भारत में सरकारी मशीनरी की संरचना कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका के बीच नियंत्रण और संतुलन पद्धति द्वारा शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत पर की गई है। भारतीय न्यायपालिका अपनी सांविधानिक सीमा के अनुसार एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इस यूनिट द्वारा पाठकों को देश की न्यायपालिका का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है।
एकल और एकीकृत न्यायिक पद्यति :
भारत के संविधान में एकल न्यायिक पद्धति के लिए उपबंध किया गया है जिसमें उच्चतम न्यायालय सर्वोच्च स्तर पर, उच्च न्यायालय मध्यम (राज्य) स्तर पर और जिला न्यायालय स्थानीय स्तर पर होते हैं। अन्य न्यायालय (अधीनस्थ न्यायालय) उच्च न्यायालयों के अधीन कार्य करते हैं। भारत में समस्त न्यायालय एकल न्यायिक पद्धति का एक लिंक गठित करते हैं। इन सभी स्तरों के न्यायालय मिलकर एक स्वतंत्र और शक्तिशाली न्यायिक पद्धति का गठन करते हैं, जो संविधान और संविधान द्वारा गारंटीकृत मूल अधिकारों और अन्य विधिक अधिकारों के संरक्षक के रूप में कार्य करते हैं।
न्यायपालिका की स्वतंत्रता :
भारत के संविधान में न्यायपालिका को सही अर्थो में स्वतंत्र बनाया गया है। इसमें निम्नलिखित के लिए उपबंध है:
(1) न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा कालेजियम की सिफारिशों पर की जाती है, जहाँ उच्चतम न्यायालय द्वारा तीन न्यायाधीशों के मामलों में अधिकथित विधि के निबंधनुसार कालेजियम के दृष्टिकोण को प्राथमिकता दी जाती है;
(2) ऐसी नियुक्तियों में किसी विसंगति या विवेकाधिकार को समाप्त करने के लिए न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए अर्हताएं स्पष्ट रूप से अनुबंधित की गई हैं;
(3) न्यायाधीशों को केवल महाभियोग के माध्यम से हटाना संभव है, जो कि एक जटिल प्रक्रिया है; और
(4) न्यायपालिका के लिए पर्याप्त शक्तियाँ और कार्यात्मक स्वायत्तता प्रदान की गई है।
न्यायिक पुनर्विलोकन :
भारत का संविधान देश की सर्वोच्च विधि है। उच्चतम न्यायालय संविधान के निर्वचनकर्ता और संरक्षक के रूप में कार्य करता है। यह लोगों के मूल अधिकारों और स्वतंत्रताओं का संरक्षक है। इस भूमिका को निभाने के लिए वह न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति का प्रयोग करता है। उच्चतम न्यायालय के पास समस्त विधियों की सांविधानिक विधिमान्यता का अवधारण करने की शक्ति प्राप्त है। उच्च न्यायालय भी इस शक्ति का प्रयोग करते हैं।
सांविधानिक उपचारों का अधिकार [अनुच्छेद 32] मूल अधिकारों के अतिक्रमण को रोकने के लिए न्यायालयों का संरक्षण प्रदान करता है। उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों को क्रमश: अनुच्छेद 32 और अनुच्छेद 226 के अधीन किसी मूल अधिकार के उल्लंघन की दशा में रिट जारी करने की शक्ति प्राप्त है। ये रिट निम्नलिखित हैं:
उच्चतम न्यायालय को विवादों के सभी मामलों में अधिकारिता प्राप्त है :
(1) भारत सरकार और एक या अधिक राज्यों के बीच;
(2) भारत सरकार और एक ओर एक राज्य या अधिक राज्य और दूसरी ओर एक राज्य या अधिक राज्य के बीच; और
(3) दो या अधिक राज्य के बीच।
उच्च न्यायालय :
संविधान में यह अधिकथित किया गया है कि प्रत्येक राज्य के लिए एक उच्च न्यायालय होगा। तथापि, दो या अधिक राज्यों में, पारस्पिक सहमति से एक संयुक्त न्यायालय भी हो सकता है।
उच्च न्यायालय एक अभिलेख न्यायालय है और उसे अवमान के लिए दंडित करने की शक्ति प्राप्त है (अनुच्छेद 215) । उसे सिविल और दांडिक मामलों में ‘मूल अधिकारिता’ और अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा विनिश्चित दांडिक और सिविल मामलों की बाबत ‘अपीली अधिकारिता’ प्राप्त है। उच्च न्यायालय को सिविल प्रक्रिया संहिता और दंड प्रक्रिया संहिता के अधीन प्रदत्त की गई ‘पुनरीक्षण अधिकारिता’ और भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के अधीन ‘रिट अधिकारिता’ भी प्राप्त है।
खुला विचारण :
भारत में न्यायालय स्वतंत्र हैं। वे खुले विचारणों का संचालन करते हैं। अभियुक्त को सदैव अपना बचाव करने का पूरा अवसर दिया जाता है। राज्य गरीबों और जरूरतमदों को नि:शुल्क विधिक सहायता प्रदान करता है।
उच्च न्यायालय के अधीनस्थ सिविल न्यायालयों का मूलभूत ढांचा
शहरों में |
जिलों में |
प्रथम श्रेणी मुख्य न्यायाधीश और अपर मुख्य न्यायाधीश |
प्रथम श्रेणी जिला न्यायाधीश और अपर जिला न्यायाधीश |
द्वितीय श्रेणी सहायक मुख्य न्यायाधीश या ज्येष्ठ सिविल न्यायाधीश |
द्वितीय श्रेणी सहायक जिला न्यायाधीश या ज्येष्ठ सिविल न्यायाधीश |
तृतीय श्रेणी मुनसिफ या कनिष्ठ सिविल न्यायाधीश |
तृतीय श्रेणी मुनसिफ या कनिष्ठ सिविल न्यायाधीश |
उच्च न्यायालय के अधीनस्थ दांडिक न्यायालयों का मूलभूत ढांचा
शहरों में |
जिलों में |
सेशन न्यायालय (सेशन न्यायाधीश, अपर सेशन न्यायाधीश और सहायक सेशन न्यायाधीश) |
सेशन न्यायालय (सेशन न्यायाधीश, सेशन न्यायाधीश और सहायक सेशन न्यायाधीश) |
प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट/ मैट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट, द्वितीय श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट/ मैट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट |
मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट |
शक्तियों का पृथक्करण :
कार्यपालिका मजिस्ट्रेसी
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न्यायिक सक्रियता :
भारतीय न्यायिक पद्धति ने उत्तरोत्तर सक्रिय भूमिका निभाई है। उच्चतम न्यायालय ऐसे न्यायिक विनिश्चय और निदेश जारी कर रहा है जिनका उद्देश्य लोक हित और मानव अधिकारों का सक्रिय संरक्षण करना है। न्यायपालिका जनता के अधिकारों की बेहतर सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सरकारी पदाधिकारियों को निदेश डे रही है। अब लोक हित मुकदमेबाजी सुस्थापित है और लोक अदालतें संविधान का एक अभिन्न अंग बन गई हैं।
लोक हित मुकदमेबाजी :
इस पद्धति के अधीन, भारत के न्यायालय ऐसे किसी महत्वपूर्ण लोक या साधारण हित को सुनिश्चित करने के लिए, जिस पर किसी अभिकरण की कार्रवाई द्वारा, चाहे वह सार्वजनिक हो या प्राइवेट, प्रतिकूल प्रभाव डाला जा रहा है या उस पर इस प्रकार प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की संभावना है, कार्रवाई आरंभ और प्रवर्तित कर सकते हैं। इसके अधीन कोई नागरिक या कोई समूह या कोई स्वैच्छिक संगठन, या स्वयं न्यायालय भी किसी लोक हित के संरक्षण और तुष्टि के लिए कईवाई की मांग करते हुए किसी मामले की सुचना दे सकता है।
इस यूनिट में भारत में यथा-प्रचलित दंड प्रक्रिया के विभिन्न पहलुओं का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। इसका उद्देश्य पाठकों को दांडिक मामलों में सुसंगत तकनीकी पदों, उनके अधिकारों और अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया से अवगत कराना है। यह उल्ल्लेख करने की आवश्यकता है कि विभिन्न राज्यों द्वारा दंड विधि में अनेक संशोधन किए गए है और राज्य द्वारा किए गए ऐसे विनिर्दिष्ट परिवर्तनों को ध्यान में रखने की आवश्यकता है।
अपराधों का प्रवर्गीकरण
दंड प्रक्रिया संहिता में अपराधों के तीन प्रकार के प्रवर्गीकरण के लिए उपबंध किया गया है:
संज्ञेय और असंज्ञेय अपराध
जमानतीय और अजमानतीय अपराध
जमानतीय अपराध में, कोई अभियुक्त व्यक्ति अधिकारस्वरूप पुलिस थाने के थाना गृह अधिकारी को, यदि वह पुलिस अभिरक्षा में है या उस न्यायालय को, जिसके समक्ष वह उपस्थित होता है या पेश किया जाता है, पर्याप्त प्रतिभूति देने पर जमानत पर छोड़े जाने का अनुरोध कर सकता है। अजमानतीय अपराधों में, जमानत केवल न्यायालय द्वारा ही मंजूर की जा सकती है।
शमनीय और अशमनीय अपराध
सिविल और दांडिक मामला
सिविल और दांडिक कार्यवाहियों के बीच मुख्य अंतर यह है कि किसी सिविल कार्यवाही में, उपचार सिविल प्रकृति का होता है और किसी दांडिक कार्यवाही में, दोषसिद्धि और पारिणामिक दंड, जिसमें कारावास, जुर्माना आदि अंतर्वलित होता है, पारित किया जाता है। सिविल और दांडिक कार्यवाहियों के बीच एक अन्य अंतर यह है कि पूर्ववर्ती की दशा में, केवल व्यथित व्यक्ति अपराध की शिकायत कर सकता है। दांडिक मामलों की दशा में, यदि अपराध गंभीर है तो कोई भी अपराध कारित किए जाने के बारे में शिकायत कर सकता है।
दैनिक डायरी प्रविष्टि (डी.डी.ई.)
