शिशु जन्म पारिवारिक जीवन का अति महत्वपूर्ण पक्ष होता है। प्राय: प्रत्येक स्त्री जन्म प्रक्रिया से परिचित होती है। किसी – किसी समाज में लड़कियों को इस प्रक्रिया का प्रत्यक्ष अवलोकन एवं भूमिका निर्वहन का अवसर अधिक प्राप्त होता है। उदाहरनार्थ : दक्षिण अमेरिका की जरारा एवं पेसिफिक आइस लैंड के पूकापूकन समुदाय की महिलाएँ शिशु जन्म प्रक्रिया को खेल समझते हुए, आसानी से किसी खुले स्थान पर सबके समक्ष शिशु को जन्म देती हैं। भारतीय एवं अन्य संस्कृतियों में भी गोपनीय और सुरक्षित स्थान पर कुछ परिपक्व महिलाओं के सानिध्य में शिशु का जन्म होता है। अत: शिशु जन्म की प्रक्रिया भिन्न- भिन्न समाज, समुदाय एवं संस्कृतियों में भिन्न- भिन्न रूपों में अपनायी जाती है (जार्डन, 198; गीड एवं न्यूटन, 1967)। शिशु जन्म की प्रक्रिया में समय के साथ परिवर्तन आया है।
18वीं सदी से पूर्व, शिशु – जन्म घर पर ही होता था। परंतु 19वीं सदी में औद्योगिकरण के परिणामस्वरूप अनके महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। शहरों में भीड़ बढ़ी। समस्याएँ बढ़ी और जागरूकता भी बढ़ी। इनका प्रभाव जन्म- प्रक्रिया पर भी पड़ा। शिशु जन्म प्रक्रिया घर में अस्पताल की ओर उन्मुख हुई। इस प्रक्रिया से संलग्न स्त्रियों का व्यक्तिगत ज्ञान घटता गया और इसकी पूरी जिम्मेदारी तथा निर्भरता अस्पताल एवं डाक्टरों तक सीमित होता है। 1950-1960 के मध्य, लेबर एवं डिलेवरी के समय उपयोग में लाई जाने वाली दवाओं, उनकी उपयोगिता तथा सीमाओं के संदर्भ में अनेक प्रश्न उठे। महसूस किया गया कि नशीली दवाओं एवं उपकरणों के प्रयोग से शिशु को क्षति पहुँच सकता है साथ ही साथ माँ शिशु के जन्म के रोमांचक अनुभव से वंचित रह जाती है। इधर स्वभाविक जन्म - प्रक्रिया के प्रति लगाव फिर से विकसित होने लगा है। कुछ प्रचलित शिशु जन्म के ऐसे उपागमों का वर्णन प्रस्तुत है।
शिशु जन्म परिवार के सदस्यों एवं संबंधियों की देख रेख में प्रारंभ से ही प्रचलित रहा है। इससे अत्यधिक औषधि प्रयोग का परिहार हो जाता है। माँ शिशु जन्म के गौरवयुक्त अनुभव से वंचित नहीं हो पाती। कभी – कभी घर में ही चिकित्सा या प्रशिक्षित नर्स की सहायता से शिशु- जन्म सम्पन्न कराया जाता है। क्या घर में शिशु जन्म कराना सुरक्षित होता है? यदि डॉक्टर या नर्स की देख- रेख में स्वस्थ स्त्री घर में शिशु को जन्म दे तो शायद ही कोई समस्या खड़ी हो। यह प्रक्रिया कम खर्चीली एवं माँ तथा बच्चों के लिए अधिक सुरक्षित होती है। परंतु जन्म के समय प्रशिक्षित सहायक के अभाव में नवजात की मृत्यु की संभवना अधिक हो जाती है। शिशु जन्म में निहित खतरे को ध्यान में रखते हुए प्राय: शिशु जन्म अस्पतालों में कराना पसंद किया जाता है।
यद्यपि शिशु जन्म के समय दर्द को नियंत्रित करने के लिए औषधियों का उपयोग असुरक्षित होता है, तथापि कुछ दवाओं का उपयोग प्राय: चिकित्सा द्वारा किया ही जाता है। यथा एनेस्थीसिया एक प्रकार की दर्दनाशक दवा है जो दर्द की संवेदना को अवरूद्ध कर देती है। इसे रीढ़ के भाग में अंत: क्षेपित करके माँ के शरीर के निचले हिस्सों को दर्द की संवेदना सी शून्य कर दिया जाता है। परंतु इसके ऋणात्मक प्रभाव भी देखे जाते हैं। एनेस्थिसिया से लेबर के द्वितीय चरण में, आंकुचन अनुभव की क्षमता शिथिल हो जाती है। शिशु जन्म हेतु जन्मनाल ओर दबाव नहीं बन पाता जिससे जन्म प्रक्रिया को सहज बनाने के लिए यंत्र का उपयोग अनिवार्य हो जाता है। यंत्र प्रयोग से कभी कभी बच्चों