती है तक निमोनिया हो जाता है। खसरे या किसी और श्वससन तंत्र की किसी वायरस से होने वाली बीमारी से ठीक हो रहे बच्चे, कुपोषित बच्चे, समय से पहले पैदा हुए बच्चे और कम वजन वाले बच्चों के निमोनिया के शिकार होने की संभावना अधिक होती है। विशिष्ट बचाव संभव नहीं है।

भारत में बाल न्यूमोनिया एक गंभीर बीमारी है| पॉंच साल से कम उम्र किसी भी बालक को यह बीमारी कभी भी हो सकती है| बुखार, खॉंसी और सॉंस तेजीसे चलना ये लक्षण होनेपर इसे न्यूमोनिया समझना चाहिये| बाल-न्यूमोनिया अक्सर जिवाणु या कभी कभी विषाणु से होता है| यह बीमारी गंभीर होते हुए भी पहचानने और इलाज के लिये सरल है| अधिक जटिल बिमारियों में अस्पतालमें ही इलाज करवाना पडता है| अब हम इस बीमारी के बारेमें थोडी जानकारी लेंगे| बीमारी की शुरुवात बुखार, सर्दी खॉंसी से होती है| बच्चे का दम फुलता है| बीमारी फेफडों में होती है| यह सब १-२ दिनोंमें होता है|

* रोगनिदान

बुखार, खॉंसी और तेज सांस ये तीन प्रमुख लक्षण है| इसमें खॉंसी सीने की गहराई से आती है| गले से नहीं| खॉंसने की आवाज से ही यह पता चलता है| इसी को भारी खॉंसी भी कहते है| शुरु में १-२ दिन हल्का-मध्यम बुखार रहता है| बुखार निरंतर रहता है|

बच्चेकी सॉंस की गती गिनकर हम सही निर्णय ले सकते है| इसके लिये घडी या मोबाईल फोन के टायमर का प्रयोग करे| एक मिनिट तक सॉंसे गिने| इसके लिये बच्चे के कमर तक कपडे उतारकर देखना पडता है| बच्चे को मॉं की गोद में या खटिया पर लेटाये| सॉंसे गिनने के लिये स्टेथास्कोप की आवश्यकता नहीं होती| छ: महिने से कम उम्र शिशु के लिये ६० से अधिक श्वसन को तेज श्वसन कहा जा सकता है| छ: महिने से २ वर्ष उम्रके बच्चों के लिये ५० से अधिक श्वसन की गति याने दम भरना है| वैसेही २ वर्ष से उपर के बालकों के लिये ४० से अधिक श्वसनदर हो तो तेज श्वसन कहते है| तेज श्वसन से बच्चे के नथुनें फूल जाते है|

*  खतरे के लक्षण

खॉंसी, बुखार व जल्द श्वसन के अलावा निम्न लक्षण गंभीरता के सूचक है|

  • बुखार से दौरे पडते है|
  • बच्चा खाने-पिने को राजी नहीं होता| स्तनपानभी नहीं करता|
  • बच्चा सुस्त हो जाता है| जादा देर जागता नहीं है|
  • सॉंस लेते समय बच्चे की पसलियॉं अंदर खींचती है|
  • सॉंस लेते समय सीने से कराहने की तथा सींटी जैसी आवाज आती है|
  • त्वचा, होंठ, नाखून व चेहरे पर नीली सी झलक दिखती है| इनमे से किसीभी लक्षण के दिखते ही तुरंत वैद्यकीय सहायता लेना चाहिये|

* प्राथमिक उपचार

न्यूमोनिया है लेकिन गंभीरता के लक्षण नहीं, ऐसे में बच्चे को प्राथमिक उपचार काफी है| इसके लिये तीन सामान्य तथा सस्ती दवाईयॉं है| ऍमॉक्सिसिलीन यह जिवाणुओं के लिये, पॅरासिटामॉल बुखार हेतू तथा श्वास नलिका खुलने हेतू कोई दवा| छोटे शिशुओं के लिये ये दवाइयॉं द्रव स्वरूप में मिलती है| थोडे बडे बच्चों के लिये पिघलनेवाली गोलियॉं चल सकती है| ये उपचार कोई स्वास्थ्य कर्मचारी भी कर सकता है| किन्तु उपचार के १-२ दिन बाद डॉक्टर से मिलना ठीक होगा| बुखार उतरने के लिये गुनगुने पानी में कपडा भिगोकर शरीर पोंछ ले| पूरा शरीर पोंछ ले| सिर्फ माथा नहीं| बच्चे का खान-पान चालू रखने की कोशिश करे|

* विशेष सूचना

  • यह बीमारी गंभीर जरुर है लेकिन इसमें इंजेक्शन या सलाईन की आवश्यकता नही होती|
  • खतरे के लक्षण दिखते ही तुरंत अस्पताल ले जाए|
  • इस बीमारी से बच्चे का पेट उडना कहते है| लेकिन यह बीमारी फेंफडों में होती है|
  • दो दिनों के इलाज से जादातर बच्चे पूर्णत: ठीक हो जाते है|

बच्चों में दस्त

बहुत से बच्चों को दस्त की बीमारी हो जाती है| पतले दस्त होते रहना, रक्तमिश्रित श्लेष्मा (आंव) गिरना एक अलग बीमारी है| दस्त रोग से ग्रसीत बच्च का शरीर शुष्क हो जाता है| इससे इन बच्चो की मृत्यू हो सकती है| दस्त केजीवाणु या विषाणू दूषित हाथों या भोजन-पानी के साथ बच्चों के पेट में पहुँचते है| इकोलाय जीवाणु तथा रोटाव्हायरस दोनो विषाणू के जरिये दस्त होता है| दस्त में घरेलू इलाज से भी हम खतरा और मृत्यू टाल सकते है| कभी कभी अस्पतालमें इलाज करवाना पडता है|

* कारण

ज़्यादातर तरह के दस्त (सभी नहीं) संक्रमण के कारण होते हैं। संक्रमण वाले दस्त के आधे मामले वायरस से हुए संक्रमण के होते हैं। प्रतिजीवाणु दवाओं से वायरस से होने वाली बीमारियॉं ठीक नहीं होतीं। वायरस के अलावा कुछ बैक्टीरिया, अमीबा, जिआर्डिया और कृमि से भी दस्त होते हैं। | इकोलाय जिवाणू तथा रोटाव्हायरस दोनो विषाणू दोनो विषाणू के जरिये अतिसार होता है|

