शिशु जन्म के प्रति,विभिन्न संस्कृतियों में यद्यपि भिन्न- भिन्न प्रकार की अभिवृत्तियां पायी जाती हैं तथापि शिशु–जन्म की प्रक्रिया, प्रत्येक समाज में समाज में समान–सारिणी के अनुरूप ही घटित होती है। इस प्रक्रिया का प्रथम चरण प्रसव वेदना कहलाता है जो सभी के लिए अत्यंत कठिन समय होता है। जटिल हारमोनयुक्त प्रक्रिया द्वारा शिशु जन्म प्रथम का प्रारंभ होता है। इसे तीन चरणों में विभाजित किया जा सकता है। (1) लेबर (2) जन्म (3) जन्मान्तर प्रक्रिया ।
यह शिशु जन्म का प्रथम चरण कहलाता है। इसकी आवधि प्रथम शिशु के जन्म में, 12-14 घंटे तथा दूसरे और बाद वाले शिशु के जन्म में 4-6 घंटो की होती है। समय वृद्धि के साथ गर्भाशय में अंकूचन, क्रमश: अधिक तेज एवं आवृति के साथ होने लगता है जिससे सर्विक्स ढीली होकर शिशु जन्म के लिए रास्ता प्रदान करती है। पूरी आवधि 12-18 घंटे तक की होती है वैसे इसमें कुछ मिनट से लेकर 30 मिनट से लेकर 30 घंटे तक लग सकते हैं। प्रारंभ में गर्भाशय में हल्का आंकुचन प्रत्येक 15-20 मिनट पर आरंभ होता है। जैसे- जैसे अवधि बढ़ती है, आंकुचन की तीव्रता एवं आवृत्तियों में वृद्धि होती जाती है। अंतत: प्रत्येक 3 से 5 मिनट पर आंकुचन होने लगता है। आंकुचन चूंकि स्वत: चालित अनुक्रिया से निर्धारित होता है अत: इस अवधि में माँ को सहज रहना चाहिए। कुछ स्त्रियों को कृत्रिम दर्द महसूस होता है जो वास्तविक लेबर जैसा ही होता है तथापि दोनों में अंतर किया जा सकता है। यदि स्त्री लेबर में टहलती है तो वास्तविक लेबर की स्थिती में दर्द बढ़ जाता है, परंतु कृत्रिम लेबर की दशा में समाप्त हो जाता है। लेबर के समय प्राय: दो प्रकार की घटनाएँ घटित होती है।
(1) प्रथम सर्विक्स को ढकने वाला म्यूकस प्लग हट जाता है। इस प्रक्रिया को प्रदर्शन के नाम से जाना जाता है। इसमें थोड़ा रक्त भी आ सकता है एवं
(2) एम्नीआटिक सैक (पानी की थैली) जिसमें बच्चा सुरक्षित रहकर माँ के गर्भ में विकसित होता, फट जाता है एवं अम्नीआटिक फ्ल्यूड स्त्री के शरीर से बाहर आने लगता है अथार्त बच्चे के जन्म के लिए रास्ता तैयार हो चुका है।
सर्विक्स के पूर्णत: खुलने एवं माँ के शरीर से बच्चे के बाहर आ जाने की आवधि (जो 15 मि. से 2 घंटे की भी जो सकती है) शिशु जन्म का दूसरा चरण कहलाता है। यह आवधि लेबर की भांति प्रथम शिशु जन्म में लम्बी होती है। जन्म के समय 10-20 आंकुचन लम्बे एवं तीव्र होते हैं। प्रत्येक आंकुचन करीब 1 मिनट का होता है इस आंकुचन के दौरान माँ अपनी एब्डोमिनल मांसपेशियों की सहायता से प्रयास करके शिशु जन्म को सहज बना सकती है। जन्म – नाल (कैनाल) में सामान्यता शिशु के सिर का भाग पहले प्रकट होता है एवं प्रत्येक आंकुचन के साथ क्रमश: बाहर आने लगता है। माँ के पिछले टिसू (योनि एवं रेक्टम के मध्य का स्थान) में फैलाव से शिशु के सिर का भाग पहले निकलता है। प्राय: अस्पतालों में चिकित्सक एपिसियोटोमी चिकित्सा देकर योनि द्वार में फैलाव उत्पन्न कराती हैं जिससे शिशु जन्म सहज में हो सके। कभी- कभी फारसेप का उपयोग किया जाता है परंतु वह हानिकारक होता है सामान्य शिशु जन्म में सिर पहले एवं चेहरा नीचे की ओर निकलता है। जैसे ही सिर बाहर आ जाता है शिशु का चेहरा बाहर ऊपर की ओर हो जाता है ताकि कम प्रयास में ही धड़ का हिस्सा बाहर आ सके एवं अंत में पैर का हिस्सा निकलता है। शिशु जन्म तब जटिल हो जा है जब बीच स्थिति में शिशु होता है अर्थात शिशु का पिछला भाग पहले निकलता है एवं शेष भाग बाद में। ऐसी दशा में माँ एवं शिशु को कष्ट झेलना पड़ता है एवं शिशु को चोट भी लग सकती है।
