पंचायत और पंचायती (फैसला) पर्यायवाची शब्द बन गये हैं। भारतीय लोकमानस तो पंच को परमेश्वर तक मनाता रहा है। महान कथाकार मुंशी प्रेमचन्द्र ने पंचों के न्याय पर विख्यात कहानी पंच परमेश्वर लिखी। पंचों की निष्पक्षता और न्यायशीलता असंदिग्ध रही है।
पंचायत से उसकी न्यायिक भूमिका का जुड़ाव इतना सघन और अभिन्न है कि अभी भी लोग पंचायत का अर्थ फैसला करना ही मानते हैं। इसीलिए मुखिया को लोग न्यायकर्त्ता मानते हैं, बल्कि मुखिया भी स्वयं को उसी रूप में देखा जाना पंसद करते हैं। लड़ना-झगड़ना मनुष्यों ही नहीं, पशु-पक्षियों में भी आम बात है, लेकिन झगड़ना मनुष्यों का स्थाई स्वभाव नहीं है। प्रेम और सदभाव कहीं ज्यादा शक्तिशाली भावनाएं हैं। हम अंततः शान्ति और सुरक्षा चाहते हैं इसलिए झगड़ा होने के बाद झगड़ा निपटाना हमारी परम आवश्यकता बन जाती है। यह दो व्यक्तियों के लिए ही नहीं, दो समुदायों और दो राष्ट्रों के लिए लिए उतना ही सच और वास्तविकता है। हजारों साल पहले हमारे पूर्वजों ने इसके लिए एक अनोखा तरीका विकसित किया था ‘पंचायती’ का इसमें न्यायकर्त्ता सर्वसुलभ तथा (अथवा न्यायकर्त्ता का निर्णय बाध्यकारी था, वादी और प्रतिवादी का पांच या न्यायकर्त्ता की न्यायशीलता में पूरा भरोसा था, तथा झगड़ा या वाद निपटने के साथ ही वादी और प्रतिवादी के बीच परस्पर मित्रता उअर सदभावना विकसित करने की कोशिश की जाती थी।
यह न्याय व्यवस्था तब की हमारी आत्मनिर्भर और स्वावलंबी ग्राम –इकाइयों की व्यवस्था के बिल्कुल अनुकूल, बल्कि पूरक थी।
पंचायत की इसी ऐतिहासिक भूमिका के परिपेक्ष्य में बिहार पंचायत राज अधिनियम 1947 में ग्राम कचहरी व्यवस्था का का प्रावधान कर उसे कानूनी रूप दिया गया। भारतीय दंड संहिता 1860 की कई धाराओं (दफाओं) को इसमें शामिल का इसे कानिनी मान्यता प्रदान करने के साथ इसकी व्यापकता को बढ़ाया गया। प्रत्येक ग्राम पंचायत में न्यायिक प्रणाली (ग्राम कचहरी) का चुनाव, ग्राम पंचायत चुनाव के साथ होता रहा है। इस अधिनियम के तहत बिहार ग्राम कचहरी नियमावली, 1962 बनी जो ग्राम कचहरी, यानि न्यायिक प्रक्रिया से सम्बन्धित थी। यह व्यवस्था 1948 से फरवरी 1997 तक अनवरत कार्य करती रही और इतने ग्रामीण न्यायिक व्यवस्था का उज्ज्वल उदाहरण प्रस्तुत किया।
बिहार पंचायत राज अधिनियम, 2006 के अंतर्गत, न्यायिक भूमिका ग्राम पंचायत स्तर की एक विशिष्ट संस्था ‘ग्राम कचहरी’ को सौंपी गई है। इस अधिनियम के माध्यम से ग्राम कचहरी को एक व्यापक एवं विशेष स्वरूप प्रदान करने की चेष्टा की गई है। इस अधिनियम की धारा 10२ के अनुसार ग्राम कचहरी एक न्यायपीठ है जिसकी मुख्य जिम्मेदारी पक्षकारों के बीच सौहार्दपूर्ण समझौता कराना है। अपनी जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए ग्राम कचहरी ‘वाद या मामले का और उसके गुणा-गुण पर प्रभाव डालने वाली सभी बातों का और उसके सही समाधान जा अन्वेषण (खोज) करेगी।
ग्राम कचहरी में भी, महिलाओं के लिए 50% तक आरक्षण का प्रावधान होने के कारण पंचायत में महिलाओं का प्रतिनिधित्व लगभग 65 % तक पहुँच गया है। इसके पहले महिलाओं का प्रतिनिधित्व बिल्कुल नहीं था। इस प्रकार बिहार पंचायत राज अधिनियम, 2006 ने देश कौन कहे सारे विश्व में एक नया इतिहास रचकर एक नये युग आरंभ किया है। अब ग्राम कचहरी की न्यायपीठ में महिलायें सरपंच और पंच के रूप में बैठकर वादों और विवादों पर फैसला करेंगी।