फेफड़ों, कानों के संक्रमणों और मलेरिया से भी बच्चों में दस्त हो जाते हैं। कुपोषण से शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र कमज़ोर पड़ जाता है। ऐसे में भी बच्चे को दस्त लगने की संभावना ज़्यादा होती है। दस्त जीवाणुओं के संक्रमण के अलावा अन्य कारणों से भी लग सकते हैं। जैसे दांत निकलने के समय, खाने से होने वाली एलर्जी से या फिर अपच से।

* दस्त और निर्जलीकरण

अगर 24 घंटों में तीन या तीन से ज़्यादा पतली पानीयुक्त टट्टियॉं हों तो यह दस्त की स्थिति है। अगर इसके साथ खून और श्लेष्मा भी आए तो यह पेचिश होती है। दस्त से किसी भी और बीमारी की तुलना में अधिक बच्चे मरते हैं। इससे कुपोषण और वृद्धि में अवरोध भी हो जाता है।

दस्त होने पर असल में दस्त से हुए निर्जलीकरण (शरीर में से पानी निकल जाना) से बच्चे की मौत होती है। इसलिए निर्जलीकरण और मौत से बचाने के लिए घर में बने घोलों से पानी की कमी पूरी करने की कोशिश करनी चाहिए। दिनभर में तीन से अधिक बार पतले दस्त होना इसको हम बीमारी कह सकते है| लेकिन शुष्कता यानी पानी की कमी की जॉंच आवश्यक है| इसके लिये प्यास, सतर्कता, त्वचा, आँखे और जीभ का सूखापन तथा पेशाब की मात्रा आदि बाते जॉंचे हो| इसमे शुष्कता के इस प्रकार तय होते है|

शुष्कता में बच्चे को प्यास, आँखे दसी (डुबते हुअे सूरज की तरह ) हुई, जीभ सूख जाना, आदि लक्षण होते है| ऐसे में बच्चा रोतला और चिडचिडा हो जाता है| त्वचा चुटकी में पकडकर छोडने पर सिलवटे धीरे धीरे समाप्त होती है| बच्चा रोये तो आँखों में पानी नहीं आता| त्वचा का सूखापन जॉंचने हेतू बच्चे के पेट की त्वचा अँगुली की चिमटीमें पकडकर छोडिये| निरोगी अवस्था में त्वचाकी सिलवट पहले जैसी सपाट हो जाएगी| शुष्कता होनेपर त्वचा की सिलवटे धीरे धीरे ठीक होती है| निर्जलीकरण कितना हुआ है यह समझना उसके इलाज और संभालने के लिए ज़रूरी है। नीचे दिए गए लक्षण निर्जलीकरण की स्थिति में नहीं दिखते :

* निर्जलीकरण नहीं है-अगर

  • बच्चा प्यासा न हो।
  • जीभ गीली हो।
  • बच्चा सामान्य रूप से द्रव पदार्थ पी पा रहा हो।
  • बच्चे की त्वचा को मोड़ कर छोड़ने पर वो सिमटी हुई नहीं रहती।
  • करोटी अंतराल सामान्य हो।
  • बच्चा सचेत हो। इस तरह के बच्चे में निर्जलीकरण नहीं हुआ है। उसे खूब सारे द्रव पदार्थ देते रहें।
  • * हल्का निर्जलीकरण
  • जब बच्चे में हल्का निर्जलीकरण हो चुका हो तो नीचे दिए गए लक्षण दिखते हैं।
  • बच्चा बेचैन, चिड़चिड़ा और प्यासा हो जाता है।
  • करोटी अंतराल धंस जाता है।
  • आँखें, अंदर धंस जाती हैं, मुँह और जीभ सूख जाती है।
  • त्वचा को मोड़ कर छोड़ने पर वो धीरे धीरे सामान्य स्थिति में वापस आती है। ऐसे बच्चे को मुँह से खूब सारा द्रव पदार्थ दिए जाने की ज़रूरत होती है। इसके अलावा नमक और चीनी का घोल या ओ.आर.एस. के दो पैकेट भी दें।

 

* गंभीर निर्जलीकरण

अगर बच्चे में गंभीर निर्जलीकरण हो गया है तो:

  • बच्चा उंनींदा हो जाएगा।
  • आँखें अंदर धंस जाएंगी और जीभ बिलकुल सूख जाएगी।
  • बच्चा कुछ भी पी नहीं सकेगा।
  • त्वचा को मोड़ कर छोड़ने पर वो बहुत देर में वापस सामान्य स्थिति में आएगी।
  • जब वो रो रहा होगा तो भी आँखों में आँसू नहीं आएंगे। तीव्र शुष्कता के लक्षण अर्थात बच्चा सुस्त लगता है| शीघ्रता से जबाब नहीं देता| आँखे छॉंसी दिखाई देती है| जबान बहुत रुखी लगती है| त्वचा की सिलवटे चुटकी छोडनेपर बहुत धीरे से समाप्त होती है| बच्चा रोनेपर आँखों में पानी नही आता| पेशाब नही आती| यह खतरनाक अवस्था है| बच्चे को अंत: शिरा द्रव दिया जाना चाहिए। पर चिकित्सा केन्द्र ले जाते हुए रास्ते में ओ.आर.एस देते रहें।

