अनुसंधान स्पष्ट करते हैं कि शिशु आद्तीकरण – अनादतीकरण अधिगम द्वारा विशिष्ट दृश्यों, ध्वनियों एवं गंधों में विभेदन करना सीख लेते हैं।क्षमता आयु वृद्धि के साथ उत्तरोतर विकसित होती है ।अनुकरण की यह क्षमता शिशु एवं माता - पिता के बीच धनात्मक भाव विकसित कराने में सहायक होती है। गर्भकाल के 37 वें सप्ताह या उससे कम अवधि में जन्में बच्चे विकास की दृष्टि से अपरिपक्व होते हैं। अपरिपक्व शिशु के जन्म का कारण जुड़वें, गर्भस्थ शिशु, गर्भस्थ शिशु में असमानताएं, माँ द्वारा धूम्रपान अथवा नशीले पदार्थों का सेवन, कुपोषण, बीमारियाँ यथा डाइविटिज, पोलियो आदि भी हो सकता है। ऐसे बच्चों में बीमारियां, निम्न बौद्धिक स्तर तथा व्यवहारिक दोष पाये जाते हैं।
जन्म से ही मानव मस्तिष्क नवीनता के प्रति उन्मुख होता है। बार- बार एक ही उद्दीपन की प्राप्ति से अनुक्रिया क्षमता में कमी आती, इसे आद्तिकरण कहा जाता है। परंतु जैसे ही नया उद्दीपक सामने आता है, न्यूनताया परिवेश में परिवर्तन की अनुभूति होती है जिससे अनुक्रियाशिलता में एकाएक वृद्धि हो जाती है, इसे अनादतीकरण कहा जाता है ।अतएव आदतीकरण एवं अनादतीकरण प्रक्रिया शिशु के ध्यान को परिवेश में निहित उद्दीपकों के प्रति उन्मुख कराते हैं ।
अनुसंधान स्पष्ट करते हैं कि शिशु आद्तिकरण – अनादतीकरण अधिगम द्वारा विशिष्ट दृश्यों, ध्वनियों एवं गंध में विभेदन करना सीख लेते हैं।चाक्षुष उद्दीपकों की स्मृति 6 दिन के शिशुओं में पायी गयी (वर्नर एवं सिक्यूलैंड, 1978)।क्षमता आयु वृद्धि के साथ उत्तरोतर विकसित होती है। यद्यपि अनादतीकरण से चाक्षुष उद्दीपकों के प्रति आरम्भिक स्मृति विकास का स्पष्ट स्वरूप तो नहीं मिल पाता तथापि इसके द्वारा परवर्ती संज्ञानात्मक विकास के सम्बद्ध में पूर्व कथन अवश्य किया जा सकता हैं (रोज एवं अन्य, 1988; 1992)।
विस्तृत अनुसंधानों से पुष्टि होती है कि शिशुओं में वयस्कों के व्यवहारों की नकल करने की क्षमता पायी जाती है ( वेली, 1969; पियाजे, 1945/51)। दो दिन से लेकर कई सप्ताह के शिशुओं में मुखाकृत्यों के अनुकरण की क्षमता के संदर्भ में परस्पर विरोधी परिणाम प्राप्त हुए हैं।नवजात शिशुओं के व्यवहारों का जब 2-3 माह बाद मापन किया गया तब उनकी इस क्षमता में कमी पायी गयी। अत: इन्हें नवजात की अनुकरण क्षमता न कह कर उसमें नीहित निश्चित क्रिया संरूप कहा जा सकता है।यह विशिष्ट उद्दीपक के प्रति जन्मजात एवं स्वचालित अनुक्रिया के रूप में विद्यमान रहता है। इसलिए आयु वृद्धि के साथ ये अनैच्छिक अनूक्रियायें कम होती जाती हैं।
अन्य अनुसंधानों से शिशु में अनुकरण की क्षमता की पुष्टि होती है (मेट्जाफ, मेट्जाफ एवं मूर, 1989; 92)।अनुकरण की यह क्षमता शिशु एवं माता- पिता के बीच धनात्मक भाव विकसित कराने में सहायक होती है।
