सुरक्षित मातृत्व का आशय यह सुनिश्चित करना है कि सभी महिलाओं को गर्भावस्था और बच्चा पैदा होने के दौरान आवश्यक जानकारी की सुविधा प्रदान की जाए। आई एस पी डी में उल्लिखित मातृत्व स्वास्थ्य सेवाएं इस प्रकार हैं:
मातृत्व मृत्यु के प्रमुख कारणों को तीन कोटियों में विभाजित किया जा सकता है-सामाजिक, चिकित्सकीय और स्वास्थ्य सावधानी सुविधाएं :
सामाजिक कारण |
चिकित्सकीय |
स्वास्थ्य सावधानी सुविधाओं की उपलब्धता |
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प्रसव पूर्व देखभाल का संबंध गर्भवती महिलाओं को दी जाने वाली स्वास्थ्य की जानकारी और नियमित चिकित्सा जांच से होता है जिससे कि प्रसव सुरक्षित हो सके। मातृत्व अस्वस्थता और मातृ मृत्यु के मामलों की पहले ही जांच और चिकित्सा कर इन मामलों में कमी लायी जा सकती है। गंभीर खतरों वाली गर्भावस्था और उच्च प्रसव वेदना की छानबीन के लिए प्रसब पूर्ब जाँच (ए एन सी) भी आवश्यक है। प्रसव पूर्व सावधानी के महत्वपूर्ण अंगों पर आगे विचार किया जा रहा हैः
समय-पूर्व पंजीकरण
जैसे ही गर्भाधान की संभावना का पता चले, गर्भवती महिला को प्रसव पूर्व देखभाल के लिए पहली बार जाकर नाम दर्ज कराना चाहिए। प्रजनन आयु की प्रत्येक विवाहित महिला को स्वास्थ्य केन्द्र में जाने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए अथवा महिला के स्वयं गर्भवती महसूस करने पर इसकी सूचना देनी चाहिए। आदर्श रूप में पहली बार गर्भाधान की प्रथम तिमाही (गर्भाधान की प्रथम तिमाही) अथवा 12 सप्ताह से पहले स्वास्थ्य केन्द्र पर जाना चाहिए। तथापि, यदि कोई महिला गर्भाधान की आखिरी अवधि में केंद्र पर आती है तो उसको पंजीकरण कर लेना चाहिए और गर्भाधान की आयु के अनुसार सहायता मुहैया करानी चाहिए।
समय-पूर्व पंजीकरण का महत्व
वजनः
जब भी गर्भवती महिला स्वास्थ्य परीक्षा के लिए जाती है तो उसके वजन की जांच करनी चाहिए। सामान्यतया गर्भवती महिला का वजन 9 से 11 कि. ग्राम तक बढ़ जाना चाहिए। पहली तिमाही के पश्चात गर्भवती महिला का वजन 2 किलो ग्राम प्रति माह अथवा 0.5 प्रति सप्ताह बढ़ना चाहिए। यदि आवश्यक कैलोरी की मात्रा से खुराक पर्याप्त नहीं हो तो महिला अपनी गर्भावस्था के दौरान 5 से 6 किलो ग्राम वजन ही बढ़ा सकती है। यदि महिला का वजन प्रतिमाह 2 किलो ग्राम से कम बढ़ता हो, तो अपर्याप्त खुराक समझनी चाहिए। उसके लिए अतिरिक्त खाद्य आवश्यक होता है। वजन कम बढ़ने से गर्भाशय के अंदर गड़बड़ी का अंदेशा होता है और वह कम वजन वाले बच्चे के जन्म में परिणत होता है। अधिक वजन बढ़ने (> 3 किलो ग्राम प्रतिमाह) से प्री एक्लेम्पसिया/जुड़वां बच्चों की संभावना समझनी चाहिए। उसको चिकित्सा अधिकारी के पास जाँच के लिए भेजना चाहिए।
ऊंचाईः
