केला उष्णकटिबंधीय क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण आहार फसल है यह एक सस्ता, परिपूर्ण व सबसे ज्यादा पोषक तत्वों से भरपूर फल है। पका केला में कार्बोहाइड्रेट की मात्रा अधिक तथा प्रोटीन व वसा की मात्रा कम होती है। पका केला विटामिन ए का अच्छा एवं सी एवं बी का सामान्य श्रोत है। 60 से सेंटीग्रेट तापमान पर पकाने पर भी इसके विटामिन नष्ट नहीं होते केले में पाए जाने वाले विभिन्न अवयव नीचे दिए जा रहे हैं।
अवयव |
% |
अवयव |
पी पी एम् |
जल |
70.0 |
कैल्सियम |
80.0 |
कार्बोहाइड्रेट |
27.0 |
फास्फोरस |
290.0 |
रेशा |
0.5 |
लौह |
6.0 |
प्रोटीन |
1.2 |
बिटा –कैरोटिन |
0.5 |
वसा |
0.3 |
रिबोफ्लेबीनबीन |
0.5 |
भस्म |
0.9 |
नायसिन |
7.0 |
|
|
विटामिन सी |
120.0 |
उपज- प्रति पौध 15-30 किलो उत्पादित होता है
सब्जी वाली- कांच केला, बेहुला, बत्तिसा, नेंद्रण, भुर केला, मनोहर
खाने वाली- ग्रौस मिशेल, जायंट कैवेंडिश, डवार्क कैवेंडिश, रोबस्टा, लाल केला, चम्पा, मालभोग
लम्बे किस्म – 20 मीटर x2.5 मी० या 8 फीट x 8 फीट
बौने किस्म- 1.8 मीटर x1.8 मी० या 6 फीट x 6 फीट
नये पौधों से निकलने वाले लंबे पत्ते अन्तः भुस्तरी द्वारा (पुराने पौधों से निकलने वाले चौड़े पत्ते अंतः भुस्तरी न लें) उत्तक संवर्धन द्वारा
पोषण
प्रति पौध हेतु
क्रमांक |
पौधा रोपण के बाद (दिन) |
यूरिया (ग्रा०) |
स्फुर |
पोटाश |
1 |
35 |
50 |
125 |
45 |
2 |
75 |
100 |
125 |
90 |
3 |
105 |
100 |
125 |
100 |
4 |
140 |
100 |
125 |
100 |
5 |
175 |
90 |
125 |
100 |
6 |
फूल आने पर |
|
|
85 |
उत्तक संवर्धित पौध का उपयोग किये जा बाग़ में पौध के चारों तरफ एक हाथ की गोलाई में थाला बनाकर उन्हें बिना जोड़े निम्न सारणी के अनुसार बारिश के दिनों को छोड़कर सिंचाई करें।
पौधा रोपण के दिन से |
प्रति पौध प्रतिदिन सिंचाई की मात्रा( ली०) |
55-60 दिनों तक |
08 |
6 1-90 दिनों तक |
16 |
91-120 दिनों तक |
24 |
121-150 दिनों तक |
32 |
151-180 दिनों तक |
40 |
181वें दिन से फूल आने तक |
48 |
फलों को तैयार होने तक |
56 |
सब्जियां जैसे –बैंगन, अरवी, बंडा, मिर्च, भिन्डी, धनिया, मेथी आदि का साग।
छायादार हो जाने वाले समय में अदरक एवं हल्दी
निम्न भागों की काटो छांट कर दें
केले में मुख्य रोगों में हैं-पनामा म्लानि, पर्णचिती व शीर्ष गुच्छा रोग
इसके मुख्य कीट हैं- केले के घुन, पत्ती व फल भृंग तथा माहू
इनके रोकथाम के उपाय
कीट अनुश्रवण का मुख्य उद्देश्य क्षति कारक कीट एवं बीमारियों का क्षेत्रीय परिस्थिति में आरंभिक विकास एवं जैविक नियंत्रण के प्रभाव को पह्चानित करना है।
