जब अपने देश में अंग्रेज राज करते थे तो वे कहते थे कि यहाँ के लोगों को अपना शासन खुद चलाना नहीं आता है। भारत में लोगों की शासन में भागदारी नहीं रही है तो ये लोग आजादी के बाद कैसे अपना कामकाज चलाएंगे?
उन्हीं दिनों कुछ लोग भारत के इतिहास की खोज – बीन कर रहे थे।उन्हें पुराने ग्राम पंचायतों के बारे में कई चौंका देने वाली बातें पता लगीं। इन बातों से लोगों का हौसला बना।वे कहने लगे कि हम भी अपने देश की बगडोर खुद संभाल सकते हैं।
पुराने समय में भारत के गाँव के लोग आपस में मिल-जुलकर काफी कामकाज का निपटारा कर लेते थे। तालाब, पाठशाला, जंगल या चरागाह, आपसी झगड़े गाँव के अंदर ही इन सबकी व्यवस्था कर लेते थे। हाँ यह जरूर था कि अलग – अलग क्षेत्र में अलग - अलग व्यवस्था थी।
अपने देश में दो तरह के गाँव थे – एक जिसमें जमीन के मालिक किसान खुद थे और दुसरे जिसमें जमीन कई राज परिवारों के हाथों में थी। दोनों तरह के गांवों में गाँव के लोगों की सभाएं होती थी। यह सभाएं गाँव के सारे कामकाज की देखरेख करती थी। राजा को गाँव वालों से लगान इकट्ठा करके देना, अपराधियों को पकड़ना और दंड देना, तालाब और नहर की देखरेख करना, गाँव की जमीन का का लेखा-जोखा रखना आदि भी सभाएं ही देखती थी। इन गांवों पर राजा के किसी अधिकारी का नियंत्रण नहीं था। ये सब काम गाँव की लोगों द्वारा बनाई गई समितियाँ करती थी।
यही नहीं, ये सब काम कैसे जाएँ, समिति में कौन होगा यह सब बातें भी गाँव के लोग अपनी जरूरतों के हिसाब से तय करते थे। सभा के फैसलों को मंदिरों की दीवारों पर खुदवाया जाता था।
उदहारण के रूप में – उस ज़माने के सोने के सिक्के चलते थे तो यह जानना बहुत जरूरी था कि सोना असली है या नकली। इसके लिए अलग से एक समिति बनाई जाती थी। इस समिति के लिए 8 लोगों का चुनाव किया जाता था। यह जानकारी हर टोले को दी जाती थी, हर टोले से पढ़े लिखे, नियम से लगान देने वाले और सोना परखने में होशियार लोगों का नाम बुलवाया जाता था। उन सबका नाम ताड़ पत्र के पर्चों पर लिखकर एक मटके के अंदर डाला दिया जाता था। फिर एक बच्चे से आठों पर्चो को निकालने को कहा जाता था। यही आठ लोग एक साल के लिए सोना परखने की समिति में रहेंगे, यह तय होता था। आप देख सकते है कि कैसे पुराने समय लोग इस बात पर जोर देते थे कि सब परिवारों को गाँव के कामकाज में भागीदार होना चाहिए। लेकिन इसमें अक्सर समस्याएँ भी आ जाती थी। कभी – कभी कुछ ही परिवार के लोग बार समितियों के सदस्य बन जाते थी या फिर वे राजा के अधिकारीयों की मदद से अपनी सदस्यता बनाए रखने की कोशिश करते थे।
ऐसी समस्या आने पर ग्रामसभा में रहने वाले लोगों द्वारा सर्वसम्मति से एक नियम बनाया जाता था और उसे गाँव के सार्वजनिक जगह पर लगाया जाता था। इसका प्रमाण दक्षिण भारत के सेंगनूर गाँव के एक अभिलेख में मिलता है। ग्राम सभा के सामने ऐसी ही कोई समस्या आयी होगी जिसके निराकरण हेतु गाँव के लोगों द्वारा क्या हाल निकाला गया, आप खुद उनके शिलालेख से जानिए।
गाँव के कामकाज गाँव के सभी लोगों की सक्रिय भागदारी से चले, इसके लिए ये नियम बनाए गए थे। आज जब हम इन शिलालेख को पढ़ते हैं तो हमें आश्चर्य होता है। कितना सोच समझकर उन लोगों ने ये नियम बनाए। इनमें से कई नियम तो आज भी कम के हैं। लेकिन उस समय की गई बातें, जो हमें आज ठीक नहीं लगती हैं। जब पुराने समय की अच्छी बातों से हम सीखते हैं तो उनकी कमजोरियों पर भी ध्यान देना चाहिए।
सबसे पहले तो यह कि सभाओं व समितियों में महिलाएँ नहीं होती थी, न ही कमजोर वर्ग के लोग हो सकते थे। केवल ऊँची मानी गई जाति के लोग उनमें हो सकते थे, खासकर वे जिनके पास जमीन थी। इसलिए वे ही सभा व समितियों के सदस्य बन सकते थे। जो लोग उस गाँव की जमीन पर वास्तव में मेहनत करते थे- वे सदस्य नहीं बन सकते थे। यानी उस समय लोकतंत्र केवल जमीन के मालिकों के लिए था, महिलाओं या कमजोर वर्ग के लिए नहीं था।
एक और ध्यान देने की बात है की इस तरह की सभा और समितियों का उल्लेख उत्तर भारत से नहीं मिले हैं। उत्तर भारत के गाँवों का कामकाज वहाँ के मुखिया या जमींदार देखते थे। बाप के बाद बीटा मुखिया बनता था। इनका परिवार काफी ताकतवर होता था। और गाँव वालों पर उनका दबदबा और रौब होता था।ऐसे में लोकतंत्र कैसे पनपे?
दूसरी ओर दक्षिण भारत के साधारण गाँव के किसान सब बराबर हैसियत के थे। लोगों की जमीनें तो कम – ज्यादा थी।मगर किसी एक या दो परिवारों के अधीन पूरा गाँव नहीं था तभी तो गाँव की सभा लोकतांत्रिक बन पायी। हालाँकि इन गांवों में कुछ दलित परिवार भी होते थे जिन्हें सभा में भाग लेने नहीं दिया जाता था, फिर भी गाँव के अधिकांश परिवार ग्राम सभा में भाग ले सकते थे।
इससे यह बात समझ में आती है iकि लोकतंत्र की मदद वे सभी लोगों के बीच बराबरी लेन की कोशिश करना जरूरी है और बराबरी लाने से ही लोकतंत्र मजबूत होगा ।
पुराने जमाने में राजा राज करते थे। राजा अपनी मर्जी से कानून बनाते और राज चलाते। राजा की मर्जी ही सबसे ऊँचा कानून था। पर राजा से खुद किसी कानून से बंधा नहीं होता था। कभी लोग राजा से खुश रहते थे और कभी दुखी। पर कानून बनाने या कानून लागू करने में लोगों की कोई भागीदारी नहीं होती थी।
राजा के मरने के बाद उसका ही गद्दी पर बैठता था। कई बार तो एक रजा दुसरे को हरा कर उसका राज्य हड़प कर लेता था। जैसे- जैसे कुछ देशों में उद्योग धंधे बढ़ने लगे तो पढ़े – लिखे वर्ग का विकास हुआ। कभी लोगों के मन में यह विचार आया कि राजा की मनमानी पर रोक लगनी चाहिए। सरकार चलाने में और लोगों की भागदारी होनी चाहिए।
सन 1600 से लेकर 1900 तक यूरोप में कई देशों में लोगों ने राजा के राज्य को खत्म कर दिया। लोगों द्वारा चुनी गई सरकारें बनी। शासन चलाने के लिए वहाँ संसद बनी और संसद के सदस्य लोगों द्वारा चुने गए। पर उस समय वोट डालने के अधिकार सब को नहीं था। महिलाओं और मजदूर वर्ग को वोट डालने का अधिकार नहीं था।यह अधिकार उन्हें बाद में मिला।
सवाल यह था कि लोकतंत्र में सरकार कैसे बने? ऐसे समाज में लोगों का क्या अधिकार होंगे। शासन का मुखिया कैसे चुना जाएगा?
