इस लेख में भारत के तटीय क्षेत्रों में रहने वाले मछुआरों की आय बढ़ाए जाने की रणनीतियों और वैकल्पिक उपायों पर प्रकाश डाला गया है। इसमें गहरे सागर तथा गैर पारंपरिक संसाधनों का टिकाऊ विदोहन, मत्स्यन बेड़ों/गियरों के आधुनिकीकरण/ प्रौद्योगिकीय उन्नयन द्वारा मत्स्यन क्षमता बढ़ाये जाने, सूचना संचार प्रौद्योगिकियों (आईसीटी) के प्रयोग करने, समुद्री संवर्धन को गहन बनाने और मत्स्यन मूल्य श्रृंखला को प्रबल बनाने आदि जैसे विकल्पों पर चर्चा की गई है।
भारत लगभग 2025 मिलियन वर्ग कि. मी. के आर्थिक क्षेत्र (ईईजेड) सहित 8,118 कि. मी. की तट रेखा और 0,53 मिलियन वर्ग कि. मी. के महाद्वीपीय क्षेत्र से युक्त संपदा से संपन्न है। वर्ष 1950– 51 के दौरान 0.53 मिलियन टन से बहुत कम मत्स्य प्रग्रहण की स्थिति से वर्ष 2016 में 3.63 मीट्रिक तन के प्रग्रहण स्तर पर पहुँचने का सफर इस अवधि में देश ने तय किया है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि पिछले छ: दशकों में उल्लेखनीय प्रगति देखने को मिली है। यह प्रगति मत्स्यन बेड़ों के आकार में क्रमिक वृद्धि, मत्स्यन पोतों के प्रौद्योगिकिय उन्नयन, क्षमतायुक्त मत्स्यन गियरों के प्रयोग मछली प्रग्रहण केन्द्रों के विकास और मूल्य श्रृंखला के सुदृढ़करण से प्राप्त की जा सकी है। वर्तमान में समुद्री मत्स्य संवर्धन, मछली उत्पादन के प्रमुख स्रोत के रूप में उभर रहा है, यह तटीय निवासियों की आय बढ़ाने तथा रोजगार सुरक्षा का समक्ष उपाय भी है।
समुद्री मात्स्यिकी क्षेत्र भारत के उपमहाद्वीप के पूर्व तथा पश्चिम तटों के 3,288 मत्स्यन गांवों के 8.64 लाख मछुआरा परिवारों के करीब 4 मिलियन लोगों को रोजगार प्रदान करता है। मात्स्यिकी जनगणना, 2010 के अनुसार तटीय क्षेत्र में रहने वाले लगभग 61.1 प्रतिशत लोगों मत्स्यन एवं इससे जुड़े हुए कार्यों में लगे हुए हैं। इनमें से 38 प्रतिशत सक्रिय मछुआरे हैं। इसमें करीब 7.9 लाख लोग पूर्णकालिक मछुआरे, 1.35 लाख अंशकालिक मछुआरे और 0.64 लाख लोग मछली संततियों के संग्रहण कार्य में लगे हूइए हैं। इसके अतिरिक्त बहुसंख्यक लोग मत्स्यन से जुड़े हुए अन्य कार्यों जैसे मछली के प्रग्रहण उपरोक्त प्रसंस्करण, यान एवं गियर के निर्माण, अनुरक्षण, मत्स्यन उपकरणों की आपूर्ति, परिहवन एवं संचालन आदि से जुड़े हुए हैं।
प्रति ट्रिप के आधार पर हाल ही में किये गये निर्धारण से यह देखा गया कि एकल दिवसीय मत्स्यन से प्राप्त सकल आय तटीय आधार पर यान एवं संभारों के संयोजनों के अनुसार 1,000 से 50,000 रूपये है। इसका मतलब है कि औसत प्रति दल का हिस्सा 120 से 4,500 रूपये के बीच है। बहुदिवसीय मत्स्यन में प्रति दल का हिस्सा 2 -5 दिनों के प्रति ट्रिप के लिए 1,200 से 19,000 रूपये के बीच है। इस क्षेत्र में कई और समस्याएं, विशेषता: मोटरीकृत एवं नॉन – मोटरीकृत क्षेत्रों में. जिनकी वजह से जीवन निर्वाह के लिए केवल मामूली आय मिलती है।यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि सक्रिय मछुआरों का 67 प्रतिशत हिस्सा अयंत्रीकृत सेक्टर का है और इनमें अधिकांश केवल जीवन निर्वाह के स्तर तक ही आय अर्जन कर पाते हैं। लेकिन ऊपर बताये जाने के अनुसार प्रति ट्रिप से मिलने वाली आय कमाई का केवल एक भाग होता है। एक यंत्रीकृत मत्स्यन नाव के सही मत्स्यन दिवस की सालाना संख्या बंद मौसम, बेमौसम, नाव एवं संभार के अनुरक्षण की अवधि, धार्मिक छुट्टिययों के दिनों को छोड़कर सामान्य तौर पर 200 से 250 दिवस है। नॉन - मोटरीकृत पोतों के लिए भी अधिकतम मत्स्यन दिवस 250 – 280 तक सीमित है। अत: मछुआरे के प्रति दिन औसत आय ऊपर दिए गये आकलन से काफी कम है अन्य कई सेक्टरों से विभिन्न, मछुआरों को अपने दैनिक जीवन में कई तरह की समस्याओं से जूझना पड़ता है। तटीय प्रांतों में रहने वाले मछुआरों के पास उत्पादनशील संपत्तियां जैसे - भूमि, पशु धन आधी नहीं हैं। अत: अधिकांश मछुआरे आय के लिए वैकल्पिक अवसरों के बिना, लगातार आय के लिए संघर्ष करने वाले हैं। अत: मछुआरों के सीमित तटीय वातावरण के अंदर उनकी आजीविका बढ़ाये जाने लायक वैकल्पिक उपायों को ढूंढना उचित होगा।
विविध प्रकार की उपलब्धियों और आशाजनक भविष्य की क्षमता होने पर भी भारत में समुद्री मात्स्यिकी का क्षेत्र विविध प्रकार की चुनौतियों का सामना कर रहा है। खुली – पहुँच में संपदाओं के लिए गहन स्पर्धा, बहु – गीयर, बहुप्रजातियाँ आदि प्रसंगों से अप्रत्यक्ष बेरोजगारी, प्रग्रहण दर में गिरावट, कम उत्पादन, अतिमत्स्यन और शिशु मछलियों की पकड़ जैसे कई समस्याएं व्यापक होने लगी हैं। इसकी वजह से मत्स्य स्टॉक का ह्रास और समुद्री आवास तन्त्र का विनाश होआ है। इसके अतिरिक्त पिछले आधे दशक से लेकर इस क्षेत्र में ऊर्जा के अधिक उपयोग होने से कार्बन फुटप्रिंट का प्रभाव भी होने लगा। हाल ही में, इस तरह की अनिश्चित गहनताओं के नकारात्मक बाहरी कारकों से मत्स्य प्रग्रहण में गिरावट होने लगी है। ये घटक निकट भविष्य में तटीय मछुआरों की सूभेद्यता, विशेषत: लघु और सीमांत मछुआरों की आय रोजगार सुरक्षा पर खतरे की ओर इशारा करते हैं।
भारत का अनन्य आर्थिक क्षेत्र (ईईजेड) का अभी पूर्ण रूप से उपयोग नहीं किया जा सका है। टूटना, बैराकुडा, रेइनबो रन्नर, बिलफिश, पेलाजिका सुरा जैसे बड़ी मछलियों और अधिक व्यवासायिक महत्व वाली महासागरीय स्क्विड के लक्षित विदोहन से मत्स्य उत्पादन बढ़ाने की काफी गूंजाइश है। भारत के अनन्य आर्थिक क्षेत्र महासागरीय और इससे जूडी हुई प्रजातियों की संभावित प्राप्ति 2.08 टन आकलित की गयी है। इन संपदाओं के टिकाऊ प्रग्रहण किये जाने से मछुआरों की आय बढ़ाई जा सकती है। इस दिशा में कुछ उपाय यहाँ दिए जा रहे हैं; 1) गहरे सागरीय मत्स्यन पोतों के विकास एवं परिनियोजना के लिए सरकार की सहायता सुनिश्चित करना 2) गहरे सागर के मत्स्यन तरीकों और तकनीकों के बारे में प्रत्याशित उद्यमियों और मछुआरों को प्रशिक्षण देना 3) गहरे सागर की संपदाओं और शक्य लाभार्थी समूहों के प्रग्रहण की रूपरेखा और दृष्टिकोण पर प्रकाश डालने लायक राष्ट्रीय मत्स्यन नीति तैयार करना और 4) इस तरह विकसित गहरे सागर मत्स्यन बेड़ों के लिए संचालन नीति और विपणन समर्थन विकसित करना।
