दुनियाँ की बढ़ती जनसख्या को देखते हुए सन 2050 तक खाद्यान उत्पादन लक्ष्य दोगुना करना पड़ेगा और साथ ही रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों पर निर्भरता कम करनी होगी| अतः इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए पौधों और सूक्ष्मजीवों के बीच उपस्थित अनेक लाभकारी सम्बन्धों का दोहन आवश्यक हो जाता है| सूक्ष्मजीव अपने लाभदायक गतिविधियों जैसे: नाइट्रोजन स्थिरीकरण, प्रमुख पोषक तत्वों का संकलन एवं अंतर्ग्रहण, शाखा एवं जड़ के विकास में सहायक, रोग नियंत्रण अथवा दमन, बेहतर मृदा संरचना एवं पौधों के विकास में सहायक इत्यादि के कारण और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाते हैं| सामान्यतः कृषि में प्रयुक्त सूक्ष्मजीवों में राइजोबियम, माइकोराईजा, एजोस्पाईरिलम, बैसिलस, सूडोमोनास, ट्राईकोडर्मा, स्ट्रेप्टोमाईसीज एवं अन्य कई सूक्ष्मजीव इत्यादि प्रजातियाँ शामिल हैं|
विश्वभर में कृषि की आर्थिक एवं पर्यावरण स्थिरता के लिए वायुमंडलीय नाइट्रोजन स्थिरीकरण एक आवश्यक सहजीविता द्वारा सालाना दलहनी फसलों से कुल 2.95 एवं तिलहनी फसलों द्वारा 18.5 लाख टन वायुमंडलीय नाइट्रोजन के स्थिरीकरण का अनुमान लगाया जाता रहा है| विभिन्न का कुशल प्रंबधन करना जिससे लगभग 25 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति टन लेम्यूम ड्राई मैटर के दर से स्थिर हो, भविष्य के लिए मुख्य चुनौतियाँ हैं|
वायुमंडलीय नाइट्रोजन स्थिरीकरण की प्रक्रिया नाइट्रोजीनेस नामक एंजाइम द्वारा उत्प्रेरित होती है जो बैक्टीरिया के विभिन्न समूहों में पाया जाता है| मुक्त रूप से नाइट्रोजन स्थिर करने वाले बैक्टीरिया (जैसे एजोस्पाईरिलम, एजोटोबैक्टर, एसीबैक्टर, डाईएजोट्राफिक्स, हर्बास्पाईरिलम, बैसिलस एवं एजोआरकस इत्यादि प्रजातियाँ) फसलों के मूल क्षेत्र में पाए जाते हैं इनके सफल प्रयोग के लिए निम्नलिखित बातों का ध्यान आवश्यक हो जाता है जिससे इन लाभकारी सूक्ष्मजीवों का प्राथमिक उत्पादन एंव जलवायु परिवर्तन अनुकूलन में अधिकतम लाभ उठाया जा सके|
पेड़-पौधों एंव माईकोराराइजल कवक की सहजीवी क्रिया लम्बे समय से पोषक तत्व संवहन एवं अंतर्ग्रहण से पौधों को लाभ प्रदान करने के लिए प्रख्यात हैं| यद्यपि यह सहजीविता व्यापक है परन्तु माईकोराराइजल आइसोलेट्स आइसोलेट्स, मेजबान पौधों और मृदा गुणों के अनुसार भिन्न-भिन्न होते हैं|
माईकोराराइजल सहजीविता आमतौर पर गैर विशिष्ट मानी गई है क्योंकि इनकी एक साथ कई प्रजातियों द्वारा दो या दो से अधिक पौधों से सम्बन्ध साधना असामान्य नहीं है| माईकोराराइजल कवक का पूर्ण रूप से लाभ उठाने के लिए इनकी विशिष्ट प्रजातियों की पहचान करता एवं मृदा गुणों के साथ उनके सम्बन्ध को जानना, एक महत्वपूर्ण कदम होगा| दूषित मिट्टी एवं खनन स्थलों के पुनर्वास के लिए यह सहजीविता एक मुख्य एंव लाभकारी जैविक प्रक्रियाओं में से एक है|