सरकार बनाने और शासन चलाने के लिए कायदे कानून की जरूरत होती है। पूरे देश की सरकार चलाने के जो कायदे कानून हैं उन्हीं को संविधान कहते हैं। आजादी के बाद पहली बार संविधान बनाने वालों को भी लोगों ने चुना था।
संविधान में केंद्र की और राज्यों की दोनों तरह की सरकार बनाने और चलाने के नियम दिए गए हैं। संविधान के कानून, सब से ऊँचे कानून हैं। संविधान के अनुसार चुने हुए लोग पूरे देश के लिए नियम व कानून बनाते हैं।यदि कोई भी व्यक्ति ये कानून तोड़े तो उसे कानून सजा मिलनी चाहिए।
हर राज्य या प्रांत का कानून विधान सभा के सदस्य मिल कर बनाते हैं। विधानसभा के सदस्य उस राज्य के लोगों द्वारा चुने हुए होते हैं।
कौन से कानून राज्य की विधानसभा बनाएगी और कौन से कानून देश की संसद? इन बातों की सूची संविधान में दी गयी हैं।ऐसी सूची नीचे दी गई है –
(i) केन्द्रीय सूची – कुछ ऐसे विषय हैं जिन पर संसद कानून बना सकती है। और राज्य कानून नहीं बना सकते। इसका मतलब यह है कि इन विषयों पर पूरे देश में एक ही कानून होंगे। ऐसे विषयों के कुछ उदहारण हैं – देश की सुरक्षा, दूसरे देशों से संबंध, मुद्रा, दूर संचार, रेल और समुद्री यातायत इत्यादि।
(ii) राज्य सूची – कुछ ऐसे विषय हैं जिन पर राज्य की विधान सभा ही कानून बना सकती है और संसद कोई कानून नहीं बना सकती। यानी इन विषयों पर हर राज्य में अलग- अलग कानून हो सकते हैं। ऐसे विषयों के कुछ उदहारण हैं कृषि, सिंचाई, वन, पुलिस, स्वास्थय इत्यादि।
(iii) मिली जूली सूची - बाकी ऐसे विषय है जिन पर संसद और विधान सभा दोनों ही कानून बना सकती है। यदि दोनों के कानून में मतभेद जो तो कानून मान्य होता है। इस प्रकार के विषयों के उदहारण हैं- मजदूर कल्याण, बिजली, शिक्षा, अख़बार, उद्योग, दीवानी कानून।कौन किस विषय पर कानून बना सकता है यह अक्सर केंद्र और राज्यों के बीच विवाद का मुद्दा रहता है दोनों ही अधिक से अधिक विषयों पर कानून बनाना चाहते हैं।
संसद द्वारा बनाये गए कानून और नीति लागू करने की जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है। यानी यह जिम्मदारी प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिपरिषद की है। इसके लिए मंत्रिपरिषद के कई न मंत्रालय और विभाग हैं। उदहारण के लिए रेल मंत्रालय, शिक्षा मंत्रालय, स्वास्थ्य मंत्रालय इत्यादि। मंत्रालय और विभागों में कई हजार अधिकारी व कर्मचारी काम करते हैं। कर्मचारी पूरे भारत में फैले हुए हैं।
इन सब कामों के लिए कई हजार करोड़ रूपये खर्च होते हैं। हर एक विभाग साल भर में सैकड़ों रूपये खर्च करता है। इस पूरे खर्चे की जिम्मेदारी भी केंद्र के मंत्रियों और प्रधानमंत्री की है। खर्चे और आमदनी की देखरेख करने का एक और मंत्रालय है- वित्त मंत्रालय।
पूरे भारत के लिए रेल, डाल, टीवी, टेलीफोन आदि का प्रबंध करना,देश की रक्षा करना- ये सभी कम केंद्र सरकार के हैं।
ठीक इसी प्रकार से राज्य स्तर पर कानून और नीति लागू करने की जिम्मेदारी मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिपरिषद की है।
लोकसभा के सदस्यों द्वारा मंत्रिमडल पर दबाव ताकि वे लोकतांत्रिक ढंग से कार्य करें-
देश की सर्वोच्च संस्था के पास नियम बनाने से लेकर लोगों की विकास को मुख्यधारा में लाने की जिम्मेदारी है।इतने संसाधन एवां पैसे होने से केन्द्रीय मंत्रिमंडल कपास काफी ताकत हो जाती है।ऐसे में वे मनमानी न करें एवं पैसों का गलत उपयोग न करें इसलिए उन निगरानी रखना जरूरी होता है।
संसद के सदस्य मंत्रिमंडल पर निगरानी रखते हैं।प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल बने रहें, इसके लिए जरूरी है कि लोकसभा के अधिकतर सदस्यों का उनके ऊपर विश्वास हो।यदि मंत्रिमंडल और प्रधानमंत्री ठीक से कम न करें तो उन्हें लोकसभा द्वारा हटाया भी जा सकता है।इसके लिए लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पेश किया जा सकता है।अगर यह प्रस्ताव बहुमत से पारित हो गया तो मंत्रिमंडल हटा दिया जाता है।
इसके अलावा संसद के सदस्य लोकसभा या राज्यसभा में मंत्रियों से सवाल पूछ सकते हैं और जानकारी मांग सकते हैं।मंत्री लोग किसी भी सवाल का जवाब देने से इंकार नहीं कर सकते।और न ही मंत्री गलत जवाब दे सकता है।यदि जानकारी गलत साबित हुई तो मंत्रिमंडल के खिलाफ कार्यवाही हो सकती है।
केन्द्रीय स्तर पर जो कम संसद करती है वही काम राज्य के स्तर पर विधानसभा करती है।विधान सभा के सदस्य राज्य सरकार के कम – काज और पैसों के उपयोग पर निगरानी रखते हैं।वे मंत्रियों से उनके काम के बारे में सवाल पूछते हैं और जानकारी लेते हैं।
हमने ऊपर देखा कि केंद्र स्तर पर सब कामकाज केंद्र की सरकार देखती हैं।राज्य के स्तर पर सारे कामकाज राज्य सरकार देखती है।पर राज्य के नीचे जिला, तहसील और ग्राम स्तर पर कौन कामकाज संभालता है?