उचित प्रकार कके परिवर्तन और उन्नयन के माध्यम से वर्तमान मत्स्यन बड़ों की क्षमता बढ़ाने और आधुनिक यान और गियरों के उपयोग करने से समुद्र में लाभदायक एवं उत्तरदायित्वपूर्ण मात्स्यिकी संभव है। भाकृअनुप – सीआइएएफटी द्वारा विकसित कम लागत के ईंधन क्षमतायुक्त तथा सौर ऊर्जा से परिचालित मत्स्यन पोतों के उपयोग और आधुनिक मत्स्यन पोतों के उपयोग और आधुनिक मत्स्यन पोतों के उपयोग और आधुनिक मत्स्यन गियरों जैसे किशोर मछली को अलग करने से युक्त और कट एवं टोप बेल्ली चिंगट आनायक के उपयोग से मछुआरे निवेश का कुशल उपयोग कर सकते हैं और लागत भी कम कर सकते हैं। इन प्रौद्योगिकियों से किशोर मत्स्यन और उप – पकड़ कम किये जा सकते हैं। विभिन्न तटीय क्षेत्रों में इन प्रौद्योगिकियों की अनुकूलता पर जाँच की जानी है और सफल प्रौद्योगिकियों का उचित उपायों के माध्यम से प्रचार किया जाना आवश्यक है।
समुद्री संवर्धन के समुद्र में नियंत्रित वातावरण में समुद्री जीवों के पालन से मछली की बढ़ती हुई मांग की पूर्ती करने पर आधारित है। इस दिशा में कुछ आशाजनक विकल्प हैं; समुद्री पिंजरों में मछली पालन, समुद्री शैवाल का उत्पादन, एकीकृत बहु पौष्टिकता जलजीव पालन (आईएमटीए), शंबू और शूक्ति पालन, अलंकरित मछली उत्पादन और मोती उत्पादन आदि।
खुले समुद्र की उच्च मूल्य वाली मछली प्रजातियों के पालन द्वारा आय बढ़ाने पर ध्यान दिया जाना एक अच्छा विकल्प कहा जा सकता है। खुले समुद्र में पिंजरा मछली पालन से सीएमएफआरआई ने कोबिया, पोम्पानो, ग्रूपर, समुद्री बास आदि व्यवासायिक मछलियों का समुद्री पिंजरों में पालन करने की तकनीक विकसित करने और प्रौद्योगिकी का प्रदर्शन करने में काफी सफलता हासिल की है। संस्थान द्वारा देशीय तौर पर दो तरह के पिंजरे विकसित किये गये हैं। एक पालन अवधि के दौरान 6 मीटर के व्यास के पिंजरे में औसत 2 – 4 टन मछली का पालन और उत्पादन किया जा सकता है। पालन की जाने वाली मछली प्रजाति के अनुसार प्रति मत्स्य पालन से प्राप्त सकल आय 1.5 लाख रूपये से 4 लाख रूपये तक है। भारत के कई समुद्रवर्ती राज्यों में प्रदर्शन करने के बाद पिंजरा मछली पालन को देश के कई भागों में आशाजनक प्रचार मिल रहा है। तटीय क्षेत्रों के कई मछुआरा समूह और विकास एजेंसियां निकट भविष्य में पिंजरा मछली पालन करने के लिए आगे आये हैं।
समुद्री शैवाल मानव आहार या खाद्य योजकों में प्रसंस्करण के लिए उपयोग किये जाने वाले एगार और कैरागीनन जैसे हाइड्रोकोलोइडों का पालतू भोजन, खाद्यों, उर्वरकों, जैव ईंधन, सौन्दर्यवर्धक सामग्रियों और औषधों में प्रयोग किया जाता है। काप्पाफाइकस और यूकिमा जैसे लाल शैवाल प्रजातियाँ लगभग 20 से अधिक देशों में उत्पादित की जाती है। बहुत ही सरल प्रौद्योगिकी और कम निवेश से इसका उत्पादन किया जा सकता है और सीमांत तटीय लोगों की सामाजिक – आर्थिक स्थिति में सुधार लाने में यह सक्षम भी है।