मातृवंश और प्रसव परिणाम के बीच संबंध है, कम से कम कुछ अंश तक क्योंकि बहुत ही कम ऊंचाई वाली स्त्री की श्रोणि (पेल्विस) छोटी होने के कारण इसका जोखिम बढ़ जाता है। ऐसी स्त्रियां जिनकी ऊंचाई 145 सेंटी मीटर से कम होती है, उनमें प्रसव के समय असामान्यता होने की अधिक संभावना होती है और अति खतरा संवेदी महिला समझी जाती है तथा उसके लिए अस्पताल में ही प्रसव की सिफारिश की जाती है।
रक्त चापः
गर्भवती महिला के रक्तचाप की जाँच बहुत ही महत्वपूर्ण होता है जिससे कि गर्भाधान के दौरान अति तनाव का विकार न होने पाए। यदि रक्तचाप उच्च हो (140-90 से अधिक अथवा 90 एमएम से अधिक डायलेटेशन) और मूत्र में अल्बूमिन की मात्रा पाई जाए तो महिला को प्री-एक्लेम्पसिया कोटि में मान लेना चाहिए। यदि डायास्टोलिक की मात्रा 110 एम एम एच जी से अधिक हो तो उसे तत्काल गंभीर बीमारी की निशानी माना जाएगा। इस प्रकार की महिला को तत्काल सीएचसी/एफ आर यू में जाँच के लिए भेज देना चाहिए। गर्भवती महिला जो कि तनाव (पी आई एच) / पी एकलेम्पसिया से प्रभावित हो उसको अस्पताल में प्रवेश कराने की आवश्यकता होती है।
पैलोरः
यदि महिला के निचले पलक की जोड़, हथेली और नाखून, मुंह का कफ और जीभ पीले हों तो उससे यह संकेत मिलता है कि महिला में खून की कमी है।
श्वसन क्रिया की दर (आर आर):
विशेषरूप से यदि महिला सांस न ले सकने की शिकायत करती हो तो श्वसन क्रिया की जांच करना अति महत्वपूर्ण है। यदि श्वसन क्रिया 30 सांस प्रति मिनट से अधिक हो और कफ उत्पन्न होता हो तो यह संकेत मिलता है कि महिला को खून की भारी कमी है तथा उसे डॉक्टर के पास जांच के लिए भेजना अत्यावश्यक है।
सामान्य सूजनः
चेहरे पर सांस फूलने को सामान्य सूजन होना माना जाता है तथा इससे प्री एक्लेम्पसिया होने की संभावना समझनी चाहिए।
उदरीय परीक्षाः
गर्भ और भ्रूण में वृद्धि और भ्रूण न होने तथा होने पर निगरानी रखने के लिए उदरीय परीक्षा करनी चाहिए।
लौह फोलिक अम्ल (आई एफ ए) की आपूर्तिः
गर्भवती महिलाओं को खून की कमी के खतरों से बचाने के लिए गर्भावस्था के दौरान अधिकाधिक लौह की आवश्यकता पर जोर डालें। सभी गर्भवती महिलाओं को गर्भाधान के बाद की पहली तिमाही अर्थात 14 से 16 सप्ताह से प्रतिदिन आई एफ ए (100 एम जी मौलिक लौह और 0.5 एम जी फोलिक एसिड) की एक गोली 100 दिन तक देने की आवश्यकता होती है। आई एफ ए की यह मात्रा (प्रोफाइलेक्टिक खुराक) खून की कमी को रोकने के लिए दी जाती है। यदि किसी महिला में खून की कमी हो (एच बी<जी/डीएल) या उसको पैलोर हो तो उसे तीन माह तक आई एफ ए की 2 गोलियों की मात्रा प्रतिदिन देते रहें। इसका यह आशय हुआ कि गर्भवती महिला को गर्भावस्था के दौरान आई एफ ए की कम से कम 200 गोलियां देने की आवश्यकता होती है। आई एफ ए गोलियों की यह मात्रा अत्यधिक खून की कमी वाली(एच बी<7जी/डीएल) अथवा सांस न ले सकने वाली और खून की कमी के कारण चिड़-चिड़ाहट महसूस करने वाली महिलाओं को (स्वास्थ्यकर मात्रा) स्वस्थ बनाने के लिए आवश्यक होती है। इन महिलाओं को आई एफ ए की स्वास्थकर मात्रा आरंभ कर और आगे अगली देखभाल के लिए संबद्ध डॉक्टर के पास सलाह के लिए भेजना चाहिए।