असंज्ञेय रिपोर्ट (एन.सी.आर.)
पुलिस द्वारा किसी असंज्ञेय के बारे में विहित प्ररूप में लेखबद्ध सूचना को एन.सी.आर. कहा जाता है। एन.सी.आर. मजिस्ट्रेट को अग्रेषित की जानी होती है, जो कि यह आदेश कर सकेगा कि अपराध का अन्वेषण किया जाए।
प्रथम इत्तिला रिपोर्ट (एफ.आई.आर.)
पुलिस को सूचना देते समय अधिकार
अन्वेषण
अन्वेषण का अंतरण
ऐसी स्थिति में, जहाँ स्थानीय अन्वेषण अभिकरण निष्पक्ष या प्रभावी रूप से अन्वेषण नहीं करता या यह विश्वास करने का कारण है कि वह प्रभावी और निष्पक्ष रीति में अन्वेषण का संचालन करने में समर्थ नहीं होगा वहां दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 156, 173 और 482 के अधीन और भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 और 226 के अधीन उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय यह आदेश कर सकते है कि अन्वेषण सी.बी.आई. को अंतरित कर दिया जाए।
न्यायालय द्वारा अपराध का संज्ञान
जैसे ही न्यायालय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 190(1) के अधीन उसके समक्ष प्रस्तुत मामले पर अपने विवेक का प्रयोग करता है तो ऐसा मजिस्ट्रेट उस अपराध का संज्ञान करता है। सेशन न्यायालय द्वारा अनन्य रूप से विचारणीय मामलों में मजिस्ट्रेट द्वारा मामले की सुपुर्दगी के पश्चात संज्ञान लिया जाता है।
न्यायालय द्वारा अभियुक्त के विरुद्ध आरोप विरचित करना
जमानत मंजूर करने के संबंध में उपबंध
(क) आरोप की घोरता या दोषारोपण की प्रकृति।
(ख) उस दंड की गंभीरता, जो किसी मामले में दोषसिद्धि पर दिया जाएगा।
(ग) दोषारोपण के समर्थन में प्रस्तुत किए गए साक्ष्य की प्रकृति।
(घ) यदि अभियुक्त को जमानत पर छोड़ दिया जाता है तो उसके फरार होने का खतरा।
(ङ) विचारण की अवधि।
(च) अभियुक्त के निरोध की अवधि।
(छ) अभियुक्त का चरित्र, साधन और प्रतिष्ठा।
(ज) अभियुक्त का न्यायालय में पूर्ववर्ती आचरण और व्यवहार।
(झ) अभियुक्त का स्वास्थ्य, आयु और लिंग।
(ञ) अभियुक्त को प्रतिरक्षा तैयार करने और काउंसेल से मिलने का अवसर।
(ट) इस बात का खतरा की अपराध दोहराया जाएगा।
जमानत का रद्द किया जाना
अभियुक्त का न्यायालय के समक्ष उपस्थित होना
मजिस्ट्रेट द्वारा किसी अपराध का संज्ञान लिए जाने पश्चात, अर्थात, उसने अपने समक्ष लाए गए मामले के संबंध में विवेक का प्रयोग किया है और इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि मामले में आगे कार्यवाही किए जाने की आवश्यकता है तो उसे यह सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त कदम उठाने होंगे कि अभियुक्त अग्रिम कार्यवागियों के लिए न्यायालय के समक्ष उपस्थित हो। न्यायालय, अभियुक्त की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए समन या वारंट जारी कर सकता है।
वारंट मामले
वारंट मामले ऐसे मामले होते हैं जिनके परिणामस्वरूप दो वर्ष से अधिक के कारावास का दंड दिया जा सकता है। न्यायालय, यदि उसके पास यह विश्वास करने का कारण है कि कोई व्यक्ति समन का अनुपालन नहीं करेगा, अभियुक्त की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए गिरफ्तारी का वारंट जारी कर सकता है। अभियुक्त का पेश होना महत्वपूर्ण है क्योंकि उसकी उपस्थिति आरोप विरचित करने और साक्ष्य अभिलिखित करने के लिए आवश्यक है।
शिकायतकर्ता के काउंसेल को सुने जाने अधिकार
दांडिक मामलों में सबूत का मानक
अपील
पुनरीक्षण
(क) निचले न्यायालय का विनिश्चय अत्यधिक त्रुटिपूर्ण है।
(ख) विधि के उपबंधों का अनुपालन नहीं किया गया है।
(ग) तथ्य संबंधी निष्कर्ष साक्ष्य पर आधारित नहीं है।
(घ) निचले न्यायालय द्वारा तात्विक साक्ष्य को अनदेखा किया गया है।
(ङ) जिस तरीके से कार्यवाहियां चलाई जा रही हैं, उसमें अन्य कोई अवैधता है।
भारतीय दंड संहिता, 1860
इस यूनिट के अंतर्गत महिलाओं से संबंधित अपराधों और भारतीय दंड संहिता, 1860 में ऐसे अपराधों की बाबत शास्तिक उपबंध आते हैं। उन धाराओं के विवरण को, जिन्हें वर्ष 2013 में संशोधित किया गया है, यूनिट-4 में शामिल किया गया है। सुसंगत उपबंधों का संक्षिप्त विवरण नीचे दिया गया है:
अपराध |
धारा |
दंड |
संज्ञेय/ असंज्ञेय |
जमानतीय/ अजमानतीय |
कतिपय अपराधों से, जिसके अंतर्गत लैंगिक उत्पीड़न के मामले भी हैं, पीड़ित व्यक्ति की पहचान का प्रकटन |
228क |
दो वर्ष का कारावास और जुर्माना |
संज्ञेय |
जमानतीय |
अश्लील कार्य और गाने |
294 |
तीन मास का कारावास या जुर्माना या दोनों |
संज्ञेय |
जमानतीय |
दहेज मृत्यु |
304ख |
सात वर्ष का न्यूनतम कारावास जो आजीवन कारावास तक हो सकेगा |
संज्ञेय |
अजमानतीय |
आत्महत्या का दुष्प्रेरण |
306 |
दस वर्ष का कारावास और जुर्माना |
संज्ञेय |
अजमानतीय |
गर्भपात कारित करना |
312 |
तीन वर्ष का कारावास और जुर्माना |
असंज्ञेय |
जमानतीय |
स्त्री की सम्मति के बिना गर्भपात करना |
313 |
आजीवन कारावास या दस वर्ष का कारावास और जुर्माना |
संज्ञेय |
अजमानतीय |
स्त्री की सम्मति के बिना गर्भपात करने के आशय से किए गए कार्यो द्वारा कारित मृत्यु |
314 |
दस वर्ष तक का कारावास और जुर्माना या आजीवन कारावास या ऊपर वर्णित दंड |
संज्ञेय |
अजमानतीय |
शिशु का जीवित पैदा होना रोकना या जन्म के पश्चात उसकी मृत्यु कारित करना |
315 |
दस वर्ष तक का कारावास या जुर्माना या दोनों |
संज्ञेय |
अजमानतीय |
ऐसे कार्य द्वारा जो आपराधिक मानव वध की कोटि में आता है, किसी अजात शिशु की मृत्यु कारित करना |
316 |
दस वर्ष का कारावास और जुर्माना |
संज्ञेय |
अजमानतीय |
स्त्री की लज्जा भंग करने का आशय से उस पर हमला या आपराधिक बल का प्रयोग |
354 |
एक वर्ष का कारावास, जो पाँच वर्ष तक का हो सकेगा और जुर्माना |
संज्ञेय |
अजमानतीय |
भारत से व्यपहरण |
360 |
सात वर्ष का कारावास और जुर्माना |
संज्ञेय जमानतीय |
|
विधिपूर्ण संरक्षकता में से व्यपहरण (अवयस्क, अर्थात महिलाओं की दशा में 18 वर्ष से कम और पुरुषों की दशा में 16 वर्ष से कम) |
