कहावत है "समय पर लगाया गया एक टांका भविष्य में लगने वाले नौ टांकों से बचाता है"।
यह कहावत किडनी के रोगों के लिए एकदम सही साबित होती है। क्रोनिक किडनी रोग का कोई सम्पूर्ण इलाज नहीं है और यदि इसका समय पर इलाज न किया जाए तो इसे अंतिम चरण की किडनी खराबी अर्थात् ई एस आर डी में परिवर्तित होने में समय नहीं लगता है। जैसा की पिछले अध्याय में चर्चा की गयी है की लंबे चलने वाले किडनी के रोगों में मरीज एकदम सामान्य हो और बीमारी के कोई लक्षण दिखाई ही न दें तो यही अत्यधिक खतरनाक होता है। दुर्भाग्य से किडनी के कई गंभीर रोगों के लक्षण शुरुआत में पता ही नहीं चलते इसलिए जब भी किडनी रोग की आशंका हो, तुरंत डॉक्टर को दिखाकर शुरुआती तौर पर ही इलाज शुरू कर देने पर इस बीमारी को तेजी से बढ़ने से रोका जा सकता है।
किडनी की तकलीफ होने की संभावना कब अधिक होती है?
किसी भी व्यक्ति को किडनी की बीमारी हो सकती है। किंतु निम्नलिखित उपस्थित हों तो खतरा ज्यादा हो सकता है।
उपरोक्त व्यक्तियों में यदि किडनी की बीमारियों के लिए उचित जाँच की जाए तो यह किडनी के रोगों का निदान रोग के शुरुआत में ही हो सकता है और यह किडनी के रोगों का ज्यादा अच्छा इलाज करने में सहायक हो सकता है।
प्रारंभिक अवस्था में क्रोनिक किडनी रोग में कोई लक्षण दिखाई नहीं देते हैं। खून एवं पेशाब की जाँचों से ही इसका पता लगाया जा सकता है।
डॉक्टर द्वारा सही तरीके से बीमारी के बारे में विस्तृत जानकारियाँ पता करके मरीज की परोक्ष रूप से जाँच कर रक्तचाप नापें एवं उसके बाद खून व पेशाब की जाँच तथा एक्सरे आदि कराना चाहिए।
किडनी की विभिन्न बीमारियों में निदान के लिए पेशाब परीक्षण द्वारा उपयोगी जानकारी प्राप्त होती हैं। सामान्य पेशाब परीक्षण
माइक्रोएल्ब्यूमिन्यूरिया:-
इसका मतलब है प्रोटीन का पेशाब में अत्यंत अल्पमात्रा में मौजूद होना। पेशाब की इस जाँच से मधुमेह द्वारा किडनी पर ख़राब असर का सबसे जल्दी और सही वक्त पर निदान होता है। इस स्तर पर संभव है की उचित सावधानी पूर्वक उपचार से रोग ठीक हो सकता है।
किडनी की बीमारियों का जल्दी पता लगाने और निदान के लिए सामान्य पेशाब परीक्षण अत्यंत महत्वपूर्ण होता है।
पेशाब के अन्य परीक्षण
विभिन्न रक्त परीक्षण किडनी की भिन्न-भिन्न बीमारियों के उचित निदान के लिए आवश्यक है।
खून में क्रीएटिनिन और यूरिया का स्तर किडनी की कार्यक्षमता को दर्शाता है। क्रीएटिनिन और यूरिया शरीर का अनावशयक कचरा है, जो किडनी द्वारा रक्त में से हटा दिया जाता है। जब किडनी की कार्यक्षमता कम हो जाती है तो रक्त में क्रीएटिनिन और यूरिया की मात्रा में वृध्दि होती है। रक्त में क्रीएटिनिन की सामान्य मात्रा 0.9 से 1.4 मिलीग्राम प्रतिशत और यूरिया की मात्रा (BUN) 20 से 40 मिलीग्राम प्रतिशत होती है। इनकी मात्रा में वृध्दि किडनी की खराबी का संकेत देती है। यूरिया की तुलना में रक्त में क्रीएटिनिन के स्तर के परीक्षण से किडनी की कार्यक्षमता का विश्वसनीय आंकलन होता है।
स्वस्थ किडनी लाल रक्त कोशिकाओं (RBC) के उत्पादन में सहायक होती हैं। जिनमें हीमोग्लोबिन होता है। जब शरीर में हीमोग्लोबिन की मात्रा कम हो जाती हैं उसे रक्ताल्पता (एनीमिया) कहते हैं। रक्ताल्पता या एनीमिया, क्रोनिक किडनी रोग का एक महत्वपूर्ण पर आम लक्षण है। खून की कमी अन्य किसी बीमारियों की वजह से भी हो सकती है, अतः यह परीक्षण हमेशा किडनी की बीमारी ही बताये, ऐसा नहीं है।