देश की आजादी के बाद जब देश के कायदे कानून बनाने पर बहस चल रही थी न तो यह माना गया था कि जिले, प्रखंड और गाँव में भी पंचायत के रूप में स्वशासन होगा। इस का मतलब हुआ कि क्षेत्र के लोग पंचायत बनाकर अपनी सरकार खुद चलायेंगे।
पर देश के संविधान में गांव और जिले स्तर पर शासन के कायदे कानून बनाने की पूरे जिम्मेदारी राज्य सरकार पर छोड़ दी गयी थी। इस का नतीजा यह हुआ कि आजादी के बाद 1952 में जब आम चुनाव हुए तो पंचायतें स्थाई रूप से उभर कर आगे नहीं आ पाई।
हमें आजादी तो मिली और अपनी सरकार भी बनी।पर वह सरकार लोगों की पंहुच से दूर दिल्ली और पटना में बनी, और इसकी बाद कई
शिक्षा देने के लिए बड़ी संख्या में स्कूल खुले।गांव के स्तर तक स्वास्थय केंद्र बने, सड़कों का और रेलवे लाइन का देश भर में जल बिछा।
आइए जानें की इन समस्याओं का कारण क्या है?
योजनाओं की मदद से बड़े पैमाने पर गाँव की हालत न बदलने के कई और कारण हो सकते हैं।जिस पर देश और विदेश में बड़ी चर्चा होती रही परंतु जिनकी हालत बदलनी हैं उनसे चर्चा नहीं हो पाती है। इन्हीं चर्चाओं के बाद सर्वसम्मती से आम धारणा उभर रही है कि स्थानीय स्तर पर विकासीय हस्तक्षेप में जब तक लोगों की भागदारी नहीं होगी तब तक इन समस्याओं का निराकरण संभव नहीं है।
झारखण्ड के निवासी धातु के बर्तनों में पानी पीते हैं। सखूआ के पत्तलों पर भोजन करते और खजूर की चटाई पर सोते हैं।
पुरातात्त्विक उत्खननों में इस क्षेत्र में पूर्व पाषाणकाल से ही मानव सभ्यता की उपस्थिति प्रमाणित की है। पुनरातात्त्विक सामग्रियों के विश्लेषण ने यह स्पष्ट किया कि अन्य नदी या जल केन्द्रित संस्कृति से भिन्न झारखंडी संस्कृति वन केन्द्रित थी।
इस क्षेत्र में बसने वाली प्राचीनतम जनजाति असुर थी। जो कारीगर जनजाति थी और लोहा पिघलाया करती थी। बाद मुंडा और उराँव का आगमन इस इलाके में हुआ। उराँव की ही एक शाखा संथालपरगना की ओर गई जो पहाड़िया कहलाई।
छोटानागपुर में नागवां शियों के प्रवेश 64 ई. माना गया है। मुंडाओं के राजा मदिराय मुंडा से नागवां शी फाणिमुकूट राय के हाथों सत्ता हस्तांतरण हुआ। किन्तु इस क्षेत्र के राजाओं का चरित्र और शासन – चिंतन मगध से लेकर दिल्ली तक के सम्राटों और शासन व्यवस्था से अलग था।यहाँ राजा और प्रजा की जीवन शैली अभिन्न थी, उन्हें अलग-अलग पहचानना कठिन था।
मध्यकाल में शेरशाह ने सफेद हाथी के लिए अपनी सैन्य टुकड़ी झारखण्ड में भेजी। 1585 ई. में अकबर की सेना ने झारखण्ड आक्रमण किया और नागवांशी राजा मधुसिंह ने कर देना स्वीकार कर लिया।
1616 ई. जहाँगीर ने हीरों के लिए आक्रमण किया नागवांशी राजा दुर्जनसाल को गिरफ्तार कर 12 साल तक ग्वालियर के जेल में रखा। राजा दुर्जनसाल जब छूटकर छोटानागपुर लौटे तो उन्होंने अपने दरबार और जीवन शैली में दिल्ली के राजाओं की नकल करनी शुरू की।इसने झारखण्ड के जनजीवन पर व्यापक असर डाला।राज दरबार की आडम्बरपूर्ण जीवनशैली का खर्च आमजनों को करों के रूप में उठाने की शुरूआत हुई।सेना – सिपाही, पुरोहित – पुजारी, व्यापारी और अनके प्रकार के लोग राजव्यवस्था के पोषक और आश्रित रूप में आये।
उधर संथालपरगना ने भी इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।1592 ई. में अकबर के सेनापति और मंत्री मानसिंह ने राजमहल को बंगाल की राजधानी बनाया।यहाँ के पहाड़ियों ने (सौरिया पहाड़िया, कुमारभाग पहाड़िया, मालपहाड़िया) बाहरी हस्तक्षेप का हमेशा संघर्षपूर्ण प्रतिरोध किया।
1765 ई. ईस्ट इंडिया कंपनी की दीवानी बंगार – बिहार – उड़ीसा के साथ – साथ झारखण्ड में भी कायम हुई।1793 ई. के स्थायी बंदोबस्ती एवां 1865 के वन कानून ने झारखण्ड के जनजीवन में अंदोनल ला दिया।भूमि एवां वन से संबंध इतने व्यवसायिक और इतने अपरिचित शोषण कर दिए गए जिसे यहाँ की निवासियों ने इस बर्दाश्त नहीं किया।1766-80 ई. के पहड़िया विद्रोह, 1783 तिलका मांझी विद्रोह, 1755 – 1800 तमाड़ विद्रोह, 1798 – 91 भूमिज आंदोलन, 1800 चेरो विद्रोह, 1831 – 32 कोल विद्रोह, 1855-56 संताल हूल, 1895 - 1900 बिरसा उलगुलान, 1913-14 टाना भगत आंदोलन की श्रृंखला उस प्रतिकार के रूप में हम झारखंड में देख सकते हैं।
भागलपुर का अंग्रेज कलेक्टर अगस्टिन क्लीवलैंड थे जिन्होंने सबसे पहले पहाड़िया समुदाय की स्वशासी पद्धति को समझा और मन्यता दी। उसने ग्राम प्रधान मांझी और 12 से 15 गांवों के मांझियों के ऊपर सरदार या नाईब के पद के अधिकारों को मान्यता दी। उनके मानदेय की व्यवस्था की। इस प्रकार पहाड़ियों के प्रतिकार को शांत किया।
1831 – 32 ई. के कोल विद्रोह के बाद विल्किंसन रूल के तहत कोल्हान में परंपरागत प्रधानों (मुंडा – मानकी व्यवस्था) के अधिकारों को मान्यता दी गई।
1855-56 ईस्वी के संथाल हूल की आंच से संथालपरगना टेनैंसी एक्ट सामने आया और ‘मांझी परगैनेत’ की स्वशासी परंपरा मान्य हुई।
बिरसा उलगुलान के बाद छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम ने खुंटकट्टी – भूइहरी अधिकारों को मान्यता मिली।
विल्किंसन रूल और संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम के प्रभाव से उन इलाकों में स्वशासी पद्धति अपने को कायम रखने में सफल हो जो पेसा कानून के कारण पंचायती राज का हिस्सा बन गई है।
भारत के संविधान में कहा गया है कि सभी नागरिकों को राजनैतिक, समाजिक और आर्थिक समानता मिलेगी।आजादी के बाद इस सपने को पूरा करने के लिए विकास के काम शुरू किए गए।