दस्त का इलाज

डॉक्टर के सलाहसे जीवाणुरोधक दवाइयॉं लग सकती है|

* तीन महत्वपूर्ण बिंदू

  • दस्त में बच्चे के इलाज के लिए तीन महत्वपूर्ण बिंदू ये हैं :
  • यह तय करना कि प्रति जीवाणु दवा दी जाए या नहीं।
  • निर्जलीकरण ठीक करना
  • उपयुक्त आहार देते रहना किसी भी चिकित्सीय जांच से यह पक्की तरह से नहीं पता चल सकता कि दस्त वायरस के कारण हुआ है या बैक्टीरिया के कारण। दस्त के मामलों में से करीब आधे वायरस के संक्रमण से होते हैं और आधे बैक्टीरिया के। परन्तु कुछ महत्वपूर्ण संकेत होते हैं। अगर आपको नीचे दिए गए लक्षणों में से कोई भी दिखाई दें तो यह बैक्टीरिया से होने वाले दस्त के सूचक हैं।
  • मल में खून होना
  • बुखार
  • पेट में दर्द
  • टट्टी में से गंदी बदबू आना बैक्टीरिया से होने वाले दस्त में कोट्रीमोक्साज़ोल नामक प्रतिजीवाणु दवा से फायदा होता है। याद रहे कि अगर खूब सारी पानी जैसी टट्टी आए जिसके साथ और कोई भी लक्षण न दिखाई दें तो यह आमतौर पर वायरस वाले दस्त होते हैं। ऐसे में कोई भी प्रतिजीवाणु दवाओं की ज़रूरत नहीं होती। इस तरह के दस्त 3 से 5 दिनों में अपने आप ठीक हो जाते हैं। धैर्य रख कर ध्यान रखते रहना और शरीर में पानी की कमी को पूरा करना महत्वपूर्ण है।

बच्चे को अतिसार होने पर शुष्कता हो या नहीं, लेकिन उसे द्रवपदार्थ मुँह द्वारे दे| यह आप स्वयं कर सकते है| द्रव पदार्थोंसे बच्चे में रोग-प्रतिकारक शक्ती आती है| अपने डॉक्टर या स्वास्थ्यसेवक को इसकी जानकारी अवश्य दे|

दस्त हो किन्तु शुष्कता ना हो या कम हो तो घरेलू इलाज कर सकते है| परंतु अतिशुष्कता हो तब घर में रुके बिना तुरंत अस्पताल पहुँचे|

* निर्जलीकरण ठीक करना

बच्चों के दस्त में शरीर में पानी की कमी पूरी करना सबसे महत्वपूर्ण इलाज है। अगर निर्जलीकरण बहुत गंभीर न हो तो आप बच्चे को घर में बने घोल दे कर ही उसके शरीर में पानी की कमी की आपूर्ती कर सकते हैं। ये घोल ओ आर एस भी हो सकता है और चीनी या नमक का घोल भी।

मुँह से निर्जलीकरण के उपचार जिसे ओरल रिहाइड्रेशन थेरैपी (ओ आर टी) भी कहते हैं का प्रमुख नियम यह है कि जिस बच्चे को दस्त हो रहे हों उसे सामान्य से ज़्यादा तरल दिया जाना चाहिए।ओ आर टी के कई रूप होते हैं। ओ आर टी का मतलब है मुँह से तरल देना जिससे निर्जलीकरण रोका जा सके या उसे ठीक किया जा सके। तरल पदार्थ या तो घरों में मिलने वाले कोई भी पीने की चीज़ें हो सकते हैं या बाज़ार में पैकेटों में मिलने वाले ओरल रिहाईड्रेशन साल्ट (ओ आर एस) को पानी में मिला कर तैयार किया हुआ तरल पदार्थ। स्थानीय परिस्थितियों के हिसाब से ओ आर टी में इस्तेमाल हो सकने वाले विभिन्न तरलपपदार्थों की सूची नीचे दी गई है।

* घर के तरल पदार्थ

निर्जलीकरण रोकने के लिए दस्त की शुरुआत में अतिरिक्त तरल पदार्थ देना ज़रूरी होता है। तरल पदार्थ और आहार दोनों ही महत्वपूर्ण होते हैं। जब दस्त शुरु हों या चल रहे हों तो उस समय सामान्य से अधिक तरल पदार्थ दिए जाने चाहिए और दूध भी पिलाते रहना चाहिए। अगर ये पदार्थ शुरु में और सही तरह से दिए जाएं तो दस्त के गंभीर मामलों में से केवल 10 प्रतिशत में स्वास्थ्य कार्यकर्ता की मदद की ज़रूरत पड़ेगी। तरल पदार्थ जिनमें नमक और या र्स्टाच या चीनी और प्रोटीन हो वो अच्छे रहते हैं। ऐसे पदार्थ शरीर में द्रव और लवणों दोनों की कमी पूरी करते हैं। इनके अच्छे उदाहरण हैं सूप जिनमें नमक पड़ा हो, नमकीन चावल का पानी, नमकीन मठा या मक्की का सूप आदि।इसके अलावा बच्चों को खूब सारे ऐसे तरल पदार्थ भी दिए जाने चाहिए जिनमें नमक न हो जैसे पीने का सादा पानी, नारियल का पानी, चाय, फलों का ताज़ा रस जिसमें चीनी न मिली हो। ऐसे तरल पदार्थ न दें जिनमें चीनी हो जैसे कॉफी या कोल्ड डिंक्स।अगर बच्चा स्तनपान पर हो तो ज़रूरी है कि स्तनपान जारी रखा जाए।

* ओ आर एस घोल

ओ आर एस घोल दिए जाने की सिफारिश निर्जलीकरण के उपचार के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा की गई है। जहॉं भी सम्भव हो वहॉं घर में निर्जलीकरण से बचाव के लिए यह दिया जाना चाहिए। ओ आर एस के पैकेट में ग्लूकोस और नमक होता है। और जब इसे पानी में घोला जाता है तो यह निर्जलीकरण रोकने या उसके उपचार के लिए बेहद उपयोगी रहता है।

ज़्यादातर ओ आर एस पैकेटों को एक लिटर पानी में घोला जाना होता है। जिन पैकेटों में ट्राईसोडियम सिट्रेट की जगह सोडियम बाइकार्बोनेट होता है (2.5 ग्राम) वो भी ठीक रहते हैं। परन्तु इन्हें ज़्यादा समय तक रख पाना संभव नहीं होता। बाज़ार में मिलने वाले बहुत से पैकेटों में लवणों का अनुपात उतना नहीं होता जितना की मान्य है। किन्हीं में बहुत अधिक चीनी होती है। किन्हीं अन्य में बहुत कम नमक होता है। स्वास्थ कार्यकर्ता को सिर्फ उन्हीं पैकेटों का इस्तेमाल करना चाहिए जिनमें ऊपर दिए गई मात्राओं में सभी चीज़ें मौजूद हों।

