नवोदित झारखंड प्रदेश छोटानागपुर एवं संथाल परगना के पठारी क्षेत्र में स्थित है। यहाँ पर कुल भौगोलिक क्षेत्रफल (80 लाख हेक्टेयर) का लगभग 28 प्रतिशत भाग वनों से ढका हुआ है। इस क्षेत्र में 600-900 मीटर की ऊँचाई वाली पहाड़ियाँ तथा टेड़ी-मेडी पथरीली नदियाँ हैं। यह राज्य मध्यम तापमान वाले उपोष्ण कटिबन्धीय जलवायु क्षेत्र में आता है जहाँ पर अनेक फल, सफलता पूर्वक उगाये जा सकते हैं। ऊँची-नीची भू-सतह वाले इस क्षेत्र में वर्ष में औसतन 1100-1600 मिलीमीटर वर्षा होती है जिसमें से लगभग 90 प्रतिशत वर्षा जून से सितम्बर माह के मध्य ही हो जाती है। इस क्षेत्र में प्रमुखत: लाल लेटराइट मिट्टी है जिसमें कार्बनिक पदार्थो की कमी के साथ-साथ जलधारण क्षमता भी बहुत कम है। प्राय: ऐसा देखा गया है कि 3-4 महीनों में अधिकतम वर्षा होने, भूमि की सतह ढालू होने तथा मिट्टी की जलधारण क्षमता कम होने के कारण सारा वर्षा जल बहकर नदियों एवं समुद्रों में चला जाता है जिससे जमीन की उपजाऊ मिट्टी के नुकसान के साथ-साथ इसका भरपूर उपयोग भी नहीं हो पाता।
झारखंड क्षेत्र की कुल जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा आदिवासी एवं पिछड़ा वर्ग है जिनका खाद्य एवं पोषण राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों के अनुसार नहीं है। यहाँ पर लोगों को पर्याप्त मात्रा में खाद्यान्न, दालें, तेल, मिठाई एवं अन्य आवश्यक पोषक तत्व उचित मात्रा में नहीं मिल पाता। इस क्षेत्र में प्रति व्यक्ति/वर्ष खाद्य पदार्थ की उपलब्धता मात्र 130 किलोग्राम है जो देश के प्रति व्यक्ति खाद्य उपलब्धता (250 किलोग्राम/वर्ष) से काफी कम है। यदि हम इनके कारणों पर विचार करें तो दो बिंदु सामने आते हैं।
अत: इस क्षेत्र के लोगों की खाद्य एवं पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कृषि के ऐसे तरीकों को अपनाने की आवश्यकता है जिसमें प्राकृतिक संसाधनों का भरपूर दोहन करके खाद्य एवं पोषण सुरक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण फसलों की लाभकारी खेती की जा सकती है। इस क्रम में चूँकि यहाँ की जलवायु बागवानी फसलों (विशेषकर फलों) के लिए उपयुक्त है तथा ये फसलें व्यवसायिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं अत: बागवानी फसलों को प्रथम वरीयता दी गयी। बागवानी फसलों द्वारा टिकाऊ वायुमण्डलीय व्यवस्था के साथ-साथ प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग से पौष्टिक फल एवं सब्जी का उत्पादन किया जा सकता है जो किसानों को आर्थिक दृष्टि से भी मजबूती प्रदान करता है। पठारी क्षेत्र औषधीय पौधों के भी भंडार माने जाते हैं अत: इनके अधिकाधिक उत्पादन से इस क्षेत्र के लोगों की आय बढ़ेगी एवं उनके जीवन स्तर में सुधार होगा तथा खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकेगी।
झारखंड राज्य की कुल खेती योग्य भूमि का लगभग 39 लाख हेक्टेयर उपरवार जमीन है जहाँ पर केवल खरीफ के मौसम में वर्षा आधारित कम उत्पादकता वाली फसलें जैसे- धान, मडुआ, कुल्थी, इत्यादि की खेती की जाती है। यह जमीन फलदार पौधों के लिए अत्यंत उपयुक्त है क्योंकि इनमें अपेक्षाकृत कम पानी की आवश्यकता होती है अत: यदि वर्षा जल एक समुचित प्रबंध कर लिया जाए तो इन फसलों को अधिक सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है।
