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सौरिया पहाड़िया

परिचय

सौरिया पहाड़िया झारखण्ड की एक आदिम जनजाति है, जो मुख्य रूप से संथाल परगना प्रमंडल के साहेबगंज, पाकुड़, गोड्डा, दुमका तथा जामताड़ा जिलों में निवास करती है। इसके सिवा इस जनजाति की कुछ आबादी राँची, प्. सिंगभूम तथा धनबाद जिलों में भी पायी जाती है। इस अनुसूचित जनजाति की कुछ आबादी बिहार के सहरसा, कटिहार तथा भागलपुर जिलों में भी पायी जाती है। संथाल परगना के दामिन – ई – कोह (पहाड़ का आंचल) के उत्तरी भाग, जिसका अधिकांश हिस्सा राजमहल की पहाड़ियों से आच्छादित है, इस जनजाति का मुख्य संकेन्द्रण है। राजमहल की पहाडियों की गोद में निवास करने वाली सौरिया पहाड़िया जनजाति को इस क्षेत्र का आदिवासी माना जाता है। चन्द्र्गुप्त मौर्य के समय (302 बी.सी) मेगास्थनीज ने अपने भारत भ्रमण के दौरान राजमहल पहाड़ियों के अधोभाग में रहने वाली जंगली आदिम जातियों का उल्लेख माल्ली (मानव) या सौरि के रूप में किया है, जो अब अपने को मलेर या सौरिया पहाड़िया कहा करते हैं, इस जनजाति का कद नाटा, नाक चौड़ी, कपाल दीर्घ, रंग हल्के भूरे तथा बाल घुंघराले व लहरदार होते हैं। यह जनजाति प्रोटोआस्ट्रोलॉयड प्रजातीय तत्वों का संधारण करती है।

सौरिया पहाड़िया जनजाति मालतो बोली बोलती है, जो द्रविड़ भाषा समूह से संबंधित है। मालतो उराँव जनजाति की बोली कुरूख से काफी मिलती है। इतिहासकारों तथा भाषाविद के मत है कि सौरिया पहाड़िया छोटानागपुर की उराँव जनजाति की एक शाखा है। शरतचंद्र राय के मतानुसार ये लोग दक्षिण भारत से विद्यांचल पर्वत श्रेणी को पर कर नर्मदा नदी के उर्ध्व प्रवाह का अनुसरण करते हुए गंगा को लाँघ कर अरामानगर (आरा) व व्याघरानगर  (बक्सर) में आ बसे तथा मुंडा जनजाति द्वारा खाली किए गये। रोहतास गढ़ तक फ़ैल गये। वहां उन्हें मुस्लिम दुश्मनों से संघर्ष करना पड़ा, जिसके कारण वे दो शाखाओं में बिखर गए। इसकी एक शाखा (उराँव) मुंडाओं के मार्ग का अनुसरण कर छोटानागपुर में जा बसी, जबकि दूसरी शाखा (सौरिया पहाड़िया) गंगा की अधोगामी प्रवाह के अनुसरण करते हुए राजमहल की पहाडियों के बीच रहने लगी।

सौरिया पहाड़िया कई शताब्दियों तक अपने पड़ोसियों से अलग – थलग रही। अंग्रेजों के आगमन के पहले  भौगोलिक आलगाव के कारण सौरिया पहाड़िया अपनी स्वत्रंता को कायम रख सकी। राजमहल की पहाड़ियों के निवासी कभी भी मुगलों की अधीनता में नहीं रहे। ऐसा माना जाता है कि वृहत पहाड़ी भू- भाग होने के कारण मुगल प्रशासक कभी भी इस जंगली क्षेत्र में प्रवेश न सके। 1742 ई. में मराठों ने भी राजमहल क्षेत्र में पर आक्रमण किया था।

1779 ई. में क्लेवलैंड भागलपुर जिले का कलक्टर बना तो, इस भू – भाग को व्यक्तिगत संपर्क तथा सहानूभूति के आधार पर ब्रिटिश साम्रज्य के अधीन कर लिया।

जनसंख्या

सौरिया पहाड़िया जनजाति की जनसंख्या वृद्धि के प्रवृति 1901 से 2011 तक निम्नवत रही है –

तालिका – 1

सौरिया पहाड़िया जनजाति की जनसंख्या

वृद्धि दर (1901 – 2011)

जनसंख्या वर्ष

जनसंख्या

दशक

जनसंख्या वृद्धि दर (प्रतिशत में)

1901

47,066

1901 – 11

+33.29

1911

62,734

1911 – 21

-11.37

1921

55,600

1921 – 31

+7.72

1931

59,891

1931 – 41

-2.07

1941

58,654

1941 – 51

-

1951*

...

1951 – 61

-

1961

55,606

1961 – 71

+6.19

1971

59,047

1971 – 81

-33.49

1981

39,269

1971 – 88

+11.15

1988**

65,629

1981 – 91

-37.22

1991

47,826

1991 – 2001

-54.03

2001

31,050

2001 – 2011

+48.86

2011

46,222

 

 

 

*1951 जनगणना के दौरान राज्य में जनजातिवार जनगणना नहीं की जा सकी थी।

**1981 की जनगणना के समय पहाड़िया जनजाति की अलग से जनगणना न होने के कारण जिला प्रशासन द्वारा 1988 में अलग से विशेष अभियान चलाकर सौरिया तथा माल पहाड़िया की जनगणना की गयी थी।

1981 की जनगणना के अनुसार सौरिया पहाड़िया जनजाति की संपूर्ण जनसंख्या का 99.40 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में तथा मात्र 0.60 प्रतिशत शहरी क्षेत्रों में रहती थी।