बैक्टीरिया की एक विविध सारणी जैसे: सुडोमोनस, एजोटोबैक्टर एवं एक्टीनोमाईसिटीज इत्यादि और एसपरजिलस तथा पेनिसिलियम जैसे कवक मिट्टी में फास्फोरस की घुलनशीलता को बढ़ाकर पौधों के लिए उपलब्ध रूप में प्रदान करने के साथ-साथ इसका खनिजीकरण करने में सक्षम होते हैं| अतः मृदा में उपलब्ध फास्फोरस के इस सीमित मात्रा का सदुपयोग करने के लिए इन्हें जैव उर्वरक के रूप में प्रयोग करके अत्यधिक लाभ उठाया जा सकता है|
पादप विकास में सहायक राइजोबैक्टीरिया पौधे, शाखा एवं जड़ों के विकास को बढ़ावा देते हैं जिन्हें कि आमतौर पर PGPR (Plant Grwoth Promoting Rhizabacteria) से संदर्भित किया जाता है| ज्ञात है कि कृषि एवं बागवानी में पौधों के विकास एवं रोग नियंत्रण के लिए इनका विपणन किया जाता है| राइजोबैक्टीरिया अनके प्रकार से पौधों के मूल एवं प्ररोह विकास में वृद्धि करते हैं जैसे हार्मोन्स अथवा द्वितीय उपाचयक बनाकर, रोगों का नियंत्रण, दैहिक प्रतिरोध को जागृत करना एवं पौधों के भौतिक एंव रासायनिक व्यवहार में बदलाव, अजिविय कारकों जैसे सुखा और अधिक लवणता की दशा में भी जीवित रहने वाले ऐसे बैक्टीरियल टीकों की खोज की जा रही है जिनका जैव उर्वरक के रूप में प्रयोग किया जा सके|
बैक्टीरिया, कवक एवं एक्टीनोबैक्टीरिया की प्रमुख प्रजातियाँ पादप मूल रोग के रोकथाम के लिए जैव-नियंत्रक के रूप में कार्य कर सकते हैं| कृषि एवं बागबानी फसलों में रोग नियंत्रण हेतु कई बैक्टीरिया तथा कवक के टीके के फारमुलेशन बाजार में उपलब्ध है| मृदाजन्य पादप रोगों के जैव-नियंत्रण हेतु सूक्ष्मजीवों के प्रयोग में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है जैसे जीवित रहने की दर का कम होना, परिवर्ती मूल उपनिवेशन एवं प्राकृतिक वातावरण के प्रति अनुकूलता में कमी होना इत्यादि| जैव-नियंत्रक की सफलता उनकी इस क्षमता पर निर्भर करती है जिसमें वे प्रभावी जैव-नियंत्रण प्रदान करने हेतु पर्याप्त आबादी बनाये रखे, मूलक्षेत्र में उस अवधि की लंबाई को बढ़ाएं जिसके दौरान सीमा जनसंख्या घनत्व में निरंतरता बनी रहे एवं प्रयुक्त राइजोबैक्टीरिया द्वारा रोग नियंत्रण के परिणाम में वृद्धि हो सके|
जैव नियंत्रक जीवाणुओं का आमतौर पर प्रति जीवाणु विकिकरण क्षमता का परीक्षण किया जाता है जो स्थानीय जीवाणुओं की विरोधात्मक रवन परभक्षी प्रवृति, परपरजीविता एवं प्रतिस्पर्धा से उत्पन्न होती है| यद्यपि जो जीवाणुओं रोगों और कीटों में दैहिक प्रतिरोध को प्रेरित करते हैं उन्हीं में प्रतिकूल परिस्थितियों में सफल रहने की क्षमता सबसे ज्यादा होती है|
सूक्ष्मजीवाणुओं की विविधता, रोगजनक जीवाणु और संक्रमण में कमी, पौध-वृद्धि उत्प्रेरक और दैहिक प्रतिरोध को प्रेरित करती है जिसके कारण कई क्षेत्रों की मिट्टी में रोग जीवाणु, मेजबान पौधों और अनुकूल जलवायु की उपस्थिति में भी रोग की गंभीरता को कम कर देती है|
