जन जीवन की आधारशिला उनकी परम्पराएं हैं| समाज – संस्कृति का नियमन भी वहीं से होता है| अनुशासन और मानवयी संबंध उस की छत्रछाया में पुष्पित – पल्लवित होते हैं| झारखंड क्षेत्र की जनजातियों के विशेष संदर्भ में अध्ययन की सुविधा के लिए, इन्हें निम्नांकित शीर्षकों में विभाजित किया जा सकता है:
आदिवासी प्राकृतिकपूजक होते हैं| प्रकृति उनका परिवेश भी है, आलम्बन भी, उद्दीपन भी| प्रकृतिक से वे अन्न और औषधि तो ग्रहण करते ही हैं, श्रृंगारके उपकरण और त्यौहार भी लेते हैं| प्रकृति सभी अर्थों में आदिम जातियों की सहचरी बनी हुई है| उनके नृत्य-संगीत, गृह सज्जा, मनोरंजन और कलाभिरूची को सँवारने का काम भी प्रकृति ही करती है| स्वभाविक है कि उनके त्योहार भी प्रकृति से जुड़े हों|
पूजा और त्योहार सहधर्मी अनुष्ठान हैं| छोटानागपुर पठार की जनजातियों के दो बड़े त्योहार करमा और सरहुल हैं| इनमें प्रकृति की उपसना होती है| अन्य त्योहारों में भी प्रकृति को सर्वोपरि स्थान दिया जाता है| उरांवो के बीच बारह वर्षों में एक बार मनाया जाने वाला जनी शिकार मूलत: प्रकृति और मनुष्य की अंतरंगता को ही उदघाटित करता है| करमा भाईचारे के पर्व के रूप में भी जाना- जाता है| यह भादो महीने के शुक्लपक्ष की एकादशी को उल्ल्सपूर्वक मनाया जाता है| करमा पर्व में आदिवासी और सदान दोनों समुदाओं के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण है| सरहुल जनजातीय वसन्तोत्सव के रूप में माना जाता है जिसे झारखण्ड की विभिन्न जनजातियों ज्येष्ठ मास में मनाती हैं| मुंडा, हो असुर और बिरहोर इसे सारजोम बा या बा परोब कहते हैं, संताल इसे बाहा परब और खड़िया जोंकोर की संज्ञा देते हैं| विभिन्न, जनजातियों में इस त्योहार की पूजा- विधि और नृत्य – संगीत में अंतर पाया जाता है, किन्तु उत्सव की मूल भावना समान होती है|
सोहराई लक्ष्मी पूजन का त्योहार है| विभिन्न जनजातियाँ अपने-अपने परंपरागत विधान से इसे मनाती हैं| संतालों को सोहराई पर्व पांच दिनों तक चलता है जिसे बांधा पर्व भी कहते हैं| इन मुख्य पर्वों के अतिरिक्त कई त्योहार ऐसे भी हैं जो अलग-अलग जनजातियों में अलग-अलग महत्त्व रखते हैं| जैसे मुंडा समाज में बुरू, माघे, फागु, उरांव समाज में माघे, चौड़ी, फागु, जतरा, माल पहाड़िया में आड़या, घाघरा पूजा और संतालों में ऐरोक, जापाड़, सकारात, भागसिम तथा हो समाज में डभूरी, कोलोम, छठ| इस प्रकार, जनजातीय समुदायों में पर्वों- त्योहारों की विविध भंगिमाएँ और छवियाँ विद्यमान हैं| नामकरण, शादी- ब्याह, गोत्र बंधन जैसे उत्सव भी प्रकृति से प्रेरित होते हैं| वृक्ष, लता- कुंज, पशु- पक्षी, दिन- नक्षत्र, चाँद- तारे और सूर्य के सान्निध्य के बिना आदिवासी मन की कल्पना भी नहीं के जा सकती है| नामकरण के बाद गोत्र के महत्व के पीछे भी प्रकृति की प्रेरणा विद्यमान है|
छोटानागपुर की प्रत्येक जनजाति की पूजा- पद्धति अपने- अपने परम्परागत विधिविधान के अनुसार निर्धारित है| मुख्यत: मातृ देवी और पितर देवता की पूजा होती है| प्रकृति पूजन के कई पर्व मनाये जाते हैं| साल वृक्ष, करम वृक्ष, पीपल वृक्ष और पहाड़ की भी पूजा होती है| धर्मांतरण के कारण जातियों का एक वर्ग भिन्न पूजा- पद्धतियों में विश्वास करने लगा है| अब हिन्दू और ईसाई आदिवासी अपने-अपने विश्वासों के अनुरूप मंदिर और चर्च भी जाते हैं| किन्तु अभी भी छोटानागपुर की जनजातियों की एक बड़ी संख्या मूल सरना धर्म की प्रथाओं के अनुसार पूजा-अर्चना करती है|