सीरम क्रीएटिनिन एक मानक रक्त परीक्षण है जिसकी नियमित रूप से जाँच करने से किडनी के रोगों पर नजर एवं नियंत्रण रखा जा सकता है।
किडनी के अलग-अलग रोगों के निदान के लिए खून के अन्य परीक्षणों में रक्त शर्करा सीरम अल्ब्युमिन, कोलेस्ट्रॉल, इलेक्ट्रोलाइट्स (सोडियम, पोटैशियम और क्लोराइड), कैल्सियम, फॉस्फोरस, बाईकार्बोनेट, ए.एस.ओ. टाईटर, कोम्पलीमेन्ट की मात्रा वगैरह का समावेश होता है।
1. रेडियोलॉजिकल परीक्षण :
किडनी की सोनोग्राफी एक सरल, सुरक्षित और शीघ्र होनेवाली जाँच है। इसमें किसी विकिरण का जोखिम नहीं होता है। इससे किडनी का आकर, रचना और स्थान, किडनी में पथरी या गाँठ का होना आदि ज़रूरी जानकारियाँ मिल जाती है। एक अल्ट्रासाउंड मूत्रमार्ग में पेशाब प्रवाह की रुकावट का पता लगा सकता है। क्रोनिक किडनी फेल्योर के मरीज़ो में दोनों किडनी संकुचित (सिकुड़ी हुई) देखने को मिल सकती है।
यह परीक्षण पेशाब प्रणाली में कैल्शियम युक्त पथरी के निदान के लिए उपयोगी है।
इस जाँच को इन्ट्रावीनस पाइलोग्राफी (IVP) भी कहते हैं। यह एक विशेष एक्सरे परीक्षण है। इस परीक्षण में एक विशेष प्रकार की आयोडीनयुक्त डाई (रेडियो अपारदर्शी / रेडियो कॉन्ट्रास्ट तरल पदार्थ) जो एक्सरे की फिल्मों पर देखा जा सके ऐसी दवा का इंजेक्शन मरीज के हाथ की नस पर दिया जाता है। इस दवा का इंजेक्शन देने के पश्चात् थोड़े-थोड़े समय अंतराल के बाद पेट के एक्सरे लिये जाते हैं। इस पेट के एक्सरे में दवा, किडनी से होती हुई मूत्रमार्ग द्वारा मूत्राशय में जाती दिखाई देती है। यह दवा पेशाब पथ (किडनी, मूत्रवाहिनी और मूत्राशय) को रेडियो अपारदर्शीता प्रदान कर देती है, जिससे पुरे पेशाब पथ का दृश्य दिखाई देता है।
आई. वी. यू. किडनी की कार्यक्षमता और मूत्रमार्ग की रचना के बारे में जानकारी देती है। यह परिक्षण खासकर किडनी में पथरी, मूत्रमार्ग में अवरोध और गाँठ जैसी बीमारियों के निदान के लिए किया जाता है।
किडनी के रोगों के लिए सबसे महत्वपूर्ण प्रारंभिक जाँच पेशाब विशेषण, सीरम क्रीएटिनिन और किडनी का अल्ट्रासाउंड है।
सी. के. डी. के मामले में जब किडनी में खराबी की वजह से किडनी कम काम कर रही हो तो आई. वी. यू. परीक्षण उपयोगी नहीं होता है। किडनी की खराबी होने पर, पेशाब के दौरान डाई का उत्सर्जन अपर्याप्त हो सकता है। आई. वी. यू. एक एक्सरे जाँच होने की वजह से गर्भावस्था में बच्चे के लिए हानिकारक हो सकती है। इसीलिए गर्भावस्था के दौरान यह परिक्षण नहीं किया जाता है। अल्ट्रासाउंड और सीटी स्कैन की उपलब्धता के कारण यह परीक्षण आजकल कम किया जाता है।
वी. सी. यू. जी. को मिक्च्युरेटिंग सिस्टोयूरेथ्रोग्राम के परीक्षण के नाम से भी जाना जाता है। इस परीक्षण का सबसे अधिक प्रयोग बच्चों में मूत्रमार्ग में संक्रमण मूल्यांकन में किया जाता है। इस विशेष एक्सरे परीक्षण में जीवाणु रहित परिस्थतियों में मूत्राशय को विशेष दवा से पेशाब कैथेटर के माध्यम से भरा जाता है। मूत्राशय भर जाने के बाद, पेशाब कैथेटर निकाल दिया जाता है और मरीज को पेशाब करने के लिए कहा जाता है। पेशाब के दौरान कुछ अंतराल पर लिए गए एक्सरे, मूत्राशय और मूत्रमार्ग की रुपरेखा दिखाते हैं। यह परीक्षण पेशाब वाहिनी एवं किडनी में पेशाब के बैकफ्लो का निदान करने में सहायक होता है। इस बीमारी को वसाइको यूरेट्रल रिफल्क्स - वी. यू. आर. कहते हैं। यह परीक्षण मूत्राशय और मूत्रमार्ग की संरचनात्मक असामान्यताओं की पहचान करने में भी सहायक होता है।