1981 की जनगणना के अनुसार इस जनजाति का लिंगानुपात 979 (ग्रामीण क्षेत्र में -981 तथा शहरी क्षेत्र में – 864) पाया गया था।

1981 की जनगणना के समय अविभाजित बिहार में सौरिया तथा माल पहाड़िया जनजतियों की जनगणना पूर्णत: पृथक रूप से न किए जाने के कारण जिस प्रशासन द्वारा 1988  ई. में विशेष अभियान चलाकर इनकी अलग – अलग जनगणना की गयी, जिसके आधार पर सौरिया पहाड़िय की कुल जनसंख्या 65,629 पायी गयी थी।

यू. पी. सिन्हा (1963 – 97) ने अपने अध्ययन में सौरिया पहाड़िया जनजाति के बीच अशोधित जन्म दर, अशोधित मृत्यु दर तथा शिशु मृत्यु दर क्रमशः 66.83, 16.71 तथा 214 पाया था।

वास स्थान

सौरिया पहाड़िया जनजाति के अधिकांश गाँव लहरदार पहाडियों की चोटियों पर तथा जंगल से भरे पहाड़ी ढलानों पर बसे होते हैं। तराई के समतल भू – भाग  में इनकी बस्तियां बहुत कम हैं। इनके गाँव छोटे तथा बिखरे हुए होते हैं, जिसमें 10 से 40 परिवार निवास करते हैं। यह जनजाति प्राय: बांस, खर – पतवार तथा मिट्टी से निर्मित छोटी – छोटी आयताकार झोपड़ियों में रहा करती है, जिसमें प्राय: एक ही कमरे हुआ करते हैं। इस कमरे का उपयोग सोने, पकाने तथा अन्न भण्डारण के लिए किया जाता है। झोपड़ी  के कोने में मिट्टी में निर्मित एक चूल्हा होता है, इसके इर्द – गिर्द बर्तन तथा अनाज संग्राहक रखे होते हैं। चुल्हे के उपर प्राय: मकई के बाल लटकाकर रखे जाते हैं, ताकि गर्मी के कारण उनमें कीड़े न लग पायें। कभी - कभी मकई के बालों को मकान के बाहर खुले प्रांगण में बांस से विशेष प्रकार से निर्मित मचाननुमा घेरे के अंदर भी रखा जाता है।

पोषक तथा आभूषण

सौरिया पहाड़िया पुरूषों के लिए परंपरागत पोशाक धोती, गंजी व पगड़ी तथा महिलाओं के लिए साड़ी तथा टोपवारे हैं। किन्तु अब पुरूष पैंट, शर्ट, लुंगी तथा तथा महिलाएं साड़ी के साथ पेटीकोट, ब्लाउज तथा ब्रेसियर का भी प्रयोग किया करती है। सौरिया पहाड़िया महिलाऐं प्राय: पीतल का आभूषण पहनती हैं। अंगटी (अंगुठी), मुआन अंगटी (नकबेसर), हंसुली (गलेहार), काददू (चूड़ी), इरपिन (पिन), कदवे अंगटी (कानबाली, माला, सूकी (सिक्के का माला). कोकटो (पायल) इत्यादि सौरिया पहाड़िया महिलाओं के गहने हैं। इसके बीच गोदना गोदवाने की भी प्रथा रही है।

सामाजिक जीवन

सौरिया पहाड़िया जनजाति एक अन्तर्विवाह जनजाति है, जिनके बीच गोत्र जैसी सामाजिक इकाई का अभाव है। इस जनजाति के परिवार पितृसतात्मक, पितृवंशीय तथा पितृस्थानीय होते हाँ। इनके बीच एकाकी परिवार की बहुलता होती है तथा संयुक्त परिवार बहुत कम देखने को मिलते हैं। विवाह के बाद प्राय: लोग अपना - अलग घर बसा लेते हैं। इनके बीच एक पत्नी विवाह का प्रचलन है, किन्तु बहुपत्नी विवाह भी इनके बीच अपवाद नहीं है। संपति का उत्तरधिकारी पुत्र होता है। सौरिया पहाड़िया महिलाऐं, पुरूष की अपेक्षा ज्यादा परिश्रमी होती हैं। इन्हें गृहकार्यों के साथ – साथ कृषि व अन्य व्यवसायिक कार्यों का संपादन करना पड़ता है। ये हाट – बाजारों में खरीद बिक्री की कला में भी संपादन करना पड़ता है। ये हाट – बाजारों में खरीद बिक्री की कला में भी दक्ष होती हैं। इनके बीच नारी स्वतंत्रता की झलक स्पष्ट रूप में देखने को मिलती है। सौरिया महिलाऐं धार्मिक कृत्यों तथा पंचायत की बैठकों में शरीक नहीं होती।

नातेदारी

सौरिया पहाड़िया जनजाति में गोत्र नहीं पाया जाता है। गोत्र व्यवसाय के अभाव में विवाह तय करने के क्रम में नातेदारी को ध्यान में रखा जाता है। माता – पिता की तीन पीढ़ियों तक संबंधियों के बीच प्राय: विवाह नहीं किए जाते है। इनके बीच वर्गात्मक संबंध सूचक संज्ञाएँ पाए जाते हैं। पिता तथा माता के बड़े भाई के लिए पिपो तथा उनकी पत्नियों के लिए पेनी संबोधन शब्दों से पुकारा जाता है। इसी माता के छोटे भाई की पत्नी को एक ही नातेदारी संज्ञा काली से पुकारा जाता है।