टेटनस टोक्साईड का इंजेक्शन देनाः
नवजात शिशु की टेटनस से रोकथाम के लिए टी टी इंजेक्शन की 2 मात्रा देना बहुत ही महत्वपूर्ण है। टी-टी इंजेक्शन की पहली खुराक पहली तिमाही के ठीक बाद में या जैसे ही कोई महिला ए एन सी के लिए अपना नाम दर्ज कराए, जो भी बाद में हो, देनी चाहिए। गर्भाधान की पहली तिमाही के दौरान टी टी इंजेक्शन नहीं देना चाहिए। पहली खुराक के एक माह बाद ही अगली इंजेक्शन की खुराक देनी चाहिए किंतु ई डी डी से एक माह पहले ही।
गर्भावस्था के दौरान महिला की खुराक इस प्रकार होनी चाहिए, जिससे बढ़ रहे भ्रूण, मां के स्वास्थ्य का रख - रखाव, प्रसव के दौरान आवश्यक शारीरिक स्वास्थ्य और सफल स्तन-पान कराने की क्रिया के लिए आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सकेः
संशोधित भोजनः
1. सूजन में कमी लाने के लिए कम नमक वाले भोजन लेने चाहिए। महिला सामान्य भोजन खा सकती है किंतु नमकीन या नमक रहित पकाना चाहिए।
2. प्री एक्लेम्पसिया, विशेष रूप से मूत्र में अलबूमिन पाए जाने पर उच्च प्रोटीन युक्त खुराक लेनी चाहिए। गर्भवती महिला को अपनी प्रोटीनयुक्त खुराक बढ़ाने की सलाह देनी चाहिए।
बहुत सी महिलाएं गर्भवती होने पर कड़ी मेहनत या पहले से भी अधिक कड़ी मेहनत से काम करना जारी रखती है। अत्यधिक शारीरिक श्रम के वजह से गर्भपात, अपरिपक्व प्रसूति या कम वजन वाले शिशु (विशेष रूप से जबकि महिला पर्याप्त भोजन न कर रही हो) पैदा होने की संभावना रहती है। गर्भवती महिला को यथासंभव भरपूर विश्राम करना चाहिए। दिन के समय उसको लेटकर कम से कम एक घंटे का विश्राम करना चाहिए तथा प्रत्येक रात में 6 से 10 घंटे सोना चाहिए। करवट के बल सोना हमेशा आरामदायक होता है तथा इससे पल रहे शिशु को रक्त की आपूर्ति में वृद्धि होती है।
निम्नलिखित लक्षणों से असुविधा होती है और जटिलताओं के संकेत हैं:
असुविधा सूचक लक्षण |
जटिलता सूचक लक्षण |
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गर्भावस्था के दौरान बीमार पड़ना असुविधाजनक और अरुचिकर होता है क्योंकि गर्भावस्था अपने आप में असुविधाजनक होता है और गर्भावस्था के दौरान कुछ दवाइयां वर्जित होती है। इसके अतिरिक्त मलेरिया जैसी कुछ बीमारियां गर्भावस्था के दौरान गंभीर समस्याएं पैदा कर देती है। इन्हीं कारणों से गर्भावस्था के दौरान महिलाओं को बीमारियों और संक्रमण से बचने के लिए विशेष सावधान रहने की आवश्यकता होती है। उदारहण के लिए उन्हें सोते समय मच्छरदानी का प्रयोग करना चाहिए तथा ऐसे पानी का उपयोग नहीं करना चाहिए जिससे सिस्टोसोमियासिस जैसी बीमारी होती हो।