सर्वेक्षण दल सात दिनों के अंतराल पर लगातार कीट एवं बीमारियों के पूर्व चयनित रास्ते पर सवेक्षण करें एवं जैविक नियंत्रण के प्रभाव के साथ-साथ कीट एवं बीमारियों के परिस्थिति का अध्ययन कर प्रतिकूल में पूर्व खतरे की सुचना दें। क्षातिकारक कीट, व्याधि एवं जैविक नियंत्रण फौना के आक्रमण का अभिलेख सर्वेक्षण का रखना चाहिए। लाही की संख्या की गणना 34 पौधों (100 पत्तियों) पर लीफ हॉपर की संख्या की गणन ‘झाड़ने की विधि’ एवं प्रभावित पौधों की गणना पर करनी चाहिए। क्षातिकारक रोडेंट ( मांद में रहने वाले जीव) के कार्योपयोगी सूचकांक 25 जीवित मांद प्रति हेक्टेयर रखा गया है।
क्षातिकारक कीट, बीमारियों एवं जैविक नियंत्रण प्राणी नियंत्रण प्राणी समूह की उपस्थिति का सर्वेक्षण कृषकों/प्रसार कर्मियों द्वारा सप्ताह में एक दिन आर्थिक प्रांरभिक स्तर के अध्ययन हेतु करना चाहिए। चूसने वाले कीड़े की संख्या की गणना एक पौधा के तीन पत्तियों (ऊपर, मध्य, नीचे) करनी चाहिए। कटवर्म एवं श्वेत ग्रब द्वारा क्षति की गणना/मूल्यांकन कुल पौधों की संख्या एवं प्रभावित पौधों की संख्या से की जा सकती है।
अगर मौसम सहानुभूति (बादल से भरा आकाश,अधिक आर्द्रता या अंतरवर्षा) हो सकता है, तो ब्लाईट की उत्पत्ति का अनुश्रवण एक दिन के अन्तराल पर की जानी चाहिए।
आयेशा एवं इटीएल के साप्ताहिक अनुश्रवण के पश्चात कृषकों/प्रसार कर्मियों को गहन विचार के बाद निर्णय लेकर कृषकों को विशेष कीट नियंत्रण के संबंध में सुझाव देना चाहिए। आयेशा कार्य के लिए विस्तृत तरीके की पूर्ण जानकारी एनेक्सर 2 में आगे दी गयी है।
१. पौधा रोपण के पूर्व ग्रीष्म काल में खेती की गहरी जोताई (30-40 सेंटीमीटर) तक कर देनी चाहिए जिससे मिट्टी में रहने व्लालाए कीट, रोग फैलाने वाले जीवाणु तथा खरपतवार के जड़ समाप्त हो जाएं।
2. पहाड़ी क्षेत्रों में मेढ़बंदी कर जमीन को छोटे-छोटे प्लाट में तैयार किया जाता है तथा कन्टूर ट्रेचिंग का निर्माण किया जाता है। पहाड़ी ढलान पर 60 ग्रेडीचुट पर भी पौधों को ढाल विपरीत दिशा में बिना मेढ़बंदी किये लगाया जाता है।
3. स्वस्थ रोपण सामग्री-सर्कस, स्लीप एवं क्राउन का चुनाव करना चाहिए।
4. अधिक सधनता वाले रोपण से अधिक लाभ होता है तथा इससे खरपतवार के नियंत्रण, धुप से बचाव, पौधों के झुकने की क्रिया में कमी तथा सर्कस एवं स्लीप का प्रति इकाई क्षेत्र में अधिक उत्पादन आदि में सहायता मिलती है।
5. सुनिश्चित सिंचाई एवं उर्वरक प्रबन्धन काफी महत्वपूर्ण है। नाइट्रोजन उर्वरक का अधिक मात्रा में फसल के विकास हेतु प्रयोग नहीं करना चाहिए।
6. फसल को खरपतवार से मुक्त होना चाहिए। पंजाब-हसुआ से खरपतवार निकालना काफी प्रभावी होता है। रासायनिक उपचार ग्लाईफोसेट से करना चाहिए।
7. रोडेंट की संख्या में वृद्धि को कम करने हेतु फसल अवशेष को निवारण का बर्बाद का कर देना चाहिए।
8. फसल की अवधि बढ़ाने का प्रयास न किया जाए तथा फसल को दुआला होने से रोका जाए।
9. स्थानीय परिस्थिति के अनुसार फसलोत्पादन को समकालीन रखा जाए।
2. आकर्षित करनेवाले चारा का ट्रैप में प्रयोग का रोडेंट की जनसंख्या को घटाया जा सकता है।