* चीनी और नमक का घोल

ओ आर एस की जगह घर में चीनी और नमक का घोल बना कर इस्तेमाल किया जा सकता है। यह घोल 5 ग्राम नमक (5 मिली लीटर का एक चम्मच) और 20 ग्राम चीनी (5 मिली लीटर के चार चम्मच) एक लिटर पानी में डाल कर बनाया जाता है।

बालकदमा (बचपन में दमा)

आपके बच्चे को बारबार खांसी और हॉंफने की शिकायत हो लेकिन बुखार ना हो तो समझीये कि उसे बालदकमा है| बालकदमा १-५साल की उम्रतक हो सकता है| बालकदमा लंबे समयतक चलने और कम-अधिक होनेवाली बीमारी है| इसके लिये हमेशाके लिये नही लेकिन तात्कालिक उपाय है| माता-पिताको इस बीमारी व इसके इलाजकी सही जानकारी होनी चाहिये| तांकि वे बेकारकी चिन्ता, आशा-निराशा, डर तथा डॉक्टर बदलने जैसी बातोंसे दूर रहे|

* बालकदमा की वजह

अनुवंशिकता और ऍलर्जीके संयुक्त कारणोंसे बालकदमा होता है| वायूप्रदूषण से भी बालकदमा उभरता है| विषाणुजनित सर्दी-बुखारसे भी बालकदमा शुरू हो सकता है| बारीश या ठण्डे मौसममें बालकदमा अधिक होता है|

* रोगनिदान लक्षण व चिन्ह

  • बच्चेको सर्दी, छिंकोंकी तकलीफ शुरू होती है| इसके बाद सांस लेना मुश्कील होता है| सीनेमें आवाज आने लगती है|
  • सांसे उथली और तेज चलती है| नाक फूलने लगती है| बच्चा बडा हो तो छाती भरनेकी शिकायत करता है|
  • सांस छोडते हुए सींटी जैसी आवाज आती है|
  • बालकदमा बीच-बीचमें उभरता है| लेकिन इस बीच बच्चेकी तबीयत ठीक रहती है|
  • कम उम्र के बच्चे दमेकी तकलीफसे रोते है|
  • हॉंफनेसे पेट उपर-निचे होता है| तीव्र बीमारीके चलते होठों, हाथोंकी त्वचा नीलीसी दिखती है|
  • न्यूमोनियाकी तरह बालकदमा में शुरू से बुखार नही होता| लेकिन २-३ दिनों बाद बुखार हो सकता है|

* इलाज

पहली बार दमा होने पर बच्चे को तुरन्त डॉक्टरके पास ले जाएँ| डॉक्टर तुरन्त उपचार करके घर लेनेके लिये दवाई देंगे| सामान्यत: बालकदमें में इंजेक्शन या सलाईनकी आवश्यकता नही होती| श्वसनमार्गसे दवाई सही स्थान पर पहुँचती है| डॉक्टर मुँहसे लेनेकी दवाईयॉं देते है, जिसे श्वसनमार्ग खुला रखने में सहायता होती है| तात्कालिक उपचारोंमें तीन प्रकारकी दवाइयॉं है|

  • सौ डोसके फव्वारेवाला स्प्रे| इसमे से हरबार तयशुदा (निश्चित) मात्रामें दवाई निकलती है| फव्वारेका खटका दबाना और सांस लेना एकसाथ करना पडता है| बच्चों के लिये यह कठीन है| अत: स्पेसरका उपयोग किया जाता है| आपके डॉक्टर इन विषयमें आपको बतायेंगे| इस दवाका उपयोग घरमें भी कर सकते है|
  • रोटाहेलरमें दवाईके केपसुल में पावडर होती है| यह प्रकार अधिक सस्ता पडता है|
  • अस्पताल में नेब्युलायझर का प्रयोग करते है| घरमें उपचार लेना हो तो डॉक्टरको सूचित करना ठीक रहेगा|

* कुछ प्रशिक्षण

बालकदमा किस तत्त्वों के परीक्षण एलर्जीसे हुआ है इसके शोध हेतु परीक्षण करते है| छातीका क्षयरोग है या नही देखने के लिये छातीका एक्सरे आवश्यक है| बालकदमा ५ वर्षोपरान्तभी रहा हो तो फेफडोंका क्षमता परिक्षण करना पडता है| इसकेलिए पी.एफ. टेस्ट करते है|

* प्रतिबंध

ऋतुमानानुसार बालकदमा कम-अधिक हो सकता है| अत: शीत या वर्षाकाल में ध्यान रखे गरम कपडों का उपयोग अच्छा है| ऐसे बच्चों को सर्दी बुखार वाले व्यक्तियों से दूर रखे| एलर्जीके कारणों का पता लगने से बालकदमा टाला जा सकता है| वायूप्रदूषण से बालकदमा बढ रहा है| धूल प्रदूषण से ऐसे बच्चों को बचाना चाहिये| बालदमें के लक्षण, चिन्ह दिखतेही डाक्टर से मिले| अपने बच्चे की बीमारी की जानकारी बालवाडी शिक्षिका को दे| साथही प्रथमोपचार की दवाईयॉं और अपना फोन नंबर दे|

पाँच सालकी उम्रके बाद बालकदमा अक्सर बंद हो जाता है| लेकिन कुछको बादमेंभी दमा शुरू रहता है| श्वसनोपचार अर्थात अलग-अलग सरल प्राणायाम बच्चों को सिखाए| गुब्बारा फुलानेका व्यायाम भी अच्छा है| बच्चों को उनके खेल खेलने दिजिये| खेलने से श्वसनमार्ग खुला और निरोगी रहता है| लेकिन साथवाली बॅग में दवाइयॉं रखनी चाहिये| कईं विश्वस्तर के खिलाडी दमा होने पर भी सफल रहे है| बालकदमा के लिये झोला छाप डॉक्टरों की सलाह, उपचार नही ले| ये लोग अक्सर स्टेरॉइड दवाइयों का गलत उपयोग करते है|