प्रतिदिन स्नान करने से ताजगी आती है तथा इससे संक्रमित होने अथवा बीमार पड़ने से बचा जा सकता है। यह विशेष रूप से महत्वपूर्ण है कि स्तनों और जननेंन्द्रिय गुप्तांगों की स्वच्छ पानी से बार-बार सफाई की जाए। रुक्ष रासायनिकों तथा प्रक्षालकों की आवश्यकता नहीं होती है क्योंकि वे हानि कारक भी हो सकते हैं। सूती हल्के फुल्के ढीले-ढाले कपड़ों का प्रयोग उचित होता है। सही आकार की चोलियां स्तनों को सहारा पहुंचाती हैं, क्योंकि स्तन बड़े और मुलायम हो जाते हैं।
संपूर्ण गर्भावस्था के दौरान संभोग सुरक्षित होता है बशर्तें कि गर्भावस्था सामान्य हो। गर्भावस्था के दौरान संभोग से तब बचकर रहना चाहिए जबकि गर्भपात होने का खतरा हो (पहले लगातार गर्भपात हो चुके हों) या समय से पूर्व प्रसव होने की संभावना हो (अर्थात पहले समय से पूर्व प्रसव हो चुके हों)।
प्रसव के दौरान होने वाली अधिकांश जटिलताओं के विषय में पहले से ही कुछ कहा नहीं जा सकता है। अतः प्रत्येक गर्भावस्था में किसी भी संभावित आपात स्थिति के लिए तैयारी की आवश्यकता होती है।
सभी गर्भिणी महिलाओं को किसी संस्थागत प्रसव के लिए ही प्रोत्साहित करना चाहिए। प्रसव के दौरान कोई भी जटिलता हो सकती है, जटिलताओं के विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता, उनसे जच्चा और/या बच्चा दोनों की जान जा सकती है।
प्रसव के संकेतः
निम्नलिखित संकेतों में से कोई भी संकेत मिलने पर महिला को स्वास्थ्य सुविधा यूनिट में जाने की सलाह देनी चाहिए क्योंकि इनसे प्रसव आरंभ होने का संकेत मिलता है -
खतरे के संकेतः
महिला को निम्नलिखित में से कोई भी स्थिति होने पर एफ आर यू में जाना चाहिएः
महिला को निम्नलिखित में से कोई भी स्थिति होने पर उसे 24 घंटे सेवा पी.एच.सी में ले जाना चाहिए
माता की मृत्यु में प्रसव पूर्व और प्रसवोत्तर रक्तस्राव एक बहुत ही महत्वपूर्ण कारण है। ऐसे मामलों में रक्त संचारण कराना जीवन रक्षक साबित हो सकता है। रक्त खरीदा नहीं जा सकता है। रक्त संचारण के लिए रक्त जारी करने से पूर्व स्वैच्छिक रक्तदानकर्ता की आवश्यकता होती है जिससे कि आवश्यकता पड़ने पर उसका रक्त दिया जा सके। इस प्रकार के रक्तदानकर्ता (2 या 3 संख्या) तैयार होने चाहिए जिससे कि आवश्यकता की पूर्ति की जा सके।
प्रजननोत्तर सावधानीः
अनुसंधान से मालूम हुआ है कि 50 प्रतिशत से अधिक माता की मृत्यु प्रसवोत्तर काल में ही होती है। परंपरागत रूप से प्रसव के उपरांत पहले 42 दिन ( 6 सप्ताह) को प्रसवोत्तर काल माना जाता है। इसमें से पहले 48 घंटे तथा बाद का एक सप्ताह मां तथा उसके नवजात शिशु के स्वास्थ्य तथा जीवन के लिए अत्यंत संकटकालीन होता है। इसी अवधि में माता और नवजात शिशु के लिए प्राण-घातक तथा मरणासन्न जटिलताएं उत्पन्न होती है। माता और शिशु स्वास्थ्य रख-रखाव के सभी अवयवों में से प्रसवोत्तर देखभाल तथा नवजात शिशु की देखभाल में अत्यंत अवहेलना होती है। भारत में प्रसवोत्तर अवधि के दौरान 6 में से केवल 1 महिला को ही देखभाल की सुविधा उपलब्ध हो पाती है। (राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एन.एफ.एच.