3. प्रति हेक्टेयर 10-12 चिड़ियों का मचान स्थापित कर कीट की संख्या को कम किया जा सकता है। मचान पर शिकारी पक्षी जैसे ब्लैक ड्रेगों, कौवा, मैना एवं ब्लू ज्वाय बैठकर कीड़ों का शिकार कर सकते हैं।
१. गहरी जुताई कर मिट्टी की कीड़ों, रोगाणु एवं सूत्रकृमि को सूर्य की रोशनी में गर्मी लगने हेतु छोड़ दें।
2. केला के बाद केला का फसलोत्पादन न करें, फसल चक्र अपनावें।
3. अनाक्रमित क्षेत्र से ही स्वास्थ्य का चयन करें।
4. छिलना एवं काटना
5. सकर उपचार
6. फसल को तीन महीने तक खरपतवार रहित रखें।
7. सूत्रकृमि के नियंत्रण हेतु ट्रैप फसल का उपयोग करें।
8. कटनी के पश्चात बचे हुए पौध-अवशेष को हटा दें और बर्बाद कर दें
9. कार्म को उखाड़े तथा कॉर्म एवं अस्थायी धड़ को टुकड़ों में काट दें, जिससे ग्रब्स मारे जा सकें।
2. फंसे हए विभील को मार दें।
3. विभिल जनसंख्या नियंत्रित करने हेतु पुराने एवं सूखे पत्तों को हटा दें।
१. पौधा रोपाई के पश्चात्त 6वें एवं 7वें महीने में 2 मिलि०/प्रतिलीटर पानी की दर से मोनोक्रोटोफॉस कीटनाशक को स्डूस्टेम पर लगा दें।
2. अगर 7वें महीने के पश्चात बर्बादी दिखाई दें तो मोनोक्रोटोफॉस (150 मिली०-350 मिलि० पानी) मने घोल का 2 मिलि० प्रति पौधा इंजेक्शन धड़ के दो जगहों पर 30** कोण पर दें। पहला इंजेक्शन जमीन से 2 फीट की उंचाई पर तथा दूसरा 4 फीट की ऊंचाई पर दें।
पौधा रोपाई के 3सरें, 5वें एवं 7वें महीने में कार्बोफ्यूरान 20 ग्राम/पौधा मिट्टी में उपयोग करें।
इंडोसल्फान 1.5 मिलि०/लीटर पानी में मिलकर छिड़काव करें।
मांदावासी सूत्रकृमि
१. केला की कटाई के पश्चात्त खेत में तीन माह के लिए परती छोड़ देने से मांद में रहनेवाले सूत्रकृमि की संख्या घट जाती है, जबकि पांच महीने तक पानी देकर खेत को प्रति रखने से न केवल मांदवासी सूत्रकृमि नष्ट होते हैं, बल्कि फ्युजैरियम स्पेसीज भी नष्ट हो जाता है।
2. नीम, महुआ, अरंडी, करंज आदि की खल्ली का प्रयोग सूत्रकृमि के नियंत्रण में काफी प्रभावी होता है।
3. बुआई के समय एवं बुआई के चार माह पश्चात दो बार नीम खल्ली का 400 ग्रा०/पौधा का प्रयोग करने से आर० सिमिलिस की संख्या घट जाती है तथा केला गुच्छ का भार भी बढ़ता है।
4. धान, ईख, मूंग, रुई या हल्दी के सतत केला का फसल-चक्र अपनाने से सूत्रकृमि का कम होते हैं तथा फसलोत्पादन में भी वृद्धि होती है।
5. ग्लाई रिसिडिया मैकुलाटा, रिसिनस कोम्यूनिस, करोटालैरिया जुंसिया, ग्लाईकोसमीस पेंटाफाइला, एजाडीरैक्टा इंडिका, पिनाटा, कैल्पानसीओ, पाइपर बेटली एवं मोरिंगा ओलीफेरा के पत्तियों का अर्क आर० सिमिलिस सूत्रकृमि के लिए जानलेवा होता है।
6. भारत में क्रोटालैरिया जुंसिया का केला के साथ अंर्तफसल लेने से आर० सिमिलिस ओए नियंत्रण रहता है तथा केला का अच्छा विकास एवं उत्पादन होता है।
बुआई सामग्री के निर्जीव भाग/चोट लगे भाग को काटकर एक आकार में बना लें एवं इसे 50-55 सेंटीग्रेड गर्म पानी में 30 मिनट तक रखने से पौध सूत्रकृमि रहित हो जाता है।