इस परिवेश में और एक अवधारणा सीएमएफआरआई द्वारा प्रारंभ किया गया एकीकृत बहु पौष्टिक जलजीव पालन है, जिसमें समुद्री शैवाल पैदावार के साथ उचित अनुपात में पख मछलियों/चिंगट और शाकाहारी मछलियों का पालन किया जाता है आईएमटीए द्वार समुद्री पिंजरा मछली पालन से होने वाली नकारात्मक बाहरी कारकों का शमन करने और समुद्री शैवाल की बेहतर प्राप्ति की जा सकती है। इस तकनीक से प्रति पैदवार चक्र की दौरान समुद्री शैवाल की प्राप्ति 110 कि. ग्रा. तक होती है और इससे आय में भी वृद्धि होती है। पाक उपसागर क्षेत्र में लगभग 100 मछुआरों ने यह प्रौद्योगिकी अपनाई है।
शंबू और शूक्ति की उच्च लाभप्रदता की वजह से केरल, कर्नाटका,गोवा और महाराष्ट्र के बैकवाटर में इनका पालन क्रमिक रूप से प्रचलित हो रहा है। शंबू और शूक्ति पालन के लिए स्टेक पालन, ऑन – बोटम पालन, लंबी डोर पालन, बेड़ा, पालन, रैक में पालन के बीज रोपित 200 रस्सियों के प्रति एकक से करीब 88,000 रूपये की आय प्राप्त की जा सकती ई। इस दिशा में एक और आशाजनक उद्यम है। अलंकारिक मछली पालन और मोती उत्पादन, जिनके लिएअब प्रौद्योगिकी में सुधार लाया गया है।
कृषि एवं इससे जुड़े हुए क्षेत्र में खेती मूल्य श्रृंखला की प्रमुख भूमिका है। समूदिर म मात्स्यिकी के क्षेत्र में मूल्य संवर्धन विकास के हस्तक्षेपों की व्यापक श्रृंखला प्रारंभ की जा सकती है। इनके द्वारा मछली तथा मात्स्यिकी उत्पाद अच्छी गुणता के साथ उपभोक्ता तक पहुँच जाते हैं। मत्स्यन नावों में हिमशीतीकरण की आधुनिकी सुविधाएँ तथा मूल्य श्रृंखला के मुख्य घटकों जैसे रीफर, लघु रिटेल आउटलेट, वाहन लघु पैमाने के मछली व्यवहार तथा प्रसंस्करण एकक आदि की सुविधायें होनी चाहिए। विपणन की गयी मछली की गुणवत्ता का नियंत्रण इस दिशा में जरूरी ध्यान देने की आवश्यकता होने वाली प्रमुख समस्या है।
भारत में मत्स्यन की क्षमता बढ़ाई जाने हेतु आधुनिक वैज्ञानिक एवं तकनीकी उपलब्धियों, विशेषत: अंतरिक्ष विज्ञान और सूचना प्रौद्योगिकी का प्रभावी उपयोग किया जा सकता है।इस प्रकार मछुआरों की आय बढ़ायी जा सकती है। इस तरह का एक आशाजनक हस्तक्षेप है शक्य मत्स्यन क्षेत्र (पीएफजेड) परामर्श का विस्तार।
सारणी 1 भारत में मात्स्यिकी के उप – क्षेत्रों का अवलोकन
विवरण के मुख्य प्रकार |
यंत्रीकृत |
मोटरीकृत |
गैर मोटरीकृत |
गियर के मुख्य प्रकार |
आनाय जाल, गिल जाल, कोश संपाश, कांटाडोर, |
वलय संकोश, संपाश नाव संपाश, काँटाडोर, डोल जाल ड्रिफ्ट जाल, लंबी डोर |
काँटा डोर, पॉल एंड लाइन,बैग जाल, लंबी डोर |
कुल मत्स्य प्रग्रहण में योगदान (प्रतिशत) (2010) |
82 |
17 |
1 |
मत्स्यन यानों की संख्या (2010) |
72559 |
71,313 |
50, 618 |
इन्वेन्टरी का आंकलित मूल्य (करोड़ में) (2015) |
20,810 (92 प्रतिशत) |
1,498 (7 प्रतिशत) |
354 (1 प्रतिशत) |
लगे हुए सक्रिय मछुआरों की संख्या (लाखों में) (2010) |
3.27 (33 प्रतिशत) |
6.14 (62 प्रतिशत) |
0.49 (5 प्रतिशत) |
लेखक : शिनोज पारप्पूरत्त, ग्रीनसन जोर्ज, आर. नारायणकुमार और एन. अश्वति
स्त्रोत: पशुपालन, डेयरी और मत्स्यपालन विभाग, कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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