361 |
सात वर्ष का कारावास और जुर्माना |
संज्ञेय |
जमानतीय |
विवाह आदि के करने को विवश करने के लिए किसी स्त्री को व्यपह्यत करना, अपह्यत करना या उत्प्रेरित करना |
366 |
दस वर्ष का कारावास और जुर्माना |
संज्ञेय |
अजमानतीय |
अवयस्क लड़की का उपापन (अवयस्क लड़की 18 वर्ष की आयु से कम की है) |
366क |
दस वर्ष का कारावास और जुर्माना |
संज्ञेय |
अजमानतीय |
विदेश से (भारत के बाहर किसी देश से या जम्मू-कश्मीर राज्य से) लड़की का आयात करना |
366ख |
दस वर्ष का कारावास और जुर्माना |
संज्ञेय |
अजमानतीय |
वेश्यावृत्ति आदि के प्रयोजन के लिए अवयस्क का बेचना (18 वर्ष से कम के व्यक्ति) |
372 |
दस वर्ष का कारावास और जुर्माना |
संज्ञेय |
अजमानतीय |
वेश्यावृत्ति आदि के प्रयोजनों के लिए किसी अवयस्क को खरीदना |
373 |
दस वर्ष का कारावास और जुर्माना |
संज्ञेय |
अजमानतीय |
आपराधिक न्यास-भंग |
406 |
तीन वर्ष का कारावास और जुर्माना या दोनों |
संज्ञेय |
अजमानतीय |
शब्द, अंगविक्षेप या कार्य, दो किसी स्त्री की लज्जा का अनादर करने के लिए आशयित है |
509 |
एक वर्ष का साधारण कारावास या जुर्माना या दोनों |
संज्ञेय |
जमानतीय |
विवाह से संबंधित अपराध
विधिपूर्ण विवाह की प्रवंचना से विश्वास उत्प्रेरित करने वाले पुरुष द्वारा कारित सहवास |
493 |
दस वर्ष का कारावास और जुर्माना |
असंज्ञेय |
जमानतीय |
द्विविवाह: (1) पहले पति या पत्नी के जीवनकाल में पुन: विवाह करना |
494 |
सात वर्ष का कारावास और जुर्माना |
असंज्ञेय |
जमानतीय |
(2) पूर्ववर्ती विवाह को छिपाकर पुन: विवाह करना |
495 |
दस वर्ष का कारावास और जुर्माना |
असंज्ञेय |
जमानतीय |
विधिपूर्ण विवाह के बिना कपटपूर्वक विवाह कर्म पूरा कर लेना |
496 |
सात वर्ष का कारावास और जुर्माना |
असंज्ञेय |
जमानतीय |
जारकर्म |
497 |
पाँच वर्ष का कारावास या जुर्माना या दोनों |
असंज्ञेय |
जमानतीय |
विवाहित स्त्री के आपराधिक आशय से फुसलाकर ले जाना या ले जाना या निरुद्ध रखना |
498 |
दो वर्ष का कारावास या जुर्माना या दोनों |
असंज्ञेय |
जमानतीय |
पति या पति के नातेदारों द्वारा क्रूरता
किसी स्त्री के पति या पति के नातेदार द्वारा उसके प्रति क्रूरता करना |
498क |
तीन वर्ष का कारावास और जुर्माना |
संज्ञेय |
अजमानतीय |
शब्द, अंगविक्षेप या कार्य, दो किसी स्त्री की लज्जा का अनादर करने के लिए आशयित है |
509 |
तीन वर्ष का साधारण कारावास या जुर्माना या दोनों |
संज्ञेय |
जमानतीय |
उद्देश्य क्या हैं?
दंड विधि के उपबंध, जैसे कि वे 2013 के संशोधन से पूर्व थे, महिलाओं के विरुद्ध बढ़ते अपराधों से निपटने के लिए अपर्याप्त पाए गए थे। न्यायमूर्ति वर्मा समिति की सिफारिशों के आधार पर दंड विधि संशोधन अधिनयम, 2013 अधिनियमित किया गया था। इसके द्वारा भारतीय दंड संहिता, 1860, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872, दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 और लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 में संशोधन किए गए। इन संशोधनों में:
2. बलात्संग की परिभाषा को व्यापक बनाया गया है;
3. बलात्संग और अम्ल हमले से पीड़ित व्यक्ति की चिकित्सीय-विधिक परीक्षा की प्रक्रियाओं में परिवर्तन किया गया है;
4. बलात्संग की दशा में सशस्त्र बलों के सदस्यों/वर्दीधारी कार्मिकों को साधारण दांडिक विधि के अधीन अभियोजित करने का उपबंध किया गया है।
लैंगिक अपराधों की शिकार महिलाओं को प्रदत्त विनिर्दिष्ट अनुतोष
भारतीय दंड संहिता के अधीन महिलाओं के प्रति अपराध के संबंध में नए अपराध
धारा |
अपराध |
दंड |
प्रकृति |
166-क [उपखंड ग] |
विधि के अधीन निदेश की अवज्ञा करने वाला लोक सेवक |
न्यूनतम छह मास का कारावास, जो दो वर्ष तक का हो सकेगा और जुर्माना |
संज्ञेय और जमानतीय |
166-ख |
अस्पताल द्वारा पीड़ित का उपचार न करना |
एक वर्ष का कारावास या जुर्माना या दोनों |
असंज्ञेय और जमानतीय |
326-क |
स्वेच्छया अम्ल फेंकना या फेंकने का प्रयत्न करना |
कम से कम दस वर्ष कारावास, जो आजीवन कारावास तक हो सकेगा और जुर्माना। पीड़ित को संदत्त किया जाने वाला जुर्माना |
संज्ञेय और जमानतीय |
354-क |
अवांछनीय शारीरिक संपर्क और अग्रक्रियाओं या लैंगिक स्वीकृति के लिए मांग या अनुरोध, अश्लील साहित्य दिखाने की प्रकृति का लैंगिक उत्पीड़न |
कारावास, जो तीन वर्ष तक का हो सकेगा या जुर्माना या दोनों |
संज्ञेय और जमानतीय |
|
लैंगिक आभासी टिप्पणियाँ करने की प्रकृति का लैंगिक उत्पीड़न |
कारावास, जो एक वर्ष तक का हो सकेगा या जुर्माना या दोनों |
संज्ञेय और जमानतीय |
354ख |
स्त्री पर विवस्त्र करने के आशय से हमला या आपराधिक बलप्रयोग |
कम से कम तीन वर्ष का कारावास, जो सात वर्ष तक का हो सकेगा और जुर्माना |
संज्ञेय और अजमानतीय |
354ग |
दृश्यरतिकता (प्राइवेट कृत्य में लगी किसी स्त्री को एकटक देखना या उसका चित्र खींचना) |
कम से कम एक वर्ष का कारावास, जो तीन वर्ष तक का हो सकेगा और जुर्माना दूसरी और पश्चात्वर्तीदोष दोषसिद्धि के लिए कम से कम तीन वर्ष का कारावास, जो सात वर्ष तक का हो सकेगा और जुर्माना |
संज्ञेय और जमानतीय |
354घ |
पीछा करना |
प्रथम दोषसिद्धि के लिए तीन वर्ष तक का कारावास और जुर्माना |
संज्ञेय और अजमानतीय |
|
|
दूसरी और पश्चात्वर्तीदोषसिद्धि के लिए पाँच वर्ष तक का कारावास और जुर्माना |
संज्ञेय और अजमानतीय |
376 [खंड (1)] |
बलात्संग |
कम से कम सात वर्ष का कठोर कारावास जो आजीवन कारावास तक हो सकेगा और जुर्माना |
संज्ञेय और अजमानतीय |
376 [खंड (2)] |
किसी पुलिस अधिकारी या लोक सेवक या सशस्त्र बल के सदस्य या किसी जेल, प्रतिप्रेषण गृह या अभिरक्षा के अन्य स्थान के या स्त्रियों या बालकों की किसी संस्था के प्रबंधतंत्र या कर्मचारीवृन्द के किसी व्यक्ति या किसी अस्पताल के प्रबंधतंत्र या कर्मचारीवृन्द के किसी व्यक्ति द्वारा बलात्संग और बलात्संग की पीड़िता के प्रति विश्वास या प्राधिकारी की हैसियत वाले व्यक्ति द्वारा और बलात्संग की पीड़िता के नजदीकी नातेदार द्वारा बलात्संग |