१. जैविक एजेंट जैसे: पेसीलोमाइंसिस लिलासिनस, भीए माइक्रोराईजा, ग्लोमस फैसिकुलेटम एवं बैक्टेरियम, पासच्युरिया पिनेट्रांस का मिट्टी एवं जड़ में प्रयोग सूत्रकृमि की संख्या को कम करने में सहायक होता है।
2. 200 ग्राम/प्रति पौध नीम की खल्ली का प्रयोग जी मोसी के साथ मिलाकर करना से केला के जड़ एवं मिट्टी में सूत्र कृमि की संख्या घटाने में अधिक असरदार साबित हुआ है।
परपोषी पौध प्रत्तिरोधता
प्रभेद पिजैंग बटुआयु, पिजैंग जारी बुआया, पिजैंग इडोर कुडा, पराहा मैसूर, हाईब्रिड एस एच-3142, कुद्ली (ए ए) पेडालीमूनजील (एए बी), कुनान (एएबी० आईरीयबकाई पुभन (एबी), पीजांग सेरीबू (ए ए) टोंगाट (ए ए) भेनुटू कुनान (एबी), एनैकोमबन, येलाकीबल, आईरांकाई पुमन, करप्यूराभैली एवं –कोडन सूत्रकृमि प्रकोप के लिए मध्यवर्ती प्रतिरोधी पाए गए हैं।
१. सकर को एक आकार में बनाकर कार्बोफ्यूरॉन 2 ग्राम (ए० आइ० ) प्रति सकर की दर से प्रयोग करने से आर० सिमिलीस का नियंत्रण होता है तथा फसलोत्पादन में वृद्धि भी पायी जात्ती है।
2. सकर का बुआई के पूर्व नीम तेल 1% एवं 2% में 10 मिनट तक उपचार से सूत्रकृमि की संख्या में काफी कमी हो जाती है।
3. कार्बोफ्यूरॉन -1 ग्राम (ए० आई०)/प्रति पौधा बुआई के समय एवं पुनः तीन माह के अंतराल पर दो बार और उपचारित करना श्रेयकर है।
4. बुआई के पिरव सकर को मोनोक्रोटोphau 5% घोल में 30 मिनट के लिए रखने एवं छाया में 72 घंटे सुखाना पूरी तरह से संक्रमण मुक्त करता है।
१. चूँकि पी० कॉफ़ी एवं आर० सिमिलिस दोनों के जीवनचक्र, खाने की प्रवृति, जड़ पर प्रदर्शित लक्षण में काफी समानता है, इसलिए जो नियंत्रण आर० सिमिलिस के लिए अनुशंसित है वह पी० कॉफ़ी के लिए (केवल प्रभेद-प्रतिरोधिता को छोड़कर) के लिए भी है।
2. बुआई के समय पर एक बार कार्बोफ्यूरॉन-50 ग्राम/पौधा की दर से प्रयोग एवं दो बार तीन महीने के अंतराल पर प्रयोग सूत्रकृमि की जनसंख्या घटाने में काफी असरदार पाया गया है।
3. प्रभेद जैसे: कुनान, भेनुटू कुनान, टोंगर, पे कुनान, येन कुनान, नाटू पुमन, करप्यूराभैली, चेरापूंजी एवं हाईब्रिड 74, एच-21, एच०-55 एच० 59 , एच०-89 एच० 109 आदि पी० कॉफ़ी सूत्रकृमि के लिए सहनशील/प्रतिरोधी पाये गये हैं।
१. आर० सिमलिस को नियमित करने के लिए अपनाए गये रसायनिक एवं भौतिक उपचार एच, मल्टीसिनकट्स एवं डायहीस्टेरा के लिए भी असरदार है केवल कुछ प्रभेदों को छोड़कर।
2. केला हाईब्रिड 74, एच-94, एच०-100, एच० 106, एच०-109 एवं प्रभेद ने भैनान, सिरुमलाई, पेयान, ग्रास माइकेल, करप्यूराभैली, रोबस्टा रसथाली, कुलान, भेनुटू कुनान-एच० मल्टी सिंक्ट्स के लिए सहनशील/प्रतिरोधी प्रभेद हैं।
3. उत्तरी-पूर्वी राज्यों के लिए पाटापुरिया मेंधी, काथिया एवं ऐथियोकोल प्रभेद एच० मल्टी सिंक्ट्स के लिए सहनशील/प्रतिरोधी प्रभेद हैं।
१. सूत्रकृमि का नियंत्रण या तो गर्म पानी द्वारा सकर को उपचारित कर किया जा सकता है या बुआई के पूर्व रसायनिक उपचार से किया जा सकता है, जो आर० सिमलिस के उपचार हेतु पूर्व में वर्णित है।