जहाँ तक नातेदारी के नियामक व्यवहार का प्रश्न है, इस जनजाति के बीच सास, ससुर, भावज, पत्नी के बड़े भाई की पत्नी तथा पत्नी की बड़ी बहन के साथ परिहार संबंध पाए जाते हैं तथा साली, भाभी तथा देवर के साथ परिहास संबंध देखने को मिलते हैं। इस जनजाति के बीच साह – प्रसविदा प्रथा का प्रचालन रहा है, जिसके अनुसार पति पत्नी के प्रसव के दौरान घर के बाहर नहीं निकलता और न दाढ़ी तथा बाल कटवाता है। साह प्रसविता काल प्रसव के पाँचवे दिन खत्म हो जाता है।

जन्म संस्कार

सौरिया पहाड़िया जनजाति में शिशु के जन्म के पांचवें दिन माँ सांक शेटी (छट्ठी) मनाये जाने की प्रथा है। इसे मनाये जाने के पहले तक शिशु को माँ को घर की चीजें छुने की मनाही होती है। इन दिनों शिशु के पिता जच्चे – बच्चे की देखभाल करता है। इस अवधि में यह न तो कोई काम करता है और न दूसरे के घर परिवार के अन्य सदस्य भी इस अवसर पर नहाते हैं। इस दिन प्रसौती भोजन बनाकर रखा शिशु का नाम प्राय: दादा – दादी, नाना – नानी, चाचा – चाची, तथा मामा – मामी के नाम पर कि वास्तविक नाम भूत – प्रेत द्वारा जान लेने पर वे हानि पहुंचाएंगे, इसलिए  उन्हें धोखा देने के लिए शिशु का एक दुसरा नाम रख दिया जाता है।

विवाह

सौरिया पहाड़िया जनजाति के बीच गोत्र नहीं होते, किन्तु विवाह निकट के सम्बन्धियों के साथ सम्पादित नहीं किए जाते। चचेरे, फुफेरे या ममेरे भाई – बहनों के बीच शादी नहीं की जाती है। इनके बीच एक ही गाँव में विवाह किया जाना बुरा नहीं माना जाता है।

इनके बीच देवर और भाभी तथा साली और जीजा के साथ पुनर्विवाह की प्रथा है। इनके बीच एक विवाह का प्रचलन है, किन्तु बहुपत्नी विवाह बिल्कुल अपवाद नहीं है। इस जनजाति के बीच विधवा विवाह तथा तलाक की भी प्रथा पायी जाती है। प्राय: बाँझपन, नापूंसकता, काहिलपन, दुर्व्यवहार इत्यादि तालक के कारण होते हैं। इनके बीच अधिकांश विवाह वर – वधू की पंसद पर ही होता है। विवाह के लिए वर पक्ष की ओर से एक सिटू (अगुवा) मध्यस्थता कर दोनों पक्ष से बातचीत कर विवाह तय करता है। वधू – मूल्य भी इस की अगुवाई में निर्धारित किए जाते हैं। नगद राशि के रूप में दिया जाने वाला वधू मूल्य पोन तथा माल के रूप में दिया जाने वाले वधू – मूल्य बंदी कहलाता है। पोन प्राय: 10 रू. से लेकर दो सौ रूपये तक दिए जाते हैं। पोन के अलावे एक सुअर, चावल – दल तथा अन्य खाद्यान तथा कपड़े भी दिया जाते हैं। विवाह के दिन सुनिश्चित कर दिए जाने के बाद गांव के निवासियों तथा संबंधियों के साथ बारात कन्या के गाँव जाती है।

बारात में पालकी तथा बाजे – गाजे का प्राय: अभाव होता है। लोग साधारण वेश – भूषा में ही पैदल बारात जाते हैं। कन्या के गाँव बारात के पहुँचने पर सबसे पहले वर के पांव पखारे जाते हैं तथा बारात को घर पर बैठाया जाता है। रात्रि को बारात तथा गाँव के लोगों के समक्ष विवाह संपन्न होता है। वर को पूरब मुंह तथा वधू को पश्चिम मूँह आमने – सामने बैठाकर वधू को हाथ में वर की ओर से एक रूपया तथा एक सफेद माला की दो - तीन लड़ियाँ प्रदान की जाती है जिसे वधू स्वीकार करती है। बेद सिटू (पुरोहित) विवाह के रस्म पूरी करता है। बेद सिटू वर के दाहिने हाथ की सबसे छोटी अंगूली में सिंदूर लगा देता है जिसे वर वधू कपाल तथा नाक पर योग चिन्हाकर टिका के रूप में लगा देता है। इसके बाद वधू  के हाथों को धोकर बेद सिटू के हाथों में सौंपते हुए वधू के पिता कहते हैं कि लड़की हम आपको सौंपते हैं, जिसे आप ले जायें तथा इसका भरण पोषण करें। बेद सिटू भी उसी प्रकार को वधू को वर के पिता अथवा वर के हाथ में सौंपता है। इस प्रकार विवाह की रस्में पूरी की जाती है।

विवाह के बाद एकत्रित लोगों को भोज दिया जाता है। वर – वधू को एक साथ एक ही थाल में भोजन कराया जाता है। इस भोज के बाद कन्या की बिदाई होती है। घर से विदाई के बाद नव दंपति झंडी गोसाई के स्थान पर थोड़ी देर बैठती है जहाँ गाँव का भंडारी नव – दंपति की मंगल कामना तथा प्रार्थना करते हुए झंडी गोसाई, बेरू गोसाई (सूर्य) तथा बलूप गोसाई (चंद्र देव) के नाम से जल तथा एक मुर्गी की बलि चढ़ाता है तथा मुर्गी के खून के छींटे देवताओं के आशीर्वाद स्वरुप नव दंपति छिड़के जाते हैं। इसके बाद नवदंपति बारात के साथ अपने गाँव के लिए प्रस्थान करती है।

वर के गाँव के पहुँचने पर नव दंपति सबसे पहले अपने गाँव के झंडी गोसाई स्थान में जाती है जहाँ भंडारी के द्वारा देवी देवता को जल तथा मुर्गी की बलि चढ़ाई जाती है तथा विवाहित जोड़ी को आशीर्वाद दिया जाता है। इसके बाद वे अपने घर जाते हैं।

