स्वाइन फ्लू श्वसन तंत्र से जुड़ी बीमारी है, जो ‘ए’ टाइप के एनफ्लुएंजा वायरस से होती है। मौसमी फ्लू के दौरान भी यह वायरस सक्रिय होता है। जब आप खांसते या छींकते हैं तो हवा में या जमीन पर या जिस भी सतह पर थूक या मुंह और नाक से निकले द्रव कण गिरते हैं, वह वायरस की चपेट में आ जाता है। यह कण हवा के द्वारा या किसी के छूने से दूसरे व्यक्ति के शरीर में मुंह या नाक के जरिये प्रवेश कर जाते हैं।
देशभर में वर्ष २०१५ के प्रारंभ से ही स्वाइन फ्लू का प्रभाव काफी रहा है। राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में इसके मामले सबसे ज्यादा पाये गये हैं। हज़ारों लोग इससे प्रभावित हुए हैं। सामान्य इंफ्लूंजा से इसके लक्षणों की समानता से कई दफा इसकी पहचान करना कठिन हो जाती है और ज्यादातर मामलों इस वायरस से होने वाली मौत इसकी पहचान में होने वाली देरी में देखी जाती है। क्या है यह बीमारी, सामान्य फ्लू और इसमें क्या है फर्क, कब तक रहता है शरीर में इसका वायरस, कैसे की जाती है इसकी पहचान और क्या है इसका सही निदान, आएँ जानें।
सामान्य फ्लू और स्वाइन फ्लू के वायरस में एक फर्क होता है। स्वाइन फ्लू के वायरस में पक्षियों, सूअरों और इंसानों में पायी जाने वाली आनुवंशिक सामग्री भी होती है। हालांकि सामान्य फ्लू और स्वाइन फ्लू के लक्षण एक जैसे ही होते हैं, लेकिन स्वाइन फ्लू में यह देखा जाता है कि जुकाम बहुत तेज होता है। नाक काफी ज्यादा बहती है। स्वाइन फ्लू होने के पहले 48 घंटों के भीतर इसका इलाज शुरू हो जाना चाहिए, यह सावधानी जरूरी है।
एच1एन1 वायरस स्टील और प्लास्टिक में 24 से 48 घंटे, कपड़े और पेपर में आठ से 12 घंटे, टिश्यू पेपर में 15 मिनट और हाथों में 30 मिनट तक सक्रिय रहते हैं। इन्हें खत्म करने के लिए वॉशिंग पावडर, ब्लीच या साबुन का इस्तेमाल कर सकते हैं। किसी भी मरीज में बीमारी के लक्षण संक्रमण होने के बाद एक से सात दिन में विकसित हो सकते हैं।
डब्ल्यूएचओ की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि जिन लोगों का स्वाइन फ्लू टेस्ट पॉजीटिव आता है, उनमें से इलाज के दौरान मरनेवालों की संख्या केवल 0.4 फीसदी ही है। यानी इस बीमारी की पहचान होनेवाले हजार मरीजों में से चार लोगों का ही देहांत होता है। इसलिए यह उतना क्रोनिक नहीं, जितना समझा जा रहा है।
‘मेडिसिन नेट डॉट कॉम’ के मुताबिक, स्वाइन एनफ्लूएंजा वायरस की पहचान पहली बार 1930 में अमेरिका में की गयी थी। सूअर के मांस के कारोबारियों ने इसकी पहचान की थी। उस दौरान कई बार ऐसा पाया गया कि सूअर के मांस के कारोबार से जुड़े लोगों में स्वाइन एनफ्लूएंजा वायरस ज्यादा देखे जा रहे हैं।
2009 में जो स्वाइन फ्लू सामने आया था, उसे विशेषज्ञों ने ‘एच1एन1’ नाम दिया। इसमें एच1 का तात्पर्य हेमागुलेटिनिन टाइप वन और एन1 का तात्पर्य न्यूरेमिनिडेज टाइप वन है।
इसकी जांच के लिए विभिन्न प्रकार के टेस्ट किये जा सकते हैं। ‘सेंटर्स फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन’ की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि लैबोरेटरी में सांस के नमूनों में एनफ्लूएंजा की मौजूदगी की पहचान की जाती है। इसके अलावा डायरेक्ट एंटीजेन डिटेक्शन टेस्ट, सेल कल्चर में वायरल आइसोलेशन या रीयल टाइम रिवर्स ट्रांसक्रिप्टेस- पॉलिमेरस चेन रिएक्शन के द्वारा एनफ्लूएंजा खासकर आरएनए की पहचान की जाती है। ये सभी टेस्ट संवेदनशीलता के मामले में अलग-अलग तरह के हैं और इनसे एनफ्लूएंजा वायरस की पहचान की जाती है। मौजूदा समय में अमेरिका की संबंधित स्वास्थ्य प्राधिकरण द्वारा सामान्य एनफ्लूएंजा वायरस इनफेक्शन के कन्फर्मेशन के लिए केवल दो ही तरीके मान्य हैं।
वर्ष 2014- 15 के फ्लू सीजन के लिए अमेरिका की सेंटर्स फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) ने सिफारिश की है कि छह माह से अधिक उम्र वाले लोगों को इस बीमारी से बचाव करने या उसके जोखिम को कम करने के लिए फ्लू का टीका लेना चाहिए। ‘मेडिसिन नेट डॉट कॉम’ की रिपोर्ट के मुताबिक, एच1एन1 स्वाइन फ्लू से बचाव का श्रेष्ठ तरीका टीकाकरण है। एच1एन1, एच3एन2 और अन्य फ्लू वायरसों की पहचान होने के संदर्भ में 2014 सीडीसी सिफारिशों में कहा गया है कि सीमित मात्र में वैक्सिन लेने पर निम्नलिखित परिस्थितियों में मरीजों में जोखिम बढ़ जाता है :
अंतिम बार संशोधित : 1/5/2020
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