गर्भकाल के 37 वें सप्ताह या उससे कम अवधि में जन्में बच्चे विकास की दृष्टि से अपरिपक्व होते हैं। इसके अतिरिक्त सामान्य से कम भार वाले (5.5 पौंड से कम) नवजात भी अपरिपक्व शिशु कहलाते हैं। अपरिपक्व शिशु के जन्म का कारण जुड़वें, गर्भस्थ शिशु, गर्भस्थ शिशु में असमानताएं, माँ द्वारा धूम्रपान अथवा नशीले पदार्थों का सेवन, कुपोषण, बीमारियाँ यथा डाइविटीज, पोलियो आदि भी हो सकता है। ऐसे बच्चों में बीमारियां, निम्न बौद्धिक स्तर तथा व्यवहारिक दोष पाये जाते हैं (हार्पर एवं अन्य, 1959; क्नोब्लास एवं अन्य, 1959)।इनमें अधिगम दोष, अवधान- व्यवधान तथा अतिसक्रियता पायी जाती है।ऐसे शिशुओं के साथ माता- पिता के भावात्मक संबंधो के विकास में कठिनाई होती है।चूंकि ऐसे शिशु गहन चिकित्सकीय इकाई में निश्चित तापमान पर रखे जाते हैं अत: अपरिपक्व शिशु के साथ माँ के भावात्मक लगाव की प्रक्रिया बाधित हो जाती है।कालान्तर में ये शिशु कम आकर्षक लगने लगते हैं, तथा ऐसे बच्चे ही बाल दुर्व्यवहार एवं निरादर के शिकार होते हैं।
कभी- कभी रात को सोये शिशु को अचानक (चुपचाप) मृत्यु हो जाती है, इसे अचानक शिशु मृत्यु सिंड्रोम कहा जाता है।यह घटना 1 माह से 12 माह के शिशुओं के साथ पायी जाती है।माता-पिता के लिए शिशु की अकारण या अचानक मृत्यु अत्यंत दु:ख दायी होती है। इसके कारण क्या हो सकते हैं ? यह शोध का विषय है एवं शोधकर्ता इसे समझने का प्रयास कर रहे हैं भले ही इसके कारण पूर्णत: स्पष्ट नहीं हैं फिर भी अपरिपक्व शिशु जन्म से संबंधित असमान्यताएं प्रमुख कारण हो सकती हैं।इसके अतिरिक्त असामान्य हृदय गति, श्वसन में व्यवधान, असामान्य निद्रा तथा श्वसन में संक्रमण आदि प्रमुख कारण हो सकते हैं (वक एवं अन्य, 1989; लियासिट एवं अन्य 1979; रोनान एवं अन्य, 1987)। चूंकि मस्तिष्क में प्रकार्यों की समस्या के कारण शिशु जन्मजात संकट के प्रति सतर्क नहीं हो पाते या अक्षम होते हैं अत: 4 से 5 माह के शिशुओं में ऐसी मृत्यु का एक कारण ऐच्छिक क्रियाओं की अभिव्यक्ति में अक्षमता हो सकता है अथार्त निद्रा में श्वसन संबंधी कठिनाई महसूस होने पर वे सही ढंग से लेटने या रोने जैसी अनूक्रियायें नही कर पाते।इसकी रोकथाम के लिए, किए गए अनूसंधानों से पता चलता है कि माताओं में शिशोओं की तुलना में अचानक शिशु मृत्यु सिंड्रोम की घटना तीन गुनी पाई गयी। गर्भकाल में भी नशीले पदार्थ शिशु के विकसित होते मस्तिष्क की केन्द्रीय स्नायु संस्थान की क्रियाओं को बाधित करते हैं (कैंडल एवं गेन्स, 1991) जो शिशु पेट के बल सोते हैं और जिन्हें कंबल या गर्म कपड़ों में नहीं लपेटा जाता, उनमें भी इस दुर्घटना के संभवना अधिक पायी जाती है।परंतु सावधानी और देख – रेख से इस समस्या से छूटकारा पाया जा सकता है।वस्तुत: इस सिंड्रोम के कारणों की स्पष्ट व्याख्या अपूर्ण है अत: इस विषय पर विस्तृत अनूसंधान की आवश्यकता है।
स्रोत: जेवियर समाज सेवा संस्थान, राँची
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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