ग्राम कचहरी का यह गठित स्वरुप उसकी मुख्य जिम्मेदारी ‘पक्षकारों के बीच सौहार्दपूर्ण समझौता कराने’ की भूमिका के अनुकूल है। धैर्य, सहनशीलता और सतत सृजनशील रहने के अपने सहज गुणों के कारण महिलाएं अपनी इस नई सामुदायिक भूमिका में जरुर सफल होंगी।
ग्राम कचहरी बिहार राज्य की अपने आपन में अनोखी पहल है। उत्तर एवं पश्चिम बंगाल आदि कुछ राज्यों में पंचायतों को न्यायिक प्रक्रियाओं से जोड़ने का प्रयास किया गया है। किन्तु इस प्रकार पंचायतराज को भूमि-स्तर से जोड़कर न्यायिक संस्था के रूप में ग्राम कचहरी का गठन अपने आप में एक अनूठी प्रस्तुति है। इस प्रकार आरक्षण के आधार पर लगभग आधी से अधिक महिलाएं जिन्हें साक्षर होने अक सौभाग्य भी नहीं प्राप्त है, वे सरपंच एवं पंच के रूप में अपनी व्यावहारिकता, बुद्धि एवं विवेक के बल पर वादों के निबटारा करेंगी, यह कल्पना ही रोमांचित करने वाली है।
वैसे तो सरकार की ओर से सचिव एंव न्याय मित्र की व्यवस्था की गई है पर फैसला तो न्यायपीठ को ही करना होता है। वैसे तथ्यों के आधार पर बहस चलाने से तर्कसंगत, युक्तिसंगत एवं औचित्य सिद्ध करने वाले फैसले लिए जायेंगें, इसका विश्वास जरूर करना चाहिए। फैसले हर स्थिति में न्यायिक सिद्धांतों पर आधारित होने चाहिए। ग्राम पंचायत को अपनी विकास संबधी भूमिका निभाने के लिए यही चाहिए भी, क्योंकि आपसी झगड़ों से वैमनस्य बढ़ता है और वैमनस्य बढ़ने से पूरा सामजिक वातावरण दूषित हो जाता है।
अतः 2006 के पंचायत निर्वाचन के बाद कई मूलभूत प्रश्नों के बहुत करीब से देखते हुए उनके सही उत्तर को ढूँढना है। उनमें से एक प्रश्न है ग्राम पंचायत और ग्राम कचहरी के बीच परस्पर सम्बन्ध एंव ताल-मेल। इसकी स्पष्टता जरूरी है और एवं उसके लिए निति निर्धारण जितनी जल्दी हो जाए उतना अच्छा होगा।
क्योंकि, जिस भूमिका से मुखिया के पद का स्वरुप निखरता तथा एवं वर्चस्व बनता था वह अब सरपंच के आस है। पर संरपंच को संस्थागत आधार (दफ्तर, निधि एवं अधिकार क्षेत्र) नहीं मिला पाया हा। इसलिए समय-समय पर टकराव की स्थिति पैदा होना स्वाभाविक है।
सरपंच के लिए न्यायपीठ के गठन से लेकार वाद निपटाने तक न तो किसी भी प्रकार के खर्च करने का प्रावधान है और न ही उसके लिए निधि की व्यवस्था। और तो और, प्रावधान के अनुसार दंड के रूप में वसूले गये जुर्माने को भी ग्राम पंचायत की निधि में जमा करना है, जिसकी निकासी एवं खर्च ग्राम पंचायत सचिव एवं मुखिया के हस्ताक्षर से होगी। सरपंच के लिए यह पाने को ‘छोटा’ यह ‘असहाय’ पदधारक महसूस करने की स्थिति है। जिस भूमिका में सरपंच है, उसमें कम से कम एक निधि की व्यवस्था हो, उसमें दंड स्वरूप वसूली गयी राशि आदि को जमा करना तथा न्याय सचिव के साथ सरपंच का संयुक्त खाता संचालन उनका मनोबल एवं प्रतिबद्धता बढ़ाने वाला कदम साबित होगा।
इसके अतिरिक्त ग्राम रक्षा दल को भी ग्राम कचहरी के किसी कार्यकलाप से जोड़कर नहीं देखा गया है। जिस काम को सरपंच मुन्सिफ मजिस्ट्रेट के माध्यम से थाना की मदद से करेंगे उसे तो आसानी से ग्राम रक्षादल की सहायता से विहित तरीके से निबटने का प्रावधान बनाया जा सकता है।
इन दो छोटे-छोटे सुधारों से पंचायत को अपनी न्यायिक भूमिका निभाने और उसे प्रभावी बनाने में सहूलियत होगी साथ ही, ग्राम कचहरी को एक संस्थागत आधार भी मिल जायेगा। संभव है कि प्रस्तावित बिहार ग्राम कचहरी नियमावली के निर्माण के दौरान इन बिदुओं पर कोई सकारात्मक उपबन्ध हो।
स्त्रोत: पंचायती राज विभाग,बिहार सरकार
अंतिम बार संशोधित : 2/11/2020
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