भारत सरकार के अन्तर्गत स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय सम्पूर्ण देशवासियों विशेषतया जन सामान्य के स्वास्थ्य के लिए प्रतिबद्ध है। देश भर में चिकित्सालयों,जिला चिकित्सालयों,प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों और उपस्वास्थ्य केन्द्रों के माध्यम से जन सामान्य का रोगोपचार किया जाता है। किसी रोग का इलाज उसके निदान पर निर्भर करता है अर्थात यदि समय पर और सटीक निदान कर लिया जाए, तो जहां चिकित्सक द्वारा उपयुक्त इलाज की शीघ्र शुरुआत करना आसान हो जाता है वहीं रोगी में उभरने वाली गंभीर जटिलताओं और उसके इलाज पर होने वाले व्यय से भी बचा जा सकता है।
भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अंतर्गत स्वास्थ्य अनुसंधान विभाग/भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) का उद्देश्य रोगों के निदान, चिकित्सा विधियों और रोगनिवारण के लिए वैक्सीनों से संबंधित अनुसंधान और नवाचारों (innovations) के माध्यम से लोगों तक आधुनिक स्वास्थ्य प्रौद्योगिकी को पहुंचाना, शोध परिणामों को उत्पादों और प्रक्रियाओं में रूपांतरित करना है, और संबंधित संगठनों के सहयोग में इन नवाचारों को जन स्वास्थ्य प्रणाली में सम्मिलित कराना है।
हाल के वर्षों में आई सी एम आर/स्वास्थ्य अनुसंधान विभाग द्वारा नवाचारों एवं प्रौद्योगिकियों के माध्यम से निम्नलिखित प्रमुख उपलब्धियां प्राप्त की गईं-
भारत में तीव्र मस्तिष्कशोथ संलक्षण (एक्यूट एनसिफैलाइटिस सिण्ड्रोम अर्थात AES) एक गंभीर स्वास्थ्य समस्या है। सर्वप्रथम वर्ष 1955 में वेल्लोर, तमिलनाडु में प्रकाश में आया जे ई विषाणु देश के 19 राज्यों के 171 जिलों में फैल गया। अभी तक जे ई की वैक्सीन चीन से आयात की जाती है।
आई सी एम आर के पुणे स्थित राष्ट्रीय विषाणुविज्ञान संस्थान (पब्लिक) और भारत बायोटेक (प्राइवेट) की भागीदारी में जेनवैक (JENVAC) नामक प्रथम स्वदेशी जापानी मस्तिष्कशोथ वैक्सीन विकसित की गई। राष्ट्रीय विषाणुविज्ञान संस्थान, पुणे द्वारा स्वदेशी विषाणु उपभेद (स्ट्रेन) पृथक किया गया और उसकी विशेषता ज्ञात की गई जिसे वैक्सीन निर्माण हेतु हैदराबाद स्थित भारत बायोटेक को उपलब्ध कराया गया। आई सी एम आर एवं भारत बायोटेक की भागीदारी में विकसित जेनवैक नामक वैक्सीन को भारत सरकार के औषधि नियंत्रक द्वारा लाइसेंस प्रदान किया गया।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य कार्यक्रम में इस स्वदेशी जेनवैक वैक्सीन के सम्मिलित होने से देश के विशेषतया जे ई प्रभावित क्षेत्रों में जनता को पर्याप्त मात्रा में वैक्सीन उपलब्ध कराई जा सकेगी और स्वावलम्बिता प्राप्त की जा सकेगी।
बीटा थैलासीमिया मेजर बचपन में होने वाला एक गंभीर आनुवंशिक रोग है। यह भारत में प्रत्येक वर्ष बड़ी संख्या में बच्चों को प्रभावित करता है। थैलासीमिया से पीड़ित बच्चा प्राय: 6 माह से 2 वर्ष की आयु में पीला पड़ जाता है और पर्याप्त मात्रा में हीमोग्लोबिन नहीं बन पाता। ऐसे बच्चों को नियमित रक्ताधान की आवश्यकता पड़ती है जिससे उसके शरीर में ऑयरन (लौह) की मात्रा अत्यधिक बढ़ जाती है। इस ऑयरन का निष्कासन अति आवश्यक है जो बहुत खर्चीला होता है। यदि इसे अनुपचारित छोड़ दिया जाए तो यह जानलेवा भी हो सकता है। भारत में प्रतिवर्ष थैलासीमिया मेजर के साथ पैदा होने वाले 10,000 से 12,000 बच्चों के साथ लगभग 3 से 4 करोड़ थैलासीमिया के संवाहक हैं। प्रत्येक वर्ष 5000 से अधिक बच्चे सिकिल सेल एनीमिया के साथ पैदा होते हैं। इस विकार के संवाहकों को पहचानना बहुत महत्वपूर्ण है। यदि माता-पिता दोनों थैलासीमिया (थैलासीमिया ट्रेट) के वाहक हैं तो 25 प्रतिशत मामलों में उनके बच्चे में यह वंशानुक्रम विकार होता है।
थैलासीमिया की जांच में एक बड़ी सफलता
