अच्छी गुणवत्तावाला घर स्वस्थ गाँव के निर्माण के लिए एक महत्वपूर्ण तत्व है। अव्यवस्थित घर की बनावट कई तरह की स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ उत्पन्न कर सकती है और क्षय रोग जैसे संचरणीय बीमारी एवं तनाव व अवसाद जैसी समस्या उत्पन्न कर सकती है।
ऐसे घर जहाँ लकड़ी, कोयला एवं गोबर का उपयोग खाना बनाने या घर को गर्म रखने के लिए किया जाता है, उन घरों में हवा के आवागमन के लिए पर्याप्त मात्रा में जगह होनी चाहिए क्योंकि जब ये ईंधन धुँआ छोड़ते हैं तो उसमें खतरनाक रसायन एवं कण शामिल होता है। इससे श्वसन संबंधी समस्याएँ जैसे श्वसन-शोथ (ब्रोंकाइटिस) एवं अस्थमा जैसे रोग हो सकते हैं और क्षय रोग/तपेदिक/यक्ष्मा रोग के फैलाव को उचित अवसर उपलब्ध करा सकता है।
यदि महिलाएँ एवं बच्चे घरों में या रसोई में ज्यादा समय बीताती हैं तो और वहाँ हवा के आवागमन की व्यवस्था ठीक नहीं रहने से उनका स्वास्थ्य प्रभावित हो सकता है। जिन घरों में भोजन घर के भीतर बनाया जाता है वहाँ ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि धुँआ जल्द घर से निकल जाए। इस समस्या का समाधान ऐसे घरों का निर्माण कर किया जा सकता है जिसमें अधिक से अधिक खिड़की की व्यवस्था हो और विशेषकर रसोईघर में यह व्यवस्था अवश्य रूप से होनी चाहिए।
घरों में खराब प्रकाश की व्यवस्था मानव व उसके स्वास्थ्य पर काफी बुरा प्रभाव डाल सकता है। यह मुख्य रूप से महिलाओं के लिए विशेष रूप से चिंताजनक है जो घरों के भीतर रहकर खाना पकाने का कार्य करती है। घरों में अधिक खिड़की की व्यवस्था कर प्राकृतिक प्रकाश की व्यवस्था की जा सकती है और इस तरह के समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। यदि सुरक्षा का मामला हो तो खिड़की को ऐसे स्थान पर लगाया जा सकता है जहाँ से बाहर के लोग घर के भीतर नहीं देख सकें या उसे तार की जाली के साथ लगाया जा सकता है जिससे होकर प्रकाश का भीतर आना संभव होता है। बढ़ा हुआ या पर्याप्त मात्रा में प्राकृतिक प्रकाश घर की सफाई के लिए भी काफी जरूरी है। यदि घर में अँधेरा हो तो वहाँ जमे धूल एवं गंदगी को देखना मुश्किल होता और उसे साफ करना भी संभव नहीं हो पाता।
घर को साफ रखकर घर के भीतर कीड़े -मकोड़ों के प्रवेश को रोका जाएं अन्यथा घर रोग वाहकों से दूषित हो सकता है। भोजन को ढ़ककर एवं कूड़ा-करकट की साफ-सफाई कर रोगवाहक कीड़े की संख्या घटाई जा सकती है। यदि मच्छर या मक्खी समस्या उत्पन्न कर रही हो तो खिड़की एवं घर के दरवाजों को जालीदार कपड़ों से ढ़का जाना चाहिए, रात में में उसे बंद रखनी चाहिए एवं बिछावन पर नियमित रूप से मच्छरदानी लगानी चाहिए। घर के आसपास की सफाई आवश्यक रूप से बीमारी के फैलाव के खतरों को कम करता है।