वर्षा जल का उचित प्रबंध बहुआयमी प्रणाली द्वारा ही सम्भव है। इस दिशा में कुछ सफल उदाहरण भी सामने आये हैं। विशेषकर राज्य एवं केंद्र सरकार द्वारा चलाई जा रही जल छाजन इकाईयाँ कुछ क्षेत्रों में कारगर साबित हो रही है। वर्षा जल के कारगर प्रबंध के लिए वर्षा जल सर्कीणन, जल संरक्षण एवं फल वृक्ष आधारित फसल पद्धति को अपनाना अधिक लाभकारी पाया गया है।
जल संग्रहण का तात्पर्य है कि “वर्षा जल को इकट्ठा करना तथा आवश्यकतानुसार उनका प्रयोग करना” । यह क्रिया दो प्रकार से की जा सकती है:
(क) इन-सीटू जल संग्रहण
इस विधि में वर्षा जल को पौधों के जड़ों के पास या बागीचे में इक्ट्ठा करके उसे जमीन में सोख जाने देते है। इस प्रकार मिट्टी में संग्रहित जल पौधों की लम्बी तथा नीचे जाने वाली जड़ों द्वारा उपयोग में लाया जा सकता है। इन-सीटू जल संग्रहण के लिए फलदार पौधों के चारों तरफ क्षत्रक के नीचे बाहर से भीतर की ओर 5-10 प्रतिशत का ढाल दे देते हैं। पौधों के क्षत्रक के बाहरी किनारों पर गोलाई में 30 सें.मी. चौड़ी और 30 सें.मी. ऊँची मेढ़ी बना देने से वर्षा जल को पौधों के शोषक जड़ों के पास संग्रहित किया जा सकता है। पूरे बागीचे में जल संग्रहित करने के लिए खेत की ऊँची मेडबंदी करके उस खेत का पानी उसी खेत में रोक कर रख लेते हैं जिससे एक तो उपजाऊ मिट्टी को बहने से बचाया जा सकता है तथा दूसरा संग्रहित वर्षा जल से अच्छी फसल उगाई जा सकती है। बागीचे के खाली पड़े स्थान की गर्मी में जुताई करने, वर्षा ऋतु में हरी खाद की फसल लगाकर उसे 30-40 दिन बाद पलटकर मिट्टी में मिलाने तथा उचित मेडबंदी करके जल संग्रहित करने से झारखंड क्षेत्र की उपरवार जमीन में आम, लीची, आँवला, कटहल, अमरुद का अच्छा फल उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।
(ख)इक्सिटू जल संग्रहरण
झारखंड राज्य में छोटे-छोटे पहाड़ हैं और जमीन की सतह ऊँची-नीची है। फलस्वरूप इन क्षेत्रों के वर्षाजल को घाटी या निचले स्थानों पर ‘चेक डैम’ या तालाब बना कर इक्ट्ठा करने को “इक्सिटू जल संग्रहण” कहा जाता है। इस पानी का उपयोग मुख्य रूप से अधिक मुनाफ़ा देने वाली बेमौसमी सब्जियों, फूलों एवं औषधीय पौधों तथा पौधशाला में पौधे तैयार करने के लिए किया जाता है। यही नहीं तालाब में एकत्रित पानी में मछली पालन व बतख पालन के द्वारा लाभ कमाया जा सकता है। राँची जिले के ओरमांझी प्रखंड के टुंडाहाली एवं रुक्का जलछाजन क्षेत्र इस विधि के उदाहरण है। यहाँ पर किसान संरक्षित जल के उपयोग से नगदी सब्जियों की बेमौसमी खेती करके 3-4 गुना ज्यादा मुनाफ़ा कमाकर खुशहाल हैं।
जल संरक्षण का अर्थ है “मृदा जल सुरक्षित रखकर उसके अधिकाधिक उपयोग से फसलोंत्पादन”। इक्सिटू विधि से संग्रहित जल को वाष्पीकृत होने से बचाने के लिए तालाब या चेक डैम यथासम्भव छायादार स्थान पर बनावें अथवा उसके चारों तरफ छायादार पौधे लगायें जबकि इन-सीटू विधि से संग्रहित जल को संरक्षित रखने के लिए पौधे के क्षत्रक के नीचे पुवाल या सूखी घास की 10-15 सें.मी. मोटी पलवार विछायें। पुवाल की पलवार बिछाने से खरपतवार का नियंत्रण होता है तथा एक वर्ष बाद यह सड़कर पौधे के नीचे की मिट्टी को उपजाऊ बना देता है। परिक्षणों से यह पता चला है की लीची के 15-16 वर्ष पुराने पौधों के क्षत्रक के नीचे अक्टूबर माह में धान पुवाल की 15 सें.मी. पलवार बिछाने से फलों के आकार में वृद्धि हुई है तथा गुणवत्ता में सुधार हुआ है।