विवाह के पांचवें दिन नवदंपति बेद सिटू के साथ कन्या के पिता के घर जाती हैं तथा साथ में पोचाई (हड़िया) तथा एक मारा हुआ बकरा या मारा हुआ सुअर भी ले जाया जाता है, जिससे एक प्रीति -  भोज का आयोजन किया जाता है। भोजन के बाद नवदंपति उसी दिन अपने घर लौट जाती है, जहाँ वे अपने गृहस्थ जीवन की शुरूआत करते हैं।

सौरिया पहाड़िया जनजाति के बीच कन्या का हरण कर विवाह करने की भी प्रथा पाई जाती है। जब कभी किसी गाँव में कोई उत्सव का आयोजन होता है तो प्रेमी युगल आपस में मिलते है तथा वहीँ से सीधे वर के घर पहुँच जाते है। बाद में जब कन्या पक्ष की ओर से इनकी खोज होती है तो कुछ राशि कन्या मूल्य के रूप में कन्या के पिता को दे दी जाती है।

इस जनजाति के बीच विनिमय विवाह, सेवा विवाह तथा घर जमाई विवाह का भी प्रचलन है। विनिमय विवाह के अंतर्गत दो वर अपनी बहन को पत्नी के रूप में अदला बदली करते हैं। इस प्रकार के विवाह में पोन नहीं दिये जाते है।  सेवा विवाह के अंतर्गत वर होने वाली पत्नी के पिता के घर जाकर एक निश्चित अवधि तक सेवा करता है। वधू मूल्य के समतुल्य सेवा पूरी कर देने बाद अपना गाँव लौटता है। इसके बाद सिटू के मध्यस्थता से उसका विवाह संपन्न हो जाता है।

घर जमाई के लिए पुत्रहीन माता पिता वर को दहेज के रूप में कुछ रूपये तथा कपड़े प्रदान करते हैं। विवाह के बाद वर वधू के माता पिता के साथ ही रहता है।

इस जनजाति में विधवा विवाह का प्रचलन है। विधवा विवाह में वधू मूल्य की राशि अपेक्षाकृत कम होती है।

वाद्य यंत्र

बंसली (वंशी), बानम (वायलिन), खैलू (ढोल) इत्यादि सौरिया पहाड़िया जनजाति के प्रमुख वाद्य यंत्र है। विवाह तथा अन्य उत्सवों पर यह जनजाति बड़े ही उत्साह के साथ नाचती – गाती है।

मृत्यु संस्कार

मृत्यु होने पर मृतक को उसके खाट पर ही श्मशान ले जाया जाता है तथा मृत व्यक्ति को उसके द्वारा उपयोग में लाई जाने वाली सभी वस्तुयें जैसे लाठी, कपड़े, तीर धनुष, कुल्हाड़ी इत्यादि सौंप दी जाती है। इस जनजाति का विश्वास है कि मृत व्यक्ति को परलोक में भी इन चीजों की जरूरत होती है।

इस जनजाति के बीच के शव को गाड़ने तथा जलाने दोनों ही रिवाज प्रचलित हैं। चेचक, हैजा, कुष्ठ इत्यादि बीमारियों से मरे मृतक की लाश को जंगल में यूं ही छोड़ दिया जाता है। मृतक की चिता पूर्वं पश्चिम बनाई जाती है। मृतक का सिर पश्चिम की ओर रखा जाता है। शव को गाड़ने के बाद कब्र पर बड़े – बड़े पत्थर रख दिए जाते हैं जिसे चारों कोनों पर थोड़ी सी मछली या मुर्गी का मांस तथा मकई की खिचड़ी रखकर उपर से आग रख दी जाती है। इसके कृत्य के संपादन के बाद लोग किसी तालाब में स्नान के घर लौट आते हैं। मृत्यु प्रदूषण पांच दिनों का होता है। श्राद्ध के दिन पुरूष बाल दाढ़ी मुंडवाते हैं तथा स्त्री – पुरूष सभी झरने में स्नान करते हैं। इस अवसर पर गाँव के निवासी तथा रिश्तेदारों को आमंत्रित कर भोज दिया जाता है। भोज पर प्राय: बकरा, सुअर या मुर्गे के गोस्त तथा हड़िया खाए पीये जाते हैं इस अवसर पर लोग रात भर नाचते गाते हैं। सबेरा होने पर देवासी (पुजारी) निकट के किसी तालाब या नदी में जाकर मृत व्यक्ति की आत्मा की शान्ति के लिए देवी देवताओं की प्रार्थना करता है। मृत्यु के एक वर्ष बाद वार्षिक भोज दिया जाता है। इस अवसर पर भी ग्राम वासियों तथा रिश्तेदारों के लिए भोज का आयोजन किये जाने की प्रथा रही है। वार्षिक भोज की समाप्ति के बाद ही विधवा पुनर्विवाह कर सकती है।