* कनफेड़

कनफेड़ हवा में मौजूद वायरस से होने वाली बीमारी है जो 5 - 6 साल के बच्चों को पकड़ती है। इस उम्र में कनफेड़ आमतौर पर नुकसानदेह नहीं होता। इसमें गालों के पीछे की ओर स्थित लार ग्रंथियों में सूजन हो जाती है जिनमें दबाने से दर्द भी होता है। एक बार संक्रमण होने पर जीवन भर के लिए प्रतिरक्षा पैदा हो जाती है। अगर यह संक्रमण बचपन में न हो तो यह कभी कभी बड़ी उम्र में हो सकता है। व्यस्कों में कनफेड़ से डिंबवाही ग्रंथियों या वृषण पर असर हो सकता है। इसलिए बड़ी उम्र में होने वाला कनफेड़ खतरनाक होता है। कनफेड़ से होने वाले डिंबवाही ग्रंथियों या वृषण के शोथ से बन्ध्यता हो सकती है। सही उम्र में इसका टीका लगा देना ही सबसे उपयोगी तरीका है। यह एम.एम.आर. टीके के रूप में मिलता है (यानि खसरे, कनफेड़ और रूबैला) के टीके के रूप में। बच्चों में कनफेड़ के इलाज के लिए पैरासिटेमॉल दी जाती है। इससे दर्द और बुखार कम हो जाता है। व्यस्कों को कनफेड़ होने पर डॉक्टर के पास भेजा जाना ही ठीक रहता है।

* अनाज वाले घोल

कई अध्ययनों से पता चला है कि ओ आर एस घोल में 20 ग्राम ग्लूकोस की जगह 40 ग्राम पके हुए चावल का पानी इस्तेमाल करना बेहतर रहता है क्योंकि यह ज़्यादा आसानी से पच जाता है और इससे कम टट्टी आती है। मगर यह सिर्फ व्यस्कों के लिए या हैजा के शिकार बच्चों के लिए ठीक है। अगर किसी बच्चे को किसी भी और तरह के गंभीर दस्त हों तो यह ठीक नहीं रहता।अनाज वाले तरल पदार्थ जैसे चावल का पानी निर्जलीकरण से बचाव के लिए उपयोगी घरेलू उपचार है। अगर उनमें नमक पड़ा हो तो वो काफी उपयोगी रहते हैं। जिन जगहों पर अनाज के दलिए का इस्तेमाल होता है वहॉं पर इनको सामान्य आहार के रूप में देते रहना चाहिए। दलिया देना बंद न करें। ऐसा करने से बच्चे में कैलोरी की मात्रा पहुँचनी कम हो जाएगी।

* मुँह से पानी की कमी पूरी करने के दस नियम

  • ओ आर एस के पैकेटों में चीनी और नमक का ठीक अनुपात होता है। परन्तु घर में बने घोलों को बनाना और इस्तेमाल करना आसान होता है।
  • उल्टी होने पर भी ओ आर टी देना जारी रखें क्योंकि दस्त के साथ अकसर अमाश्य शोथ हो जाता है। और ओ आर एस से इसको ठीक करने में मदद मिलती है। उल्टी अकसर अमाश्य शोथ के कारण होती है।
  • जहॉं तक संभव हो साफ पानी का इस्तेमाल करें। इसे उबालने और ठंडा करने में समय बर्बाद न करें। घर में उपलब्ध आम पीने का पानी इस्तेमाल करें।
  • एक बार में 4 - 6 घंटों के लिए पर्याप्त (करीब 200 मिली लीटर) ओ आर एस बना के रख लें। इसके बाद फिर से ताज़ा ओ आर एस बनाएं। ऐसा करना इसलिए ज़रूरी है ताकि देर तक रखने से घोल में बैक्टीरिया न बढ़ जाएं।
  • ओ आर एस चम्मच से धीरे धीरे पिलाएं ताकि वो शरीर में अवशोषित हो जाए। बहुत सारा ओ आर एस देने से उल्टी हो सकती है।
  • एक साल से कम के बच्चे के लिए 24 घंटों में करीब एक लिटर ओ आर टी काफी होता है। हल्के से बीच के निर्जलीकरण में पहले 4 घंटों में करीब 75 मिली लीटर ओ आर एक प्रति किलोग्राम शरीर के वजन के हिसाब से दें।
  • हर बार की टट्टी में हुई पानी की कमी की भरपाई के लिए 100 मिली लीटर ओ आर एस दिया जाना चाहिए।
  • बच्चे को धैर्य से और थोड़ा जर्बदस्ती तरल पदार्थ दें। दस्त के कारण बच्चा चिड़चिड़ा हो जाता है। जब तक कि निर्जलीकरण के लक्षण ठीक न हो जाएं ओ आर एस देते रहें।
  • एक साल तक के बच्चे के लिए ओ आर एस को उतने ही पानी से हल्का करेंं। नहीं तो बारी बारी से ओ आर एस या सादा पानी बारी बारी से दें। ओ आर एस का घोल थोड़ा ज़्यादा नमकीन होता है और नवजात बच्चों के लिए हानिकारक होता है।

गंभीर निर्जलीकरण में अंत: शिरा द्रव न दिए जाने से से मौत भी हो सकती है। ऐसे में केवल ओ आर एस काफी नहीं होता।ओ आर एस से दस्त नहीं रुकते। इससे केवल निर्जलीकरण रोका जा सकता है। अगर बच्चा ठीक से दूध पी रहा है, खेल रहा है और निर्जलीकरण ठीक होता जा रहा है तो मॉं को समझाएं कि घबराने की कोई ज़रूरत नहीं है।

* अधिक पानी

अधिक पानी होने से आँखें मोटी हो जाती हैं। ध्यान से देखें कि कहीं ऐसा तो नहीं हो रहा है। और तब तक ओ आर एस देना रोक दें जब तक यह चिन्ह गायब न हो जाए। अगर बच्चा पेशाब न कर रहा हो तो इससे शरीर में पानी इकट्ठा हो जाता है। अगर बच्चा ओ आर एक न ले तो अंत: शिरा द्रव या पेट में नली डाल कर आहार दिया जाना ज़रूरी हो सकता है। अगर आप को यह करना न आता हो तो बच्चे को तुरंत पास के अस्पताल ले जाएं।