बीटा थैलासीमिया और सिकिल सेल एनीमिया की जांच के लिए आई सी एम आर ने सटीक तकनीक से लैस थैलासीमिया जांच किट का विकास किया है। आई सी एम आर के मुम्बई स्थित राष्ट्रीय प्रतिरक्षा रुधिरविज्ञान संस्थान के वैज्ञानिकों द्वारा विकसित यह तकनीक माता-पिता और गर्भस्थ शिशु में थैलासीमिया के लक्षणों का पता लगाने में मदद करेगी जिससे इस बीमारी से पीड़ित बच्चे के जन्म को रोका जा सकेगा। इससे प्रसवपूर्व गर्भस्थ शिशु में इसका निदान करके उपयुक्त सलाह दी जा सकेगी जिससे थैलासीमिया संभावित शिशु के जन्म को रोका जा सकेगा । यह तकनीक पी सी आर जैसी बुनियादी सेवाओं से लैस संस्थानों जैसे- जिला अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों के लिए बहुत उपयोगी है।
सर्वाइकल अर्थात गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर से अभी ग्रामीण और अर्ध शहरी अनेक क्षेत्रों में बड़ी संख्या में मौतें होती हैं। अनुमानत: प्रतिवर्ष सर्वाइकल कैंसर से पीड़ित लगभग 1,32,000 रोगियों की पहचान की जाती है जिनमें से कारण लगभग 74,000 मौतें हो जाती हैं। वर्तमान में सर्वाइकल कैंसर की जांच सुविधा केवल क्षेत्रीय कैंसर संस्थानों और मेडिकल कॉलेजों में उपलब्ध है जो मंहगी है। आई सी एम आर के नोएडा स्थित कौशिकी एवं निवारक अर्बुदशास्त्र संस्थान (ICPO) के वैज्ञानिकों द्वारा विकसित ए वी मैग्नीविज़ुअलाइज़र एक कम मूल्य वाली पर प्रभावशाली युक्ति है जिसके माध्यम से जिला और उपजिला स्तर पर स्थित सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों और प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों के स्तर पर प्रयोग किया जा सकेगा। एक 12 वोल्ट की बैटरी से परिचालित यह मशीन वहां भी इस्तेमाल की जा सकती है जहां बिजली की व्यवस्था न हो। इस युक्ति से कैंसर पूर्व स्थितियों की शीघ्र पहचान हो जाने से समय से चिकित्सा प्रबंध के परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में सर्वाइकल कैंसरग्रस्त रोगियों का प्रारंभिक अवस्था में निदान करके उनका जीवन बचाया जा सकेगा।
आई सी एम आर की वित्तीय सहायता से संपन्न शोध कार्य के परिणामस्वरूप बिरला प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान संस्थान, पिलानी के हैदराबाद कैम्पस के वैज्ञानिकों द्वारा विकसित रक्त ग्लूकोज़ मॉनीटरिंग प्रणाली 'क्विकचेक' और मुम्बई स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान एवं बायोसाइंस द्वारा विकसित 'सुचेक' स्ट्रिप्स नामक युक्तियां विकसित की गईं।
आज भारत में लगभग 13 करोड़ लोग मधुमेह पूर्व अवस्था अथवा मधुमेह से ग्रस्त हैं। स्वदेशी विकसित इन सस्ती युक्तियों और परीक्षण स्ट्रिप्स से मधुमेह की जांच और इसका निदान व्यापक पैमाने पर संभाव्य और वहनयोग्य है। ये युक्तियां मधुमेह की तेजी से बढ़ती चुनौतियों का सामना करने में भारत को आत्म-निर्भर बनाने की दिशा में शुरुआती कदम है।
राष्ट्रीय पोषण संस्थान, हैदराबाद के वैज्ञानिकों द्वारा विकसित यह किट भोजन और पानी में घातक बैक्टीरिया (जीवाणु) की त्वरित पहचान करने में कारगर, सुग्राही, विशिष्ट और किफायती है। यह समय, धन और श्रम बचाने में सहायक है। यह जांच किट खाद्य पदार्थों में घातक जीवाणुओं की त्वरित पहचान करके, उसे जीवाणु मुक्त बनाकर सुरक्षित रखने में मदद करेगी ।
इस तरह भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद के वैज्ञानिकों और इसकी वित्तीय सहायता में संपन्न शोध कार्यों के परिणामस्वरूप विकसित उपर्युक्त प्रौद्योगिकियां राष्ट्रीय स्वास्थ्य कार्यक्रम में सम्मिलित किए जाने हेतु तैयार हैं, जो जन स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में अत्यन्त सहायक साबित होंगी।
स्त्रोत-
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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