ऐसी अवधि का कठोर कारावास, जो कम से कम दस वर्ष की होगी किन्तु जो आजीवन कारावास तक की हो सकेगी, जिसका अभिप्राय उस व्यक्ति के शेष प्राकृत जीवनकाल या मृत्यु होने तक कारावास |
संज्ञेय और अजमानतीय |
376-क |
बलात्संग और ऐसा क्षति पहुँचाने का अपराध कारित करने वाला व्यक्ति, जिससे मृत्यु कारित होती है या स्त्री की लगातार विकृतशील दशा कारित होती है |
कम से कम बीस वर्ष का कठोर कारावास, जो की आजीवन कारावास तक का हो सकेगा, जिसका अभिप्राय उस व्यक्ति के शेष प्राकृत जीवनकाल के लिए कारावास होगा और जुर्माना |
संज्ञेय और अजमानतीय |
376-ख |
पति द्वारा अपनी पत्नी के साथ पृथक्करण के दौरान मैथुन |
कम से कम दो वर्ष का कारावास जो सात वर्ष तक का हो सकेगा और जुर्माना |
संज्ञेय (किन्तु केवल पीड़िता की शिकायत पर) और जमानतीय |
376-ग |
प्राधिकार में किसी व्यक्ति द्वारा मैथुन (जो बलात्संग की कोटि में नहीं आता है) |
कम से कम पाँच वर्ष का कठोर कारावास जो की दस वर्ष तक का हो सकेगा और जुर्माना |
संज्ञेय और अजमानतीय |
376-घ |
सामूहिक बलात्संग |
कम से कम बीस वर्ष का कठोर कारावास, जो की आजीवन कारावास तक का हो सकेगा, जिसका अभिप्राय उस व्यक्ति के शेष प्राकृत जीवनकाल के लिए कारावास होगा और जुर्माना, जो पीड़िता को संदत्त किया जाना है |
संज्ञेय और अजमानतीय |
376-ड. |
पुनरावृत्तिकर्ता अपराधी |
आजीवन कारावास, जिसका अभिप्राय उस व्यक्ति के शेष प्राकृत जीवनकाल के लिए या मृत्यु तक कारावास होगा |
संज्ञेय और अजमानतीय |
व्यक्ति का दुर्व्यापार (भारतीय दंड संहिता की धारा 370 के स्थान पर धारा 370 और धारा 370-क रखी गई)
धारा |
अपराध |
दंड |
प्रकृति |
370 |
अवयस्क का या एक से अधिक अवसरों पर दुर्व्यापार करने के अपराध के लिए दोषसिद्धि व्यक्ति |
आजीवन कारावास, जिसका अभिप्राय उस व्यक्ति के शेष प्राकृत जीवनकाल के लिए कारावास होगा तथा जुर्माना |
संज्ञेय और अजमानतीय |
|
अवयस्क के दुर्व्यापार में अंतर्वलित लोक सेवक या कोई पुलिस अधिकारी |
आजीवन कारावास, जिसका अभिप्राय उस व्यक्ति के शेष प्राकृत जीवनकाल के लिए कारावास होगा तथा जुर्माना |
संज्ञेय और अजमानतीय |
370-क |
ऐसे बालक का, जिसका दुर्व्यापार किया गया है, शोषण |
कम से कम पाँच वर्ष का कारावास, जो सात वर्ष तक का हो सकेगा और जुर्माना |
संज्ञेय और अजमानतीय |
|
ऐसे व्यक्ति का, जिसका दुर्व्यापार किया गया है, शोषण |
कम से कम तीन वर्ष का कारावास, जो पाँच वर्ष तक का हो सकेगा और जुर्माना |
संज्ञेय और अजमानतीय |
भारतीय दंड संहिता, 1860 में किए गए अन्य संशोधन
धारा |
अपराध |
विद्यमान उपबंध |
संशोधन |
228-क उपधारा(1) |
कतिपय अपराधों आदि से पीड़ित व्यक्ति की पहचान का प्रकटीकरण |
धारा 376, धारा 376क, धारा 376ख, धारा 376ग, या धारा 376घ के अधीन किसी अपराध का किया जाना अभिकथित है या किया गया पाया गया है, दोनों में किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी और जुर्माने से भी दंडनीय। |
धारा 376, धारा 376क, धारा 376ख, धारा 376ग, या धारा 376घ शब्दों और अंकों और अक्षरों के स्थान पर धारा 376, धारा 376क, धारा 376ख, धारा 376ग, धारा 376घ या धारा 376ड. शब्द, अंक और अक्षर रखे जाएंगे। |
354 |
स्त्री की लज्जा भंग करने के आशय से उस पर हमला या आपराधिक बल का प्रयोग |
दोनों में किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी या जुर्माना या दोनों। |
दोनों में किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि कम से कम एक वर्ष होगी और जो पाँच वर्ष तक की हो सकेगी या जुर्माना से भी दंडनीय। |
509 |
शब्द, अंगविक्षेप या कार्य, जो किसी स्त्री की लज्जा का अनादर करने के लिए आशयित है। |
सादा कारावास, जिसकी अवधि एक वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माना या दोनों। |
सादा कारावास जिसकी अवधि तीन वर्ष तक की हो सकेगी, और जुर्माना। |
दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 में बलात्संग और अम्ल हमले से पीड़ित व्यक्तियों के प्रतिकर और उपचार के लिए सम्मिलित विनिर्दिष्ट उपबंध
धारा 357ख: धारा 357क के अधीन राज्य सरकार द्वारा संदेय प्रतिकर भारतीय दंड संहिता की धारा 326क या धारा 376घ के अधीन पीड़िता को जुर्माने का संदाय किए जाने के अतिरिक्त होगा।
धारा 357ग: सभी लोक या प्राइवेट अस्पताल, चाहे वे केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकार, स्थानीय निकायों या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा चलाए जा रहे हैं, भारतीय दंड संहिता की धारा 326क, धारा 376, धारा 376क, धारा 376ख, धारा 376ग, धारा 376घ या धारा 376ड. के अधीन आने वाले किसी अपराध के पीड़ितों को तुरंत नि:शुल्क प्राथमिक या चिकित्सीय उपचार उपलब्ध कराएंगे और ऐसी घटना की पुलिस को तुरंत सूचना देंगे।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 में अंत: स्थापित नई धाराएं
धारा 53क: भारतीय दंड संहिता की धारा 354, धारा 354क, धारा 354ख, धारा 354ग, धारा 354घ, धारा 376, धारा 376ख, धारा 376ग, धारा 376घ, धारा 376ड. के अधीन किसी अपराध के अभियोजन में पीड़िता के शील या ऐसे व्यक्ति का किसी व्यक्ति के साथ पूर्व लैंगिक अनुभव का साक्ष्य सुसंगत नहीं होगा।
धारा 114क: बलात्संग के मामलों में सम्मति न होने के संबंध में उपधारणा, जहाँ स्त्री न्यायालय के समक्ष साक्ष्य में यह कथन करती है कि उसने सम्मति नहीं दी थी।
धारा 146: परन्तु भारतीय दंड संहिता की धारा 376, धारा 376क, धारा 376ख, धारा 376ग, धारा 376घ या धारा 376ड. के अधीन किसी अपराध के लिए अभियोजन में, जहाँ सम्मति का प्रश्न विवाद्य है वहां पीड़िता की प्रतिपरीक्षा में उसके साधारण व्यभिचार या किसी व्यक्ति के साथ पूर्व लैंगिक अनुभव के बारे में साक्ष्य देना या प्रश्न पूछना अनुज्ञेय नहीं होगा।
लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 में अंत:स्थापित नई धाराएं
लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 की धारा 42 के स्थान पर निम्नलिखित धाराएं रखी जाएंगी, अर्थात:
धारा 42: जहाँ किसी कार्य या लोप से इस अधिनियम के अधीन और भारतीय दंड संहिता की धारा 166क, धारा 354क, धारा 375, धारा 376, धारा 376क, धारा 376घ, धारा 370, धारा 370क, धारा 375, धारा 376, धारा 376क, धारा 376ग, धारा 376घ, धारा 376ड. या धारा 509 के अधीन भी दंडनीय कोई अपराध गठित होता है, वहां तत्समय प्रवृत्त किसी विधि में अंतर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी, ऐसे अपराध को दोषी पाया गया अपराधी उस दंड का भागी होगा, जो इस अधिनियम के अधीन या भारतीय दंड संहिता के अधीन मात्रा में गुरुतर है।
धारा 42क: इस अधिनियम के उपबंध तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के उपबंधों के अतिर्कित होंगे न कि उनके अल्पीकरण में और किसी असंगति की दशा में इस अधिनियम के उपबंधों का उस असंगति की सीमा तक ऐसी किसी विधि के उपबंधों पर अध्यारोही प्रभाव होगा।
उद्देश्य
महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न (निवारण, प्रतिषेध और प्रतितोष) अधिनियम 2013 महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न से संरक्षण और लैंगिक उत्पीड़न के परिवादों के निवारण तथा प्रतितोषण के उद्देश्य से अधिनियमित किया गया है। लैंगिक उत्पीड़न, भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 15 के अधीन गारंटीकृत किसी महिला के समता के मूल अधिकार और संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार प्राण और गरिमा से जीवन व्यतीत करने संबंधी उसके अधिकार के अतिक्रमण के रूप में समझा जाता है। इसे संविधान के अनुच्छेद 19(1)(छ) के अधीन किसी वृत्ति का व्यवसाय करने या कोई उपजीविका, व्यापार या कारबार करने के अधिकार के, जिसके अंतर्गत लैंगिक उत्पीड़न से मुक्त सुरक्षित वातावरण का अधिकार भी है, अतिक्रमण के रूप में भी समझा जाता है।
यह विधि किसे संरक्षण देती है?
यह विधि किसी व्यथित महिला को किसी कार्यस्थल के संबंध में संरक्षण देने की ईप्सा करती है, अर्थात:
कार्यस्थल क्या है [धारा 2 (ण)]
कार्यस्थल में निम्नलिखित में से कोई भी शामिल है:
अधिनियम के अधीन लैंगिक उत्पीड़न से क्या अभिप्रेत है? [धारा 2 (ढ)]
कर्मचारी कौन है? [धारा 2(च)]
इसकी परिभाषा के अंतर्गत, नियमित, अस्थायी, तदर्थ कर्मचारी, दैनिक मजदूरी के आधार पर सीधे नियोजित हो या किसी अभिकर्ता के माध्यम से नियोजित व्यष्टि, संविदा श्रमिक, सह-कर्मकार, परिवीक्षाधीन, प्रशिक्षु और शिक्षु, चाहे प्रधान नियोजक की जानकारी से या उसके बिना, चाहे पारिश्रमिक के लिए है अथवा नहीं, स्वैच्छिक आधार पर या अन्यथा कार्य करने वाले, चाहे नियोजन के निबंधन अभिव्यक्त हो या विवक्षित।
परिवाद समिति
इस अधिनियम की महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें संगठित और असंगठित, दोनों क्षेत्रों के लिए परिवाद प्रतिरोषण पीठ स्थापित करना परिकल्पित है।
क. आंतरिक परिवाद समिति [धारा 4]
महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम, 2013 में प्रत्येक नियोजक से ऐसे संगठन के, जिसमें 10 या उसके अधिक कर्मचारी नियोजित हैं, प्रत्येक कार्यालय या शाखा में लैंगिक उत्पीड़न से संबंधित परिवादों की सुनवाई करने और उसका निपटारा करने के लिए “आंतरिक परिवाद समिति” (आई.सी.सी.) स्थापित करने की अपेक्षा की गई है।
ख. आई.सी.सी. की संरचना [धारा 4(2)]
पीठासीन अधिकारी |
कर्मचारियों में से कार्यस्थल पर ज्येष्ठ स्तर पर नियोजित महिला |
सदस्य |
कर्मचारियों में से कम से कम 2 ऐसे सदस्य, जो महिलाओं की समस्याओं के प्रति अधिमानी रूप से प्रतिबद्ध हैं या जिनके पास सामाजिक कार्य में अनुभव है या विधिक ज्ञान है। |
बाह्य सदस्य |
ऐसे गैर-सरकारी संगठन या एसोसिएशन में से, जो महिलाओं की समस्याओं के प्रति प्रतिबद्ध है या ऐसा व्यक्ति, जो लैंगिक उत्पीड़न से संबंधित मुद्दों से सुपरिचित है। |
अन्य अपेक्षाएं
जिला अधिकारी की अधिसूचना (धारा 5)
प्रत्येक जिले में, सरकार को जिला मजिस्ट्रेट या अपर जिला मजिस्ट्रेट, कलक्टर या उप-कलक्टर को इस अधिनियम के अधीन शक्तियों का प्रयोग करने या कृत्यों का निर्वहन करने के लिए जिला अधिकारी के रूप में अधिसूचित करना होगा।
स्थानीय परिवाद समिति (धारा 6)
कोई व्यथित महिला अधिनियम की धारा 9 के अधीन परिवाद फाइल कर सकती है। लिखित परिवाद की 6 प्रतियां, समर्थनकारी द्स्वावेजों और साक्षियों के नाम और पतों सहित आई.सी.सी. या एल.सी.सी. को दी जानी आवश्यक हैं। परिवाद घटना की तारीख से तीन मास के भीतर और घटनाओं की किसी श्रृंखला की दशा में, अंतिम घटना की तारीख से तीन मास की अवधि के भीतर फाइल किया जाना चाहिए। आई.सी.सी./एल.सी.सी. परिवाद फाइल करने की समयसीमा में उन कारणों से, जो लेखबद्ध किए जाएँ, तीन मास की अवधि के लिए विस्तार कर सकती है।
अंतरिम अनुतोष
(1) व्यथित महिला या प्रत्यर्थी का किसी अन्य कार्यस्थल पर स्थानांतरण।
(2) व्यथित महिला को अपनी नियमित कानूनी/संविदागत छुट्टी हकदारी के अतिरिक्त तीन मास की अवधि तक की छुट्टी मंजूर करना।
मिथ्या या द्वेषपूर्ण परिवाद (धारा 14)
नियोजक के कर्तव्य (धारा 19)
अधिनियम में प्रत्येक नियोजक को अधिनियम के अधीन कतिपय कर्तव्य सौंपे गए हैं:
समय-सीमाएं
विधि की पृष्ठभूमि
महिलाओं के साथ प्राय: उनकी गृहस्थी में हिंसा की जाती है। हिंसा के यह कार्य उन लोगों द्वारा किए जाते हैं जो उनके निकट-संबंधी होते हैं। इनमें पिता, पुत्र, भाई, पति और उसके नातेदार हो सकते हैं। इसके साथ-साथ, कई बार महिलाओं के साथ उनके पुत्र या बहु द्वारा बुरा बर्ताव किया जाता है। जब महिलाओं के साथ उनके पति या उसके नातेदारों द्वारा क्रूरता बरती जाती है तब उसे भारतीय दंड संहिता की धारा 498क के अधीन उपचार प्राप्त होता है। तथापि, महिलाओं को कोई सिविल उपचार उपलब्ध नहीं है, अत:, यह अधिनियम अधिनियमित किया गया था।