को क्षति पहुँच सकती है। (हैनिगन एवं अन्य, 1990)। इस बात की भी संभावना होती है की ये दवाएँ शीघ्रता से प्लेसेंटा को पार कर शिशु पर प्रतिकूल प्रभाव डालें। रिपोर्टे दर्शाती हैं की इन दवाओं के कुप्रभाव से नवजात में उनिदापन, प्रत्याहार, दुग्धपान में निष्क्रियता अथवा कमी एवं चिड़चिड़ापन जैसी समस्याएँ पैदा हो जाती हैं माँ की रिपोर्ट के अनुसार प्रसव के एक सप्ताह बाद एक एनेस्थीसिया के प्रभाव के कारण शिशु की देखभाल में उसे अत्याधिक कठिनाई महूसस हुई (मेरे एवं अन्य, 1981)। कुछ अध्ययन इस तथ्य की भी पुष्टि करते हैं की जन्म- प्रक्रिया में दवाओं के प्रयोग में दवाओं के प्रयोग के कारण बच्चे का शारीरिक एवं मानसिक विकास अवरूद्ध हो जाता है (ब्रैकविल एवं पूर्णत: अभिपुष्टि नहीं हो पाती। इस दिशा में आगे अनूसंधान की आवश्यकता है। परंतु औषधीय दुष्प्रभाव के कारण माँ एवं बच्चे के बीच, आरम्भिक आवधि की अंत: क्रिया अवश्य बाधित होती है। अत: प्राकृतिक अथवा तैयारी के साथ प्रसूति पर सभी देशों में बल दिया जाने लगा है।
शिशु जन्म की यह प्रक्रिया माँ को इस विचार से मुक्त कराती है की शिशु जन्म एक पीड़ादायक घटना हा तथा पीड़ादायक घटना था तथा पीड़ा निवारण हेतु औषधियों का उपयोग आवश्यक है। शिशु जन्म अनुभव पीड़ायुक्त होता है तथा यह अभिवृति संस्कृति प्रदत्त होती है जिससे प्रसव के समय भयाक्रांत स्त्री की मांसपेशियों एवं यूट्रस में अकड़न आ जाती है। इससे धीमी पीड़ा भी होती है परंतु कभी- कभी आंकुचन के साथ यह तीव्र पीड़ा में परिवर्तित हो जाती है। अतएव विभिन्न देशों में स्वभाविक शिशु जन्म परियोजनाएँ चलायी जा रही है जिसके माध्यम से चिकित्सक एवं सम्बद्ध कार्यकर्त्ता गर्भवती स्त्रियों को पूरी प्रक्रिया के बारे में स्पष्ट जानकारी देते हैं स्वभाविक शिशु जन्म परियोजना के तीन प्रमुख चरण होते हैं।
1. प्रशिक्षण कक्षाएं:लेबर एवं डिलेवरी से संबंधित जानकारी हेतु कक्षाएं चलायी जाती हैं। प्रत्याशित माता- पिता को कक्षाओं में लेबर एवं डिलेवरी के संदर्भ में शरीर रचना एवं दैहिक विज्ञान की जानकारी दी जाती है। इस जानकारी से माँ के अंदर निहित जन्म – प्रक्रिया से जूड़ा भय कम हो जाता है।
2. शिथिलीकरण एवं श्वसन प्रविधि: स्त्रियों को, गर्भाशय आंकुचनका अनुभव होने पर शिथिलीकरण एवं श्वसन के लिए व्यायाम का प्रशिक्षण दिया जाता है जिससे वह लेबर (पीड़ा) के प्रति सहज ढंग से अनुक्रिया कर सके। साथ ही दर्द के बार में सोचने के स्थान पर आनंदकारी चक्षुष प्रतीकों के बारे में कल्पना करने का अभ्यास कराया जाता है जिससे ध्यान पीड़ा से हटकर सृजनात्मक भावों की ओर उन्मुख हो सके।
3. लेबर कोच : जहाँ माँ को श्वसन एवं शिथलीकरण का अभ्यास कराया जाता है, वहीं पति या सहायक को लेबर कोच का प्रशिक्षण दिया जाता है जो आसन्नप्रसवा को आंकुचन के समय शिथिलन अथवा साँस लेने को कहे और लेबर अथवा डिलेवरी के समय प्रसूता की पीठ या पिछले भाग की मालिश करने अथवा सहलाने में सहयोग करे। साथ ही उसे महिलाओं ने अप्रिशिक्षित महिलाओं की तुलना में, लेबर के प्रति धनात्मक अभिवृति दर्शायी एवं कम पीड़ा का अनुभव किया (लिंदेल, 1988)। अत: सामाजिक में अत्यंत महत्वपूर्ण होती है इसकी पुष्टि अनुसन्धानों द्वारा प्रदत्त आंकड़ों से होती है (कैनेल एवं अन्य, 1991; सोसा एवं अन्य, 1980)।
स्त्रोत
ज़ेवियर समाज सेवा संस्थान
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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