देश और राज्य के स्तर पर विकास की कई योजनाएँ बनी। जिला स्तर पर कलेक्टर और अलग – अलग विभागों ने इन योजनाओं के लगू करने की जिम्मेदारी संभाली। विकास का कम करने के लिए प्रखंड बनाये गये। और तीन स्तरों पर पंचायतों ने कम शुरू किया –
पर इन पंचायतों को संविधान के तहत अधिकार नहीं थे। यह पंचायतें सरकारी अफसरों के नीचे काम करती थी।
पिछले तिरसठ सालों में विकास के कामों से हमने चीजें हासिल की। आज हम दुनिया के कई देशों की अपेक्षा काफी बेहतर हैं लेकिन इसके बावजूद भी, अभी हम कई मामलों में पीछे हैं, आम आदमी की बुनियादी जरूरतों के मामले में हम काफी पीछे हैं। ऐसा नहीं है की सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया, बल्कि इन योजनाओं के सफल न होने का एक बड़ा कारण यह है कि विकास के कामों में आम लोगों की भागदारी नहीं रही है।
पिछले तिरसठ सालों में सरकार ने सारी समस्याओं को दूर करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। ऊपर से नीचे सरकार तथा विभाग के अधिकारीयों ने सब बातें खुद ही तय की।
इसका नतीजा यह हुआ कि लोगों ने सरकार से सेवाएँ और सुविधा तो हासिल की, पर वे सरकार और सरकारी विभागों पर निर्भर होकर रह गए।
साठ साल से विकास और सामाजिक बदलाव में जो संस्थाएं लगी थी जैसे कि योजना आयोग, सरकार तथा देश की संसद उन सबको नयी दिशा में सोचने की जरूरत महसूस हुई।इस सोच में राजनीतिज्ञों, सामाजिक कार्यकर्त्ताओं, स्वयंसेवी संस्थाओं और विशेषज्ञों नई भी भूमिका अदा की।इन सब लोगों को लगा कि
इन बातों पर चर्चा और विचार से यह नतीजा निकला कि
पंचायत राज के इतिहास में 24 अप्रैल 1993 बहुत महत्वपूर्ण तारीख है इस दिन संविधान में 73वां संविधान कर पंचायत राज व्यवस्था को स्थायी कर पहले से अधिक अधिकार देकर जिम्मेवार बनाने का रास्ता साफ किया गया है।
संविधान में संशोधन करके ये बातें तो पूरे देश में लागू कर दी गई है।देश तो बहुत बड़ा है।प्रदेशों की अपनी परिस्थितियों और जरूरतों के अनुसार पंचायतें अपने- अपने यहाँ काम कर सकें इसके लिए संशोधन के अनुच्छेद 40 में कहा है कि “राज्य ग्राम पंचायतों का गठन करने के लिए कदम उठाएगा और उनको ऐसी शक्तियाँ और प्राधिकार प्रदान करेगा, जो उन्हें स्वयात्व शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने के योग्य बनाने के लिए आवश्यक हो।”
इसलिए सभी प्रदेशों ने पंचायतों को कुछ शक्तियाँ और अधिकार सौंपे हैं झारखण्ड में सरकार ने पंचायत राज अधिनियम 2001 बनाकर पंचायतों के लिए शक्तियाँ और अधिकार सौंपे हैं।
आईये 73वें संविधान की मुख्य बातों को जानें, जिसने पंचायतों की स्थायी करके महत्वपूर्ण भूमिकाएँ प्रदान की।
उपरोक्त सोच के परिणामस्वरुप संशोधन में मुख्य रूप से निम्नवत प्रावधान किए गए।
संस्थागत अस्तित्व |
अर्थात निर्णय जा प्रतिनिधियों द्वारा लिया जाना |
संस्था की क्षमता |
अर्थात संस्था को स्वतंत्र रूप से नियम बनाने की शक्ति प्राप्त होना |
वित्तीय रूप में सक्षम |
अर्थात अपनी दायित्व के निर्वाह के लिए आवश्यक स्रोत उपलब्ध होना। |
अधिनियम में पंचायतों को शक्ति व दायित्व देने का अधिकार राज्य की विधायिक को दिया गया तथा वह निर्देशित किया कि राज्य सरकारें एक वर्ष के दौरान इस अधिनियम को ध्यान में रखकर पंचायत अधिनियमों को संशोधन करेंगी।अत: राज्य सरकारों ने अपने - अपने पंचायत राज्य अधिनियम में आवश्यक संशोधन किए।
संविधान के इन कानूनों के तहत यह जिम्मेदारी राज्य की विधान सभा को सौंपी गयी कि पंचायत चलाने के लिए अपने राज्य की जरूरतों के हिसाब से और नियम बनाये जाएँ।
इन नियमों को पंचायत राज कानून कहते हैं।इस कानून की जानकारी हम पुस्तक में आगे दे रहे हैं।
नई पंचायती राज व्यवस्था के अंतर्गत त्रिस्तरीय पंचायत राज के चार स्तंभ है।
ग्राम सभा व्यवहार के आधार पर पंचायत राज का लोक तांत्रिक स्वरूप हैं।यहाँ जनता द्वारा चुने गए ग्राम पंचायत प्रतिनिधि जनता के समक्ष उपस्थित होकर उनके प्रश्नों के उत्तर से एवं उनकी जिज्ञासाओं को पूरा करने की चेष्टा करते हैं। यह गणतंत्र की सबसे अनूठी और पंचायत राज का सबसे मौलिक स्वरुप है।ग्राम सभा ही वह आधारशिला है जिस पर पंचायत राज का पूरा विकसित ढाँचा अवस्थित है।
ग्राम पंचायत राज का सबसे जमीनी संस्थागत स्वरूप है।यही एक मात्र विशुद्ध निर्वाचित सदस्यों की संस्था है। यहाँ तक कि इस संस्था के प्रधान, मुखिया, भी सीधे जनता से चुनकर आते हैं।ग्राम पंचायत एक विशुद्ध संस्था इसलिए भी है कि इसमें बाहर का कोई अन्य व्यक्ति सदस्य नहीं होता।यह जनता द्वारा सीधे निर्वाचित सदस्यों की संस्था ही जो जनता के बीच रहकर संस्थागत स्तर से काम करती है।
पंचायत समिति ग्राम पंचायतों की समूहिक संस्था है।यह ग्राम पंचायतों को नियमित एवं सुचारू ढंग से चलने में सहायक की भूमिका में भी है और समूह नायक की भूमिका में भी।पंचायत समिति स्तर पर पहली बार पंचायत राज प्रशासन से संपर्क में आता है और उसके माध्यम से उठकर क्षेत्र के आधार पर कार्यकलापों का संकलन एवं सम्पादन करता है यहाँ पंचायत राज अपने नियामक स्वरुप में अवस्थित है।
जिला परिषद् पंचायत राज में समन्वयक स्वरूप में अवस्थित है।यह तीन स्तरों पर समन्वय करता है –
पहला, पंचायत समितियों के बीच जिसका प्रतिफल जिला स्तरीय योजना निर्माण होता है।
दूसरा, विभिन्न विभागों के बीच समन्वय जिसका प्रतिफल पंचायत समितियों एवं ग्राम पंचायतों के क्रियाकलापों के निर्धारण होता है।