* आहार देते रहना

दस्त से होने वाली सबसे आम समस्या कुपोषण की होती है। ऐेसा इसलिए क्योकि खाना आंत में इतनी देर नहीं रह पाता कि वो ठीक से अवशोषित हो सके। इसके अलावा दस्त के डर से अकसर मांएं बच्चों को दूध पिलाना बंद कर देती हैं। इस समय में आसानी से पचने वाले तरल पदार्थ देते रहने चाहिए। स्तनपान और ऊपर का दूध भी पिलाते रहना चाहिए।

* टट्टी रोकने की दवाएं न दें

दस्त में आंतों को निष्क्रिय करने या धीमा करने वाली दवाएं देना नुकसानदेह हो सकता है। एक तो इससे मल इकट्ठा हो जाता है जिसको बाहर फैंका जाना ज़रूरी होता है। पेट में ऐंठन को ठीक करने वाली दवाओं (आंतों को धीमा करने वाली) के बहुत अधिक मात्रा में दिए जाने से पेट के आधमान की समस्या हो जाती है। ऐसा आंतों के लकवे से होता है और इससे बच्चे की मौत भी हो सकती है।

* इन्जैक्शन न दें

ज़्यादातर दस्तों में इन्जैक्शन से कोई फायदा नहीं होता। उल्टा अगर दस्त पोलियो के वायरस से हुआ हो तो इन्जैक्शन से लकवा हो जाने का खतरा होता है। बैक्टीरिया से होने वाली पेचिश के केवल कुछ मामलों में इन्जैक्शन देना ज़रूरी होता है। इसका फैसला डॉक्टर को करने दें।

* आयुर्वेदानुसार दस्त में हल्का आहार

आयुर्वेदानुसार दस्त में हल्का आहार देना चाहिये| अत: मूँग, चावल, राजगीरा खिलाना अच्छा है| गाय के घी का प्रयोग करे| इससे बालकको शक्ती आती है| खीर आसानी से हजम हो जाती है| इसमे खुब सारा गुड डालिये|

* पेचिश का इलाज

अगर मल में खून या श्लेष्मा हो तो यह पेचिश है और इसके इलाज के लिए पॉंच दिन तक कोट्रीमोक्साज़ोल या नालिडिक्सिक ऐसिड दें।

* विशेष सूचना

  • विषाणू अतिसार में उल्टी और हल्का बुखार हो सकता है| अत: इसकी चिंता न करे|
  • अतिसार में आहार की दृष्टी से सामान्य शक्कर की अपेक्षा ग्लुकोज-शक्कर अधिक अच्छी है|
  • घरेलू द्रवपदार्थ सलाईन से बिलकुल कम नहीं होते| साथ ही सस्ते भी होते है|
  • सलाईन याने सिर्फ पानी| तथा शक्कर व नमक होता है| नस द्वारा सलाईन की अपेक्षा मुँहसे द्रवपदार्थ शीघ्र दे सकते है| अतिशुष्कता होनेपर ही सलाईन की आवश्यकता होती है|
  • त्वचा का सूखापन जॉंचने हेतू बच्चे के पेट की त्वचा अँगुली की चिमटीमें पकडकर छोडिये| निरोगी अवस्था में त्वचाकी सिलवट पहले जैसी सपाट हो जाएगी| शुष्कता होनेपर त्वचा की सिलवटे धीरे धीरे ठीक होती है|
  • उल्टियॉं होने पर भी १० मिनिट रुककर द्रवपदार्थ देते रहिये|
  • रक्तश्लेष्मा (आंव) हो तो जिवाणुरोधक अर्थात प्रतिजैविक दवाइयॉं देनी पडती है|
  • दस्त बडे हो या हर तीन घंटेमें एक से अधिक दस्त हो तो बिमारी की गंभीरता को समझे| ऐसे में अस्पताल जाना ठीक रहेगा|

बचपन में होने वाला तपेदिक

श्वसन तंत्र वाले अध्याय में आपको तपेदिक के बारे में और जानकारी मिलेगी। इसका भी जल्दी निदान किया जाना, चिकित्सीय मदद हासिल करना और बाद में देखभाल महत्वपूर्ण है।

* लक्षण

  • किसी बच्चे का वजन लगातार कम होता जाना (हफ्तों महीनों के अंतराल में), या वजन न बढ़ना या उसका ठीक से खाना न खाना।
  • बच्चे का लगातार बीमार रहना ।
  • खॉंसी और छाती में से आवाज़ आना।
  • सामान्य इलाज के बावजूद बुखार न जाना।
  • बच्चे का निमोनिया, काली खॉंसी या खसरे से न उबर पाना।
  • लसिका ग्रंथियों में दर्द रहित सूजन।
  • आँखों का चिरकारी रूप से लाल रहना (अजलीय नेत्रश्लेष्मा शोथ)
  • मस्तिष्क आवरण शोथ - गर्दन अकड़ना, बुखार, व्यवहार में बदलाव।
  • कूल्हे या पीठ में लगातार दर्द रहना। ध्यान रहे कि बच्चों में तपेदिक होना भी उतना हीे आम है जितना कि बड़ों में। सतर्क रहें और ऐसे कोई भी लक्षण दिखने पर बच्चे को स्वास्थ्य केन्द्र ले जाएं।

* खसरा

खसरा हवा में मौजूद वायरस से बचपन में होने वाला संक्रमण है। प्रमुख रूप से इससे श्वसन तंत्र पर असर पड़ता है पर त्वचा और श्लेष्मा झिल्ली पर भी चकत्ते उभर आते हैं। खसरे में आम जुकाम, खॉंसी, बुखार और साथ में चकत्ते होते हैं। स्वस्थ बच्चे खसरे से बिना किसी जटिलता के उबर जाते हैं। परन्तु कुपोषित बच्चों या फिर उन बच्चों में जिनकी प्रतिरक्षा क्षमता कमज़ोर है, खसरे से कई जरह की जटिलताएं होने की संभावना रहती है। कमज़ोर बच्चे खसरे से बीमार हो जाते हैं और कभी कभी मौत के शिकार भी। इसलिए टीका लगवाया जाना बहुत ही महत्वपूर्ण है।