2. प्रभेद जैसे अलास्वी, डाकाडकन, इनामबक, पास्तिलान, पुगपोगान, मियामउली, पाडलागा, सिंकर, भेंटी कोहाल, पटकारा, मेंदी एवं कोथिया सूत्रकृमि एम० इनकोगनीय के प्रति सहनशील/प्रतिरोधी पाए गये हैं।
आर० सिमलिस के लिए अपनाये गये अनुशंसित प्रबंधन को सिस्ट सूत्रकृमि के लिए अपनाया जा सकता है:
१. प्रभेद रसथाली, कर्प्युराभैली, मोंथान, कदाली, रसदाली, ने पुभान, वीरूपक्शी, आदि वील्ट के प्रति अति संवेदनशील है, एने प्रभेदों की बाई नहीं करनी चाहिए।
2. 2-3 चक्र में एक या दो बार धान या गन्ना के फसलोत्पादन के पश्चात ही केला की बुआई करना श्रेयस्कर है।
3. संवेदनशील/प्रतिरोधी प्रभेद जैसे: रोबस्टर, नेन्द्रन एवं पुभा का चयन करें एवं विशेष उचित क्षेत्र में लगावें।
4. स्वस्थ उत्पादन से ही स्वस्थ सकर लेकर बुआई करें।
5. साफ/असंक्रमित क्षेत्र में संक्रमित सकर लाकर लगाने पर नियंत्रण रखें।
6. सकर के जड़ एवं बाहरी परतों को साफ करें। सकर को ३० मिनट तक कार्बेन्डाजाईम (0.2%) और मोनोक्रोटोफॉस/बेभीस्टीन 2.0 ग्राम+ मोनोक्रोटोफॉस-14 मि०ली० एक लीटर पानी के घोल में डुबो दें, तत्पश्चात बुआई करें।
7. संक्रमित पौध को जड़ से निकालकर बर्बाद कर दें, या जला दें।
8. निवेश द्रव्य (ईनोकुल्म) को दूसरे क्षेत्र से प्रसारित होने से रोकने के लिए संक्रमित क्षेत्र में उपयोग किए यागे उपकरणों को अच्छी प्रकार साफ कर लें।
9. वर्षा के मौसम में जल निकास की उचित व्यवस्था करें।
10. बुआई के पश्चात 5वें एवं 9वें महीने में घनकन्द (कार्म) में 50 मिग्र० कार्बेन्डाजीम को कैप्सूल एन अन्तःस्थापित कर दें। बुआई के पांच माह के पश्चात द्विमासिक अंतराल पर अस्थायी जड़ के चारों तरफ कार्बेन्डाजाईम 2% घोल से सराबोर कर दें। या 2% कार्बेन्डाजाईम घोल(20 ग्राम/प्रति लिटर पानी) का 3 मि० ली० सुई घनकन्द में दें।
11. ट्राईकोडर्मा स्पेसीज, स्यूडोमोनास फ्लूओरसेंस एवं बैसिलस सब्टीलिस के 15 ग्राम पाउडर का चार बार प्रयोग करें। पहला बुआई के समय गड्ढो में एवं पौधा के चारों तरफ एवं बाकी बुआई के 3रे, 5वें एवं 7 वें महीने में प्रयोग करें।
१. लीफ स्पॉट से प्रभावित पत्तियों को निकाल दें एवं बर्बाद कर दें।
2. अंतरकृषीय कार्य जैसे सकर को समय पर हटा देना, खरपतवार नियंत्रण, जल निकास व्यवस्था में सुधार तथा उचित उर्वरक प्रयोग व्याधि के प्रकोप को नियंत्रित रखता है।
3. व्यवस्थापरक (सिस्टेमेटिक) कवक नाशक जैसे- प्रोपीकोनाजोल 0.05% या कार्बेन्डाजीम +कालीसीन )0.1% एवं टीपॉल के कुछ बूंद के साथ मिलाकर घोल का छिड़काव अधिक व्याधि प्रकोप अवस्था में करने से व्याधि पर नियंत्रण पाया जा सकता है।
इस व्याधि के नियंत्रण हेतु छिलका में आघात से बचाव, अच्छी कृषि प्रणाली अपनाने,पौधों से मरी हुई पत्तियों को हटाने, फलों का रेफ्रीजरेशन, फलों का पॉली एथिलीन थैले में परिवहन एवं 15 दिवसीय अंतराल पर 2% क्लोरोथालोनील या 0.15% प्रोक्लोरोज या 0.1% कार्बेन्डाजीम का चार बार छिड़काव श्रेयकर होता है।