अलग- अलग जनजातियों अलग-अलग तरीके से मृतक संस्कार करती हैं| मुख्यत: इस क्रिया में दो तरीके विशेष प्रचलित हैं| कहीं मृतक को जलाया जाता है और कहीं मिट्टी में गाड़ दिया जाता है| झारखण्ड की मुख्य और बड़ी जनसंख्या वाली जनजातियों के परिचयात्मक अध्ययन- क्रम में इस विषय पर विचार किया जा रहा है|
विभिन्न जनजतियों में विवाह के रस्मोरिवाज भी अलग- अलग हैं| वैवाहिक संबंध प्राय: अंतर्जातीय नहीं होते| एक ही गोत्र के सदस्यों के बीच विवाह संबंध का पूर्ण निषेध प्रचलित है| विवाह में धन की भी भूमिका होती है| छोटानागपुर में वर पक्ष द्वारा कन्यापक्ष को कन्या – धन देने का रिवाज परंपरा से समर्थित है| हो समाज में इस प्रथा को गोनांग कहते हैं| यह एक प्रकार से दहेज की प्रथा ही है|
छोटानागपुर में विवाह – संस्था की कुछ अपनी रीतियाँ हैं| यथा- देवर और साली से विवाह को सामाजिक मान्यता प्राप्त है| विधवा विवाह काफी प्रचलित है| वधु मूल्य का चलन है, किन्तु, कहीं-कहीं लेन-देन प्राय: नहीं होता| हो जनजाति में ममेरी और फूफेरी बहन से विवाह के उदहारण भी मिलते हैं| खड़िया जनजाति में फूफेरे-चचेरे भाई से विवाह संबंध बनते हैं, जेठसाली या भैंसूर से विवाह मान्य नहीं है| सौरिया पहाड़िया जनजाति में गोत्र नहीं होता, किन्तु निकट संबंधियों में विवाह संबंध नहीं होते| देवर- भाभी का विवाह हो सकता है|
उत्तर - पूर्वी राज्यों में भी विवाह- संस्था की अपनी स्थानीय परम्पराएँ और रीति –रिवाज हैं| मणिपुर में पुरूम, चिरू तथा चोटे जनजातियों में सगोत्र तथा उपसगोत्र जैसे बहिर्विवाह समूह होते हैं विवाह का निर्धारण और नियंत्रण इन्हीं समूहों के आधार पर होता है | भाई तथा बहन को अपनी- अपनी जोड़ी दो अलग सगोत्रों में चुननी पड़ती है| असाम के कछार क्षेत्र में रहने वाली दिमासा कछार जनजाति में वंश का निर्धारण पिता के पिता से या माता की माता से नहीं बल्कि पिता की माता और माता के पिता से लिया जाता है| यह मातृसत्तात्मक और पितृसत्तात्मक व्यवस्था का मिला- जुला रूप है|
जनजातीय समुदायों में परिवार और विवाह की विभिन्न धारणाएँ और प्रथाएँ हैं| छोटानागपुर में 1. क्रय विवाह, 2. सेवा विवाह, 2. हरण विवाह, 4. हठ विवाह और 5. सह पलायन विवाह की पद्धतियां हैं| उनका विस्तृत अधययन इस अध्ययन का उद्देश्य नहीं है, इसलिए अलग-अलग समुदायों की विवाह – विषयक मान्यताओं और रीति- रस्मों का विवेचन अभीष्ट नहीं है| केवल समानताओं के आधार पर सामान्य विशेषताओं का निर्देश ही किया जा सकता है| जनजातियों में विवाह की प्रथाएँ रोचक और वैविध्यपूर्ण हैं| प्राय: एक विवाह का चलन है, लेकिन बहुविवाह का सम्पूर्ण निषेध नहीं है| कुछ इलाकों में बहुपति प्रथा भी प्रचलित है| बांझपन तथा परपुरूष संबंध के आधार पर आसानी से तलाक दिया जा सकता है|
जनजातीय संस्कृति में अखरा एक खास महत्त्व है| निश्चय ही उसका अर्थ हिंदी का अखाड़ा कतई नहीं है| वह एक ऐसी जगह है जो एक साथ गाँव के मनोरंजन केंद्र के रूप में भी पहचानी जाती है और पंचायत –स्थल भी बन जाती है|