अधिनियम का उद्देश्य
घरेलू हिंसा (धारा 3)
(क) ऐसा कोई कार्य या लोप या आचरण, जो स्वास्थ्य, सुरक्षा, जीवन, अंग की अपहानि करता है या कोई क्षति कारित करता है, जिसके अंतर्गत व्यथित महिला का शारीरिक दुरूपयोग, लैंगिक दुरूपयोग, मौखिक, भावनात्मक दुरूपयोग और आर्थिक दुरूपयोग भी है।
(ख) दहेज या किसी अन्य मूल्यवान संपत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति के लिए किसी अन्य अविधिपूर्ण मांग की पूर्ति के लिए प्रपीड़ित करने की दृष्टि से कोई उत्पीड़न, अपहानि या क्षति।
(ग) महिलाओं या उसके नातेदार किसी अन्य व्यक्ति को क्षति या अपहानि कारित करने की धमकी।
(घ) व्यथित व्यक्ति को क्षति पहुंचाना या अपहानि, चाहे वह मानसिक हो या शारीरिक, कारित करना।
दुरूपयोग के वे रूप जिन्हें घरेलू हिंसा समझा जाता है:
इसके अंतर्गत निम्नलिखित हैं:
2. लैंगिक दुरूपयोग – लैंगिक प्रकृति का ऐसा कोई आचरण, जो महिला की गरिमा का दुरूपयोग, अपमान, तिरस्कार करता है या अन्यथा अतिक्रमण करता है। इनमें निम्नलिखित शामिल हैं:
3. मौखिक और भावनात्मक दुरूपयोग – अपमान, उपहास और तिरस्कार, गाली देना, विशेष रूप संतान या नर बालक न होने के संबंध में गाली। इनमें निम्नलिखित शामिल हैं:
4. आर्थिक दुरूपयोग – जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं और ह्क्दारियों के लिए किसी ऐसे वित्तीय या आर्थिक संसाधन से वंचित करना, जिसके लिए व्यथित व्यक्ति हकदार है।
शिकायत की प्रक्रिया [धारा 4,5]
शिकायतकर्ता ----- किसे शिकायत की जानी है
व्यथित व्यक्ति या व्यथित ----- मजिस्ट्रेट, संरक्षण अधिकारी, सेवा
व्यक्ति की ओर से कोई ----- प्रदाता, पुलिस
अन्य व्यक्ति
प्रदत्त उपचार
18. संरक्षण आदेश [धारा 18] – मजिस्ट्रेट व्यथित व्यक्ति और प्रत्यर्थी को सुनवाई का अवसर दिए जाने के पश्चात और उसका प्रथमदृष्टया समाधान होने पर कि घरेलू हिंसा हुई है या होने की संभावना है, व्यथित व्यक्ति के पक्ष में एक संरक्षण आदेश पारित कर सकेगा तथा प्रत्यर्थी को निम्नलिखित से प्रतिषिद्ध कर सकेगा-
(क) घरेलू हिंसा का कार्य कारित करना;
(ख) घरेलू हिंसा के कार्य कारित करने में सहायता या दुष्पेरण करना;
(ग) व्यथित व्यक्ति के नियोजन के स्थान में या यदि व्यथित व्यक्ति बालक है तो उसके विद्यालय में या किसी अन्य स्थान में, जहाँ व्यथित व्यक्ति बार-बार आता जाता है, प्रवेश करना;
(घ) व्यथित व्यक्ति से संपर्क करने का प्रयत्न करना, चाहे वह किसी भी रूप में हो, इसके अंतर्गत वैयकित्तक, मौखिक या लिखित या इलौक्ट्रानिक या दूरभाषी संपर्क भी है;
(ड.) किन्हीं आस्तियों का अन्यसंक्रामण करना, उन बैंक लॉकरों या बैंक खातों का प्रचालन करना, जिनका दोनों पक्षों द्वारा प्रयोग या धारण या उपभोग व्यथित व्यक्ति और प्रत्यर्थी द्वारा संयुक्तत: या प्रत्यर्थी द्वारा अकेले किया जा रहा है, जिसके अंतर्गत उसका स्त्रीधन या अन्य कोई संपत्ति भी है, जो मजिस्ट्रेट की इजाजत के बिना या तो पक्षकारों द्वारा संयुक्तत: या उनके द्वारा पृथकत: धारित की हुई है;
(च) आश्रितों, अन्य नातेदारों या किसी ऐसे व्यक्ति के साथ, जो व्यथित व्यक्ति को घरेलू हिंसा के निवारण से सहायता देता है, हिंसा कारित करना;
(छ) ऐसा कोई अन्य कार्य कारित करना जो संरक्षण आदेश में विनिर्दिष्ट किया गया है।
संरक्षण आदेश का भंग करना एक वर्ष के कारावास या 20,000 रूपए के जुर्माने या दोनों से दंडनीय है।
निवास आदेश [धारा 19] – किसी आवेदन का निपटारा करते समय, मजिस्ट्रेट, यह समाधान हो जाने पर कि घरेलू हिंसा हुई है, निम्नलिखित निवास आदेश पारित कर सकेगा-
(क) प्रत्यर्थी को साझी गृहस्थी से किसी व्यथित व्यक्ति के कब्जे को बेकब्जा करने या किसी अन्य रीति में उस कब्जे में विध्न डालने से अवरुद्ध करना, चाहे प्रत्यर्थी उस साझी गृहस्थी में कोई विधिक या साम्यापूर्ण हित रखता है या नही;
(ख) प्रत्यर्थी को उस साझी गृहस्थी से स्वयं को हटाने का निदेश देना;
(ग) प्रत्यर्थी या उसके किसी नातेदार को साझी गृहस्थी के किसी भाग में, जिसमें व्यथित व्यक्ति निवास करता है, प्रवेश करने से अवरुद्ध करना;
(घ) प्रत्यर्थी को साझी गृहस्थी का अन्यसंक्रामण करने या व्ययन करने या उसका विल्लंगम करने से अवरुद्ध करना;
(ङ) प्रत्यर्थी को, मजिस्ट्रेट की इजाजत के सिवाय, साझी गृहस्थी में अपने अधिकारों का त्यजन करने से अवरुद्ध करना;
(च) प्रत्यर्थी को व्यथित व्यक्ति के लिए उसी स्तर की अनुकल्पिक वास-सुविधा, जैसी वह साझी गृहस्थी में उपयोग कर रही थी, या उसके लिए किराए का संदाय करने, यदि परिस्थितियाँ ऐसी अपेक्षा करें, सुनिश्चित करने के लिए निदेश देना।
धनीय अनुतोष [धारा 20] – मजिस्ट्रेट घरेलू हिंसा के परिणामस्वरूप व्यथित व्यक्ति और व्यथित व्यक्ति की किसी संतान द्वारा उपगत व्यय और सहन की गई हानियों की पूर्ति के लिए धनीय अनुतोष का संदाय करने के लिए प्रत्यर्थी को निदेश दे सकेगा और ऐसे अनुतोष में निम्नलिखित सम्मिलित हो सकेंगे:
(क) उपार्जनों की हानि;
(ख) चिकित्सीय व्यय;
(ग) व्यथित व्यक्ति के नियंत्रण में से किसी संपत्ति के नाश, नुकसानी या हटाए जाने के कारण हुई हानि; और
(घ) व्यथित व्यक्ति और उसकी संतान, यदि कोई है, के लिए भरणपोषण।
इस धारा के अधीन अनुदत्त धनीय अनुतोष पर्याप्त, उचित और युक्तियुक्त होगा तथा उस जीवन स्तर से, जिसका व्यथित व्यक्ति अभ्यस्त है, संगत होगा। भरणपोषण के लिए संदाय एकमुश्त या मासिक संदाय हो सकेगा।
प्रत्यर्थी की ओर से आदेश के निबंधनानुसार संदाय करने में असफलता पर, मजिस्ट्रेट प्रत्यर्थी के नियोजक या किसी ऋणी को प्रत्यर्थी को प्रत्यक्षत: संदाय करने या मजदूरी या वेतन का एक भाग न्यायालय में जमा करने या प्रत्यर्थी के खाते में शोध्य या उद्भूत ऋण को, जो प्रत्यर्थी द्वारा संदेय धनीय अनुतोष मद्धे समयोजित कर लिया जाएगा, जमा करने का निदेश दे सकेगा।