१. साधारनतया या व्याधि नये पौधों में होती ही। इस व्याधि द्वारा कैवेंडिस (एएए) तथा डीलोयाड (एए) समूह के केला में सड़न पैदा होता है यह व्याधि अधिकतर एलुभयल मिट्टी एवं अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में प्रचलित है।
2. ब्लीचिंग पाउडर 2 ग्राम/प्रति लीटर या एमिशॉन 1 ग्राम/प्रति लीटर की दर से निर्मित घोल द्वारा 10-15 दिनों के अंतराल पर पौधों के चारों तरफ की मिट्टी को व्याधि नियंत्रण हेतु सरोबोर कर दें।
निम्नलिखित निरोधक रणनीति द्वारा संक्रमित क्षेत्र से असंक्रमित क्षेत्र में व्याधि फैलाव को कम किया जा सकता है।
१. व्याधि रहित मजबूत पौध का चयन कर बुआई करें।
2. प्रजनन हेतु प्रयोग किए गये पुराने पौधे को सुचाकांकित (इंडेक्स) कर देना चाहिए।
3. केला उत्पादक को वायरस-रहित पौध को ही उत्पादित का उपलब्ध कराना चाहिए।
4. अगर वायरस प्रभावित पौधों पर उसके लक्षण प्रदर्शित हो, तो उसे जल्द उखाड़कर बर्बाद कर देना चाहिए।
5. केला उत्पादन वाले तथा उसके आस-पाद के क्षेत्र को खरपतवार रहित कर देना चाहिए, क्योंकि खरपतवार अनेकों प्रकार के वायरस को आश्रय देते हैं।
6. कीट रोगानुवाह्क के नियंत्रण हेतु लगातार अंतराल पर सिस्टेमेटिक कीटनाशक का छिड़काव करते रहें।
7. केला के नये बैक्ट मोजैक व्याधि के नियंत्रण हेतु अगर आवश्यक हो, तो कानूनी रूप से अन्तर्राजीय परिवहन पर रोक होनी चाहिए, वर्तमान में यह व्याधि दक्षिण राज्यों जैसे तमिलनाडु, केरल, कर्नाटका एवं आंध्रप्रदेश राज्यों में काफी प्रचलित है। अन्य राज्यों में इस व्याधि का ज्यादा प्रकोप नहीं।
१. खेत तैयार करते समय गहरी अनेकों बार जुताई, खरपतवार को एकत्र कर सुखा देना श्रेस्यकर है।
2. केला विकास के प्रारंभिक अवधि कम अवधि वाले फसल जैसे दलहन की खेती लाभप्रद है।
3. केला के कतार की बीच वाली जगह को केला को कटे पत्ते, तना या काले पोलिथीन शीट से ढक देना चाहिए।
4. प्रारंभ के 6, महीनों में एक माह के अन्तराल पर मजूदरों द्वारा कोड़ाई करना खरपतवार पर नियंत्रण रखता है।
2. 1-2 माह पुराने पौधों में एक पत्री खरपतवार के नियंत्रण हेतु ड्युरॉन 3 किलोग्राम/हेक्टेयर-12 लीटर पानी में घोल तैयार कर छिड़काव करने की अनुशंसा की जाती है।
3. जब पौधे 1-2 महीने के हो जाएं, तो ड्यूरॉन 3 केजी/हेक्टेयर 1200 लीटर पानी में घोल का छिड़काव करें। छः महीने के बाद जब द्विपत्री खरपतवार 2-3 इंच लंबे हो जाएं तो ग्लाईफोस्फेट/ग्रामोलीन 1.5 लीटर/हेक्टेयर 1200 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।
कीट/व्याधि |
अवस्था |
अनुशंसित कीट प्रबन्धन प्रक्रिया |
केला धड़ |
5वां माह |
विभिल के अनुश्रवण हेतु 30 से. मी० लम्बाई वाले कटे हुए स्युडोस्टेम स्थापित करें। |
विभिल |
6वां माह |
मोनोक्रोटोफॉस (2 मि०ली०/लीटर) से स्युडोस्टेम को सराबोर कर दें। |
|
7वां माह |