एस.) के आंकड़ों से यह संकेत मिलता है कि घर पर ही प्रसव करने वाली महिलाओं में से केवल 17 प्रतिशत की प्रसवोत्तर जांच दो माह के अंदर हो पाती है। इसके अतिरिक्त घर पर ही प्रसव करने वाली महिलाओं में केवल 2 प्रतिशत को ही प्रसवोपरांत दो दिन के अंदर प्रसवोत्तर देखभाल की सुविधा सुलभ हो सकी है तथा 5 प्रतिशत को 7 दिन के अंदर यह सुविधा उपलब्ध हो सकी है। साथ ही, महिलाओं के इस न्यून भाग से भी अधिकांश महिलाओं को ऐसी समूची सूचना तथा सेवाएँ उपलब्ध नहीं करायी जा सकी थी जो कि प्रसवोतर जांच के दौरान आने वाली महिलाओं को उपलब्ध कराना अनिवार्य था।
प्रसव के पश्चात महिला को शारीरिक और भावनात्मक समंजन करना पड़ता है और इसके लिए सहारे तथा समझ की आवश्यकता होती है। इस प्रकार के प्रसव प्यूरपरल सेपासिस अथवा गर्भाशय के आस-पास ऊतक (टिश्यू) के खराब होने, मूत्र संक्रमण, श्रोणि में चोट लगना तथा प्रसवोत्तर मनोविकारी बीमारी के कुछ चिकित्सीय रोग के मामले सामने आये हैं। यह महत्वपूर्ण है कि इन रोगों की शीघ्रता-शीघ्र जांच-परख कर उनका इलाज किया जाए क्योंकि इनमें से कुछेक जटिलताएं अधिक जानलेवा हो सकती है।
प्रसवोपरान्त 6 सप्ताह के दौरान मां को अनेक शारीरिक और भावनात्मक परिवर्तनों का अनुभव होता है
संभावित ज़ोखिम :
प्रसव उपरान्त की अवधि में तीन प्रकार की गंभीर जटिलताएं पैदा हो सकती है:
एक्लेम्पसिया (प्रसव के बाद पहले दो दिन या 48 घंटे के अंदर) संक्रमण और रक्त स्राव (तेज रक्त स्राव)। संक्रमण, प्रायः दीर्घकालीन प्रसव वेदना या कोशिकाओं के समय से पहले भंग होने के परिणामस्वरूप होता है। प्रसव के दौरान साफ-सफाई की कमी के परिणामस्वरूप भी ऐसा हो सकता है (जैसा कि प्रसूति परिचर के हाथ अथवा उपकरण साफ न हो) या सीजेरियन सेक्शन के बाद भी ऐसा हो सकता है। गंभीर संक्रमण के चिह्न बुखार, सिरदर्द, पेट के निचले हिस्से में दर्द होना, योनि के रिसाव से बदबू आना तथा उल्टी व दस्त होना। ये खतरनाक चिह्न होते हैं। यदि किसी महिला में ये लक्षण हों तो उसे तुरंत क्लिनिक या अस्पताल में जाना चाहिए। रक्तस्राव प्रसव के बाद दस या इससे अधिक दिनों के बाद हो सकता है। प्रसव के बाद यदि पुरइन संपूर्ण रूप से बाहर नहीं आती है तो रक्तस्राव जारी रह सकता है तथा भारी मात्रा में हो सकता है। लोचिया जननेंद्रिया से होने वाला रक्तस्राव होता है। पहले यह शुद्ध रक्त होता है, बाद में पीलापन आता है, कम होने लगता है और अंत में जोखिम पैदा करता है जो कि प्रसव के उपरांत पैदा होती है, जैसे कि खून की कमी और नासूर पैदा हो जाना। नासूर के रूप में छिद्र होते हैं जो कि जननेंद्रिय और पेशाब के रास्ते अथवा मलाशय के बीच होते हैं।
गंभीर जटिलताएं, प्रसवोत्तर खतरा चिह्नः
बच्चे के जन्म के पश्चात किसी महिला को यदि निम्नलिखित खतरे का चिह्न दिखाई दे तो उसे शीघ्र ही देखभाल करानी चाहिएः