शिक्षा

सौरिया पहाड़िया जनजाति के बीच युवा गृह जिसे कोडबाह आड़ा (मसर्मक कोडबाह – युवकों के लिए तथा पेलमक कोडबाह युवतियों के लिए गृह) कहा जाता है, एक परंपरागत औपचारिक शिक्षा के केंद्र के रूप में कार्यरत रहा है जिसका युवक युवतियों को सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक तथा आर्थिक शिक्षा प्रदान कर उनके व्यक्तित्व निर्माण की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इस जनजाति की पहचान एक जूझारू काबिले के रूप में रही है, जो हमेशा अपनी स्वतंत्रता को कायम रखने के लिए संघर्षशील रही। आज भी इन पर ईसाई धर्म का प्रभाव नगण्य है।  1981 की जनगणना के अनुसार मात्र 2.59 प्रतिशत सौरिया पहाड़िया ही ईसाई धर्म मानती थी। पहाडियों की चोटी व ढलानों पर दुर्गम जगंली परिवेश में निवास करने के कारण उनके बीच शिक्षा की रौशनी भली भांति नहीं पहुँच पाई है। यद्यपि स्वतंत्रता के बाद सरकारी तौर पर इनके बीच शिक्षा के प्रचार के लिए पहाड़िया कल्याण विद्यालय तथा आवासीय विद्यालय चलाये जा रहे हैं तथा राष्ट्र प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम, अनौपचारिक शिक्षा कार्यक्रम, सर्वशिक्षा अभियान, समेकित बाल विकास सेवा योजना इत्यादि कार्यक्रमों के माध्यम से शिक्षा के प्रसार के लिए प्रयास किए गये हैं।

1981 तथा 1991 जनगणना के अनुसार सौरिया पहाड़िया जनजाति के बीच साक्षरता दर क्रमश: 6.87 तथा 13.29 प्रतिशत रही है। 1981 के जनगणना के अनुसार सौरिया पहाड़िया जनजाति का शिक्षा स्तर निम्नवत है –

तालिका -2

सौरिया पहाड़िया जनजाति का शिक्षा स्तर (1981)

शिक्षा स्तर

शहरी

ग्रामीण

योग

(क) साक्षर (बिना किसी शैक्षिक स्तर

पुरूष

महिला

पुरूष

महिला

पुरूष

महिला

(अ) अनौपचारिक

-

-

59

20

59

20

(क) औपचारिक

15

15

1304

331

1319

346

(ख) प्राथमिक

2

4

486

53

488

57

(ग) मिडिल

9

4

254

20

263

259

(घ) माध्यमिक

10

1

87

5

97

6

(ङ) इंटरमिडिएट

3

2

7

 

1

3

(च) तकनीकी

1

0

1

 

0

0

डिप्लोमा

 

 

 

 

 

 

(छ) स्नातक

0

0

5*

0

0

5

(ज) स्नातकोतर

0

0

0

0

0

0

(झ) अभियंत्रण

1

0

 

0

1

0

(ट) मेडिसी

0

1

0

0

0 1

 

*स्नातक तथा इससे उपर की उपाधि

स्रोत – भारत की जनगणना 1981, सीरिज – 4, बिहार, स्पेशल टेबल्स फॉर शिड्यूल ट्राइब्स।

2001 की जनगणना के अनुसार सौरिया पहाड़िया जनजाति के बीच साक्षरता दर 27.31 प्रतिशत थी।

इनके बीच शिक्षा के प्रसार के लिए सरकारी तथा गैर सरकारी स्तर पर सतत प्रयास करने की आवश्यकता है। इनके बीच चलाए जा रहे विभिन्न परियोजनाओं को ईमानदारी तथा पूरी निष्ठा के साथ क्रियान्वित करना जरूरी है ताकि वे शिक्षा पाकर राष्ट्रीय के मुख्य धारा में शामिल हो सके।

धार्मिक जीवन

सौरिया पहाड़िया जनजाति के बीच पूर्वज पूजा का महत्वपूर्ण स्थान है। आत्मा के पुनर्जन्म में यह जनजाति विश्वास करती है। रिजले (1891:57) ने इस जनजाति के धर्म के स्वरुप को जीववाद कहा है। यह जनजाति बेरू गोसाई (सूर्य) विल्प गोसाई (चाँद), लैहू गोसाई (सृष्टि कर्ता), दर्मारे गोसाई (सत्यदेव), जरमात्री गोसाई (जन्म के देवता) इत्यादि की आराधना किया करती है। लैहू गोसाई इनका सबसे शक्तिशाली देवता है। यह जनजाति भूत प्रेतों की पूजा करती है।

कांदो मांझी, कोतवार तथा चालवे धार्मिक कृत्यों का संचालन करते हैं ऐसा माना जाता है कि इनमें अलौकिक शक्ति निहित है।

इस जनजाति की कृषि आनुष्ठानिक रिवाजों से गहरे तौर पर गुथी होती है। उनका विश्वास है की पहाड़ी परिवेश में भूत – प्रेत का निवास रहता है। कूरवा खेती तैयार करने के लिए जंगल काटते समय परिवार मुख्य इन अज्ञात भूत – प्रेतों को मुर्गी की बलि देकर खुश करता है। उनका विश्वास है की ऐसा नहीं करने पर वे क्रोधित हो जायेंगे तथा चेचक, हैजा बीमारी फैलायेंगे। खेत में बीज बोने के पहले परिवार का मुख्य गोसाई को खुश करने के लिए एक बकरी या एक कबूतर या मुर्गी की बलि चढ़ाया जाता है। घर गोसाई तथा चाल गोसाई की इस अवसर पर कोतवार द्वारा गाँव की ओर से पूजा की जाती है तथा अच्छी फसल के लिए देवता को सुअर की बलि दी जाती  है।

अब धीरे – धीरे सौरिया पहाड़िया जनजाति के परंपरागत धार्मिक स्वरुप में भी तब्दीलियाँ घर कर रही हैं। इनके धर्म, प्रथा तथा परंपराओं के प्रभाव में ह्रास के अभिलक्षण उत्पन्न होने लगे हैं, जिसकी वजह से सामाजिक नियंत्रण में इनकी पकड़ ढ़ीली पड़ती जा रही है।