अगर कीड़ा खाने से बर्बादी नजर आये तो मोनोक्रोटोफॉस(150 मि०ली० 350 मि० ली० पानी) का 2 मि०ली०/प्रति पौध के दर से दो जगह 30 कोण पर स्टेम इंजेक्टर स एफ्ला जमीन से २ की ऊंचाई पर दूसरा 4 की ऊंचाई पर सुई दें। |
|
कटाई के पश्चात |
स्युडोस्टेम को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर फसल को बचे भाग को नष्ट कर दें। विभिल को नो नष्ट करने एवं फसल के बचे भाग को सुखाने के लिए सकर को जड़ से निकाल दें। एवं छोटे टुकड़ों में काटकर जमीन की अंदर गाड़ दें। |
केला कार्म विभिल |
बुआई के पूर्व
|
स्वस्थ एवं असंक्रमित सकर का चयन करें। |
|
बुआई के समय |
सकर को काट-छांट कर साफ कर लें, फिर 30 मिनट तक गर्म पानी (50-50 सेंटीग्रेड) से उपचारित करें। विभिल के अण्डों एवं ग्रब्स को नष्ट करने हेतु सकर को 05% मोनोक्रोटोफॉस घोल में 30 मिनट तक डुबो कर रखें एवं 72 घंटों तक छाया में सुखा लें। |
|
तीसरा महीना |
कस्मोल्युर ट्रैप-4 संख्या/हेक्टेयर या स्टमप ट्रैप पर लम्बाई के कटे हुए स्यूडोस्टेम और डिस्क स्थापित करें। |
|
तीसरा महीना, पांचवां, सातवाँ महीना |
प्रति पौध 20 ग्राम की दर से कार्बोफ्यूरॉन से मिट्टी उपचार करें। |
केला, पत्ती खाने वाला कैटरपीलर |
तीसरा महीना- पांचवां महीना |
अण्डों को हाथ से चुनकर बर्बाद कर दें। |
सूत्रकृमि |
बुआई के पूर्व |
स्वस्थ एवं संक्रमण रहित सकर का चयन करें। |
|
बुआई के समय |
सकर को साफ कर गर्म पानी से उपचारित करें। |
|
तीसरा महीना |
40 ग्रा०/पौध की दर से कार्बोफ्यूरान का प्रयोग करें। |
|
6वां-7वां महीना |
500 ग्राम/पौध नीम खल्ली का प्रयोग करें। |
सामान्य |
बुआई के पूर्व |
वील्ट एवं वायरस रहित सकर का ध्यान करें |
व्याधियां |
बुआई के समय |
सकर को कार्बेन्डाजीम(0.2%) में 30-45 मिनट तक डुबो कर रखें। |
|
बुआई के पश्चात |
बायोकंट्रोल एजेंट ट्राईकोडर्मा स्पेसीज 15 ग्राम/प्रति गड्ढा की दर से उपयोग करें। |
वील्ट एवं वायरल बीमारियाँ |
बुआई के पूर्व |
व्याधि रहित बलशाली सकर का चयन कर बुआई करें। |
|
बुआई के पश्चात |
जब व्याधि के लक्षण दिखाई दे, पौध को जड़ से निकालकर जला दें। |
खरपतवार |
बुआई के पूर्व |
गहरी जुताई एवं खरपतवार की निकौनी कर साफ फसलोत्पादन करें। |
|
बुआई के पश्चात |
दलहन जैसे काउपीआ का फसलोत्पादन करें। |
|
बुआई के 2 माह पश्चात |
1200 लीटर पानी में 3 कि०ग्राम/हेक्टेयर डियोरॉन का छिड़काव करें। दलहनी हरी खाद का प्रयोग करें। |
|
बुआई के 3रा-5वां माह पश्चात |
1200 लीटर पानी में ग्लाईफोस्ट ग्रामोजोन 1.5 लीटर/प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें। |
|
बुआई के 6 माह पश्चात |
1200 लीटर पानी में ग्लाईफोस्ट ग्रामोजोन 1.5 लीटर/प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें। यांत्रिक निकाई एवं कोड़ाई करे। पत्तों के कारण ज्यादा छाया हो जाने से खरपतवार पर स्वयं नियंत्रण हो जाता है। |