घरों में अधिक भीड़-भाड़ भी बीमारी का कारण होता है क्योंकि वहाँ बड़ी आसानी से बीमारी फैलती है क्योंकि कम जगह के कारण लोग हमेशा तनाव में रहते और वे बीमारी का शिकार होते रहते हैं। अधिक भीड़-भाड़ सामाजिक-आर्थिक स्तर से जुड़ा होता है। गरीबों के पास अक्सर सीमित विकल्प होता है और वे सीमित जगह में ही रहने को मजबूर होते हैं। सिद्धान्त रूप में, घरों में कमरों की संख्या बढ़ाकर स्वास्थ्य की स्थिति में सुधार की जा सकती है परन्तु वास्तव में कमरों की संख्या बढ़ाना काफी मुश्किल होता है। सावधानीपूर्वक परिवार नियोजन अपनाकर घर में लोगों की संख्या को सीमित किया जा सकता और अत्यधिक भीड़ की समस्या से मुक्ति पाया जा सकता है। यदि समुदाय के लोग अधिक भीड़-भाड़ महसूस करते हैं तो वे पहल कर अपने मकान मालिक से उचित कीमत पर अधिक जगह उपलब्ध कराने का दबाव डाल सकते हैं। इसके लिए स्थानीय सरकार और दबाव समूह के साथ मिलकर आवास नीति एवं मकान किरायेदारी कानून में संशोधन के लिए पहल की जा सकती है ताकि सभी को पर्याप्त मात्रा में रहने के लिए घर उपलब्ध हो सके।
कम्पोस्ट शौचालय की जानकारी
मल एक ऐसी वस्तु है जो हमारे पेट में तो पैदा होती है पर जैसे ही वह हमारे शरीर से अलग होती है हम उस तरफ देखना या उसके बारे में सोचना भी पसंद नहीं करते।
पर आंकडे बताते हैं कि फ्लश लैट्रिन के आविष्कार के 100 साल बाद भी आज दुनिया में सिर्फ 15% लोगों के पास ही आधुनिक विकास का यह प्रतीक पहुंच पाया है और फ्लश लैट्रिन होने के बावज़ूद भी इस मल का 95% से अधिक आज भी नदियों के माध्यम से समुद्र में पहुंचता है बगैर किसी ट्रीटमेंट के।
दुनिया के लगभग आधे लोगों के पास पिट लैट्रिन है जहां मल नीचे गड्ढे में इकट्ठा होता है और आंकडों के अनुसार इनमें से अधिकतर से मल रिस रिस कर ज़मीन के पानी को दूषित कर रहे हैं। छत्तीसगढ में बिलासपुर जैसे शहर इसके उदाहरण हैं।
और शहरों का क्या कहें, योजना आयोग के आंकडे के अनुसार राजधानी दिल्ली में 20% मल का भी ट्रीटमेंट नहीं हो पाता शेष मल फ्लश के बाद सीधे यमुना में पहुंच जाता है। इस दुनिया ने बहुत तरक्की कर ली है आदमी चांद और न जाने कहां कहां पहुंच गया है पर हमें यह नहीं पता कि हम अपने मल के साथ क्या करें। क्या किसी ने कोई गणित लगाया है कि यदि सारी दुनिया में फ्लश टॉयलेट लाना है और उस मल का ट्रीटमेंट करना है तो विकास की इस दौड में कितना खर्च आयेगा ?
दक्षिण अफ्रीका में 1990 के एक विश्व सम्मेलन में यह वादा किया गया था कि सन 2000 तक सभी को आधुनिक शौचालय मुहैया करा दिया जायेगा। अब सन 2000 में वादा किया गया है कि 2015 तक विश्व के आधे लोगों को आधुनिक शौचालय मुहैया करा दिये जायेंगे। भारत समेत दुनिया के तमाम देशों ने इस वचनपत्र पर हस्ताक्षर किये हैं और इस दिशा में काम भी कर रहे हैं।
भारत के आंकडों को देखें तो ग्रामीण इलाकों में सिर्फ 3% लोगों के पास फ्लश टायलेट हैं शहरों में भी यह आंकडा 22.5% को पार नहीं करता।
स्टाकहोम एनवायरनमेंट इंस्टीट्यूट दुनिया की प्रमुखतम पर्यावरण शोध संस्थाओं में से एक है। इस संस्था के उप प्रमुख योरान एक्सबर्ग कहते हैं फ्लश टायलेट की सोच गलत थी, उसने पर्यावरण का बहुत नुकसान किया है और अब हमें अपने आप को और अधिक बेवकूफ बनाने की बजाय विकेन्द्रित समाधान की ओर लौटना होगा।
सीधा सा गणित है कि एक बार फ्लश करने में 10 से 20 लीटर पानी की आवश्यकता होती है यदि दुनिया के 6 अरब लोग फ्लश लैट्रिन का उपयोग करने लगे तो इतना पानी आप लायेंगे कहां से और इतने मल का ट्रीटमेंट करने के लिये प्लांट कहां लगायेंगे ?