अभिरक्षा आदेश [धारा 21]
प्रतिकर आदेश [धारा 22]
वे प्राधिकारी, जिनके समक्ष शिकायत की जा सकती है, निम्नलिखित है:
आश्रय गृह – इनसे व्यथित व्यक्ति को, जब व्यथित व्यक्ति द्वारा या संरक्षण अधिकारी द्वारा ऐसा अनुरोध किया जाए, आश्रय प्रदान करने की अपेक्षा की जाती है।
चिकित्सीय सुविधाएं – चिकित्सीय सुविधा के भारसाधक व्यक्ति से, जब ऐसा अनुरोध किया जाए, चिकित्सीय सहायता प्रदान करने की अपेक्षा की जाती है।
स्त्री अशिष्ट रूपण (प्रतिषेध) अधिनियम, 1986, विज्ञापनों के माध्यम से या प्रकाशनों, लेखों, रंगचित्रों, आकृतियों में या किसी अन्य रीति से स्त्रियों के अशिष्ट रूपण का प्रतिषेध करने के लिए अधिनियमित किया गया था। प्रस्तुत रूप में इस अधिनियम के अंतर्गत प्रमुख रूप से प्रिंट मीडिया आता है। इस अधिनियम के अधिनियमन के पश्चात प्रोद्योगिकी क्रांति के परिणामस्वरूप संसूचना के नई रूपों का विकास हुआ है, जैसे इंटरनेट और सेटेलाइट आधारित संसूचना, मल्टी-मीडिया संदेश केबल दूरदर्शन, सोशल मीडिया, आदि।
अशिष्ट रूपण
स्त्री अशिष्ट रूपण से किसी स्त्री की आकृति, उसके रूप या शरीर या उसके किसी अंग का, किसी ऐसी रीति में ऐसे रूप में चित्रण करना अभिप्रेत है जिसका प्रभाव अशिष्ट हो अथवा जो स्त्रियों के लिए अपमानजनक या निंदनीय हो अथवा जिससे लोक नैतिकता या नैतिक आचार के विकृत, भ्रष्ट या क्षति होना की संभावना है।
इस अधिनियम के अधीन प्रतिषेध
अधिनियम की धारा 3 में ऐसे किसी विज्ञापन का प्रकाशन या प्रदर्शन प्रतिषिद्ध है जिसमें किसी भी रूप में स्त्रियों का अशिष्ट रूपण अंतर्विष्ट है।
(1) ऐसी पुस्तकें/प्रकाशन आदि, जो विज्ञान, साहित्य, कला अथवा विद्या के हित में न्यायोचित साबित हो जाती है या धार्मिक व्यक्तियों द्वारा सद्भावपूर्वक रखी या उपयोग में लाई जाती हैं।
(2) किसी प्राचीन संस्मारक या किसी मंदिर या मूर्तियों के प्रवहण के उपयोग में लाए जाने वाले यान पर कोई रूपण (तक्षण, उत्कीर्ण, रंगचित्र, आदि) ।
(3) चलचित्र अधिनियम, 1952 में भाग 2 के अंतर्गत आने वाले कोई फिल्म।
प्रवेश करने और तलाशी लेने की शक्तियाँ
अधिनियम की धारा 5 में यह उपबंधित है कि राज्य सरकार द्वारा प्राधिकृत अधिकारी, किसी ऐसे स्थान में, जिसमें उसके पास यह विश्वास करने का कारण है कि इस अधिनियम के अधीन कोई अपराध किया गया है या किया जा रहा है, प्रवेश कर सकेगा या उसकी तलाशी ले सकेगा। वह किसी ऐसे विज्ञापन या पुस्तक, रेखाचित्र, रंगचित्र, लेख आदि को अभिगृहीत कर सकेगा जो अधिनियम के उपबंधों का उल्लंघन करता है। उपर्युक्त शक्ति इस शर्त के अध्यधीन है कि किसी प्राइवेट निवास-गृह में प्रवेश वारंट के बिना अनुज्ञात नहीं है और यदि कोई व्यक्ति उपधारा (1) के खंड (ख) या खंड (ग) के अधीन किसी वस्तु का अभिग्रहण करता है तो वह यथाशक्य शीघ्र निकटतम मजिस्ट्रेट को उसकी इत्तिला देगा और उस वस्तु की अभिरक्षा के संबंध में आदेश प्राप्त करेगा।
अपराधों की प्रकृति
अधिनियम की धारा 8 के अधीन सभी अपराध संज्ञेय और जमानतीय हैं।
शास्तिक उपबंध
धारा 3 या धारा 4 के उपबंधों का उल्लंघन, प्रथम दोषसिद्धि पर दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी और जुर्माने से जो दो हजार रूपए तक का हो सकेगा दंडनीय है। द्वितीय या पश्चातवर्ती दोषसिद्धि की दशा में, कारावास जिसकी अवधि छह मास से कम की नहीं होगी किन्तु जो पाँच वर्ष तक की हो सकेगी और जुर्माने से भी, जो दस हजार रूपए से कम का नहीं होगा किन्तु जो एक लाख रूपए तक का हो सकेगा, विहित किया गया है।
कंपनियों द्वारा अपराध
जहाँ इस अधिनियम के अधीन कोई अपराध किसी कंपनी द्वारा किया गया है वहां प्रत्येक ऐसा व्यक्ति, जो उस समय, जब अपराध कारित किया गया था, (i) कंपनी का भारसाधक था; (ii) कंपनी के कारबार के संचालन के लिए कंपनी के प्रति उत्तरदायी था, यस अपराध का दोषी समझा जाएगा।
अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम, 1956 अनैतिक व्यापार के निवारण के प्रयोजनार्थ व्यक्तियों के अनैतिक व्यापार के अधिक्रमण और अन्य व्यक्तियों के देह व्यापार द्वारा शोषण से संबंधित संयुक्त राष्ट्र की कन्वेंशन के अनुरूप अधिनियमित किया गया था। इसकी पृष्ठभूमि यह भी थी कि विभिन्न राज्यों द्वारा अधिनियमित पृथक-पृथक विधानों में एकरूपता की कमी थी।
अधिनियम के अधीन संरक्षण
अपराध और दंड
धारा-3
अपराध/जुर्म |
दंड |
ऐसा व्यक्ति, जो कोई वेश्यागृह चलाता है या उसका प्रबंधन करता है या परिसर का वेश्यागृह के रूप में प्रयोग अनुज्ञात करता है या उसमें सहायता करता है। |
प्रथम दोषसिद्धि: कम से कम एक वर्ष और अधिकतम तीन वर्ष का कठिन कारावास और 2000 रूपए तक का जुर्माना। द्वितीय या पश्चातवर्ती दोषसिद्धि: कम से कम दो वर्ष और अधिकतम पाँच वर्ष और जुर्माना। |
(i) किसी परिसर का अभिधारी, पट्टेदार, अधिभोगी या भारसाधक व्यक्ति, जो ऐसे परिसर या उसके भाग का वेश्यागृह के रूप में प्रयोग करता है या जानबूझकर किसी अन्य व्यक्ति को प्रयोग अनुज्ञात करता है। (ii) किसी परिसर क स्वामी, पट्टेदार या भूस्वामी अथवा ऐसे स्वामी, पट्टेदार या भूस्वामी का अभिकर्ता उसे या उसके किसी भाग को यह जानते हुए पट्टे पर देता है कि उसका या उसके किसी भाग का वेश्यागृह के रूप में प्रयोग किया जाना आशयित है अथवा ऐसे परिसर या उसके किसी भाग का वेश्यागृह के रूप में प्रयोग करने का जानबूझकर पक्षकार। |
प्रथम दोषसिद्धि: दो वर्ष तक कारावास और 2000 रूपए तक का जुर्माना।
द्वितीय दोषसिद्धि: पाँच वर्ष तक का कठिन कारावास और जुर्माना |
धारा-4
अठारह वर्ष की आयु से अधिक का कोई व्यक्ति, जो जानबूझकर किसी अन्य व्यक्ति की वेश्यावृत्ति के उपार्जनों पर पूर्णत: या भागत: जीवन निर्वाह करता है। |
दो वर्ष तक का कारावास या 1000 रूपए तक का जुर्माना या दोनों पीड़ित व्यक्ति के बालक या अवयस्क होने की दशा में, कम से कम सात वर्ष और अधिकतम दस वर्ष का कारावास। |
धारा-5