तीसरा, प्रशासन एवं शासन के साथ समन्वय जिसका प्रतिफल पंचायत राज का नीतिगत स्वरूप होता है।
पंचायत राज के इन चारों स्वरूपों में एकरूपता भी है और विधिवत भी।एकरूपता इसीलिए कि ये सभी निकाय हैं।विधिवत इसलिए की सभी अपने आप में स्वतंत्र भी हैं और एक दूसरे से जुड़े हुए भी।स्थानीय स्वशासन, स्थानीय विकास एवं स्थानीय एकजुटता के माध्यम से समाज का कायाकल्प हो सकता है।इसके लिए थोड़ी और स्वायत्तता थोड़ा प्रशिक्षण और थोड़ा मार्गदर्शन पंचायतों की क्षमता – वृद्धि में सहायक होगा।इन तीनों स्तरों पर पंचायतों में आपसी समझ, समन्वय और समर्पण की भी जरूरत होगी।
(i) राज्य सभा
(ii) लोक सभा
(iii) विधान सभा
(iv) ग्राम सभा
इन चारों में भी ग्राम सभा एक मूल सभा है क्योंकि पहली तीनों सभाओं में जनता के सीधे या घुमाकर (अप्रत्यक्ष रूप से) चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं। परंतु ग्राम सभा में तो स्वयं जनता उपस्थित होती है।
इसके अलावा, ग्राम सभा हमारे गणतंत्र की इन चारों सभाओं में सदस्यों की संख्या के हिसाब से सबसे बड़ी है और तो और, हमारे गणतंत्र की सारी सभाओं में केवल ग्राम सभा ही ऐसी सभा है जो शाश्वत है, यानि की हमेशा बनी रहती है। इसकी अवधि का कोई परिसीमन नहीं। अखंड है, चिर है।
पृष्ठभूमि
झारखंड के कुल 24 जिलों में 13 जिले पूर्ण रूप से एवं 3 जिलें आंशिक रूप से संविधान के पांचवी अनुसूची में आता है।(सूची संलग्न है)।संविधान में यह व्यवस्था इसलिए है क्योंकि पांचवीं अनुसूची वाले क्षेत्रों में ज्यादातर अनुसूचित जनजाति के लोग रहते हैं और संविधान में यह व्यवस्था है कि इन जनजातियों की परंपरा और संस्कृति को बचाए रखने की कोशिश होना चाहिए। इसलिए अगर देश का कोई नियम या कानून जनजातीय परंपरा के खिलाफ है तो राज्यपाल को यह अधिकार है की वे उसे इन क्षेत्रों में लागू नहीं होने दें। 73वें संविधान संशोधन में इन क्षेत्रों को ध्यान में नहीं लिया गया था। बाद में संसद ने दिसंबर 1996 के नाम से जाना जाता है।
आजादी के बाद से अनुसूचित जनजाति के लोग सामाजिक न्याय प्राप्त करने के लिए लगातार अपनी आवाज उठाते रहे है। इनके इतिहास को देखा जाए तो स्पष्ट समझ में आता है कि अनुसूचित जनजाति ने कभी भी किसी के अधीन हो कर जीना नहीं सीखा यहाँ तक कि उन्होंनें अंग्रेजों के शासन भी स्वीकार नहीं किया।उनका जीवन सुदूर क्षेत्रों में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों से ही चलता है एवं बाहरी दुनिया की जटिलता से इनका कोई मतलब नहीं होता है।इसलिए इनका कहना है कि प्राकृतिक संसाधनों पर इन्हीं का नियंत्रण होना चाहिए।परंतु इन्हें अपने ही वनों में जाने की अनुमति नहीं है, वन सुरक्षा अधिनियम व उसके प्रावधानों के कारण वहाँ से लड़की व अन्य वनोपज इकट्ठा कर लें तो इन पर अतिक्रमण का आरोप लगा दिया जाता है। वनों एवं जमीन पर अधिकार न रह जाने के कारण आजीविका के लिए इन्हें पलायन के लिए विवश होना पड़ा।
आजादी के बाद भी अंग्रेजों के द्वारा बनाए गए नियम कानून चलते रहे जिसकी वजह से इनका शोषण बढ़ता गया और इनकी परंपरा समाप्त होती चली गई। विकास के नाम पर इन्हें लोकतंत्र की प्रमुख धारा में शामिल करने के लिए इन्हें वोट डालने का अधिकार तो दिया गया परंतु सामाजिक न्याय से ये कोसों दूर रहे। काफी समय तक अंग्रेजों के समय बने गए नियम कानून के खिलाफ अनुसूचित जनजाति के समोदय ने आवाजें उठाई जिनमें से कुछ मुख्य है भारत जन आंदोलन, नेशनल फ्रंट फॉर ट्राइबल सेल्फ रूल, आदिवासी संगम। 1980 के दश में उस समय के अनुसूचित जनजाति के कमिश्नर श्री . बी. डी. शर्मा ने अपने पड़ का इस्तेमाल करते हुए अनूसूचित जनजाति की दयनीय स्थिति की सबके सामने प्रस्तुत करने का अत्यधिक प्रयास किया जिससे की उनके हित में उचित कदम उठाया जा सके।समय के साथ आंदोलन बढ़ते चले गए और आदिवासियों का हमारा गाँव हमारा राज का नारा बुलंद होता चला गया। उभरते जन आंदोलनों को देखते हुए संसद ने अनुसूचित जनजाति की स्थिति जाने के लिए एवं इस दिशा में उनके लिए उपयोगी कदम उठाने के लिए एक कमेटी का गठन किया जिसका नेतृत्व अनुसूचित जनजाति के श्री दिलीप सिंह भूरिया के हाथों सौंपा।भूरिया कमेटी ने ग्राम सभा को सर्वोच्च अधिकार देने की मांग की जिससे की उनकी स्वशासन की परंपरा बरकरार रहे और साथ ही इस बात की भी पैरवी किया कि उपजाऊ भूमि एवं जंगल उनके ही अधीन होना चाहिए जिससे जिससे उनकी जीविका का साधन बना रहे।भूरिया कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर दिसंबर 1996 में संसद ने अनुसूचित क्षेत्रों के लिए पंचायतों के विशेष अधिनियम पास किया जिसे पेसा के नाम से जाना गया।यह अधिनियम अनुसूचित जनजाति के स्वशासन को मजबूती प्रदान करने किए लिए एक नई पहल थी।
संविधान के भाग अंतर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी किसी राज्य का विधान मंडल, उक्त विभाग के अधीन ऐसी कोई विधि नहीं बनाएगा जो निम्नलिखित विशिष्टियों में से किसी से असंगत हो, अर्थात –
प्रत्येक ग्राम सभा
अनुसूचित क्षेत्र के राजस्व ग्राम व वन ग्राम के भीतर भी एक या एक से अधिक ग्राम सभा का गठन किया जा सकता है।यानी एक गाँव के छोटे-छोटे, टोलों में ग्राम सभी का गठन किया जा सकता है।जब उनका उस ग्राम सभा में ऐसे समूह अथवा छोटे गांवों/टोलों का समूह होगा जिसमें एक ही समुदाय के लोग परंपरा एवं रूढ़ियों के अनुसार अपने क्रियाकलाप का प्रबंध करते हैं।छोटे गाँव में ग्राम सभा गठित होती या नहीं यह उस ग्राम सभा के सदस्यों पर निर्भर करेगा।
