एक दिन कविता श्रमिकों के एक समूह के साथ मीरा दीदी के पास आई जिसमें अधिकांशत: महिलाएँ थी| उनमें से शांति तथा मंगला जैसी किसी जमींदार और भू-स्वामी के यहाँ नियोजित थी जिन्हें कोई मजदूरी नहीं मिलती थी, शेष ठेकेदारी तथा फैक्ट्री मालिकों के यहाँ नियोजित थी और उनके साथ दुर्व्यवहार किया जाता था तथा उन्हें कोई सुविधाएँ प्रदान नहीं की जाती थी| पुरूष को उसी कार्य के लिए जो महिलाएँ भी कर रही थी, काफी अधिक मजदूरी का भुगतान किया जाता था|
मीरा दीदी ने यह सुनने पर उन्हें स्पष्ट किया कि ऐसे कई कानून हैं जो रक्षोपाय, लाभ तथा अन्य कल्याण उपाय मुहैया करवाते हैं उन्होंने उन लोगों को बताया की महिला श्रमिकों के लिए विभिन्न कल्याण कानूनों के महत्वपूर्ण प्रावधानों उपलब्ध है|
ऐसी कोई भी व्यवस्था जिसके अंतर्गत ऋण लेने वाले अथवा उसके आश्रितों को ऋण चुकाने के लिए बिना किसी मजदूरी के ऋणदाता हेतु कार्य करना पड़ता है वह बंधुआ मजदूरी है और यह कानून द्वारा प्रतिबंधित है|
बेगार की व्यवस्था अथवा बाध्यकारी श्रम के अन्य रूप बंधुआ मजदूरी प्रथा (उन्मूलन) अधिनियम, 1976 के अंतर्गत एक अपराध है|
यदि कही ऐसी प्रथा प्रचलित है तो उसकी सूचना जिलाधिकारी/किसी सामाजिक कार्यकर्ता/एनजीओ.अनुसूचित जाति- अनुसूचित जनजाति अधिकारी/स्थानीय सतर्कता समिति, जो जिले तथा प्रत्येक उप मंडल में होती है, को दी जानी चाहिए|
बंधुआ मजदूरी के मुद्दे को उच्चतम न्यायालय में जनहित याचिकाओं के रूप में उठाया गया था| उच्चतम न्ययालय ने निम्नानुसार निर्णय दिए –
बंधुआ मुक्ति मोर्चा मुकदमे में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया था कि जहाँ कहीं ऐसा कहीं ऐसा स्पष्ट हो की किसी श्रमिक को बंधुआ मजदूरी मुहैया करवाने के लिए बाध्य किया गया है वहाँ अदालत इस खंडन की जाने वाली अवधारणा को मान लेगी कि उसके द्वारा प्राप्त किए गए किसी अग्रिम अथवा आय आर्थिक साधन के एवज में किया जा रहा है और इसलिए वह बंधुआ मजदूर है (बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम संघ एवं अन्य 1984, 2 एससीआर)| बंधुआ मजदूरों की पहचान की जानी चाहिए तथा उन्हें छुड़वाया जाना चाहिए और छुड़ाए जाने पर उनका उचित रूप से पुर्नवास किया जाना चाहिए| बंधुआ मजदूरी प्रथा (उन्मूलन) अधिनियम, 1976 के प्रावधानों के क्रियान्यवन में राज्य सरकार की ओर से किसी विफलता को भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 तथा 23 का उल्लंघन माना जाएगा (नीरजा चौधरी बनाम मध्य प्रदेश राज्य, 1984, 3 एससी सी 243)|
जब कभी भी किसी व्यक्ति को बिना किसी पारिश्रमिक अथवा नाम मात्र पारिश्रमिक के श्रम मुहैया करवाने के लिए बाध्य किया जाता है तो यह मन लिया जाएगा कि वह बंधुआ मजदूरी थी जब तक कि नियोक्ता अथवा राज्य सरकार अन्यथा सिद्ध करने के स्थिति में न हो (नीरजा चौधरी बनाम मध्य प्रदेश राज्य)|
बंधुआ मजदूरी का पता लगाने के लिए नियोक्ताओं द्वारा उत्तर दिए जाने की आवश्यकता वाले कुछ प्रश्न निम्नलिखित हैं –