शिशु जन्म का अंतिम चरण है प्लेसेंटा का माँ के गर्भ से बाहर आना। यह चरण पीड़ा रहित होता है एवं जन्म के 5-10 मिनट के अंदर, कुछ आंकुचन के पश्चात् प्लेसेंटा गर्भाशय की दिवार से अलग होकर निकल आता है।
जन्म के क्षण बच्चे के लिए लेबर एवं डिलेवरी के साथ अनुकूलन का होता है। जन्म प्रक्रिया के अंर्तगत, घंटो आंकुचन एवं दबाव के पश्चात् माँ के गर्भ (अत्यंत सुरक्षित वातावरण) से बाह्य परिवेश, जो भिन्न तापमान एवं तीव्र आंकुचन के कारण उसके सिर पर अधिक दबाव पड़ता है जिससे प्लेसेंटा एवं अम्बिलिकल कार्ड बार - बार दबते हैं एवं इससे ऑक्सीजन वितरण भी घटता है। यद्यपि ये स्थितियां खतरनाक हो सकती हैं तथापि एक स्वस्थ शिशु आसानी से जन्म आघात के साथ अनुकूलित हो जाता हैं। इस आंकुचन के परिणामस्वरुप, बच्चे में प्रतिबल हारमोंस उत्पन्न हो जाते हैं जो को कई प्रकार से बाधित करते हैं । तथापि बच्चे में उत्पन्न इन प्रतिबल हारमोंस के कई लाभ हैं :
(1) ऑक्सीजन वंचना (कमी) की स्थिति में हारमोंस मस्तिष्क एवं हृदय को पर्याप्त रक्त सम्प्रेषित करने में सहायक होते हैं
(2) इनकी सहायता से शिशु तरल- पदार्थ अवशोषित करके फेफड़े से श्वसन क्रिया स्वतंत्र रूप से आरंभ कर देता है
(3) प्रतिबल हारमोंस के कारण शिशु में सक्रियता बनी रहती है एवं वह जागृतावस्था में जन्म लेता है जिससे वाह्य परिवेश (वातावरण) के साथ अंत:क्रिया सहज हो जाती है ( इमोरी एवं टूमी 1988; लेजरक्रंज एवं, स्लाकिन, 1986) ।
जन्म के पश्चात् शिशु की वाह्य आकृति माता- पिता की प्रत्याशा के विपरीत भद्दी एवं बेढंगी दिखती है। एक सामान्य शिशु की लम्बाई 20 इंच एवं भार साढ़े साथ पौंड का होता है। लड़कियों की तुलना में लड़के थोड़े लम्बे होते हैं। मध्य भाग एवं पैर की तुलना में सिर का हिस्सा अधिक बड़ा होता है, परन्तु यह संयोजन आरम्भिक दिनों में तीव्र गति से अर्जन की क्षमता प्रदा करता है। शिशु का गोल चेहरा, बड़ा ललाट व बड़ी- बड़ी आंखे, सबको आकर्षित करती है (बर्मन, 1980; लारेन्ज, 1943), एवं माता पिता और शिशु के बीच सहज अंत: क्रिया स्थापित होने में भी सहायक होती हैं।
जन्म के तुरंत बाद, अपगर द्वारा निर्मित मापनी से शिशु के स्वास्थ्य की स्थिति की जानकारी की जा सकती है ।
प्राप्तांक |
|||
लक्षण |
0 |
1 |
2 |
हृदय गति |
कोई हृदयगति नहीं |
प्रति मिनट 100 बार धड़कन |
प्रतिमिनट 100 से 140 बार धड़कन |
श्वसन प्रभाव |
60 सेकेंड तक श्वसन नही |
अनियमित, संकरी श्वसन |
सशक्त श्वसन एवं रूदन |
चेष्टाएँ, अनूक्रियाएँ और उत्तेजना |
कोई अनुक्रिया नहीं |
प्रतिवर्ती, अनूक्रियाओं का कमजोर होना |
सशक्त चेष्टाओं की अनूक्रियाएँ |
मांस पेशीय गति |
पूर्णत: निस्तेज |
हाथों एवं पैरों में धीमी गति |
हाथों एवं पैरों में प्रबल प्रबल गत्यात्मकता |
रंग |
शरीर, हाथ तथा पैर का नीला होना |
शरीर गुलाबी पड़ जाना तथा हाथ पैर नीला पड़ना |
शरीर, हाथ एवं पैरों का पूर्णत: गुलाबी होना |
कि जन्म के पश्चात् 1-5 मिनट के अंदर शिशु की 5 प्रमुख विशेषताओं को 3 बिन्दु मापनी (0, 1 & 2) पर निर्धारित किया जा सकता है। इस मापनी पर अधिकतम प्राप्तांक 10 एवं न्यूनतम 0 हो सकता है। प्राप्तांक 7 एवं 8 का तात्पर्य है : शिशु का शरीरिक स्वास्थ्य अच्छा हैं । 4-6 प्राप्तांक इस बात का सूचक है कि शिशु को श्वसन एवं अन्य अनुकूलन संबंधी क्रियाओं में सहायता की आवश्यकता है। यदि प्राप्तांक 3 या उससे कम है तो शिशु के स्वास्थ्य को खतरा है एवं उसे आपात देख- रेख की आवश्यकता है। कुछ बच्चे प्रारंभ में समस्याग्रस्त होते हैं परंतु बाद में सामान्य रूप से विकसित होने लगते हैं।
स्त्रोत: ज़ेवियर समाज सेवा संस्थान
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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