यह एक उच्च तापमान सहने वाली दलहनी फसल है। इसी कारण जिन क्षेत्रों में सिंचाई की सुविधा नहीं होती है वहाँ इस फसल को उगाया जाता है। इसके अच्छी वृद्धि और विकास के लिए 25 से 35सेन्टीग्रेड़ तापमान आवश्यक है परन्तु यह 42° सेन्टीग्रेड़ तापमान तक सहन कर लेती है। अधिक जलभराव वाले क्षेत्रों में इसे नहीं लगाना चाहिए।
उर्द बलुई मृदा से लेकर गहरी काली मिट्टी (पी0एच0 मान 6.5 से 78) तक में सफलतापूर्वक उगाई जा सकती है। उर्द का अच्छा उत्पादन लेने के लिए खेत का समतल होना और खेत से जलनिकास की उचित व्यवस्था का होना अति आवश्यक है।
किसान भाई निम्नलिखित फसल चक्र अपना कर अधिक उपज प्राप्त कर सकते हैं:
इसके अतिरिक्त ग्रीष्मकालीन उर्द को अनेक सस्य क्रम प्रणालियों में भी उगाया जा सकता है जैसे धान-गेहूँ-उर्द, आलू-गेहूँ-उर्द, मक्का-आलू-गेहूँ-उर्द, मक्का-उर्द-गेहूँ।
उत्तर प्रदेश राज्य के लिए निम्नलिखित प्रजातियाँ संस्तुत की गयी हैं जिसमें टाइम 9 टाइप 19, बसन्त बहार, पन्त उर्द 40, शेखर-2, नरेन्द्र उर्द-1, पन्त उर्द-35 हैं।
खेत की अच्छी तैयारी परिणाम स्वरूप अच्छा अंकुरण एवं फसल में एक समानता के लिए बहुत जरूरी है। सामान्यता 2 से 3 जुताई करके खेत में पाटा लगाकर समतल बना लिया जाता है तब खेत बुवाई योग्य बन जाता है। ध्यान रहे जल निकासी की व्यवस्था अवश्य हो।
खरीफ की बुवाई का उचित समय मध्य जून से मध्य जुलाई तक माना जाता है। गर्मी की बुवाई का उचित समय मार्च महीने में होता है। बुवाई के समय पंक्तियों का अन्तर 30 से 45 सेमी और पौधे से पौधे का अन्तर 5 से 10 सेमी होना चाहिए। खरीफ की बुवाई हेतु 12 से 15 किग्रा प्रति हेक्टेअर और गर्मी की बुवाई हेतु 20 से 25 किग्रा प्रति हेक्टेअर पर्याप्त होता है। स्वस्थ फसल हेतु बुवाई से पूर्व ज का उपचार राइजोबियम टीके से और पी.एस.बी. टीके से करें।
उर्द की प्रारम्भिक अवस्था में अच्छे वृद्धि के लिए 15 से 20 किग्रा नत्रजन बुवाई के समय देना आवश्यक होता है। इसके साथ 40 से 50 किग्रा फास्फोरस और 30 किग्रा पोटेशियम प्रति हेक्टेअर का प्रयोग करें।
इसमें 4 से 5 पानी की सिंचाई की आवश्यकता होती है। सिंचाई क्रान्तिक अवस्था में करे तो बहुत ही अच्छा होता है। पुष्पावस्था व फलियों में दाना बनते समय सिंचाई अवश्य करन चाहिए। ध्यान रखे अधिक पानी खेत में स्वरूप उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
उर्द की फसल को नुकसान करने वाले खरपतवार जैसे सांवा,क्रेव,घास,मोथा व कन्कऊआ इत्यादि हैं। समय पर इनकी रोकथाम करना अति आवश्यक है। इनकी रोकथाम के लिये बुवाई के 25 से 30 दिन के निराई व निकाई करके नियंत्रित किया जा सकता है। खरपतवारनाशी जैसे पेन्डीमेथालीन या एलाक्लोर 1 किग्रा प्रति हेक्टेयर का ४०० से ५०० लीटर पानी में घोल बनाकर बुवाई के बाद एवं अंकुरण से पूर्व करना चाहिए।
उर्द में सामान्यता मिट्टी के झींगुर और मूंग के डिम्भक की अंकुरण होते समय अधिक नुकसान करते हैं। इनके रोकथाम के लिए फोरेट 10 प्रतिशत, जी. रसायन को 10 किग्रा प्रति हेक्टेअर मिट्टी में छिड़काव करें। एक अन्य कीट रोमिल गिडार फसल को काफी नुकसान पहुँचाता है इसके रोकथाम के लिए 1 से 1.25 लीटर मोनोक्रोटोफास का छिड़काव कर सकते हैं।
इस फसल के कवकजनित मुख्य रोग एन्थ्राक्नोज, चूर्ण आसिता रोग एव जड़ गलन है। चूर्ण आसिता रोग के रोकथाम के लिए 2 ग्राम प्रतिलीटर कार्बान्डाजिम, एन्थ्राक्नोज की रोकथाम के लिए 2 से 3 ग्राम प्रतिलीटर थीरम, जड़ गलन हेतु 25 ग्राम प्रतिलीटर कैप्टान का प्रयोग करें।
फसल की कटाई बुवाई के समय और प्रजाति पर निर्भर करती है। जैसे जैसे फलिया पकती जायें उनकी तुड़ाई करते जाएं और अगर ऐसी प्रजाति है जिसमें फलिया एक साथ पकती हैं तो हसिया से कटाई करें जब फसल पूर्ण रूप से सूख जाए तब श्रेसर से गहाई कर सकते हैं।
अच्छी तरह से प्रबन्धन की गयी फसल से 10 से 15 कुन्तल प्रति हेक्टेअर तक दाने की उपज आसानी से मिल जाती है।
स्त्रोत : कृषि विज्ञान केंद्र, तहसील हसनगंज, जिला उन्नाव ।
अंतिम बार संशोधित : 2/20/2023
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