पर्व - त्यौहार

सौरिया पहाड़िया जनजाति के बीच देवी – देवीताओं को वर्ष का नया अन्न चढ़ाना त्यौहार के रूप में मनाया जाता है। वे मकई की फसल काटने पर गांगिअड़या, घंघरा की फसल होने पर ओसरा आड़या तथा बाजरे की फसल काटने पर पुनु आड़या मानते हैं। भादो माह में गांगि आड़या मनाये जाने की प्रथा है। यह पर्व पूरे गाँव की ओर से मनाया जाता है। इस अवसर पर जाहेर थान में चाल गोसाई में कोतवार द्वारा एक बकरा तथा दो मुर्गियों की बलि दी जाती है जिसके बाद पूरे परिवार में मृत पूर्वजों को, जो चुल्हे के पास स्थापित होता है। एक मुर्गी की बलि दी जाती है। इस पूजा के बाद मकई को भजन के रूप में प्रयोग किया जाता है। कार्तिक गाँव में ओसरा आड़या प्रत्येक सौरिया परिवार द्वारा मनाया जाता है। इस अवसर पर परिवार का मुख्य दिवंगत पूर्वजों को मुर्गी की बलि चढ़ाता है जिसके बाद परिवार के सदस्यों द्वारा घंघरा भोजन के रूप स्वीकार किया जाता है।

पूस माह में पुनु आड़या जोहार थान में चाल गोसाई स्थान में मनाया जाता है। इस अवसर पर गाँव का कोतवाल को गोसाई को एक बकरी की बलि देता है जिसके पश्चात् गाँव के सभी परिवार अलग – अलग पूजा किया करते हैं। परिवार के मुख्य द्वारा इस पूजा के अवसर पर दिवंगत पूर्वजों को मुर्गी की बलि चढ़ाई जाती है। उसके बाद लोग बाजरे को खाना प्रारंभ करते हैं।

इस जनजाति के बीच सलियानी पूजा करने की प्रथा है, जो माघ या चैत माह में की जाती है। इस पूजा के अवसर पर कोतवार द्वारा कंदी गुसाई को एक बकरा, एक सुअर तथा मुर्गी की बलि चढ़ाई जाती है। प्रत्येक छह वर्ष बाद कांदे गोसाई को एक भैंसा की भी बलि चढ़ाने की प्रथा रही है, जिसे कर्रा पूजा कहा जाता है।

धार्मिक कृत्यों के संपादन में सौरिया पहाड़िया महिलाओं की प्राय: कोई सहभागिता नहीं होती।

राजनीतिक जीवन

सौरिया पहाड़िया गाँव का मुख्य मांझी कहलाता है, जो पुजारी का भी काम करता है। गाँव में एक गोडैत होता है, जो भंडारी कहलाता है। प्रत्येक 15 - 20 गांवों पर एक नायक होता है तथा प्रत्येक 70 - 80 गांवों पर एक सरदार का पद होता हैं। सरदारों का क्षेत्र पहाड़ कहलाता है गाँव का मांझी, भंडारी, कोतवार, (पंचायत का व्यवस्थापक) तथा गिरि (गाँव का प्रभावशाली व्यक्ति) गाँव के पंचायत के सदस्य होते हैं। पंचायत सामाजिक कार्यों तथा अपराधों की देख - रेख करती है। सरदार इलाके भर का न्यायकर्ता माना जाता है। सरदार, मांझी तथा गोडैत पद वंशानुगत होता है तथा प्राय: बड़े बेटे को यह पड़ हस्तान्तारिक किया जाता है। गाँव पंचायत सभी धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक मतभेदों का निपटारा प्रथागत नियमों के आधार पर करती है। प्राय: चोरी, अन्य गबन, कौटूम्बिक व्यभिचार, तालाक, भूमि विवाद तथा अभिचार के मामले गाँव पंचायत में लाए जाते है। अंग्रेजी शासन के दौरान सौरिया पहाड़िया जनजाति के परंपरागत पंचायत व्यवस्था के अंर्तगत व्यापक परिवर्तन आया। इष्ट इण्डिया के कंपनी के प्रारंभ में पहाड़िया जनजातीय ने अंग्रेजों को खिलाफ विद्रोह किया था इसे शांत करने के लिए अंग्रेजी शासन ने जो योजना बनाई उसके अंतर्गत पहाड़िया सरदारों, नायकों तथा मांझियों को मासिक वृति दी जाने लगी। मांझियों को गाँव के लगान वसूलने में संलग्न किया गया। सरदारों पर अपने क्षेत्रों पर गैर कानूनी कार्यों की सूचना तथा जन्म मरण आंकड़ों के संकलन का दायित्व सौंपा गया।

स्वंत्रता के बाद पंचायत राज व्यवस्था लागू किए जाने के पश्चात इनके गाँव वैधानिक पंचायतों के अंग हो गये। इन वैधानिक पंचायतों में इनके परंपरागत राजनैतिक जीवन में परिवर्तन के प्रक्रिया को त्वरित किया।

इससे मांझी, नायक तथा सरदारों के परंपरागत राजनैतिक अधिकार को ठेस पहूँचा। इन दिनों सौरिया पहाड़िया जनजाति के राजनैतिक जीवन परंपरागत स्वरूप बिखरने की दिशा में अग्रसर है। वनों से इस जनजाति का सदियों से अट्टू रिश्ता कायम रहा है। नए वन अधिनियमों को लग्गो किया जाने के परिणामस्वरूप वनों पर इनके परंपरागत अधिकार को सीमित कर दिया गया। कालान्तर में इनका संपर्क पुलिस अता अदालतों से भी बढ़ने लगा। न्याय के लिए इस जनजाति के सदस्य इन दिनों वैधानिक पंचायतों तहत सरकारी न्यायालयों का भी शरण लेने लगे हैं। ईसाई सौरिया पहाड़ियों का परंपरागत पंचायत से संबंध कमजोर पड़ गया है। इस जनजाति के परंपरागत पंचायतों का न्यायिक स्वरूप दुर्बल पड़ने लगा है।