१. एक बार प्रयोग के लिए जितनी मात्रा की आवश्यकता है उतनी ही मात्रा में कीटनाशक का क्रय करें, जैसे-100,250, 500 या 1000 ग्राम/ मिली०
2. रिसते हुए डिब्बों, खुला, बिना मोहर, फटे बैग में कीटनाशक का क्रय न करें।
3. बिना अनुमोदित लेबल वाले कीटनाशक का चयन न करें।
१. घर के अंदर कीटनाशक का भण्डारण न करें।
2. मौलिक मोहरबंद डब्बे का ही प्रयोग करें।
3. कीटनाशक को किसी दुसरे पात्र में स्थानांतरित न करें।
4. खाद्य सामग्री या चारा के साथ कीटनाशक को न रखें।
5. कीटनाशक को बच्चों या पशुओं के पहुँच के बाहर रखे।
6. वर्षा या धुप में कीटनाशक के साथ न रखें।
2. अधिक कीटनाशक की मात्रा को सर पर, कंधों पर , पीठ पर रखकर स्थानांतरित न करें।
१. केवल शुद्ध जल का प्रयोग करें।
2. निर्माण अवधि में अपना नाक, आँख, मुंह, कान तथा हाथ का बचाव करें।
3. घोल निर्माण करते समय हाथ का दस्ताना, चेहरे का मुखौटा, नकाब तथा सर को ढकते हुए टोपी का प्रयोग करें। इस अवधि में कीटनाशक हेतु उपयोग किये गये पॉलिथीन का उपर्युक्त कार्य हेतु इस्तेमाल न करें।
4. घोल निर्माण करते समय डिब्बे पर अंकित सावधानियाँ को पढ़कर अच्छी प्रकार समझ लें, तदनुसार कार्रवाई करें।
5. छिड़काव किये जाने वाली मात्रा में ही घोल का निर्माण करें।
6. दानेदार कीटनाशक को जल के साथ मिश्रण न बनावें।
7. मोहरबंद पात्र के सान्द्र कीटनाशक को हाथ के सम्पर्क में न आने दें। छिड़काव मशीन के टैंक को न सूंघें।
8. छिड़काव मशीन के टैंक में कीटनाशक ढालते समय बाहर न गिरने दें।
9. छिड़काव मिश्रण तैयार करते समय खाना, पीना, चबाना, या धूम्रपान करना मना है।
2. रिसनेवाले या दोषपूर्ण उपकरण का प्रयोग न करें।
3. उचित प्रकार को नोजल का ही प्रयोग न करें।
4. रुकावट पैदा होने और नोजल को मुंह से न फूंकें तथा साफ करें। इस कार्य टूथ-ब्रश एवं स्वच्छजल का ही प्रयोग करें।
5. अपतृण/खरपतवार नाशक तथा कीट प्रयोग हेतु एक ही छिड़काव मशीन का उपयोग न करें।
१. केवल सिफारिश की गयी मात्रा तथा सांद्रता के घोल का ही प्रयोग करें।
2. कीटनाशक का छिड़काव गर्म टिन की अवधि एवं तेज वायु गति के समय न करें।
3. वर्षोपरांत या वर्षा के पूर्व (अनुमानित) कीटनाशक का छिड़काव न करें।
4. वायुगति दिशा के विरुद्ध कीटनाशक का छिड़काव न करें।
5. इमलसीफियवुल कासंट्रेट फार्मुलेशन का प्रयोग बैटरी चालित यू एल भी स्प्रेयर से न करें।
6. छिड़काव के पश्चात स्प्रेयर, बाल्टी आदि को साबुन पानी से साफ कर लें।
7. बाल्टी या अन्य पात्र जिसका उपयोग छिड़काव में किया गया है, उसका घरेलू कार्य हेतु पुनः उपयोग न करें।
8. छिड़काव के तुरंत बाद उपचारित क्षेत्र में जानवर या मजदूर का प्रवेश वर्जित कर दें।
2. उपयोग किये गये बर्तन, डब्बे को पत्थर से पिचकाकर जल स्रोत से दूर मिट्टी में काफी गहराई में गाड़ दें।
3. खाली डब्बे का उपयोग खाद्य भंडारण हेतु न करें।
स्त्रोत एवं सामग्रीदाता: कृषि विभाग, झारखण्ड सरकार
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