अनुसूचित क्षेत्र में ग्राम सभा की बैठक बुलाने का दायित्व रो मुखिया/उप – मुखिया का होगा लेकिन इन बैठकों की अध्यक्षता परंपरा प्रधान ही करेंगे।अनुसूचित क्षेत्र में ग्राम सभाओं को कुछ अतिरिक्त शक्तियाँ दी गई है।
ग्राम सभा अपने कार्यों एवं जिम्मेदारियों को बेहतर ढंग से निर्वहन करने के लिए निम्नलिखित स्थायी समितियों का गठन कर सकेगी,
|
परंतु इन भूमिकाओं को निभाने के लिए हर एक नागरिक को अपने अधिकार और कर्तव्य के प्रति चौकस और सजग रहना होगा।उनकी सक्रिय भागीदारी पंचायत राज की सफलता के लिए पहली आवश्यकता है।ग्राम सभा की सक्रियता और सदस्यों की नियमित भागीदारी से ही पंचायतीराज सशक्त और सक्षम हो सकेगा।
ग्राम सभा की वार्षिक बैठक, जो आगामी वित्तीय वर्ष के प्रारंभ होने के कम – से – कम तीन माह पूर्व किया जाएगा, जिसमें निम्नलिखित बातें रखेंगी –
प्रत्येक ग्राम सभा एक निधि स्थापित कर सकेगी जो निम्नलिखित चार भागों से मिलकर ग्राम कोष कहलाएगा –
अन्न कोष |
श्रम कोष |
वस्तु कोष |
नगद कोष |
जिसमें निम्नलिखित जमा होंगे –
दान |
प्रोत्साहन राशि |
अन्य आय |
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ग्राम सभा की बैठक कम से कम तीन माह में एक बार होगी, परंतु ग्राम सभा के सदस्यों की कुल संख्या के एक तिहाई से अधिक सदस्यों द्वारा लिखित में अपेक्षा किए जाने पर या पंचायत समिति, जिला परिषद् या जिला दंडाधिकारी/ उपयुक्त द्वारा अपेक्षित किए जाने पर, ग्राम सभा की बैठक ऐसी अपेक्षा के तीस दिनों के भीतर बुलाई जा सकेगी।
आम तौर पर ग्राम सभा की बैठक साल में कम से कम चार बार की जानी है जिसके लिए 26 जनवरी, 1 मई, 15 अगस्त और 2 अक्टूबर की तिथि तय की गई है।पर आवश्यकता पड़ने पर ग्राम सभा की बैठक कभी भी और जितनी बार मुखिया या सदस्य चाहें प्रक्रियानुसार बुला सकते हैं।
परंतु मुखिया को अयोग्य करार करने के पूर्व संबंधित अनुमंडल पदाधिकारी द्वारा निलंबन करने के आधार पर मुखिया को अपनी बात रखने का सबूतों के आधार पर अवसर देना होगा।
उदारण स्वरूप यदि बैठक में सदस्यों की कुल संख्या 91 है।तो एक तिहाई सदस्य से कम की पूर्ति करने के लिए 30. 3 अर्थात पूर्ण संख्या 30 सदस्य एक तिहाई से कम होंगे, इसलिए 31 सदस्यों की उपस्थिति कोरम के लिए आवश्यक है तथा इन 31 सदस्यों में से एक तिहाई महिला सदस्य की अर्थात 11 महिला सदस्यों की उपस्थिति अनिवार्य है।
नोट : किसी व्यक्ति के ग्राम सभा की बैठक में उपस्थित होने के हक़ के संबंध में विवाद की स्थिति में बैठक की अध्यक्षता करने वाले व्यक्ति, उस ग्राम सभा क्षेत्र की मतदाता सूची में प्रविष्टि के आलोक में, विवाद का निराकरण करेगा, और उसका निर्णय अंतिम होगा।(धारा 9)
अनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम सभा को सामान्य क्षेत्रों की ग्राम सभा को मिले अधिकारों के साथ – साथ कई और भी अधिकार मिले हैं। ये अधिकार इस प्रकार हैं –
ग्राम सभा के बैठक मर उपस्थिति होने वाले सभी सदस्यों के नाम प्रपत्र 5 में रखे गए उग्रा पस्थिति पंजी में दर्ज किए जायेंगे।
अनुसूचित क्षेत्रों में भी ग्राम सभा अपनी बैठक में जो भी फैसला लेगी उसे लागू करना और करवाना ग्राम पंचायत का काम है। इसीलिए मुखिया तथा सदस्य पूरी तरह से ग्राम सभा के अधीन होकर काम करते हैं।
कोई भी सरकार विभाग अनुसूचित क्षेत्र में बिना ग्राम सभा की अनुमति या निर्णय के आपने मन से कोई कम नहीं कर सकता।जल, जंगल और जमीन से जुड़े हर विषय पर विभाग इन विषयों पर निर्णय लेते समय ग्राम सभा की सहयता कर सकते हैं।
ग्राम सभा के निम्नलिखित कृत्य है –
लोकतांत्रिक प्रक्रिया में यह आम धारणा बनती जा रही है कि आम आदमी मतदान करने के बाद अपनी सारी जिम्मेदारी से मुक्त होने लगा है। उन्होंने लगता है कि हमने तो अपनी भूमिकाओं का निर्वहन कर दिया है। हमने अपना अमूल्य वोट सिर्फ प्राथमिकता के आधार पर इसलिए दिया कि अब आप मेरी सभी समस्याओं का समाधान करेंगे।यह धारणा स्वयं के लिए बहुत ही गलत है, क्योंकि, कोई भी व्यक्ति इतना ताकतवर नहीं होगा, जो आपकी अपनी बुनियादी समस्याओं का निराकरण कर सकता है।वह तो एक माध्यम होगा। शुरूआत तो आपको ही करनी होगी। जिस तरह हम लोग पिछले 63 वर्षों से अपनी समस्याओं के निराकरण के लिए सरकार पर आश्रित रहे, जिसका परिणाम हम लोगों के सामने है, ऐसे में क्या अभी भी हम लोग इस परिवर्तन के बाद यही सोच रखें कि प्रतिनिधि ही हमारा सब कुछ कर दें। तो यह स्वयं के अलावा इस पूरी व्यवस्था के प्रति हमारा नकारत्मक दृष्टिकोण सामने दिख रहा है।जरा सोचिए अपने जिस व्यक्ति को अपना नेता चुना है, वह भी आप ही के जैसा है। कल तक जो आपके साथ था, क्या आज उसकी क्षमता इतनी हो गई कि आपकी सभी समस्याओं का वह निराकरण कर सकता है।
इसके आलवा आप यह भी देखें कि चुनाव में इस पद के लिए कितने व्यक्ति मैदान में थे उन सभी को पीछे छोड़ते हुए अपने एक नेता चुना, क्या सभी व्यक्ति एवं उसके सहयोगी, अपने नेता का तुरंत सहयोग करेंगे, चुनाव में जिस तरह आरोप- प्रत्यारोप एक दूसरे के ऊपर चलता है, क्या वह इतनी जल्दी सामान्य हो जायेंगे, क्या गाँव के जातीय समीकरण, टोलिय समीकरण, गुटीय समीकरण तुरंत समाप्त हो जाएगा, क्या इन सभी कारणों से आपका नेता अकेले लड़ सकता है? क्या पूर्व के मुखिया के अनुभवों को वह दरकिनार कर सकता है? शायद अकेले संभव नहीं है। इसलिए आपकी भूमिका भी काफी महत्वपूर्ण है। हम सभी मिलकर ग्रामपंचायत के सभी निर्वाचित सदस्यों की सामाजिक भूमिका को तय करा सकते हैं, संवैधानिक भूमिकाओं का सही ढंग से क्रियान्वयन हो, इसकी व्यवस्था पंचायत प्रतिनिधि मिल कर ही इसको व्यवहारिक कर सकते हैं। इसलिए अपनी कुछ जिम्मेदारियों का उचित निर्वहन अवश्य करें, जैसे –