लोकसभा तथा विधान सभा के चुनावों के समय इसके गाँवों में विभिन्न राजनैतिक दलों की गतिविधियाँ बढ़ जाती है। लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया के कारण अब इस जनजाति के परंपरागत शक्ति संरचना में प्रदत स्थिति की अपेक्षा अर्जित स्थिति की महत्ता बढ़ी है, किन्तु मतदान के अवसर पर इस जनजाति के परंपरागत पंचायती संगठनों का महत्व आज भी बरकरार है, क्योंकि चुनावों में किसी जनजातीय समूह का निर्णय काफी महत्वपूर्ण होता है। अत: राजनितिक दृष्टि से इस जनजाति की परंपरागत पंचायतें जनजाति के आधार पर आधार पर संगठित होने के कारण आधुनिक परिप्रेक्ष्य में भी राजनैतिक शक्ति का प्रमुख  स्रोत बनी हुई हैं।

आर्थिक जीवन

सौरिया पहाड़िया जनजाति की अर्थ व्यवस्था कृषि तथा वनों पर आश्रित है। यह जनजाति पहाड़ियों पर जंगलों को काटकर कुरवा खेती (स्थानांतरित खेती) करती है। मकई, बाजरा, घंघरा (बरबटी), अरहर, सुतनी इत्यादि कुरवा खेती की प्रमुख फसलें हैं। यह खेती पूर्णरूप से मौनसून पर निर्भर करती है। अनावृष्टि की दशा में इन्हें अकाल का सामना करना पड़ता है। प्राय: दो – तीन वर्षों तक लगातार एक प्लाट में कुरवा खेती करने के बाद, दुसरे प्लाट में कुरवा खेती की जाती है। लगातार एक ही प्लाट में दो – तीन वर्षों तक खेती किए जाने के कारण उस प्लाट की उर्वरा शक्ति घट जाती है, जिसे चार – पांच वर्षों तक परती छोड़ दिया जाता है ताकि उसमें उर्वरा शक्ति घट जाती है, जिसे चार – पांच वर्षों तक परती छोड़ दिया जाता है ताकि उसमें उर्वरा शक्ति पुन: वापस आ सके।

कुरवा खेती के लिए प्राय: फरवरी या मार्च महीने में पहाड़ी पर जंगल के एक टुकड़े का चयन कर लिया जाता है, जिसमें फैली झाड़ियों को धार्मिक कृत्य संपन्न करने के बाद काटकर सुखने के लिए छोड़ दिया जाता है। मई जून माह में मौनसून आने के पहले इन सूखी झाड़ियों को जलाकर राख कर दिया जाता है। इस राखों को पूरे खेत में फैला दिया जाता है, जो मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाने में सहायक सिद्ध होती है। जुलाई तथा अगस्त महीनों में खंता (नुकीली लकड़ी) की सहायता से सौरिया दम्पती अपने युवा बच्चों के साथ इन खेतों में छेद बनाकर मकई, ज्वार, बाजरा, घंघरा इत्यादि के बीज बो देते हैं। जब नन्हें पौधे उग जाते हैं तो इन खेतों में जंगली जानवरों से बचाव के लिए झोपड़ी बनायी जाती है तथा दिन – रात वहीँ रहकर रखवाली का कार्य किया जाता है। इन दिनों गाँव के अधिकांश कृषक कुरवा खेतों में ही रहने चले जाते है। दिसंबर में जब फसल तैयार हो जाती है, तो खेतों में खेत के भूतों को बलि देकर चले जाते हैं। दिसंबर में बज प्रारंभ की जाती है। 1922- 35 की संशोधित भूमि बंदोबस्ती के समय पाकुड़, राजमहल अता गोड्डा पहाड़ियों के क्रमश: 10,862:54,194 तथा 35,089 एकड़ भूमि कुरवा क्षेत्र के रूप में सीमांकित की गयी थी। मोहन (1959:131) ने अपने अध्ययन में कोरवा खेतों में प्रति बीघा 2.19 मन उपज आकलित किया था। कुरवा खेती के लिए बीज अता कृषि श्रमिकों को मजदूरी देने के लिए आवश्यक धन सौरिया कृषक स्थानीय महाजनों से कर्ज के रूप में प्राप्त करते हैं। कर्ज तथा सूद की अदायगी के लिए उन्हें अपने उपज का अधिकांश हिस्सा महाजनों के हाथ कम कीमत पर बेचना पड़ता है। पूँजी के अभाव में सौरिया पहाड़िया ग्राम सभा के अंतर्गत जमा राशि नहीं प्राप्त हो पाती है। परिणामस्वरूप इन्हें बेच देना पड़ता है। पहाड़ की तलहटी के समतल भू – भाग में कुछ सौरिया पहाड़िया अब धान की खेती करने लगे हैं। बाड़ी भूमि में भी कुछ सौरिया पहाड़िया मकई, बाजरा, घंघरा (बरबटी), अरहर, सरसों सुरगुजा इत्यादी की खेती करते हैं। सौरिया पहाड़िया जनजाति वनों से बानसम जलावन, की लकड़ियाँ, लट्ठा तथा अन्य लघु वन पदार्थ, जैसे इमली, आम, जामुन, बेर, पियार, कटहल, शरीफा के फल, महुआ फूलम सेमल के रूई, कंद - मूल इत्यादि संकलित कर स्थानीय हाटों में बेचकर अर्थोपार्जन करती है, जहाँ व्यापारियों तथा बिचौलियों द्वारा आज भी वे लोग कम कीमत पर इन लघु वन पदार्थों को बेचने के लिए विवश हैं।