हमारे मल में पैथोजेन होते हैं जो सम्पर्क में आने पर हमारा नुकसान करते हैं। इसलिये मल से दूर रहने की सलाह दी जाती है। पर आधुनिक विज्ञान कहता है यदि पैथोजेन को उपयुक्त माहौल न मिले तो वह थोडे दिन में नष्ट हो जाते हैं और मनुष्य का मल उसके बाद बहुत अच्छे खाद में परिवर्तित हो जाता है जिसे कम्पोस्ट कहते हैं।
वैज्ञानिकों के अनुसार एक मनुष्य प्रतिवर्ष औसतन जितने मल मूत्र का त्याग करता है उससे बने खाद से लगभग उतने ही भोजन का निर्माण होता है जितना उसे सालभर ज़िन्दा रहने के लिये ज़रूरी होता है।
यह जीवन का चक्र है। रासायनिक खाद में भी हम नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटेशियम का उपयोग करते हैं। मनुष्य के मल एवं मूत्र उसके बहुत अच्छे स्रोत हैं।
एक आधुनिक विकसित मनुष्य के लिये यह सोच भी काफी तकलीफदेय है कि हमारा भोजन हमारे मल से पैदा हो पर सत्य से मुंह मोड़ना हमें अधिक दूर नहीं ले जायेगा।
विकास की असंतुलित अवधारणा ने हमें हमारे मल को दूर फेंकने के लिये प्रोत्साहित किया है, फ्लश कर दो उसके बाद भूल जाओ। रासायनिक खाद पर आधारित कृषि हमें अधिक दूर ले जाती दिखती नहीं है। हम एक ही विश्व में रहते हैं और गंदगी को हम जितनी भी दूर फेंक दे वह हम तक लौट कर आती है।
गांधी जी अपने आश्रम में कहा करते थे गड्ढा खोदो और अपने मल को मिट्टी से ढक दो। आज विश्व के तमाम वैज्ञानिक उसी राह पर वापस आ रहे हैं।वे कह रहे हैं कि मल में पानी मिलाने से उसके पैथोजेन को जीवन मिलता है वह मरता नहीं। मल को मिट्टी या राख से ढंक दीजिये वह खाद बन जायेगी।
इसके बेहतर प्रबंधन की ज़रूरत है दूर फेंके जाने की नहीं। हमें अपने सोच में यह बदलाव लाने की ज़रूरत है कि मल और मूत्र खजाने हैं बोझ नहीं। यूरोप और अमेरिका में ऐसे अनेक राज्य हैं जो अब लोगों को सूखे टॉय़लेट की ओर प्रोत्साहित कर रहे हैं। चीन में ऐसे कई नए शहर बन रहे हैं जहां सारे के सारे आधुनिक बहुमंजिली भवनों में कम्पोस्ट टायलेट ही होंगे।
भारत में भी इस दिशा में काफी लोग काम कर रहे हैं। केरल की संस्था www.eco-solutions.org ने इस दिशा में कमाल का काम किया है। मध्यप्रदेश के वरिष्ठ अधिकारियों ने केरल में उनके कम्पोस्ट टॉयलेट का दौरा किया है।
विज्ञान की मदद से आज हमें किसी मेहतरानी की ज़रूरत नहीं है जो हमारा मैला इकट्ठा करे। कम्पोस्ट टॉयलेट द्वारा मल मूत्र का वैज्ञानिक प्रबंधन बहुत सरलता से सीखा जा सकता है। गांवों में यह सैकडों नौकरियां पैदा करेगा, कम्पोस्ट फसल की पैदावार बढाएगा और मल के सम्पर्क में आने से होने वाली बीमारियों से बचायेगा। मल को नदी में बहा देने से वह किसी न किसी रूप में हमारे पास फिर वापस आती है।
गांधी जी ने एक बार कहा था शौच का सही प्रबंधन आज़ादी से भी अधिक महत्वपूर्ण विषय है। कम्पोस्ट टॉयलेट आज की गांधीगिरी है।
शोचालय साफ़ सफाई का भविष्य
इकोजैनजलापूर्ति बोर्ड के किसी भी इंजीनियर से अगर आप बात करें तो वह यही कहेगा कि जलापूर्ति नहीं बल्कि मलजल (सीवेज) का प्रबंधन करना सबसे बड़ा सिरदर्द बन गया है। आंकडे भी यही दर्शाते हैं कि लगभग सभी लोगों को भिन्न मात्रा और भिन्न गुणवत्ता का पानी मुहैया है लेकिन अच्छी सफाई शायद कुछ ही लोगों को मुहैया है।
सितम्बर 2000 में संयुक्त राष्ठ्र द्वारा अपनाए गए एमडीजी में भारत ने भी हस्ताक्षर किए हैं इसलिए उसे 2015 तक कम से कम 50 फीसदी लोगों को अच्छी सफाई (सेनिटेशन) सुविधाएं मुहैया करानी है। इसका अर्थ यह हुआ कि भारत को हमारी 78 फीसदी ग्रामीण आबादी के 50 फीसदी और 24 फीसदी शहरी आबादी के लिए कम से कम 115 मिलियन के आधे शौचालय मुहैया कराने हैं। सचमुच यह एक बड़ा काम है।