गाँधी जी देश के गांवों और वहां रहने वालों के बारे में लगातार लिखते और सोचते रहें है, गाँधी जी के विचार आज भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने वे आजादी के पहले थे।वे मानते थे कि जब तक भारत के लाखों गाँव स्वतंत्र, ताकतवार और स्वावलंबी नहीं बनेगें तब तक भारत का भविष्य चमकदार नहीं हो सकता।
पंचायतीराज और ग्राम स्वराज्य के बारे में उनके विचार बहुत साफ थे। वे कहते थे कि ग्राम पंचायत में जान फूंककर हमारे देश में ग्राम स्वराज कायम किया जाए। वे यह भी बताते हैं कि गाँव कैसा होना चाहिए और वहाँ की सफाई, स्वास्थ्य, शिक्षा, धंधे का रूप क्या होना चाहिए। मानव विकास की उनकी समझ इंसान की जिंदगी के सभी पहलुओं को छूती है। धर्म और जातीय भेदभाव से उन्हें सख्त नफरत थी। यहाँ हम गांधीजी के उन विचारों को उन्हीं के शब्दों में दे रहे हैं –
लोगों की आजादी होनी चाहिए।उन पर हुकूमत करने वाले हों, ऐसी आजादी नहीं।आजादी नीचे से होनी चाहिए।हरेक गाँव में पंचायत का राज होगा। उसके पास पूरी सत्ता और ताकत होगी। इसका मतलब यह है कि हरेक गाँव को अपने पांव पर खड़े होना होगा- अपनी जरूरतें खुद पूरी कर लेनी होगी, ताकि वह अपना सारा कारोबार खुद चला सके। यहाँ तक कि वह सारी दुनिया के खिलाफ अपनी हिफाजत खुद कर सके इस तरह आखिर हमारी बुनियादी व्यक्ति पर होगी। जिस समाज कर हर आदमी यह जनता है कि उसे क्या चाहिए और इससे भी बढ़कर जिसमें यह माना जाता है कि बराबरी कि मेहनत करके भी दूसरों को जो चीज नहीं मिलती है, वह किसी को खुद भी नहीं लेनी चाहिए वह समाज जरूर बहुत ऊँचे दर्जे की सभ्यता वाला होगा।
ऐसे समाज में अनगिनत गाँव होंगे।उसका फैलाव एक के ऊपर एक के ढंग पर मीनार की शक्ल में नहीं, बल्कि लहरों की तरह एक के बाद एक की शक्ल में होगा।मीनार में ऊपर की तंग छोटी को नीचे के चौड़े पाये पर खड़ा होना पड़ता है।मेरे बताए समाज में तो समुद्र की लहरों की तरह जिन्दगी एक के बाद एक घेरे की शक्ल में होगी और व्यक्ति उसका मध्यबिंदू होगा।यह व्यक्ति हमेशा अपने गाँव के खातिर मिटने को तैयार रहेगा।गाँव अपने इर्द-गिर्द के गांवों के लिए मिटने को तैयार होगा।हालाँकि इस तस्वीर को पूरे तरह बनाना मुमकिन नहीं है, तो भी इस सही तस्वीर को पाना या इस तरफ पहूँचना हिन्दुस्तान की जिन्दगी का मकसद होना चाहिए। जिस चीज को हम चाहते हैं उसकी सही – सही तस्वीर हमारे सामने होनी चाहिए। तभी हम उससे मिलती – जुलती कोई बीज पाने की उम्मीद रख सकते हैं।अगर हिन्दुस्तान के हरेक गाँव में कभी पंचायती राज कायम हुआ, तो मैं अपनी इस तस्वीर की सच्चाई कर सकूंगा, जिसमें सबसे पहला और आखिरी दोनों बराबर होंगे या यों कहिए कि न कोई पहला होगा, न कोई आखिरी।
इस तस्वीर में हरेक धर्म की अपनी पूरी और बराबरी की जगह होगी। हम सब एक ही आलीशान पेड़ के पत्ते हैं। इस पेड़ की जड़ हिलायी नहीं जा सकती, क्योंकि वह पाताल तक पहुंची हुई है। जबर्दस्त से जबर्दस्त आंधी भी उसे हिला नहीं सकती।
ग्राम स्वराज की मेरी कल्पना यह है कि वह वह एक ऐसा पूर्ण प्रजातंत्र होगा, जिसमें अपनी अहम जरूरतों के लिए गाँव अपने पड़ोसियों पर भी निर्भर नहीं करेगा, और फिर भी बहुतेरी दूसरी जरूरतों के लिए जिनमें दूसरों का सहयोग अनिवर्य होगा- वह परस्पर सहयोग से कम लेगा।इस तरह हरेक गाँव का पहला काम यह होगा कि वह अपनी जरूरत का तमाम अनाज और कपड़े के लिए पूरी कपास खुद पैदा कर ले। उसके पास इतनी फाजिल जमीन होने चाहिए, जिसमें ढोर (पशु) चार सकें और गाँव के बड़ों और बच्चों के लिए मनबहलाव के साधन और खेलकूद के मैदान बैगरह का बंदोबस्त हो सके। इसके बाद जो जमीन बचेगी उसमें वह ऐसी उपयोगी फसलें बोयेगा, जिन्हें बेचकर वह आर्थिक लाभ उठा सके।यों वह गांजा, तंबाकु अफीम बैगरह की खेती से बचाएगी। हरेक गाँव में गाँव की अपनी एक नाटकशाला, पाठशाला, और सभी भवन रहेगा।
पानी के लिए गाँव अपना इंतजाम होगा जिससे गाँव के सभी लोगों को शुद्ध पानी मिला करेगा। कुओं और तालाबों पर गाँव का पूरा नियंत्रण रखकर यह काम किया जा सकता है।बुनियादी तालीम के आखिरी दर्जे तक शिक्षा सबके लिए लाजिमी होगी।जहाँ तक हो सके गाँव के सारे काम सहयोग के आधार पर किए जायेंगे। जात - पात और छूआ - छूत जैसे दोष आज हमारे समाज के लिए हर साल गांव के पांच आदमियों की एक पंचायत चुनी जाएगी। इसके लिए एक खास निर्धारित योग्यता वाले गाँव के बालिग स्त्री – पुरूषों को अधिकार होगा कि वे नियमानुसार अपने पांच चुन लें। इन पंचातयों को सब प्रकार की आवश्यक सत्ता और अधिकार रहेंगे।इस ग्राम शासन में व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आधार रखने वाला सम्पूर्ण प्रजातंत्र काम करेगा।व्यक्ति ही अपनी इस सरकार का निर्माता भी हो।
गाँव की रचना में भी नियम होना चाहिए। गाँव की गलियां चाहे जैसी टेढ़ी – मेढ़ी, संकरी – चौड़ी, ऊबड़ - खाबड़ होने के बजाए सब तरह से अच्छा होना चाहिए, और हिन्दुस्तान में जहाँ करोड़ों आदमी नंगे पैर चलने वाले हैं, वहाँ रास्ते इतने अधिक साफ होने चाहिए कि उन पर चलते हुए तो क्या, जमीन पर सोने में भी किसी तरह की हिचक आदमी के मन में न हो। गलियां पक्की और पानी के निकास के लिए नालीदार होनी चाहिए। मेरा दृढ़ मत है कि ऐसी छोटी आबादी वाले गाँव में अच्छी व्यवस्था करना बहुत आसान है। सिर्फ जरूरत है शुद्धभाव से काम करने वाले स्त्री – पुरूष की इसमें धन की भी जरूरत नहीं। जो कुछ जरूरत है, सिर्फ सदाचार की। किसान की तरक्की का यह आसान रास्ता है।