झारखंड की लेटराइट मृदा में वर्षा जल के अधिकाधिक उपयोग के लिए बागवानी एवं कृषि वानिकी शोध कार्यक्रम, राँची ने फल वृक्षों पर आधारित तीन स्तरीय फसल प्रणाली का विकास किया है। ये फसलें खेत की मिट्टी के विभिन्न स्तरों से समय-समय पर जल उपयोग करती है। इस प्रणाली में गहरे जड़ वाले फल वृक्षों (आम, लीची, आँवला, कटहल) को मुख्य फसल के रूप में शामिल किया है जो भूमिगत जल का उपयोग करतें है। अंतरशस्य के रूप में एक वर्षीय सब्जी, फूल एवं औषधीय पौधों को चुना गया है जो मिट्टी के ऊपरी सतह के जल का उपयोग करती है। मुख्य फसल को 10 ग 10 मी. तथा पूरक फसल को 5 ग 5 मी. की दूरी पर लगाया जाता है जबकि अंतरशस्य फसलों का बीच के लगभग 50-60 प्रतिशत रिक्त जमीन में लगाया जाता है फल वृक्ष आधारित बहुस्तरीय फसल प्रणाली की विस्तृत जानकारी निम्न सारणी में दी गयी है:
फसल एवं लगाने की दूरी |
किस्म |
पौधा लगाने/बुआई का समय |
मुख्य फसल (10 x 10 मी.) |
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आम |
माल्दह |
जून-जुलाई |
लीची |
शाही |
जून-जुलाई |
आँवला |
नरेन्द्र आँवला-7 |
जून-जुलाई |
पूरक फसल (5 x 5 मी.) |
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अमरुद |
सरदार |
जुलाई-अगस्त |
शरीफा |
बालानगर |
जुलाई-अगस्त |
नींबू |
कागजी |
जून-जुलाई |
अंतरशस्य |
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फ्रेंचबीन (0.4 x 0.1 मी.) |
अर्का कोमल |
अगस्त-सितम्बर |
लोबिया (0.4 x 0.1 मी.) |
अर्का गरीमा |
जून-जुलाई |
भिन्डी (0.4 x 0.2 मी.) |
अर्का अनामिका |
जून-जुलाई |
गेंदा (0.5 x 0.3 मी.) |
यलो ड्राप |
जून-जुलाई |
कुल्थी (0.3 x 0.1 मी.) |
बिरसा कुल्थी-1 |
अगस्त-सितम्बर |
गुन्दली (0.2 x 0.05 मी.) |
बिसा गुन्दली-1 |
जून-जुलाई |
जिमीकंद (0.9 x 0.9 मी.) |
गजेन्द्र |
मई-जून |
हल्दी (0.4 x 0.2 मी.) |
सुदर्शना |
मई-जून |
अदरक (0.4 x 0.2 मी.) |
सुप्रभा |
मई-जून |
जब तक पौधे छोटे रहते है तथा बगीचे में प्रर्याप्त धूप एवं रोशनी मिलती रहती है जब तक सामान्य सब्जी व फूलों की खेती की जाती है परन्तु जब बाग़ में अधिक छाया हो जाती है तब छाया में उगने वाली फसलों जैसे हल्दी, अदरक, जिमीकंद की सफल खेती की जाती है। यह प्रणाली इस क्षेत्र के उपरवार जमीन में काफी प्रचलित हो रही है। इस पद्धति में एक तरफ सामान्य खेती की अपेक्षा अधिक रोजगार की सम्भावना बनी है वहीं दूसरी तरफ धान की तुलना में 6 से 7 गुणा अधिक लाभ प्राप्त होता है। निम्न सारणी में दिये गये गणना से स्पष्ट होता है कि जहाँ धान की वर्षा आधारित एक फसल लगाने से 18,500 रु/हे. का लाभ प्राप्त होता है वहीं आम + अमरुद + फ्रेंचबीन की खेती करने से 1,28,000 रु/हे. की आमदनी मिलती है।
वर्षा जल प्रबंध द्वारा बागवानी फसलों पर आधारित फसल पद्धति में लागत - आमदनी का ब्यौरा
फसल |
कुल पैदावार (टन/हे.) |
कुल लागत (रु/हे.) |
कुल आमदनी (रु/हे.) |
शुद्ध आय (रु/हे.) |
लागत आमदनी |
धान (एकल फसल) |
5.0 |
9000 |
27,500 |
18,500 |
1:2:1 |
आम (एकल फसल) |
9.0 |
30,000 |
108,000 |
78,000 |
1:2:6 |
आम+अमरुद+ फ्रेंचबीन (फसल पद्धति) |
9.0+9.0+5.0 |
30,000+ 60,000 +5000 = 41,000 |
108,000+ 36,000+ 25,000=1,69,000 |
78,000 + 30,000 + 20,000 = 1,28,000 |
1:3:12 |
स्रोत एवं सामग्रीदाता -समेति, कृषि विभाग, झारखण्ड सरकार
अंतिम बार संशोधित : 3/16/2023
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