बच्चों को एक ऐसे देश परिवेश में बड़ा होना चाहिए जिसमें व एक स्वतंत्र तथा गरिमापूर्ण जीवन जी सकें| उपयोगी नागरिक बनने के लिए उन्हें शिक्षा तथा प्रशिक्षण के अवसर मुहैया करवाए जाने होते हैं| दुर्भाग्यवश बच्चों का एक बड़ा अनुपात अपने आधारभूत अधिकारों से वंचित है| उन्हें अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करते हुए पाया जाता है विशेषकर असंगठित क्षेत्र में| उनमें से कुछ को बंदी बनाकर रखा जाता है तथा पीटा जाता है, दास बनाकर रखा जाता है अथवा आवा-जाही की स्वतंत्रता से वंचित किया जाता है और इस प्रकार यह बाल श्रम को एक मानवाधिकार तथा विकास का मुद्दा बना देता है|
बच्चे के अधिकार पर संयुक्त राष्ट्र समझौते का अनुच्छेद 1 बच्चे को 18 वर्ष से कम आयु वाले के रूप में परिभाषित करता है| बाल श्रम (निषेध तथा विनियमन) अधिनियम, 1986 बच्चे को “कोई व्यक्ति जिसने 14 वर्ष की आयु पूरी नहीं की है” के रूप में परिभाषित करता है|
“बाल श्रम” को परिवार के भीतर अथवा बाहर किसी एसे कार्य के रूप में परिभाषित किया जाता है जिसमें समय, ऊर्जा, प्रतिबद्धता लगती हो और जो मनोरंजन, खेल अथवा शैक्षणिक क्रियाकलापों में बच्चे द्वारा प्रतिभागिता करने की क्षमता को प्रभावित करता हो| ऐसे कार्य बच्चे के स्वास्थय तथा विकास में बाधा डालते हैं| अंतराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार “बाल श्रम में समय से पूर्व वयस्क जीवन जीने वाले, उनके स्वास्थ्य तथा उनके शारीरिक एवं मानसिक विकास को क्षति पहूँचाने वाली स्थितियों के अंतर्गत निम्न मजदूरी हेतु अधिक घंटो तक कार्य करने वाले बच्चे शामिल होते हैं |” वे प्राय: अपने परिवारों से अलग होते है और ऐसी सार्थक शिक्षा तथा प्रशिक्षण अवसरों से भी वंचित होते है जो उन्हें एक बेहतर भविष्य मुहैया करवा सके|
6-14 वर्ष के आयु समूह में सभी बच्चे जिन्हें वास्तव में स्कूल में होना चाहिए था किन्त जो स्कूल से बाहर हैं को वास्तविक अथवा सम्भावित बाल श्रम माना जा सकता है| भारत में बाल श्रम शहरी के बजाए एक ग्रामीण विशेषता अधिक है| कार्य कर रहे बच्चों में 90.87% ग्रामीण क्षेत्रों में पाये गए थे और 9.13% शहरी क्षेत्रों में थे|
अक्सर खतरे वाली तथा अस्वस्थकर स्थितियों में अधिक घंटों तक कार्य करने वाले बच्चों को लंबे समय तक रहने वाली शारीरिक तथा मनोवैज्ञानिक क्षति पंहुचती है| उनमें निम्नलिखित समस्याएँ विकसित होने लगती हैं-
नियोक्ता के लिए यह बाध्यता है कि वह बच्चों को रोजगार के संबंध में निरीक्षक को सूचना प्रस्तुत करें| नियोक्ता हेतु इस मुद्दे पर एक रजिस्टर का अनुरक्षण बाध्यकारी है|
न्यूनतम मजदूरी अधिनियम यह प्रावधान करता है कि –
कानून फैक्ट्रियों में कार्य कर रही महिलाओं के लिए निम्न सुविधाओं का प्रावधान करता है|
नियोक्ता द्वारा किए जाने वाले किसी भी भेद-भाव को श्रम अधिकारी/निरीक्षक/ट्रेड युनियन/एनजीओ/सामाजिक कार्यकर्ताओं को सूचित किया जाना चाहिए|
स्रोत:राष्ट्रीय महिला आयोग
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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