देहात वालों में वह कला और कारीगरी आनी चाहिए जिससे बाहर उनकी पैदा की हुई चीजों की कीमत की जा सके।जब गांवों का पूरा- पूरा विकास हो जायेगा, तो देहातियों की बुद्धि और आत्मा को संतुष्ट करने वाली कला कारीगरी के धनी स्त्री-पुरूषों की गांवों में कमी नहीं रहेगी। गाँव में कवि होंगे, चित्रकार होंगे, शिल्पी होंगे, भाषा के पंडित और शोध करने होगी जो गाँव में न मिले। आज हमारे देहात उजड़े हुए। कूड़े – कचरे के ढेर बने हुए हैं, कल वे सुन्दर बगीचे होंगे और ग्रामवासियों को ठगना या उनका शोषण करना नामुमकिन हो जाएगा।
इस तरह के गांवों की पुनर्रचना का काम आज से ही शुरू हो जाना चाहिए। गांवों की पुनर्रचना का काम कामचलाऊ नहीं, बल्कि स्थायी होना चाहिए। उद्योग, हुनर तंदुरूस्ती शिक्षा इन चारों का सुन्दर समन्वय करना चाहिए इन सबके मेल से माँ के पेट में आने के समय से लेकर बुढ़ापे तक का एक खूबसूरत फूल तैयार होता है।
किसी भी गाँव में चले जाइये, आपको गंदगी मिलेगी। अगर गाँव की सफाई हो जाए तो बहुतेरे रोग हों ही नहीं।चिकित्सक जानते हैं कि रोग का सबसे बढ़िया इलाज हो यह है कि उसे होने ही न दिया जाए। बदहजमी न होने दें। तो पेचिश बंद हो जाएगी। गाँव की हवा साफ रखें तो बुखार न आएगा। गाँव को पानी साफ रखने और रोज साफ पानी से नहाने से फोड़े न होंगे।
बहुतेरे गांवों में एक ही तालाब होता है और पोखरा तो प्राय: प्रत्येक गाँव में होता है, जिसमें पशु-पक्षी पानी पीते हैं, आदमी नहाते – धोते हैं, बर्तन मांजते हैं, कपड़े धोते हैं और वही पानी कहीं- कहीं पीने के काम में भी लाते हैं इसे पानी में जहरीले कीड़े पैदा हो जाते हैं और इस पानी के पानी से हैजा आदि बीमारियाँ बढ़ी जल्दी फैलती हैं।
मेरी राय में जिस जगह शरीर- सफाई, घर सफाई और ग्राम – सफाई हो तथा उचित आहार और योग्य व्यायाम हो, वहाँ कम से कम बीमारी होती है। आप जो पानी पीयें, जो खाना खायें और जिस हवा में साँस ले, वे बिल्कुल साफ होने चाहिए। आप सिर्फ अपनी निजी सफाई से संतोष न करें, बल्कि हवा, पानी और खुराक की जितनी सफाई आप अपने लिए रखें, उतनी ही सफाई का शौक आप अपने आस-पास के वातावरण में भी फैलाए।
अगर गांवों का नाश होता है तो भारत का भी नाश हो जाएगा। उस हालत में भारत, भारत नहीं रहेगा। दुनिया को उसे संदेश देना है उस संदेश को वह खो देगा।
गांवों में फिर से जन तभी आ सकती है, जब वहां की लूट-घसोट रूक जाएँ। बड़े पैमाने पर माल की पैदावार गांवों की लूट किए लिए जिम्मेदार है। इसलिए हमें इस बात की सबसे ज्यादा कोशिश करनी चाहिए कि गाँव हर बार में स्वावलंबी और स्वयंपूर्ण हो जाएँ। वे अपनी जरूरतें पूरी करने भर के लिए चीजें तैयार करें। ग्रामोद्योग इस इस अंग की अगर अच्छी तरह रक्षा की जाए।तो गाँव के लोग आजकल के उन यंत्रों और औजारों से भी काम ले सकते है जिन्हें वे बना और खरीद सकते हैं। शर्त सिर्फ यहीं है कि दूसरों को लूटने के लिए उनका उपयोग नहीं होना चाहिए।
याद रखें
ग्राम सभा ही वह ताकत है, जिसके सशक्तिकरण से ग्राम पंचायतें अपनी भूमिकाओं का बेहतर ढंग से निर्वहन कर सकती हैं, आपकी जागरूकता से पंचायतें सशक्त होंगी, आपके संगठनात्मक सहयोग से पंचायतें जवाबदेह एवं पारदर्शी होंगी, अत: इस कार्य में आपका सहयोग ही इस व्यवस्था के सशक्तिकरण का पहला मापदंड है।
(नियम 4 (चार) देखिये)
अधिसूचना
झारखंड पंचायत राज अधिनियम, 2001 के अंतर्गत झारखंड ग्राम सभा (गठन, बैठक की प्रक्रिया एवं कार्य संचालन) नियमावली, 2003 के नियम 4 के द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए नीचे दी गई सारणी के भीतर कॉलम 2 में वर्णित क्षेत्र के लिए अलग ग्राम सभा के गठन करते हैं, जो आगामी माह की प्रथम तारीख से अस्तित्व में आयेगी।
सारणी
प्रखंड का नाम |
ग्राम पंचायत का नाम |
ग्राम सभा का नाम |
राजस्व ग्राम |
सम्मिलित ग्रामों के नाम |
ग्राम की जनसंख्या |
मुख्यालय |
1 |
2 |
3 |
4 |
5 |
6 |
7 |
स्थान :
जारी करने की तारीख
जिला दंडाधिकारी/उपयुक्त
झारखंड पंचायत उपबंध अधिनियम 1996, के अंतर्गत झारखंड के अनुसूचित प्रखंड
झारखंड के 24 जिले पूर्ण रूप से एवं 3 जिले आंशिक रूप से जिनमें रूप से जिनमें से कुल 134 प्रखंड एवं 2071 पंचायत संविधान की 5वीं अनुसूची के अनुसार अनुसूचित घोषित हैं।
क्र. |
जिला का नाम |
कुल प्रखंडो की संख्या |
कुल ग्राम पंचायतों की संख्या |
1 |
राँची |
18 |
303 |
2 |
खूँटी |
6 |
86 |
3 |
गुमला |
12 |
159 |
4 |
लोहरदगा |
7 |
66 |
5 |
सिमडेगा |
10 |
94 |
6 |
प. सिंहभूम |
18 |
216 |
7 |
पू. सिंहभूम |
11 |
231 |
8 |
सरायकेला खरसावाँ |
9 |
136 |
9 |
दुमका |
10 |
206 |
10 |
जामताड़ा |
6 |
118 |
11 |
पाकुड़ |
6 |
128 |
12 |
लातेहार |
9 |
115 |
13 |
गढ़वा (भंडरिया) |
1 |
10 |
14 |
गोड्डा (बीआरीजोर, एवं सुन्दरपहाड़ी) |
2 |
35 |
15 |
साहेबगंज |
9 |
166 |
16 |
पलामु(सिर्फ सतबरवा प्रखंड के रबदा और बकोरिया पंचायत) |
0 |
2 |
|
कुल |
134 |
2071 |
स्रोत: राज्य ग्रामीण विकास संस्थान (सर्ड) , झारखंड सरकार
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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