भीषण गरीबी, कुपोषण, अशुद्ध जल, पारिस्थितिकी तथा मद्यपान के कारण सौरिया पहाड़िया जनजाति के बीच स्वास्थय संबंधी गंभीर समस्या व्याप्त है। इस जनजाति में यक्ष्मा कुष्ठ, चर्मरोग, मलेरिया, कालाजार, घेघा इत्यादि रोगों का प्रकोप देखने को मिलत है।

यह जनजाति जंगलों में भालू, खरगोश, जंगली बकरा, साही, जंगली मुर्गियां इत्यादि का शिकार भी करती है।

यह जनजाति बकरी, मुर्गी, सुअर, गाय बैल, भैंस इत्यादि भी पाला करती है, जिनके विक्रय से इन्हें आय प्राप्त होती है। आजकल यह जनजाति गाय का दूध भी बेचने लगी है। कुछ सौरिया पहाड़िया सबाई की भी खेती किया करते थे। आजकल इनके बीच सबाई घास परियोजना लगभग ऐतिहासिक हो चुकी है। अब सबाई बाड़ियों में वन विभाग द्वारा फलदार वृक्ष लगाये गये हैं। 1981 की जनगणना के अनुसार सौरिया पहाड़िया जनजाति की व्यवसाय सरंचना निम्नवत पायी गयी थी।

तालिका – 3

सौरिया पहाड़िया जनजाति की व्यासायिक संरचना , 1981 (प्रतिशत में)

व्यवसाय

पुरूष

महिला

योग

कुल मुख्य कामगार

60.28

23.63

42.15

1. कृषक

45.85

12.37

29.28

2. कृषि श्रमिक

6.34

5.95

6.15

3. पशुपालन, वानिकी, मत्स्य, शिकार, पौधा – रोपण, बाग तथा अन्य

4.18

2.27

3.48

4. खनिज एवं खदान

0.07

0.01

0.04

5. गृह उद्योग

0.42

0.20

0.31

6. गृह उद्योग के अलावे उत्पादन

0.71

0.48

0.59

7. निर्माण

0.01

0.01

0.01

8. व्यापार, एवं वाणिज्य

1.92

1.63

1.77

9. यातायात, संग्रहण एवं संचार

0.03

-

0.01

10. अन्य सेवाएँ

0.73

0.21

0.47

11. सीमांत कामगार

3.30

30.07

16.55

12. अकार्यशील जनसंख्या

36.43

46.30

41.31

 

तालिका – 3 इंगित करता है कि 1981 की जनगणना के दौरान सौरिया पहाड़िया जनजाति की 42.15 प्रतिशत जनसंख्या कार्यशील थी। इसकी 29.28 प्रतिशत जनसंख्या कृषक के रूप तथा 6.15 प्रतिशत जनसंख्या कृषि श्रमिक के रूप में कृषि कार्यो में संलग्न थी। जहाँ तक सौरिया पहाड़िया महिलाओं का प्रश्न है, इनकी मात्र 23.63 प्रतिशत आबादी हि कार्यशील थी। सीमांत कामगारों के रूप में इनकी 30.07 प्रतिशत आबादी कार्यरत थी। कृषि के अलावे अन्य क्षेत्रों में सौरिया पहाड़िया जनजाति की बहुत ही सीमित जनसंख्या संलग्न है। राय (1974 : 32) द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार सौरिया पहाड़िया जनजाति का प्रति व्यक्ति धान, मकई तथा कुल अन्न उत्पादन क्रमश: 37.33 कि.ग्रा. कि. ग्रा. तथा 72 कि. ग्राम थी। इनकी आमदनी का लगभग 80 प्रतिशत से अधिक हिस्सा भोजन पर व्यय हो जाता है। अय के शेष हिस्से को वे शिक्षा, दवा, मादक द्रव, पोशाक मकान मरम्मती, रोशनी, यातायात इत्यादि मद में खर्च किया करते हैं।

बिहार शिड्यूल एरिया रेगुलेशन, 1969 तथा संथाल परगना टेनेंसी एक्ट (पूरक अधिनियम) 1947 इस जनजाति के बीच भूमि हस्तांतरण की समस्या को रोकने में मददगार साबित हुए हैं। साहूकारी अधिनियम, 1974 के कार्यान्वयन से भी अनुचित साहुकारी कार्य बाधित हुए हैं। वन विकास निगम, आदिवासी सहाकरी विकास निगम, जनजातीय उप – योजना, ट्राईसम मनरेगा इत्यादि के रोजगारोन्मुखी कार्यक्रमों के क्रियान्वयन से इनकी आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाने का प्रयास किया जा रहा है। इनके गाँवों में पहाड़िया ग्रामसभा की स्थापना कर इनके सामाजिक – आर्थिक विकास के लिए सामुदायिक आधार पर कार्य किए जा रहे हैं। इंदिरा तथा बिरसा आवास की निर्माण कर इनकी आवासीय समस्याओं के निदान के प्रयास जारी हैं इनकी स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के निराकरण के लिए झारखण्ड सरकार के कल्याण विभाग द्वारा आयुर्वेदिक औषधालय चलाये जा रहे हैं। इन जनजाति के चतुर्दिक विकास के लिए राज्य सरकार द्वारा विशिष्ट पहाड़िया पदाधिकारी की नियुक्ति की गई है। फिर भी इस जनजाति के बीच सामाजिक – आर्थिक विकास की गति धीमी है, जिसे त्वरित किए जाने की आवश्यकता है। समयबद्ध विकास की नीतियाँ निर्धारित कर इन्हें शीघ्र राष्ट्र की मुख्य धारा में समाविष्ट किया जाना चाहिए।

स्त्रोत: कल्याण विभाग, झारखण्ड सरकार

 

अंतिम बार संशोधित : 3/1/2020



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