वेश्यावृत्ति के लिए किसी व्यक्ति उपाप्त करना या उपाप्त करने का प्रयत्न करना या उत्प्रेरित करना या ले जाना या एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने का प्रयत्न करना या लिवाना या किसी व्यक्ति को वेश्यावृत्ति कराना या कराने के लिए उत्प्रेरित करना। |
बालकों की दशा में, कम से कम सात वर्ष का कठिन कारावास जो कि आजीवन कारावास तक हो सकेगा। अवयस्क की दशा में, कम से कम सात वर्ष और अधिकतम चौदह वर्ष का कारावास। |
धारा-6
किसी व्यक्ति को उसकी सम्मति से या उसके बिना- (क) किसी वेश्या-गृह, या (ख) किसी परिसर में या पर इस आशय से निरुद्ध करना कि ऐसा व्यक्ति किसी ऐसे व्यक्ति के साथ, जो ऐसे व्यक्ति का पति या पत्नी नहीं है, मैथुन करे। |
कम से कम सात वर्ष का कारावास जो कि दस वर्ष तक का हो सकेगा और जुर्माना। |
टिप्पण: जहाँ कोई व्यक्ति किसी वेश्यागृह में किसी बालक के साथ पाया जाता है वहां जब तक प्रतिकूल साबित न कर दिया जाए, यह उपधारणा की जाएगी कि उसने बालक को निरुद्ध करने का अपराध कारित किया है। |
धारा-7
राज्य सरकारों द्वारा अधिसूचित सार्वजनिक स्थानों या धार्मिक पूजास्थल, शैक्षणिक संस्थाओं, छात्रावास, अस्पताल या अन्य सार्वजनिक स्थान के दो सौ मीटर के भीतर वेश्यावृत्ति चलाना। |
तीन मास तक का कारावास। |
यदि उपर्युक्त अपराध बालक या अवयस्क की बाबत हिया |
कम से कम सात वर्ष किन्तु वह आजीवन कारावास या दस वर्ष तक का हो सकेगा। |
- ऐसा व्यक्ति, जो किसी सार्वजनिक स्थान का पालक है और वेश्याओं को उनका व्यापार चलाने देता है। या - ऐसे परिसर का किराएदार/पट्टेदार/अधिभोगी या - स्वामी/पट्टेदार/भूस्वामी |
- प्रथम दोषसिद्धि: तीन मास तक या जुर्माना - द्वितीय या पश्चातवर्ती दोषसिद्धि: छह मास तक का कारावास। |
धारा 8
शब्दों, अंगविक्षेप, आदि वेश्यावृत्ति के प्रयोजन के लिए विलुब्ध करना या याचना करना। |
प्रथम दोषसिद्धि: छह मास तक का कारावास या जुर्माना द्वितीय या पश्चातवर्ती अपराध: एक वर्ष तक का कारावास और जुर्माना। |
धारा 9
अभिरक्षा में के व्यक्ति को विलुब्ध करना। |
कम से कम सात वर्ष का कारावास जो आजीवन कारावास या दस वर्ष तक का हो सकेगा। |
धारा 14
इस अधिनियम के अधीन सभी अपराध संज्ञेय हैं, तथापि, वारंट के बिना गिरफ्तारी पुलिस निरीक्षक के रेंक से अन्यून किसी विशेष पुलिस अधिकारी द्वारा ही की जा सकती है।
टिप्पण: भारतीय दंड संहिता की धारा 370 और धारा 370क के उपबधों के अंतर्गत व्यक्तियों के दुर्व्यापार और दुर्व्यपार किए गए व्यक्तियों का शोषण करने के अपराध भी आते हैं और उनके प्रति भी निर्देश किया जा सकता है।
धारा |
शीर्षक |
शक्तियों का प्रयोग करने के लिए सक्षम मजिस्ट्रेट |
7(1) |
सार्वजनिक स्थान में या उनके समीप वेश्यावृत्ति |
जिला न्यायालय |
11(4) |
पुनरावृत्ति करने वाले अपराधी को पेश किया जाना |
मैट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट या कोई प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट |
15(5) |
वारंट के बिना तलाशी: मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश करना |
मैट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट या कोई प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट या जिला मजिस्ट्रेट या उपखंड मजिस्ट्रेट |
16 |
व्यक्ति को छुड़ाना |
मैट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट या कोई प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट या जिला मजिस्ट्रेट या उपखंड मजिस्ट्रेट |
18 |
वेश्यागृह को बंद करना और परिसरों से अपराधियों की बेदखली |
जिला मजिस्ट्रेट या उपखंड मजिस्ट्रेट |
19 |
संरक्षा गृह में रखे जाने या न्यायालय द्वारा देखरेख और संरक्षण प्रदान करने के लिए आवेदन |
मैट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट या कोई प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट या जिला मजिस्ट्रेट या उपखंड मजिस्ट्रेट |
20 |
वेश्या का किसी स्थान से हटाया जाना |
जिला मजिस्ट्रेट या उपखंड मजिस्ट्रेट या राज्य सरकार द्वारा विशेष रूप से सशक्त कोई कार्यपालक मजिस्ट्रेट |
22 |
मामलों का संक्षिप्त विचारण करने की न्यायालय की शक्ति |
मैट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट या कोई प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट |
द्वारा यथा-संशोधित प्रसूति प्रसुविधा अधिनियम, 1961
इस विधि की पृष्ठभूमि
अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्रियाकलापों में स्त्रियों की बढ़ती भागीदारी के साथ-साथ, जैविक कारणों पर आधारित भेदभाव की घटनाओं में भी वृद्धि हुई है। इस प्रकार के भेदभाव को रोकने और स्त्रियों के आर्थिक और प्रजनन संबंधी अधिकारों के संवर्धन, उनके स्वास्थ्य के संरक्षण और सुरक्षा के लिए प्रसूति प्रसुविधाएं सुनिश्चित करने और उन्हें नियोजन की असुरक्षा और आय की हानि के बारे में चिंता किए बिना अपना बहुमूल्य समय अपने बच्चों के देने में समर्थ बनाने के लिए प्रसूति प्रसुविधा अधिनियम अधिनियमित किया गया था।
अधिनियम का उद्देश्य
यह अधिनियम:
प्रसूति प्रसुविधा
प्रसूति प्रसुविधा एक ऐसा संदाय (प्रसूति भत्ता) है जो किसी नियोजक द्वारा किसी गर्भवती महिला कर्मचारी को गर्भावस्था के दौरान उसकी वास्तविक अनुपस्थिति की अवधि के लिए औसत दैनिक मजदूरी की दर पर संदत्त किया जाता है।
कतिपय अवधियों के दौरान स्त्रियों के नियोजन पर प्रतिषेध (धारा 4)
प्रसूति प्रसुविधा के संदाय का अधिकार (धारा 5)
गर्भावस्था के कारण अनुपस्थिति के दौरान पदच्युति पर प्रतिषेध (धारा 12)
ऐसी किसी स्त्री को, जो इस अधिनियम के उपबंधों के अनुसार कार्य से अनुपस्थित रहती है, सेवा से पदच्युत नहीं किया जा सकता है।
अधिनियम के उपबंधों के उल्लंघन के लिए दंड
शिकायत किसे की जानी है/शिकायत कहां की जानी है
धारा 28 के अधीन: प्रवर्तन मशीनरी
स्त्रोत: राष्ट्रीय महिला आयोग
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