नयी मां को अपने प्रथम प्रसवोत्तर जांच के लिए प्रसवोपरांत 7 से 10 दिन के अंदर स्वास्थ्य सुविधा क्लिनिक में जाना चाहिए अथवा किसी स्वास्थ्य कार्यकर्ता को घर पर ही आना चाहिए। यदि उसका प्रसव घर पर ही हुआ हो तो यही सही रहता है। पहली जांच के लिए जाना इसलिए महत्वपूर्ण है कि यह सुनिश्चित किया जा सके कि मां और शिशु दोनों (जच्चा- बच्चा) प्रसव और पीड़ा से उबर रहे हैं। यदि सभी कुछ ठीक-ठाक हो तो अगली जांच बच्चा पैदा होने से 6 सप्ताह बाद होनी चाहिए। जच्चा-बच्चा दोनों की पूरी तरह शारीरिक स्वास्थ्य परीक्षा करनी चाहिए और बच्चे का असंक्रमीकरण कराना चाहिए। इसके अतिरिक्त स्तनपान, संभोग संबंध, परिवार नियोजन और बच्चे के असंक्रमीकरण या अन्य विषयों के संबंध में महिला द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तर देने का यह एक अति उत्तम अवसर होता है।
बच्चे के जन्म के पश्चात, महिलाओं को उनकी शक्ति पुनः प्राप्त करने और प्रसव पीड़ा तथा प्रसव से उबरने के लिए अच्छे खान-पान की आवश्यकता होती है। खून की कमी न होने पाए इसलिए उनको लौह (आयरन) गोलियां लेते रहना चाहिए, विशेषकर जबकि प्रसव के दौरान खून बह गया हो। यदि कोई महिला स्तन पान कराती है तो उसके भोजन में अतिरिक्त खाद्य और पीने की व्यवस्था होनी चाहिए। स्तन-पान कराने वाली महिलाओं को गर्भावस्था के दौरान खाने से भी कहीं अधिक भोजन की आवश्यकता होती है क्योंकि स्तन-पान कराने से स्वास्थ्य-वर्धक(मातृ-शिशु रक्षा कार्ड) संचयन की मांग होती है। कैलोरी, प्रोटीन, लौह, विटामिन तथा अन्य सूक्ष्म पौष्टिक पदार्थों से युक्त भोजन खाना चाहिए। उदाहरण के लिए दालें, दूध तथा दूध से बने पदार्थ हरी पत्तियों वाली सब्जियां तथा अन्य सब्जियां, फल, मुर्ग उत्पाद, मांस, अंडा और मछली। प्रसव के तुरंत बाद तथा पुरइन गिरने के दौरान वर्जित भोजन पदार्थों की संख्या गर्भावस्था के दौरान से कहीं अधिक होती है। इनको प्रोत्साहन नहीं देना चाहिए। उनको यह भी ध्यान रखना चाहिए कि वे तरल पदार्थ अधिक मात्रा में लें। महिलाओं को प्रसवोत्तर अवधि में पर्याप्त विश्राम की आवश्यकता होती है जिससे कि वे अपनी शक्ति पुनः प्राप्त कर सके। उसको, उसके पति तथा परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा यह परामर्श देना चाहिए कि उसको अपना तथा बच्चे की देखभाल के अतिरिक्त कोई अन्य भारी कार्य नहीं करना है।
महिला को सलाह दें तथा स्पष्ट करें कि जननेंद्रिय में कोई वस्तु न डालें तथा मल निकलने के पश्चात मूलाधार को प्रतिदिन अच्छी तरह साफ करें। यदि पुरइन अधिक आ रही हो तो मूलाधार पैड को प्रति 4 से 6 घंटे के अंदर बदल देना चाहिए। यदि कपड़े के पैड का प्रयोग किया जाए तो पैड को पर्याप्त साबुन पानी से साफ करना चाहिए तथा धूप में सुखाया जाना चाहिए। उसको नियमित स्नान करने की सलाह दी जाए तथा बच्चे को हाथों में लेने से पहले साबुन से हाथ धो लिया जाए।
स्त्रोत: पोर्टल विषय सामग्री टीमअंतिम बार संशोधित : 2/23/2020
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