* खसरे का मौसम

खसरा आमतौर पर महारोग की तरह हर 2 या 3 साल बाद होता है। परन्तु इसके अलावा बीच में भी खसरे के मामले देखने को मिल जाते हैं। आमतौर पर सर्दियों के अंत में और गर्मियॉं शुरु होने के बीच खसरा होने की संभावना ज़्यादा होती है। खसरे के टीके से इसकी बीमारी अब काफी कम दिखाई देती है|

* फैलना और विकृति विज्ञान

संक्रमण फेफड़ों और खून तक पहुँच जाता है। श्वसन तंत्र के ऊपरी भाग में हल्का संक्रमण होता है। यह वो समय होता है जब चकत्ते अभी उभरे नहीं होते, परन्तु इस समय में संक्रमण एक बच्चे से दूसरे में पहुँच सकता है।

* लक्षण

वायरस के शरीर में पहुँचने के करीब 8 से 10 दिनों के बाद ही चकत्ते उभरते हैं। चकत्ते खून की सूक्ष्म नलियों के आसपास में शोथ के कारण होते हैं। ये सारे असर कुपोषित बच्चों में ज़्यादा गंभीर होते हैं। कुछ बच्चों में मस्तिष्क शोथ हो जाने का खतरा भी होता है। चिकित्सीय रूप में खसरे का सबसे महत्वपूर्ण लक्षण है चकत्ते होना। परन्तु गालों के अंदर सरसों जैसे सफेद चिन्ह भी खसरा होने का विश्वसनीय सूचक हैं। इन्हें कोपलिक धब्बे कहते हैं। यह खसरे का एक खास लक्षण है। कोपलिक धब्बे 1 से 2 दिनों तक रहते हैं। आप मुँह के अंदर इनकी जांच कर सकते हैं।

* बुखार और चकत्ते

बुखार 3 से 4 दिनों तक चलता है। बच्चे की नाक बहती है और आँखों में से पानी आता रहता है। उसके बाद कान के पीछे, चेहरे पर और फिर गर्दन, पेट, हाथ पैर पर चकत्ते उभरने लगते हैं। खसरे के चकत्ते लाल रंग के होते हैं। चकत्ते एक दूसरे में मिल जाते हैं। इसके विपरीत छोटी माता में होने वाले चकत्तों में पीप और द्रव होता है। कभी कभी बीमारी चकत्ते होने के बाद ठीक हो जाती है। चकत्ते 3 - 4 दिनों तक रहते हैं और उसके बाद गायब हो जाते हैं और उनकी जगह पीले काले निशान रह जाते हैं। इन जगहों पर से त्वचा निकल जाती हैं और कुछ दिनों तक निशान बने रहते हैं।

भूख न लगना खसरे का एक आम लक्षण है। भूख न लगने से कुपोषण हो जाने का खतरा हो जाता है। कभी कभी हमें लसिका ग्रंथियों में सूजन (गिल्टियॉं) दिखाई देती है। ठीक उसी तरह से जैसे कि कई और वायरस से होने वाली बीमारियों में होती है। अगर खसरे से कोई जटिलता न हो तो यह करीब एक हफ्ते में ठीक हो जाता है।

* जटिलताएं

खसरे से निमोनिया, कान का संक्रमण, तपेदिक, मस्तिष्क शोथ और कभी कभी दिल का शोथ हो जाने की संभावना होती है। कुपोषित बच्चों में खसरे से होने वाली जटिलताओं की संभावना ज़्यादा होती है। दूसरी ओर कुपोषण अपने आप में बहुत ही आम समस्या है और इससे भी बच्चे को खसरा होने का खतरा होता है। खसरे से होने वाली मौतें असल में खसरे से हुए निमोनिया से होती हैं।

* इलाज और बचाव

खसरे के वायरस से बचाव का कोई रास्ता नहीं है। पैरासिटेमॉल से बुखार कम किया जा सकता है। खसरे के कारण हो जाने वाला निमोनिया काफी खतरनाक होता है। जल्दी से जल्दी ऍमोक्सीसीलीन से इलाज शुरु कर दें। अन्य संक्रमणों से बचाव के लिए विटामिन ए भी दें। कुपोषण से बचाव के लिए आहार देते रहना ज़रूरी है। खसरे से बचाव का सबसे सही तरीका है बच्चे को खसरे को टीका लगवाना। संक्रमण से बचाव के लिए बच्चे को भीड़ वाली जगहों में ले जाने से बचें।

खसरे जैसी अन्य बीमारियॉं

कुछ और वायरस से होने वाली बीमारियॉं खसरे के हल्के हमले जैसी होती हैं। खसरे के टीके से इन बीमारियों से बचाव नहीं होता। इसलिए अगर बच्चे को ऐसी कोई बीमारी हो जाए तो खसरे के टीके के असरकारी होने के बारे में शक नहीं करिए। इन बीमारियों में कोई जटिलताएं नहीं होतीं। पैरासिटेमॉल से बुखार का इलाज किया जा सकता है।

* होम्योपैथिक और टिशु रेमेडी

होम्योपैथिक उपचार भी अपनाया जा सकता है। आरसेनिकम, बैलाडोना, ब्रायोनिआ, फैरम फॉस, कामोमिला, ड्रोसेरा, मरकरी सोल, पल्सेटिला, रूस टॉक्स, सिलीसिआ, स्ट्रेमोनिअम, सल्फर आदि में से दवा चुनें। टिशु रेमेडी के लिए काल फॉस, फैरम फॉस, काली मूर, काली सुल्फ या सिलिका में से दवा चुन सकते हैं।

* रूबैला (जर्मन मीज़ल)

यह एक हल्की बीमारी है। इसमें भी बुुखार और चकत्ते होते हैं और इस तरह से यह खसरे से मिलती जुलती है। यह भी वायरस सेे होने वाला संक्रमण है। यह संक्रमण 5 से 9 साल के बीच के बच्चों को होता है। चकत्ते होने के पहले और बाद के हफ्तों में यह बीमारी संक्रामक होती है। एक बार छूत होने से ज़िदगी भर के लिए प्रतिरक्षा पैदा हो जाती है।