आमतौर पर शौच आदि के लिए सजल शौचालय या गङ्ढा शौचालय बनाए जाते हैं। इन दोनों से ही भूजल दूषित होता है और पर्यावरण भी असंतोषजनक हो जाता है। यहां तक कि जल संसाधनों के धनी केरल और गोवा में भी पर्याप्त सेनिटेशन की कमी के चलते भूजल इतना दूषित हो गया है कि बहुत से कुएं बेकार हो गए हैं। सेनिटेशन और जलापूर्ति दोनों एक दूसरे से जुड़े हैं। पानी मुहैया न होने की वजह से कई ग्रामीण अंचलों में शौचालय बेकार हो गए हैं।
सोचिए! जब पीने के लिए पानी न हो तो क्या आप शौचालय के लिए पानी का इस्तेमाल करेंगे? दूसरी और व्यापक उपचार सुविधाओं वाली भूमिगत सीवेज व्यवस्था बहुत मंहगी और कठिन है। उसमें ऊर्जा की खपत ज्यादा है और काम भी सन्तोषजनक नहीं है। शहरों के बाहर, गांवों और कठोर चट्टानी इलाकों में घरों में या तो ठोस तकनीकी समाधान हैं ही नहीं और जो हैं वे बहुत मंहगे हैं। ऐसे में निर्जल (शुष्क) खाद शौचालय ही एकमात्र समाधान है। खाद शौचालय में मल एकत्रित होता है और यह मल को भूजल या जल निकायों को प्रदूषित किए बिना पौधों की वृद्धि के लिए खाद में बदल लेता है।
इकोजैन
टिनड्रम और बैरल पैन के आगे का भाग मूत्र के लिए और ढक्कन वाला भाग मल के लिए है। शौचालय का प्रयोग करने के बाद मल को बुरादे से ढक दिया जाता है, यदि कागज का प्रयोग किया जाता है तो उसे भी उसी भाग में डालें जहां मल जाता है, विकल्प के रूप में पानी भी वहां डाला जा सकता है, महत्वपूर्ण है पूरे भाग को बुरादे से ढकना, इससे वहां न तो कोई दुर्गन्ध होगी, न ही मक्खी मच्छर आदि होंगे। मूत्र को प्लास्टिक के बैरल में इकठ्ठा करते हैं और उसे 1:3 या 1:8 के अनुपात से पानी मिलाकर पौधों, खासतौर पर पेड़ों के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है जहां यह नाइट्रोजन तत्व वाली अच्छी उर्वरक बनाता है।
मल को एक टिन के डिब्बे में इकठ्ठा किया जाता है, जब डिब्बा भर जाए तो उसके स्थान पर दूसरा रख दिया जाता है फिर बड़े ड्रम में या गङ्ढे में आगे की प्रक्रिया के लिए डाल दिया जाता है। इसे पत्तियों आदि से पूरी तरह ढककर उसे 6 महीने के लिए छोड़ दिया जाता है उसके बाद इसे मिट्टी के पोषक के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।
टिप्पी टैप
टिप्पी टैप धोने आदि के इस्तेमाल के लिए 'टिप्पी-टैप' का विकास सेंटर फॉर एप्लाइड रूरल टेक्नोलॉजी, मैसूर ने किया जिससे 80 मिली. पानी के इस्तेमाल भर से ही धोने की क्रिया (हाथ आदि) पूरी की जा सकती है। टिप्पी टैप को शौचालय में बुरादे से ढके मल वाले पैन के समीप लगाया जा सकता है। सेनिटेशन की इस पध्दति में एक परिवार के लिए 1 ली. से भी कम पानी की खपत होती है, यह मल को उर्वरक में बदल देता है, यह साफ-सुथरी, सस्ती तकनीक कहीं भी लगाई जा सकती है। शौचालय की छत पर 200 ली. के ड्रम में संचित किया हुआ जल शौचालय में धोने सम्बंधी सभी क्रियाओं को पूरा कर सकता है।
इकोजैन के लिए वर्षाजल संचय मल और मूत्र को पृथक करने वाली व्यवस्था भारत में ही नहीं यूरोपीय शैली में भी है। ऐसे शौचालय का इस्तेमाल घरों, फ्लैट आदि में किया जा रहा है। स्वीडन, जर्मन, डेनमार्क, अमेरिका, चीन, लंका आदि कई देशों में इको-जैन विकल्पों को अपनाया जा रहा है। भारत में भी सुलभ आंदोलन के डॉ. बिन्देश्वर पाठक और त्रिवेन्द्रम, केरल में पॉल कालवर्ट इको-जैन हीरो के रूप में जाने जाते हैं।
स्त्रोत: इंडिया वाटर पोर्टल
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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