जनजातीय समाज ग्रामीण परिवेश का समाज है| उसका परिचय नागर सभ्यता से बहुत बाद में हूआ है| आज भी आदिवासी क्षेत्रों में ऐसे अनेक गाँव हैं जहाँ नई रोशनी नहीं पहुंची है| संचार माध्यमों की अभूतपूर्व क्रांति के मौजूद दौर में भी ऐसे गाँव बने और बचे हुए हैं जहाँ पहूँचना तो दूर, त्वरित संदेश पहूँचाना भी कठिन है| सदियों से मेला या जतरा जनजातियों के लिए सामुदायिक संगम के केंद्र की तरह बने हुए हैं| उनका उपयोग सामाजिक व्यवस्था, आर्थिक विनियम और सांस्कृतिक मनोरंजन के लिए भी होता आया है| यह ध्यान देने की बात है कि जतरा या मेला किसी एक जनजाति के सदस्यों के लिए सीमित हिन् होता, बल्कि वहाँ कई कबीलों और समुदायों के लोग शिकार में भी सुलभ हूआ करता है जब फागुन के महीने में प्रत्येक जनजाति के लोग शिकार के लिए जंगल जाते हैं इस अवसर को विभिन्न जनजातियों में अलग- अलग नाम से पुकारते हैं| यह उस प्राचीन परंपरा का अवशेष है जब दुर्गम क्षेत्रों में निवास करने वाली जनजातियों को खतरनाक वन्य जन्तुओं से आत्मरक्षा के लिए सामूहिक प्रयत्न करना पड़ता था| कुछ इलाकों में जनी शिकार की प्रथा है| जिसका अवसर बारह वर्षों में एक बार आता है और जिसमें जनजातीय महिलाएँ पुरूष वेष में शिकार के लिए निकलती हैं|
यह एक ऐसा सामाजिक संगठन है जो जनजातीय क्षेत्र से बाहर की दुनिया में जिज्ञासा, उत्सुकता, कौतूहल और विस्मय के भाव से चर्चित रहा है| विभिन्न समुदायों में इसे अलग-अलग नामें से पुकारा जाता है| यह एक प्रकार के प्रशिक्षण केंद्र के तरह काम करता है, गूरूकूल की तरह, जहाँ जनजातियों के किशोरों और किशोरियों को सह शिक्षा के लिए किसी अनुभवी ग्रामवासी की देख-रेख में रखा जाता है| मध्य प्रदेश के बस्तर क्षेत्र में इस तरह के युवा गृहों को घोटुल कहते हैं| उराँव क्षेत्रों में घूमकूड़ियाँ, उत्तर प्रदेश जनजातियों में इसे रंगबंग कहा जाता है और मुंडा-हो जनजाति क्षेत्रों में गीतिओरा तथा नगा क्षेत्र में इखूइन्चि कहते हैं|
इस सामाजिक संगठन की लोकप्रियता और उपादेयता सदियों की यात्रा में अपने प्रयोजन की कसौटियों पर खरी उतरी है| जब से तथाकथित सभ्य समाज ने जनजातियों के जीवन में अपनी कुंठाओं के साथ ताक - झांक शुरू की तो घोटुल – प्रथा प्रवादों के घेरे में आई| यूं भी मानव- सभ्यता का इतिहास बतलाता है कि विभिन्न ऐतिहासिक दबावों में सामाजिक संगठन अस्तित्व में आते हैं और कालान्तर में अपनी प्रासंगिकता खोकर नष्ट हो जाते हैं| घुमकुडिया या घोटुल- प्रथा का आज के सामाजिक और संस्कृतिक माहौल में कारगार होना संभव ही नहीं है| आज जिन्दगी की चुनौतियों से लड़ने के लिए जिस तरह का प्रशिक्षण उपयोगी हो सकता है, उसकी बराबरी में यह आदिम संस्था समर्थ नहीं हो सकती है| कुछ इसी तरह का हाल युवा गृहों की परिकल्पना का भी है| परिणामत: यह परंपरा जनजातीय जीवन की कई अन्य परम्पराओं की तरह समाप्तप्राय हो चुकी है|
स्रोत : जनजातीय जीवन और समाज/जेवियर समाज सेवा संस्थान, राँची
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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