* लक्षण

संक्रमण के 2 से 3 हफ्तों बाद ही लक्षण दिखाई देने शुरु होते हैं। सबसे पहले आम जुकाम होता है। कभी कभी चकत्ते ठीक से नहीं उभरते। कभी कभी ये केवल 1 से 2 दिनों तक ही रहते हैं। रूबैला के चकत्ते चेहरे, छाती और पेट पर होते हैं। एक आम लक्षण है गर्दन पर गांठें होना, ये गांठें चकत्ते होने के एक हफ्ते के अंदर होती हैं। ये गाठें चकत्ते ठीक होने के बाद 2 से 3 हफ्तों तक रह सकती हैं। गर्दन और कानोंं के पीछे की लसिका ग्रंथियॉं भी इनसे प्रभावित हो सकती हैं। कभी कभी हड्डियों और तंत्रिकाओं में दर्द भी होता है।

गर्भवती महिलाओं में रूबैल काफी खतरनाक होता है। वायरस नाड़ के द्वारा शिशु को नुकसान पहुँचा सकता है। जन्मजात शिशु को मोतियाबिंद, दिल की बीमारियॉं, बहरापन, दृष्टिपटल की बीमारियॉं, खून बहने की प्रवृति, सबलवाय, मानसिक विकास में कम, हड्डियों में गड़बड़ियॉं औश्र तंत्रिका तंत्र में गड़बड़ियॉं आदि जटिलताएं संभव हैं। इसलिए गर्भवती महिलाओं को रूबैला से बचाना बहुत ज़रूरी होता है। अगर किसी गर्भवती महिला को यह संक्रमण हो जाए तो उसे गर्भपात की सलाह दी जानी चाहिए। लेकिन अच्छा होगा की हरेक बच्चे को एम.एम.आर. का टीका लगे|

* बचाव

एम. एम. आर. टीके से रूबैला से बचाव के लिए एक अव्यव भी डाला जाता है। पर यह मंहंगा होता है और अभी तक मॉं बच्चा स्वास्थ्य कार्यक्रम का हिस्सा नहीं बन पाया है।

* छोटी माता (चिकन पॉक्स)

छोटी माता भी एक वायरस से होने वाली बीमारी है जो आमतौर पर बच्चों को ही होती है। एक बार बीमारी होने से पैदा हुई प्रतिरक्षा जीवन भर रहती है। हाल में इसके लिए टीका भी बनने लगा है। बचपन में छोटी माता से कोई भी खराब असर नहीं होता और यह खसरे के मुकाबले कम परेशान करने वाला संक्रमण है।

अगर बचपन में छोटी माता न हो तो बड़ी उम्र में यह संक्रमण होने से काफी नुकसान हो सकता है। कभी कभी संक्रमण के बाद छोटी माता का वायरस तंत्रिकाओं की जड़ों में निष्क्रिय पड़ा रहता है। कभी कभी यह हर्पीज़ ज़ोस्टर के रूप में उभर आता है। यह त्वचा के ऊपर तंत्रिकाओं की जड़ों पर एक श्रंखला के रूप में उभरता है।

* लक्षण

छोटी माता का संक्रमण हवा में मौजूद एक वायरस से होता है। वायरस के शरीर में घुसने के दो हफ्तों बाद ही लक्षण उभरने शुरु होते हैं। बीमारी ठंड लगने और कंपकंपी आने से शुरु होती है जो कि 2 से 3 दिनों तक चलता है। बुखार के कम होने के बाद चकत्ते उभरते हैं। ये चकत्ते चेहरे या हाथ पैर की तुलना में छाती और पेट पर ज़्यादा होते हैं। ये दाने या चकत्ते 2 से 4 दिनों के अंदर अंदर झुंडों में निकलते हैं। शुरु में ये लाल रंग के होते हैं और फिर पीप से भर जाते हैं।

4 से 5 दिनों के अंदर अंदर निरोगण शुरु हो जाता है। दाने सूख जाते हैं उन पर पपड़ी जम जाती है और निशान भी पूरी तरह से मिट जाता है। पपड़ी जमने की स्थिति तक आते आते संक्रमण लगभग ठीक हो चुका होता है और इस स्थिति तक यह असंक्रामक भी होता है। बहुत ही कभी कभी छोटी माता से निमोनिया और मस्तिष्क शोथ हो जाते हैं। ऐसा उन बच्चों में होता है जिनका प्रतिरक्षा तंत्र कमज़ोर हो।

* इलाज

ज़्यादातर मामलों में पैरासिटेमॉल ही काफी होती है। परन्तु एसायक्लोवीर से छोटी माता और हर्पीज़ बहुत जल्दी ठीक हो जाते हैं। यह उन बच्चों में उपयोगी है जिनकी प्रतिरक्षा क्षमता कमज़ोर हो। 40 से 50 मिली ग्राम दवा दिन में 4 से 5 बार, पॉंच भागों में बांट कर 7 दिनों तक दी जानी चाहिए। इलाज काफी मंहंगा होता है। परन्तु इससे बहुत तेज़ी से फायदा होता है क्योंकि चकत्ते एकदम से ठीक हो जाते हैं। भारत में अब छोटी माता का टीका उपलब्ध है पर यह बहुत मंहंगा होता है।

* दोहद

पीका मिट्टी खाने की इच्छा को कहते हैं। दीवारों की सफेदी, राख, चूना और चॉक आदि खाने की इच्छा भी होती है। पीका लोहे की कमी, कैलशियम या ज़िंक की कमी, कुपोषण या कभी कभी मानसिक आभाव के कारण होता है। पेट में कीड़े होना भी पीका का एक कारण हो सकता है। पीका 6 से 7 महीनों की उम्र में होता है और दो साल तक चल सकता है। गर्भवती महिलाओं को भी ऐसी इच्छा हो सकती है। पीका खुद कीड़ों के संक्रमण का ज़रिया होता है।

* इलाज

इलाज में पोषण में सुधार, बाहर से कैल्शियम लोहा आदि देना शामिल होते हैं। अगर दो साल की उम्र के बाद भी पीका चलता रहे तो डॉक्टर को दिखाएं। तब यह इन्जैक्शनों से ठीक हो सकता है।

 

स्त्रोत: भारत स्वास्थ्य

अंतिम बार संशोधित : 10/4/2020



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