चेष्टाएँ/स्वचलित क्रियाएँ, वे अनूक्रियायें हैं जो विशिष्ट उद्दीपन के प्रति घटित होती हैं। ये चेष्टाएं, नवजात शिशु में संगठित रूप पायी जाती हैं। माँ शिशु के गाल पर धीरे से स्पर्श करती है रो शिशु अपना सर माँ की तरफ मोड़ लेता है, ऐसी अनेक क्रियाएँ प्रदर्शित करता है। श्वसन एवं चूसने की क्रिया की भांति अन्य चेष्टाएँ भी शिशु की जीवन एवं सुरक्षा की दृष्टि से सर्वथा अनुकूल होती है।
माँ से दूध पीने की क्रियायें, चूसना, तैरना इत्यादि चेष्टायें शिशु की आवश्यकताओं की पूर्ति के अनुकूल ही घटित होती है। इसी प्रकार शिशु की कुछ चेष्टाएँ उसकी रक्षा में भी सहायक होती हैं। जैसे – पलक झपकने की क्रिया अति उद्दीपन से आँखों की रक्षा करती है। शिशु की कुछ चेष्टायें माता/पीर एवं उसके बीच सहज धनात्मक अंत: क्रिया स्थापित करने में सहायक होती हैं।
अधिकांश चेष्टायें शिशु में 6 माहि की आयु तक समाप्त होने लगती हैं क्योंकि मस्तिष्क की परिक्वता के साथ व्यवहार पर नियंत्रण भी विकसित होने लगता है (टाबेना, 1984)। ऐच्छिक क्रियाओं के विकास में अनैच्छिक क्रियाओं की भूमिका को कुछ शोधकर्ताओं ने अस्वीकार किया है। क्या ये चेष्टाएँ ऐच्छिक कौशलों के आरम्भिक विकास में में इनका महत्व होता है? ऐसे अनेक प्रश्न उपस्थित होते हैं। प्राप्त तथ्यों से या स्पष्ट होता है कि इन चेष्टाओं से जटिल उद्देश्य मूलक क्रियाओं को आधार मिलता है (टावेन, 1978) परंतु कुछ चेष्टायें अनैऐच्छिक रूप से घटित होती हैं। जैसे गर्दन घुमाना, इन्हें उद्देश्यपूर्ण क्रियाओं के साथ संबंध किया जा सकता है। कुछ चेष्टाएँ यद्यपि कालान्तर में समाप्त हो जाती है तथापि ये अगले गत्यात्मक विकास से संबंध होती हैं। जिलेजा एवं सहयोगियों (1972) ने शिशूओं को प्रारंभिक दो महीनों तक, पदक्रम का उद्दीपन प्रदान किया। परिणामों में पाया गया कि ये शिशु अन्य बच्चों की तुलना में शीघ्र चलने लगे थे। इन उद्दीपनों की भूमिका गत्यात्मक विकास में किस प्रकार की होती है? इस पर जिलेजा (1983) का मानना है कि पदक्रम के अभ्यास द्वारा कार्टेक्स का वह क्षेत्र जिससे गति नियंत्रित होती है, तेजी से विकसित होता है। परंतु थेलेन (1983) ने ऐसे विकास में अन्य मध्यवर्ती कारकों की भूमिका को रेखांकित किया है।
नवजात शिशु रूदन द्वारा माता- पिता तक अपनी आवश्यकताएं, उद्दीपन एवं काष्ट/ पीड़ा आकी सम्प्रेषित करता है। जन्म से प्रथम सप्ताह तक शिशु को चुप कराने में कठिनाई होती है परन्तु धीरे- धीरे माता – पिता, इस संकेत द्वारा शिशु की आवश्यकता को समझने लगते हैं। रूदन सिसकी ले लेकर चीख के रूप में व्यक्त हो सकता है (गस्टापसन एवं हेरिस, 1990)। शारीरिक आवश्यकतायें विशेषत: भूख के कारण, शिशु रूदन करता हैं। सक्रिय अवस्था में भी वह रंगीन खिलौनों आदि को देखकर सामान्य ढंग से अनुक्रिया करता है (टेनिस एवं अन्य, 1972)। अन्य बच्चों के रोने की आवाज पर भी शिशु रोने लगता है परन्तु जब उसे उसके रूदन का टेपरिकार्ड सुनाया गया तो उसने वैसे दु:खदायी भाव (रूदन) नहीं प्रदर्शित किये अत: इनका शि विभेदन शिशु ने कैसे कर लिया यह समझ सकना कठिन है (हाफमैन, 1988; मार्टिन एवं क्लार्क, 1982)।