मानव स्वास्थ्य के लिए प्रोबायोटिक्स नये नहीं है लेकिन पौधों से जुड़े प्रोबायोटिक्स
जीवाणुओं के कुशल प्रयोग से पौधों का स्वास्थ्य प्रबन्धन करना एक ऐसा विषय है जिसमें हाल ही में रूचि बढ़ी है| सम्भवतः पौध मूल परिवेश में जीवाणु समूहों की पौध-विशिष्ट वृद्धि से ज्ञात होता है कि पौधों का क्रमिक विकास विशेष प्रकार के जीवाणु समूह, जो एंटीबायोटिक बनाने में सक्षम हैं, के कारण हो सकता है जो मृदा जन्य बीमारियों से बचाव युक्तिपूर्वक वृद्धि और भरण-पोषण करने के लिए भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं|
मृदा में सूडोमोनास प्रजाति वाले बैक्टीरिया सर्वव्यापक होने के साथ-साथ अत्यधिक संख्या में पाए जाते हैं और इन्हें विभिन्न प्रक्रियाओं जैसे पौध वृद्धि उत्प्रेरक एंव अवरोध, रोग नियंत्रण, नाइट्रोजन स्थिरीकरण, पारिस्थितिक पोषण चक्र तथा जैव निदान इत्यादि से जोड़ा गया है| मिट्टी की भौतिक, रासायनिक, कार्बन एंव पोषक तत्वों जैसे गुणों में परिवर्तन आने पर ये बैक्टीरिया तुरतं प्रतिकिया दिखाते अहिं जिसके कारण इन्हें कृषि परितंत्रों में योगदान के लिए महत्वपूर्ण भूमिका से जोड़ा गया है| पिछले दो दशक से सूडोमोनास एवं एक्टीनोमाईसिटिज रोगाणुओं से उत्पन्न रोगों के जैव नियंत्रक हेतु सूडोमोनास के प्रयोग पर अध्ययन हो रहा है| प्रतिजीवाणु विकीकरण विशेषता के कारण सूडोमोनास, पादप रोगाणुओं के विरुद्ध गतिविधियों के लिए उत्तरदायी माना गया है और इस प्रकार के बहुत से रोगाणुरोधी यौगिकों की पहचान भी की गई है|
पारंपरिक विगलन तरीकों ने मुख्यतः सूक्ष्मजीवों के छोटे समूह को ही टीकों के रूप में लक्षित किया है| पादप-मूलपरिवेश के संवर्धन-स्वतंत्र जाँच से नये बैक्टीरियल श्रेणियों के अर्थपूर्ण समुदायों की उपस्थिति का ज्ञान हुआ है| उदाहरण के लिए –वेरुकोमाईक्रोबिया एंव एसीडोबैक्टीरिया जिनका भरपूर पोषक तत्वों के माध्यम से भी विगलन नहीं किया जा सका| मृदा जीवाणु विविधता के नये ज्ञान से टीकों की नई पीढ़ी की खोज संभव हो सकी| फलस्वरूप, लाभकारी जीवाणुओं-उनकी कार्यक्षमता और जीवन दर में वृद्धि में सुधार करके इन्हें वातावरण में प्रयुक्त करने में सफलता प्राप्त हो सकी है|
अंततः उपर्युक्त वर्णन से यह सिद्ध होता है कि उन्नत कृषि एवं बागवानी के लिए लाभदायक जीवाणुओं की गतिविधियों एवं क्रियाशीलता में वृद्धि करके इनका महत्वपूर्ण योगदान प्राप्त कर सकते हैं| इन जीवाणुओं के द्वारा पौध पोषण, रोग नियंत्रण एवं विभिन्न अजैव दबाव इत्यादि के नियंत्रण में पौधों की सहायता करके खाद्यान उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ पर्यावरण परिदृश्य में भी सफलता प्राप्त की जा सकती है|
स्रोत: मृदा एवं जल प्रबंधन विभाग, औद्यानिकी एवं वानिकी विश्विद्यालय; सोलन
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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