कुछ विशेष प्रकार के रोगों के निदान के लिए किडनी डॉप्लर, रेडियो न्यूक्लीयर स्टडी, रीनल एन्जियोग्राफी, सी टी स्केन, एन्टीग्रेड और रिट्रोग्रेड पाइलोग्राफी इत्यादि विशेष प्रकार की जाँच होती है।
किडनी की बायोप्सी, दूरबीन से मूत्रमार्ग की जाँच और यूरोडाइनेमिक्स जैसी विशेष प्रकार की जाँच किडनी के कई रोगों के उचित निदान के लिए जरुरी है।
किडनी की बायोप्सीकिडनी की बायोप्सी एक महत्वपूर्ण परीक्षण है, जिसे किडनी के कुछ रोगों के निदान के लिए उपयोग किया जाता है।किडनी का अल्ट्रासाउंड एक सरल और सुरक्षित परीक्षण है जो किडनी के आकार और स्थान का आंकलन करने के लिए किया जाता है।
किडनी के अनेक रोगों का कारण जानने के लिए सुई की मदद से किडनी में से पतले डोरे जैसा टुकड़ा निकाल कर और माइक्रोस्कोप से उसका हीस्टोपैथोलॉजीकल जाँच करने को किडनी बायोप्सी कहते है।
किडनी के कुछ रोगों में विस्तृत पूछताछ, शारीरिक परीक्षण और साधारण परीक्षण आदि भी रोगों के उचित निदान करने में असमर्थ हो जाते हैं। ऐसे मरीजों में, किडनी बायोप्सी के द्वारा जो अतिरिक्त जानकारी प्राप्त होती है वह सही निदान करने में सहायक हो सकती है।
किडनी बायोप्सी से कुछ अस्पष्ट किडनी रोगों की पहचान की जा सकती हैं। इस जानकारी के साथ किडनी रोग विशेषज्ञ, उपचार के लिए प्रभावी रणनीति तैयार करने में सक्षम होता है। वह मरीज और उसके परिवार को बीमारी की गंभीरता और प्रकार से भी अवगत करा सकता है।
किडनी की बायोप्सी का सबसे आम तरीके से एक सुई के जरिए होती है। इसमें एक खोखली सुई, त्वचा से होती हुई किडनी में डाल दी जाती है एवं किडनी का एक छोटा टुकड़ा निकाल लिया जाता है। एक और बहुत कम इस्तेमाल की जाने वाली विधि है जिसे खुली बायोप्सी कहते हैं। इसमें सर्जरी की आवश्यकता होती है और इसे ऑपरेशन कक्ष में ही किया जाता है।
किसी भी शल्य प्रक्रिया की तरह, किडनी की बायोप्सी के बाद कुछ रोगियों में कुछ जटिलताएँ हो सकती है। बायोप्सी की जगह पर दर्द होना और एक दो बार लाल रंग का पेशाब होना कोई असाधारण बात नहीं है। यह प्रायः अपने आप ही बंद हो जाता है। कुछ मामलों में जहाँ रक्तस्त्राव जारी रहता है वहाँ खून चढ़ाने की आवश्यकता हो सकती है। बहुत दुर्लभ परिस्थितियों में यदि अनियंत्रित गंभीर रक्तस्त्राव हो रहा हो तब सर्जरी से किडनी को निकालने की आवश्यकता हो सकती है।
कई बार किडनी से प्राप्त ऊतक जाँच के लिए पर्याप्त नहीं होता हैं (बीस में से एक) । ऐसी परिस्थिति में पुनः बायोप्सी कराने की आवश्यकता हो सकती है।
किडनी की बायोप्सी, एक पतली खोखली सुई के इस्तेमाल से की जाती है जिसमें मरीज पूरी तरह होश में रहता है।
स्त्रोत: किडनी एजुकेशन
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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