रूदन के प्रति वयस्कों की अनुक्रिया का स्वरूप भी शिशु के लिए अनुकूलन स्थापना हेतु महात्वपूर्ण होता है। अधिक समय तक रोता हुआ शिशु थक जाता है। रूदन के अन्य कारण जैसे गीले डाइपर, अपच अथवा शिशु की गोद में जाने की इच्छा आदि भी हो सकती हैं। इन अनूकूल्नात्मक अनूक्रियाओं से शिशु ही आराम मिल जाता है।
शिशु को चुप कराने के पर्याप्त उपाय के बावजूद, यदि वे चुप नहीं होते तो विविध तरीकों का अनुप्रयोग किया जाता है ।
शिशु का रूदन सुनकर यथा शीघ्र माता – पिता उसकी सहायता (देख रेख) के लिए तत्पर हो जाते हैं। क्या माता- पिता की यह अनुक्रिया बच्चे में आत्मविश्वास एवं भविष्य की आवश्यकता पूर्ति के प्रति आश्वस्तता का विकास कराती है या बच्चे में रूदन प्रवृत्ति को समृद्ध बनाती हैं। एक अध्ययन में सिल्विया वेल एवं मैरी एंसवर्थ (1972) में दर्शाया है की ये माताएं जो रूदन पर अनुक्रिया नहीं करतीं या देर से अनुक्रिया करती हैं, उन बच्चों में अपनी आवश्यकता व्यक्त करें के विकल्प सीमित पाये गए इसकी व्याख्या वासस्थालीपरक सिद्धांत के आधार पे किया गया है । माँ का व्यवहार बच्चे में परिवेश के साथ अनुकूलन क्षमता को विकसित कराने में सहायक होता है। इस प्रकार दोनों के बीच धनात्मक संबंध निर्मित होता है। इस सिद्धांत के विपरीत व्यवहारवादी दृष्टिकोण के अनुसार, रूदन पर शीघ्रता एवं बारंबारता से अनुक्रिया करने के कारण, शिशु को पुनर्बलन प्राप्त होता है अत: शिशु में रूदन प्रवृति विकसित होती है। (जैकोव, गेटिज एवं एलिजाबेथ वांड, 1977।
इन विरोधी व्याख्याओं के बावजूद रूदन के प्रति अनुक्रिया एवं उसके परिणाम की व्याख्या करना एक जटिल कार्य है जन्म से 3 माह के मध्य शिशु सर्वाधिक रोता है तत्पश्चात रोने की आवृति क्रमश: घटती जाती है। इस पर संस्कृतिक रीति - रिवाजों एवं अभ्यासों का भी प्रभाव पड़ता है। बड़े बच्चों में बाल रूदन का कारण मनोवैज्ञानिक होता है, अथार्त ध्यान आकृष्ट करना, कूंठा की अभिव्यक्ति इत्यादि। शिशु के रूदन से केंद्रीय स्नायु संस्थान से संबंधित रोगों के बारे में भी जानकारी मिल सकती है। हाईग्टन एवं सहयोगियों (1900) के अनुसार समय से पूर्व जन्में अथवा बीमार शिशु अधिक रूदन करते हैं।
स्रोत : जेवियर समाज सेवा संस्थान
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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